(Who is Intellectual and Cultural Criminal?)
आज
मैं एक नए विषय पर विमर्श शुरू कर रहा हूँ – बौद्धिक अपराधी कौन है और सांस्कृतिक
अपराधी कौन है? यह स्पष्ट है कि जो अपराध करता है,
वही अपराधी होता है| तो सबसे पहले यह समझा जाय कि अपराध क्या है? अपराध कितने तरह
के होते हैं? बौद्धिक अपराध क्या है और सांस्कृतिक अपराध क्या है? एक अपराध (crime)
एक अपकृत्य (Tort) से अलग कैसे है? इसी क्रम में आगे यह भी देखना है कि बौद्धिक
एवं सांस्कृतिक अपराधी कौन है? इस विमर्श में यह भी शामिल होना चाहिए कि अपराध के
ये दोनों प्रकार अपराध के सामान्य अवधारणा से अब तक बाहर क्यों रहे? अभी तक यह
सामान्य अपराधों के कारको के रूप में बौद्धिक एवं सांस्कृतिक पृष्ठभूमि तक ही सीमित
रही है| अर्थात वर्तमान प्रचलित अवधारणाओं के अपराध के कारको की पृष्ठभूमियों में इन
अपराधियों के अन्य कारकों की तरह बौद्धिक एवं सांस्कृतिक पृष्ठभूमियों तक ही इस अध्ययन
को सीमित रखा जाता रहा है|
इस
बौद्धिक एवं सांस्कृतिक अपराध एवं अपराधी के इस गहन, गंभीर, व्यापक प्रभाव वाले
महत्वपूर्ण पक्ष को गौण रखा गया है| यह विषय अब तक इसलिए गौण रहा, क्योंकि समाज के
तथाकथित बुद्धिजीवी ही इन अपराधों के दोषी हैं, यानि यही बौद्धिक व्यक्ति या समूह
ही अपराधी है| या अन्य किसी कारणवश इस महत्वपूर्ण विषय पर ध्यान ही नहीं गया|
पहले
हम अपराध की अवधारणा, यानि सम्यक परिभाषा को समझते हैं| इस सम्बन्ध में हम विभिन्न
विद्वानों और संस्थाओं के द्वारा दिए गए अवधारणाओं को समझते हैं| इसे साधारण
शब्दों में एवं सहज भावार्थ में स्पष्ट किया जाना चाहिए| मेरे अनुसार,
”किसी
व्यक्ति,या समाज, या संगठन, या संस्था द्वारा
किया
गया कोई क्रिया (सकारात्मक, या नकारात्मक, या निष्क्रिय)
यदि
किसी व्यक्ति, समाज या मानवता के कल्याण एवं विकास को
अहित
पहुचाता है,या बाधित करता है, या
अहित
की यथास्थितिवाद को बनाये रखता है
तो
यह अपराध है|”
यह
बहुत व्यापक, परन्तु बड़ा ही स्पष्ट अवधारणा है| इस अवधारणा में किसी के द्वारा कोई
कार्य नहीं करने (नकारत्मक कार्य) या चुपचाप देखते रहने (निष्क्रिय कार्य) से भी यदि
सर्व समाज को नुकसान होता है, तो भी यह अपराध के श्रेणी के प्रकार में आएगा|
सामान्यत:
अपराध की यह परिभाषा है कि कोई भी कार्य यानि कृत्य जो किसी नियमो या संहिताओं के
विरोध में हो, यानि उल्लंघन करती हो,
अपराध है और नियमानुसार यह अपराध की श्रेणी में आता है| यदि इन नियमों या संहिताओं
को व्यापक रूप में देंखे तो इसमें संविधान (Constitution),
अध्यादेश (Ordinance),
अधिनियम (Act),
नियमावली (Rule),
संकल्प (Resolution),
अधिसूचना (Notification),
आदेश (Order),
परिपत्र (Circular), न्यायिक
आदेश (Judicial Order) आदि
शामिल हो जाते हैं| संविधान संविधान सभा द्वारा, अधिनियम एवं नियमावली विधायिका
द्वारा, न्यायिक आदेश न्यायपालिका द्वारा, एवं अध्यादेश, संकल्प, अधिसूचना, आदेश
एवं परिपत्र कार्यपालिका द्वारा निर्गत यानि जारी किये जाते हैं| इन सभी का
व्यवहारिक प्रभाव नियमों एवं संहिताओं का ही होता है| एक तरह के नियमों के संकलन
को संहिता (Code)
कहते है, जैसे भारतीय दंड संहिता (IPC- Indian Penal
Code), आदि| अपकृत्य की अवधारणा को आगे स्पष्ट किया गया है|
इन
विधानों की आवश्यकता व्यक्ति, समाज एवं मानवता के कल्याण एवं विकास के लिए व्यवस्था
(Order/ System) एवं ‘व्यवस्था के सञ्चालन’ (Administration) के नियमन के लिए किया
जाता है| इन नियमनों का उल्लंघन, या इसे बाधित किया जाना सामान्यत: अपराध माना
जाता है| जो नियमन अप्रत्यक्ष रहता है, उसे सामान्यत: अपराध नहीं माना जाता है|
स्पष्ट है कि सभी नियमन सुपष्ट अभिव्यक्त रहता है| यहाँ मेरे कहने का अर्थ यह है
कि जो नियमन प्रत्यक्ष अभिव्यक्त नहीं होते हुए भी यदि किसी व्यक्ति, समाज, या
मानवता के कल्याण एवं विकास की व्यवस्था एवं सञ्चालन को बाधित करता है, या
यथास्थितिवाद (प्रगति को रोके रख रहा है) को बनाये रखता है, तो भी इस कृत्य को
अपराध माना जाना चाहिए| मैं यह कहना चाहता हूँ कि यदि इन प्रगति यानि विकास के उद्देश्यों
को बाधित करने की क्रिया को रोकने के लिए नियमन नहीं किये गए है और इसीलिए ऐसे विधान या विधानों के
उल्लंघन का प्रश्न भी नहीं उठता है, तो भी इसे अपराध माना जाना होना चाहिए,
क्योंकि यह उल्लंघन प्राकृतिक न्याय के विरुद्ध है| इस तरह ऐसा अपराध एक गंभीर,
गहन एवं व्यापक प्रभाव का है और इस पर वैश्विक जगत का ध्यान अभी भी नहीं गया है| इस
अपराध को रोकने के लिए आवश्यक विधान का नहीं होना भी एक गहरा एवं खतरनाक बौद्धिक
षड्यंत्र है और इसीलिए यह भी एक बौद्धिक अपराध है|
अपराध
को किसी ख़ास दुष्टता की मंशा या नीयत से किया गया ऐसे कृत्य को कहते हैं, जिससे व्यक्ति,
समाज या मानवता को नुकसान पहुंचता है, या इनके लिए खतरनाक हो और ऐसा कृत्य जो नियमों
के रूप में विशिष्ट रूप से परिभाषित हो, प्रतिबंधित हो एवं दंडनीय हो| अपराध का
सन्दर्भ सामाजिक हित के विरुद्ध के अलावे स्थापित नियमो यानि विधानों का उल्लंघन करने
के साथ साथ अपराधी की मंशा यानि नीयत का उद्देश्य गलत होना प्रमुख माना जाता है| इस
तरह एक अपराध स्थापित नियमों के विरुद्ध किया गया कार्य है जो राज्य या अधिकृत
अन्य द्वारा दंडनीय हो| लेकिन बौद्धिक एवं सांस्कृतिक अपराधो को तो अभी तक अपराध
की श्रेणी में लिया ही नहीं गया और इसीलिए यह विचारणीय भी नहीं है तथा दंडनीय भी
नहीं है|
कुछ
व्यक्ति या समूह समुदाय के बहुमत से यह निर्धारित करते हैं कि कौन सा कृत्य अपराध
की श्रेणी में आएगा और कौन सा इसके दायरे से बाहर रहेगा? यह पद्धति वैसे समुदाय के लिए ठीक हो सकता है
जिस समुदाय में तर्कशील, विश्लेषण क्षमता युक्त उच्च बौद्धिक स्तर के लोगों की
बहुलता हो| लेकिन जिस समुदाय या कौम में बौद्धिकता के स्तर पर कुछ ही लोग उपलब्ध
हो और उनमे भी प्राकृतिक न्याय के प्रति सम्मान नहीं हो, वैसे समुदाय से समुचित
न्याय की आशा नहीं ही किया जाना चाहिए| ऐसे जागरूकता विहीन समाज में यह पद्धति उपयुक्त
नहीं हो सकता| यह वैसे भी समाज में उपयुक्त नहीं हो सकता, जिसमे तथाकथित बौद्धिक
लोग या समुदाय ही असमानतावादी एवं शोषक तंत्रों के संस्थापक, संरक्षक, व्यवस्थापक हों
एवं इस व्यवस्था के लाभार्थी हों|
ब्रिटेन
के प्रसिद्ध न्यायविद सर विलियम ब्लैकस्टोन भी कहते हैं कि
समूचे
समुदाय के प्रति कर्तव्य और समूचे समुदाय के अधिकार का
उल्लंघन
करना ही अपराध है|
यह
ध्यान देने की बात है कि इन्होंने सम्पूर्ण समुदाय यानि सम्पूर्ण मानवता के
सामूहिक हित के सन्दर्भ में बात रखी है| इनके अनुसार सम्पूर्ण समुदाय के प्रति जो
कर्तव्य होने चाहिए और जो सम्पूर्ण समुदाय के अधिकार होने चाहिए, उनका समुचित
ध्यान नहीं रखा जाना ही अपराध है| स्पष्ट है कि न्याय, समानता, स्वतंत्रता, एवं
बंधुत्व को सुनिश्चित नहीं किया जाना भी एक अपराध है| इस तरह अपराध को सार्वजानिक
क्षति को विषय माना जाता है| ब्रिटिश व्यवस्था में उसी नुकसानदेह कृत्य को
अपराध मानता है, जो दुर्भावना से, स्वेच्छा से, एवं धूर्ततापूर्वक किया गया, या कराया
गया, या करने दिया गया, या होने दिया गया है| यह परिभाषा व्यापक है और इस तरह
इस परिभाषा में बौद्धिक एवं सांस्कृतिक अपराध शामिल हो जाता है| हर एक अपराध का
तथा हर एक अपराधी का अध्ययन किया जाना चाहिए, ताकि हर अपराध एवं अपराधी की
प्रवृति, उद्देश्य, प्रभाव एवं उसके सामाजिक प्रतिफल को जाना जा सके| इसके बिना
किसी भी समाज को सभ्य, विकसित, कल्याणकारी, प्रगतिशील एवं मानवतावादी नहीं बनाया
जा सकता| इसके बिना शान्ति, स्थिरता, प्रसन्नता, खुशहाली एवं समृद्धि स्थापित नहीं
हो सकती| भारत के पिछड़ेपन का मुख्य कारण यही यह है कि इन अपराधों को कभी भी अध्ययन
का विषय वस्तु बनाया ही नहीं गया|
संयुक्त
राष्ट्र संघ (UNODC
– The United Nation Office on Drugs and Crime)
ने भी केवल समाज विरोधी कार्यों को ही अपराध स्वीकार किया है| संयुक्त
राष्ट्र संघ का यह शाखा, जो वियना में कार्यरत है, ड्रग्स, अपराध नियंत्रण एवं
अपराधिक न्याय को ही देखता है| हमें यह पता नहीं है कि इसने बौद्धिक एवं
सांस्कृतिक अपराध के बार्रे में अभी तक सोचा भी है, या नहीं| लेकिन अब यह बात उस
फोरम तक जाना चाहिए, ताकि इस गंभीर, गहन, महत्वपूर्ण, व्यापक एवं प्रभावशाली विषय
पर गहन विमर्श शुरू हो सके|
सामान्यत:
अपराध के कई श्रेणी हैं, जिसमें
व्यक्ति
के विरुद्ध अपराध (हत्या, आघात, बलात्कार,डकैती आदि),
संपत्ति
के विरुद्ध अपराध (चोरी, लूट, आगजनी आदि),
घृणात्मक
अपराध (लिंग, जाति, प्रजाति, धर्म, अपंगता,
नस्लता आदि के सम्बंधित पूर्वाग्रह),
नैतिकता
के विरुद्ध अपराध (वेश्यावृति, अवैध जुआ खेलना, अवैध ड्रग्स
व्यापार आदि),
श्वेत
कौलर अपराध (कर का अपवंचना, गबन करना, रिश्वतखोरी,
अनाधिकृत व्यापार आदि), एवं संगठित अपराध (माफिया गतिविधियाँ आदि)
तक
सीमित रहा जाता है|
परन्तु
बौद्धिक एवं सांस्कृतिक अपराध की चर्चा नहीं होती| इन दोनों अपराध का
प्रभाव लम्बे समय तक, या यों कहें कि यह सदियों तक रहता है| यह भी एक संगठित अपराध
ही है| और इसी कारण इसमें शामिल लोगों
को गिरोह भी कहा जाता है| इस अपराध को संभव बनाना किसी अकेले व्यक्ति के लिए सदैव संभव
नहीं है, अपितु यह कुछ खास विचारधारा या खास उद्देश्य की पूर्ति के लिए समर्पित लोगों
के समुदाय से संगठित, संरक्षित, एवं समर्थित होता है| एक व्यक्ति या कुछ लोगो के
समूह द्वारा भी यह अपराध को सफलतापूर्वक किया जाना सांभव हो सकता है| इस स्थिति का
एकमात्र शर्त यह है कि समुदाय या समाज के शेष लोग, यानि बहुसंख्यक लोग अशिक्षित,
नादान और मूर्खहों | कृपया, डिग्रीधारी या पदधारी व्यक्ति मात्र अपने डिग्री या
अपने पद के कारण अपने को शिक्षित एवं जागरूक नहीं समझें| यदि वे तार्किक नहीं
है, उनमे विश्लेषण क्षमता नहीं है और व्यापक मानवता के कल्याण की समझ नहीं है, तो
वे धूर्तों के जाल एवं झोल में आसानी से आ जाते हैं| इन अपराधियों का उद्देश्य
अक्सर या अधिकांशत: या सदैव ही समाज एवं मानवता के सामूहिक हित के विरुद्ध होता है|
यदि इनके कृत्य या हित समाज के विरुद्ध नहीं होता, तो ये अपराध की श्रेणी में आता ही
नहीं| समाज का सामूहिक हित क्या हो सकता है? समाज का कल्याण; समाज का विकास; समाज की
प्रगति; समाज में सुख, शान्ति, संतुष्टि एवं समृद्धि की स्थापना ही समाज का व्यापक
हित है| यह सदैव न्याय, समानता, स्वतंत्रता, एवं बंधुत्व की स्थापना के द्वारा ही आता
है|
यदि
हम बौद्धिकता को परिभाषित करते हैं तो हम पाते है कि, एक बौद्धिक व्यक्ति में सामान्य
ज्ञान, भावनात्मक समझ, सामाजिक कल्याण की पहचान, तार्किकता, विश्लेषण की क्षमता,
और वैज्ञानिक सोच होनी चाहिए| ऐसे लोग यदि अपने निजी स्वार्थ के लिए सभी बातों
को जानते एवं समझते हुए भी इस बौद्धिकता के विरोध में कार्य करते हैं, तो ऐसे
लोगों को धूर्त कहा जाता है| ऐसे धूर्त लोग नादान लोगों को मूर्ख बनाते है
और समाज का बड़ा अहित करते हैं| चूँकि ये समाज के व्यापक हित को नुकसान पहुंचाते
हैं, या इस नुकसान में जानते हुए भी सहभागी बनते हैं, इसलिए ही ऐसे लोगों को मैं
बौद्धिक अपराधी की श्रेणी में रखता हूँ| इन्हीं के द्वारा गलत मंशा से किया अपराध
बौद्धिक अपराध है|
सांस्कृतिक
अपराध को समझने से पहले हमें संस्कृति को भी समझ लेना चाहिए| ‘संस्कृति’ जीवन जीने
की एक सामान्य विधि है| यह एक सम्पूर्ण मानसिक निधि है, जो व्यव्क्ति एवं समाज के
भावनाओं, विचारों एवं व्यवहारों को नियमित, संचालित, प्रभावित एवं नियंत्रित करता
रहता है| यह अदृश्य रह कर भी पुरे सामाजिक तंत्र एवं व्यवस्था को ही नियमित,
संचालित, प्रभावित एवं नियंत्रित करता रहता है, और इस तरह यह संस्कृति इस सामाजिक
तंत्र के लिए एक साफ्टवेयर की तरह कार्य करता है, और इस अर्थ में सबसे महत्वपूर्ण
है| इस महत्वपूर्ण संस्कृति का निर्माण या संशोधन उस समाज के इतिहास बोध से आता है|
“इसलिए सांस्कृतिक परिवर्तन के लिए लोगों के इतिहास बोध को बदलना पड़ता है|”
इसीलिए
इस सकारात्मक बदलाव के लिए बौद्धिक षड्यंत्र की आवश्यकता नहीं होती है, लेकिन यदि
नकारात्मक बदलाव या नकारात्मक यथास्थिति को बनाये रखने के लिए बौद्धिक षड्यंत्र की
अनिवार्यता हो ही जाती है| यही कालान्तर में ‘सांस्कृतिक षड्यंत’ साबित होती है| सामंत
काल में संस्कृति को बदलने की आवश्यकता विश्व व्यापी थी| भारत सहित पुरे विश्व में
संस्कृति को बदलने का मुहीम चला| भारत की सांस्कृतिक विरासत बहुत पुरानी थी और
इसीलिए सामंत काल में इतिहास बोध को बदलने के लिए ही पुराने संस्कृति के साहित्यिक
एवं पुरातात्विक साक्ष्यों को नष्ट कर दिया गया| कई क्षेत्रो में ऐतिहासिक समाज
सुधारको के प्रयास को और उस उपलब्ध साहित्य को नए ढंग से व्याख्यापित कर एवं
संस्कारित कर तथाकथित धर्म का स्वरुप दिया गया, जिसमे पश्चिमी सभ्यताएं प्रमुख हैं|
भारत
में भी ऐसा किया गया| यहाँ भी पुरानी संस्कृति को विरूपित कर असमनातावादी समाज की
स्थापना किया गया| प्रचलित संस्कृति को नष्ट करने के
लिए लगभग सभी शिक्षण संस्थान, शोध संस्थान एवं पुस्तकालय, वाचनालय आदि नष्ट कर दिए
गए| कई शब्दों के अर्थ एवं भावार्थ बदले गए, नए सन्दर्भ लाये गए, कल्पनाओं पर नए
साहित्य रचे गए, नई परम्पराओं को बनाया गया, कई ढोंग एवं पाखंड भी स्थापित किए गए,
सामान्य लोगो को शिक्षा से वंचित कर दिया गया, अंधविश्वास फैलाया गया, सारे
सामाजिक एवं राजकीय नियमों को सामंतवाद के पक्ष में बदला गया| ये सब सामंतवादी
हितो के अनुरूप किया गया, जिसमे एक बहुत छोटा समूह लाभार्थी था| इसे धार्मिक आवरण
दिया गया| ऐसा करके बहुसंख्यक जनता पर कई निर्योग्यताएं (मनाहियां, Disabilities) थोपी गयी| पेशाओं
(Professions) को योग्यता के आधार पर
नहीं कर वंशानुगत बनाया गया| नए कौशल सिखने की प्रेरणा समाप्त कर दी गयी|
यह
सब विश्व व्यापी स्तर पर घटित हुआ, लेकिन स्वरुप अलग अलग था| विश्व के शेष हिस्सों
में बाद में आन्दोलन चला कर संस्कृति की बुराइयों को दूर कर दिया गया, परन्तु जहाँ
धार्मिकता की आड़ में सांस्कृतिक शुद्धिकरण को मना कर दिया गया, वह समाज आज भी
विकसित कहलाने को प्रयासरत है| भारत भी इसका एक उदहारण है| यही समाज के व्यापक हित
के विरुद्ध एवं कुछ नगण्य आबादी के पक्ष में किया सफल षडयत्र ही सांस्कृतिक अपराध है|
ऐसा
अपराध क्यों होता है? अर्थात ऐसे अपराध का मनोविज्ञान क्या है? इस सन्दर्भ
में कुछ प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिको की राय जानते हैं| आधुनिक मनोविज्ञान में अपराध को
मनुष्य की मानसिक उलझनों का परिणाम माना है| जब मनुष्य के मन में हीनता की भावना
होती है, तो हीनता की ग्रंथियाँ सक्रिय हो जाती है, तो वह स्वयं को दुसरे व्यक्तियों
या समूहों से श्रेष्ठ, सर्वोच्च, विशिष्ट, अलग, एवं ऐतिहासिक सिद्ध करने का अपराध
करता है| हीनता की भावना एक मनुष्य में कब आती है? जब कोई मनुष्य योग्य नहीं होता
है और उसे समाज में योग्य दिखना या मनवाना होता है, तो उसमे हीनता की भावना उत्पन्न
होता है| इसका एक व्यावहारिक उपाय या समाधान पेशा को ही वंशानुगत बना देना होता है,
जो प्रथा भारत में आज भी प्रचलित है|
मैं
यहाँ कई मनोवैज्ञानिको को उद्धृत नहीं करते हुए एकमात्र प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक डॉ
अल्फ्रेड एडलर को ही उद्धृत करना चाहता हूँ| अपराध और हीनता के सबंध का
सिद्धांत प्रो एडलर का ही है जिसे आप भी देख सकते हैं|
वे
मन में हीनता की भावना को ही अपराध का कारण मानते हैं|
यह
स्थिति तब आती है,
जब
कोई मनुष्य वास्तव में श्रेष्ठ, सर्वोच्च, अलग तथा विशिष्ट नहीं है
और
इसे पाने की वास्तविक क्षमता भी नहीं है,
तो
वह इसे अपराधिक तरीके से पाता है, या पाने का प्रयास करता है|
हीनता
की भावना, यानि ग्रंथि (भावना के स्थायित्व को ग्रंथि कहा गया है) जिस मनुष्य के अचेतन,
अवचेतन एवं चेतन में मौजूद रहता है, वह सदैव मानसिक असंतोष की स्थिति में रहता है|
तब वह ऐसी कार्य योजना बनाते हैं, जो प्राकृतिक न्याय एवं समाज तथा राज्य के विधान
के विरुद्ध हो जाता है| ऐसी ही कार्य योजना को षड्यंत्र कहते हैं और इसके
कार्यान्वयन को अपराध कहते हैं| ऐसा करके वह मनुष्य या समूह सामाजिक मान्यता,
सराहना, प्रशंसा और बहुत कुछ इससे जुड़े अन्य लाभ ही पाता है| ऐसे अपराधी के मन-
मष्तिष्क में सदैव यह चलता रहता है कि उसे समाज में कैसे विशिष्ट, भिन्न, स्तरीय,
श्रेष्ठ, खानदानी अर्थात ऐतिहासिक, उच्च या सर्वोच्च, ज्ञानी आदि माना जाय? वह इन
सबका सामाजिक मान्यता चाहता है| इसे पाने के लिए वह जो कृत्य करता है और उसके मन
में जो चलता रहता है, वही अपराध है| ऐसे लोग अपने को हमेशा चर्चा में भी रखना
चाहता है| इसको पाने के लिए बड़ी बड़ी बातें करना, काल्पनिक साहित्यों की रचना करना,
ढोंग एवं पाखण्ड करना, और अंधविश्वास फैलाना आदि कई कई तिगडम करते हैं| ऐसे लक्ष्य
को पाना ही बौद्धिक एवं सांस्कृतिक अपराध है| ये लोग सर्व समाज के व्यापक हितों
को नुकसान पहुंचाते है और इसीलिए अपराधी हैं|
अपराध
की एक अलग स्थिति भी होती है| कुछ बालक कुशाग्र बुद्धि के होते हैं, परन्तु उनका बाल्यकाल
सामान्य ढंग से नहीं बितता है तो वे भी कुशाग्र बुद्धि के अपराधी हो जाते हैं| ऐसे
अपराधी अपनी बुद्धिमता का प्रयोग अपने अपराध को न्यायोचित ठहराने के लिए करते हैं|
जब तक इसका उद्देश्य व्यक्तिगत लाभ तक सीमित है, तब तक यह बौद्धिक अपराध का उदहारण
है| परन्तु यही बौद्धिक अपराध यदि सर्व व्यापकसामाजिक हितों के विरुद्ध हो जाता है
और इसका प्रभाव व्यापक करने के लिए संगठित एवं व्यवस्थित होता है तो यह सांस्कृतिक
अपराध में बदलने लगता है|
समाज
का अहित करने वाले कृत्यों को मैं बौद्धिक एवं सांस्कृतिक षड्यंत्र होने के कारण
ही बौद्धिक एवं सांस्कृतिक अपराध (Crime) मानता हूँ| मैं इस बौद्धिक एवं
सांस्कृतिक अपराध (Crime)
को अपकृत्य (Tort) नहीं
मानता| अत: अपराध और अपकृत्य की अवधारणा को समझा जाय
एवं दोनों में अंतर को भी| ऊपर अपराध को समझ चुके हैं, और अब अपकृत्य को समझा जाय|
विधि के क्षेत्र में, ऐसे दोषपूर्ण कार्य को अपकृत्य या अपकृति (Tort) कहते हैं ,जो संविदा (Contract)
के उल्लंघन से सम्बंधित नहीं हो और अपराध (Crime)
की श्रेणी में भी नहीं आता हो| अपकृति
विधानों में ऐसे अपकार या क्षति के अर्थ में होता है, जिसका प्रतिकार (Compensation)
मुख्यत: क्षतिपूर्ति द्वारा संभव हो तथा कारावास भेजने की आवश्यकता भी नहीं हो|
मूलत: इसका अर्थ सीधे एवं सरल मार्ग का अतिक्रमण है| इसमें किसी अन्य अधिकार का
अतिक्रमण अथवा किसी अन्य व्यक्ति के प्रति कर्तव्य का उल्लंघन है| मिथ्या कारावास,
अनाधिकार प्रवेश, मानहानि, धोखा, सार्वजानिक बाधा, आदि अपकृत्य के सामान्य उदहारण है|
अपकृति क्षति या कर्तव्य का उल्लंघन है, जिसका सम्बन्ध व्यक्ति से होता है, जबकि
अपराध सामाजिक लोक कर्तव्य से सम्बंधित होता है| अपकृति में व्यक्ति उपकारों का
क्षतिपूर्ति का अधिकारी होता है, जबकि अपराध में अपराधी को समाज या राज्य दंड देता
है| अपकृत्य का मामला व्यवहार न्यायालय देखता है, जबकि अपराधिक मामले को दंड न्यायालय
देखता है| स्पष्ट है कि बौद्धिक एवं सांस्कृतिक षड़यंत्र के कृत्य अपराध है,
अपकृत्य नहीं है|,
मैं
भी एक भारतीय हूँ और इसीलिए इसमें भारतीय सन्दर्भ को भी शामिल करना आवश्यक है| हिन्दू
संस्कृति में तत्कालीन सामन्ती समाज एवं राज्य के विधानों को धार्मिक आवरण दे दिया
गया है| यह सब सामंत काल में यानि नौवी शताब्दी के बाद होना शुरू हुआ| इस संस्कृति
के पूर्व का कोई पुरातात्विक साक्ष्य उपलब्ध नहीं है, इसके साहित्यिक साक्ष्य जो
उपलब्ध भी हैं, वे दसवी शताब्दी के बाद के ही हैं| यह सब सामंतवाद की आवश्यकता
थी जो आज भी अपने मूल स्वरुप में लागु है, या प्रचालन में है; ब्रिटिश शासन एवं
वर्तमान व्यवस्था में बहुत कुछ बदलाव हुए हैं और बहुत कुछ अभी भी बदलने के इन्तजार
में है| समाज एवं राज्य के विधानों को धार्मिक आवरण इसलिए दिया गया है ताकि लोग
उसका पालन एक धार्मिक कर्तव्य के रूप में रूप में करें| इस तरह यह साधारण नादान
लोगों के लिए बाध्यकारी भी है| इन धार्मिक विधानों में समाज एवं राज्य के नियमों के
द्वारा समाज के कुछ विशिष्ट समूह अपनी श्रेष्ठता, सर्वोच्चता, विशिष्टता, भिन्नता,
ऐतिहासिकता स्थापित कर लिया है| यह सब धार्मिक कर्तव्यों एवं बाध्यताओं के द्वारा पूर्णतया
संरक्षित एवं सुरक्षित भी है| ऐसे विचारकों एवं विधान निर्माताओं में मनु,
याज्ञवल्क्य, पराशर, नारद, वृहस्पति, कात्यायन, आदि प्रमुख नाम हैं| यह भी
बौद्धिक एवं सांस्कृतिक अपराध के सुस्पष्ट उदहारण हैं, जिसे धार्मिक आवरण के कारण
कोई देखना एवं समझना नहीं चाहता|
कुछ
अपराधी या अपराधी समूह अपने को आनुवंशिक कोड या बनावट के आधार पर अपराधी के श्रेणी
से बाहर होना यानि बचना भी चाहते हैं| इसका आधार वे उनकी सामान्य जनों से भिन्न
एवं विशिष्ट जीनीय संरचना बताते हैं| इन अपराधियों के अपराधिक कृत्य तो स्पष्ट
रहते हैं और इसीलिए वे अपराध की मंशा यानि नीयत को आनुवंशिक संरचना को दोष बता कर अपराधी
घोषित होने से एवं दंड से बचना चाहते हैं| यदि ऐसे किसी मानव या मानव समूह में
आनुवंशिक बनावट में वास्तव में दोष है, तो उनको असामान्य प्राणी मानते हुए अलग एवं
पृथक (कारावास या जैवकीय पार्क) व्यवस्था की जानी चाहिए, उन्हें समाज में सामान्य
रूप में रहने की स्वतंत्रता नहीं मिलनी चाहिए|
अब
आप बौद्धिक एवं सांस्कृतिक अपराध को समझ गए हैं| बौद्धिक एवं सांस्कृतिक अपराधी
कौन है, इसका निर्धारण करने के लिए आपको अपने क्षेत्र एवं अपने सन्दर्भ में प्रयास
करना होगा| इसके लिए आप भी मनन मंथन करें| सादर|
निरंजन
सिन्हा
व्यवस्था
विश्लेषक एवं चिन्तक|
बहुत ही मेहनत और शोध के साथ लिखा हुआ एक जीवंत लेख
जवाब देंहटाएंआपका लेख पढ़ा सर। बहुत ही अच्छा और ज्ञानवर्धक है। बौद्धिक एवं सांस्कृतिक अपराधी की व्याख्या आपने बहुत ही अच्छे ढंग से किए हैं। इस विषय पर जब आपकी पुस्तक प्रकाशित हो तो कृपया मेरे लिए एक सुरक्षित रखिएगा।
जवाब देंहटाएंहार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं ।
Very informative article
जवाब देंहटाएंबेहतरीन लेख सच में बौद्धिक मूर्खता नुकसान पहुंचा रही और सालों तक प्रभाव रखती है बुरा ही सही
जवाब देंहटाएंIntellectually written deeply insightful article about greenhorn areas that are rarely,if at all, articulated but nonetheless felt almost universally.Thanks for introducing us to the new domain of Intellectual and Cultural Crime.
जवाब देंहटाएंWonderful presentation of hidden agenda of so called neo intellectuals who in the guise of development , they're promoting hatred, nepotism , castism , and trying to divide people on various petty issues so that the masses remain confused and their hidden agenda is promoted without any public 's attention.
जवाब देंहटाएंYou have tried to catch the bugger who is hiding among masses.
You have caught the root of the malaise of the society .
Next is to make awareness among masses about these kind of intellectuals.
बहुत अच्छा ,सरल शब्दों में लिखा गया है , जो हर किसी को समझ मे आ जाने लायक है ।
जवाब देंहटाएंआपको बहुत बहुत शुभकामनाएं।
Article is so effective, proper and rich with proper terminology which reflect the writer's depth. It is also well informed to understand various aspect. But subject title should be dealt with better length, perspective, vividness and diversity.
जवाब देंहटाएं