आज हमलोग इतिहास और मिथक के अन्तर को समझते हुए इसकी गत्यात्मकता (Dynamism) और इसके परिणाम को समझते हैं। मिथक (Myth- पौराणिक) और इतिहास (History) – दोनों ही बड़े विवादास्पद शब्द हैं, अर्थात बड़ी ही विवादास्पद अवधारणाएँ है| मिथक और इतिहास का विकास से प्रत्यक्ष संबंध है। वर्तमान विश्व -समाज को आज यदि विकास के पैमाने पर वर्गीकृत किया जाए, तो मेरे अनुसार समाज को विकसित (Developed) और अविकसित (Undeveloped), केवल दो ही अवस्था में होना चाहिए| हाँ, कुछ देश अविकसित हैं और उनके समाज के संस्कार भी अविकसित है, परन्तु अविकसित कहलाने में उन्हें शर्म महसूस होती है। ऐसी अवस्था में आत्ममुग्धता के लिए, यानि अपनी झेंप मिटाने के लिए एक नया शब्द गढ़ लिया है, जिसे विकासशील (Developing) समाज या देश कहा जाता है|
तो क्या इस विकास का प्रत्यक्ष सम्बन्ध पौराणिकता एवं ऐतिहासिकता से
है? इसका स्पष्ट उत्तर है – हाँ| ‘मिथक’ गलत उद्देश्य को स्थापित करने या भ्रमित होकर बिना आलोचनात्मक चिंतन के ही उसे
बनाए रखने के लिए काल्पनिक कहानियाँ होता है। लेकिन इतिहास वर्तमान और भविष्य को ध्यान में रखते हुए सामाजिक - सांस्कृतिक विकास एवं रूपांतरण
का क्रमिक दस्तावेज होता है| इसी इतिहास के बोध (Perception of History) से ही विकास की अभिवृत्ति एवं संस्कार (Mentality / Outlook of Development) पैदा होते हैं| इसीलिए मैं अभी ‘पौराणिकता
एवं ऐतिहासिकता’ के सन्दर्भ में विकास की अवस्था पर विमर्श कर रहा हूँ| वैसे कुछ
समाज, वृद्धि (Growth) को भी विकास (Development) समझने की गलती कर बैठते है, हालाँकि सामान्यत:
वृद्धि विकास का ही हिस्सा होता है। परन्तु बिना वृद्धि का भी विकास होता है| इसी
वृद्धि को लेकर कुछ अविकसित देश अपने को विकासशील समझते हैं और अपने देश को एक ही
काल में ठहराए हुए रहते हैं|भारत भी इसी श्रेणी का देश है। इसे वर्तमान के प्रति, भविष्य के प्रति, समाज के
प्रति और देश के प्रति एक गंभीर अपराध माना जाना चाहिए|
‘मिथ’ (Myth) को हिन्दी में मिथक, कल्पित कथा, पुराण कथा, या पौराणिक कथा कहा जाता है जिसे अंग्रेजी भाषा के प्रचलित Illusion, Delusion, Hallucination, Fallacy और Misbelief के रूप में भी समझा जा सकता है| यह लोकप्रिय विश्वास या परम्परा है, जिसे समय काल में गढ़ा या रचा गया है| इसे दुसरे शब्दों में “इतिहास” के आवरण में कल्पित कथाएं कह सकते हैं| यानि इतिहास के नाम पर यह पुरातन काल्पनिक कथाएं होती है, जिसका कोई पुरातात्विक या प्रामाणिक आधार या साक्ष्य नहीं होता|
इसे आप यह कह सकते हैं कि इसे कुछ अज्ञानी या धूर्त लोगों द्वारा अपने असमानतावादी सामाजिक आदर्श को स्थापित करने के लिए मनगढ़ंत कथाओं के
रूप में गढ़ दिया जाता है| वैसे ‘इतिहास’ और ‘मिथक’ में कोई ज्यादा फर्क नहीं होता
है, और यह समाज के सन्दर्भ पर निर्भर करता है| आज जो इतिहास है, कल मिथक साबित हो
सकता है, जैसे कल तक महाकाव्य युग (Epic Age- महाभारत काल एवं रामायण काल) इतिहास
था (और इतिहास के किताबों में इतिहास के रूप में दर्ज था), परन्तु आज उसे इतिहास के किताबों से बाहर कर
दिया गया है। अब यह साहित्य के रूप में ही इतिहास की किताबों में है। अब ऐसी बातें मिथक की श्रेणी में आ गया है, और यह सब आज आस्था के रूप में ही मान्य
है|
जिस मिथक को समाज सही
मानता है, सामान्यत: कुछ समाज उसे ही इतिहास कहते हैं, अर्थात मिथक को ही इतिहास
माना जाता है| ऐसा पिछड़ी हुई संस्कृति एवं समाज में ही होता है| मिथक को इतिहास
मानने वाला समाज, सन्दर्भ (काल एवं देश) के
अनुसार बदलता रहता है| जब समाज छोटा होता है, और उसकी शैक्षणिक एवं सांस्कृतिक स्तर भी निम्नतर
होता है, तो मिथक आसानी से इतिहास माना जाता है। अंग्रेजो के आने से पहले भारत
में मिथक को ही इतिहास समझा जाता था, हालांकि अभी भी इस अवस्था में बहुत परिवर्तन होना बाकी है| परन्तु
जब समाज व्यापक होता है और उसकी शैक्षणिक- सांस्कृतिक स्तर भी उच्चतर होता है, तो मिथक को
इतिहास साबित होने में कठिनाई होती है। वैश्विक पश्चिमी समाज, बहुत से मिथकों को अपने इतिहास से अलग कर ही विकास के पथ पर अग्रसर हो सका है|
इतिहास क्या होता है?
इसे प्रसिद्ध इतिहासकार एडवर्ड हैलेट कार ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक – “इतिहास क्या
है” (What is History) में अच्छी तरह से बताया है| वे समझाते हैं कि इतिहास दो
तत्वों से बना होता है – पुरातात्विक साक्ष्य (Archaeological Evidences) एवं
इतिहासकार (Historian) से| पुरातात्विक साक्ष्य तो स्वयं में निरपेक्ष रहते हैं,
परन्तु इतिहासकार अपनी मानसिकता एवं परिस्थितियों से संचालित एवं नियंत्रित होकर इसकी
व्याख्या करते होते हैं| यदि शासक एवं शासित का समबन्ध शोषक एवं शोषित का होता है (खासकर
सामंती व्यवस्था में) और इतिहासकार शासक के नियंत्रण या प्रभाव में होता है तो इतिहास को
यथास्थितिवादी होना ही होता है। ऐसी स्थिति में वह इतिहास शासक यानि शोषक के पक्ष में ही होना होता है| प्रोफ़० कार
यहाँ तक कहते हैं कि इतिहास को समझने के लिए इतिहासकार की मंशा (Intention) को समझना
जरुरी है| इतिहासकार की मंशा समझने के क्या उपकरण यानि वैचारिक अवधारणायें होंगे, इसकी
आगे चर्चा करेंगे|
मिथक की आवश्यकता क्यों
होती है? जब इतिहास निष्पक्ष रूप में इतिहासकार की मंशा या शोषक वर्ग की मंशा के
अनुरूप नहीं होता है, तो इतिहास के स्थान पर सत्ता या व्यवस्था को मिथक गढ़ने की
आवश्यकता हो जाती है| और इसीलिए मिथक को इतिहास के आवरण में पेश किया जाता है| मध्य
काल के तत्कालीन विश्व (एशिया, यूरोप एवं उत्तरी तटवर्ती अफ्रीका) का पूरब या
पश्चिम या मध्यवर्ती क्षेत्र (देश), में सभी जगह इतिहास को सामंतवाद के पक्ष में मोड़ना समय की बाध्यता थी, और इसीलिए सामंतवाद की आवश्यकताओं के अनुरूप इतिहास के नाम पर मिथक बनाने की
आवश्यकता हुई| अज्ञानता यानि आलोचनात्मक चिंतन एवं विश्लेषणात्मक मूल्यांकन के अभाव भी मिथक का ही समर्थन करता हुआ होता है। पश्चिम, पूरब एवं मध्यवर्ती क्षेत्र (देश) में मिथक को इतिहास के आवरण
से आवृत (Encircle, Cover) कर दिया गया| मुझे तो यहाँ तक कहना कि, मिथक ने सिर्फ
इतिहास का ही नहीं, अपितु धर्म एवं संस्कृति का भी आवरण ओढ़ लिया है, और जन जीवन में
समाहित होकर व्याप्त हो गया|
यूरोप में पुनर्जागरण के
आन्दोलन ने इतिहास को मिथक के आवरण से मुक्त कराया और वहाँ एक विकसित समाज बनाया|
परन्तु अपने सांस्कृतिक एवं शैक्षणिक पिछड़ेपन के कारण पूरबी एवं मध्यवर्ती क्षेत्र (देश)
अपने इतिहास को मिथक के आवरण से मुक्त नहीं करा पाये है, और परिणाम यह है कि अपने
ऐतिहासिक अतीत के गौरव के बावजूद भी ये क्षेत्र अभी भी अविकसित क्षेत्र हैं; भले आप
चाहे अपने आप को तथाकथित विकासशील या कोई दूसरा आत्ममुग्धता भरा नाम दे दें|
मिथक से इतिहास को अलग करना क्यों जरुरी है? किसी भी व्यक्ति, समाज और राष्ट्र का “इतिहास बोध” (Perception of History) ही उस व्यक्ति या समाज या राष्ट्र की संस्कृति (Culture) का निर्माण करता है| किसी समाज या राष्ट्र की संस्कृति ही उस समाज या राष्ट्र की मानसिक निधि (Mental Treasure) है, जो उसके अचेतन (Un Conscious), अवचेतन (Sub Conscious), चेतन (Conscious) एवं अधिचेतन (Super Conscious) के स्तर पर विचार (Thought), व्यवहार (Behaviour), भावना एवं आदर्श (Ideal) को संचालित, नियंत्रित, निदेशित एवं निर्मित करती है| यह संस्कार यानि संस्कृति ही समाज एवं राष्ट्र के सम्पूर्ण तंत्र का सॉफ्टवेयर है, जैसे हार्डवेयर कंप्यूटर के सञ्चालन में सॉफ्टवेयर महत्वपूर्ण होता है|
यही संस्कृति उस समाज एवं राष्ट्र के संस्कार बनाते हैं जो उसकी सकारात्मकता, रचनात्मकता एवं उत्पादकता को निर्धारित करता है| यही मानसिकता (Mindset) या मानसिकता में परिवर्तन ही विकास की नीव (Foundation) है| इसीलिए मिथक को इतिहास से अलग करना जरुरी है| सिर्फ तथाकथित “आस्था” के नाम पर नकारात्मक, विध्वंसात्मक, एवं अनुत्पादक मिथक को बर्दाश्त नहीं किया जाना किया जाना चाहिए है, यानि सिर्फ आस्था के नाम पर कुछ परम्परावादी शोषकों के पक्ष में बहुसंख्यक शोषितों एवं वंचितों को यथास्थिति में रखने के बहाने, राष्ट्र को बरबाद नहीं किया जाना चाहिए| हर एक समूह की आबादी ही, किसी राष्ट्र का बहुमूल्य मानव संसाधन हैं।भारत का प्राचीन गौरव क्या है, और उसमे क्या, क्यों एवं कैसे परिवर्तन आया? यह तो इतिहास से मिथक को निकालने के बाद ही स्पष्ट होगा
पश्चिम ने क्या किया,
जिससे वहाँ पुनर्जागरण आया, फिर विकास हुआ, और काफी मजबूत होकर उभरा? उन्नीसवीं
सदी में और उसके आसपास वहाँ पाँच विचारक आये, और इनके विचारों के कारण सब कुछ बदल गया|
इन पांचो ने मिथकों पर कई दृष्टिकोणों से प्रहार किया और हर किसी चीज को देखने एवं
समझने का नजरिया बदल दिया| हर चीज को वैज्ञानिक एवं एक नया नजरिया देकर उसके
वर्त्तमान स्वरुप को निखार दिया| ये पाँच
विचारक - चार्ल्स डार्विन (Charles Darwin),
कार्ल मार्क्स (Karl Marx), सिगमंड फ्रायड (Sigmund
Freud), अल्बर्ट आइन्स्टीन (Albert Einstein),
और फर्डीनांड डी सौसुरे (Ferdinand de Saussure) हैं| यही
पाँचों विचारक ही आधुनिकता यानि वैज्ञानिकता के जनक हैं और विकास के आधार हैं|
हमें इतिहास को फिर से लिखना होगा, उसमें से मिथक को अलग करना होगा, ताकि इतिहास में वैज्ञानिकता एवं आधुनिकता आ सके| यही वैज्ञानिकता विकास को गति देगा और मानव संसाधन अपनी पूरी
संभावनाओं (Full Potential) को प्राप्त कर सकेगा|
अब हमें यह समझना है कि
इन पाँचों विचारकों ने क्या दिया और कैसे इसे प्रभावित किया? मानव समाज ‘प्रकृति’
(Nature) का अभिन्न भाग है तथा ‘प्रकृति’ सदैव बदलती रहती है और इसीलिए मानव और मानव समाज
भी सदैव बदलता रहता है| डार्विन ने ‘मानव समाज’ का ‘प्रकृति’ से संघर्ष को,
मार्क्स ने मानव समाजों के आपसी संघर्ष को और फ्रायड ने मानव के ‘आंतरिक संघर्ष’
को रेखांकित किया, तो आइंस्टीन ने आपके समय- स्थान (Time – Space) के सन्दर्भ को एवं सौसुरे ने शब्द एवं वाक्य को उसके
सम्पूर्ण सन्दर्भ (Full Context) में उसको रेखांकित किया|
डार्विन ने बताया कि सभी
जीवों का क्रमिक विकास अर्थात उद्विकास (Evolution) हुआ है और कोई भी जीव, मानव
सहित, किसी सर्वोच्च रचियता के विशिष्ट निर्माण का परिणाम नहीं है| ‘सर्वोच्च
रचियता’ के द्वारा किसी ‘व्यक्ति विशेष’ की रचना किए जाने के विचार का खण्डन हुआ अर्थात
तथाकथित ईश्वर होने का खण्डन हुआ|
इन्होंने अपनी पुस्तकों “On the Origin of Species by Means of Natural Selection”
(1859) एवं “The Descent of Man” (1871) में
उद्विकास के प्राकृतिक चयन (Natural Selection),
अनुकूलन (Adoption) एवं योग्यतम की उत्तरजीविता (Suvival of the Fittest) के
सिद्धांत दिए| इसी से यह स्थापित हुआ कि सभी जीवों का उद्विकास एक कोशिकीय प्राणी
से हुआ तथा इनके प्रजातीय भिन्नता में प्राकृतिक चयन एवं अनुकूलन की भूमिका है|
इसने आदमी के ईश्वरीय रचना की अवधारणा को ध्वस्त कर दिया| उस समय यह एक
क्रन्तिकारी अवधारणा थी, भले आज भी बहुत से समाजों में तथाकथित ईश्वर और उनकी
लीलाओं की मान्यता व्याप्त है। तय है कि ऐसे सभी समाज अभी भी अविकसित समाज एवं देश ही होंगे|यदि कोई तथाकथित इतिहास इस सिद्धांत के अनुरूप नहीं है, तो निश्चितया मिथक है, इतिहास नहीं है।
मार्क्स ने समाजो के
विकास (Development) एवं रूपांतरण (Transformation) की प्रक्रिया की वैज्ञानिक
व्याख्या किया| इनका तर्क था, कि संस्था (Institution) ही विचारो (Ideas,
Thoughts) को निरुपित करती है, अर्थात उसको आकार (Shape) देती है, और यही इतिहास को भी परिभाषित करता है| इन्होंने समाज के विकास एवं रूपांतरण को आर्थिक शक्तियों के
प्रभाव से निर्मित, संचालित, नियमित तथा नियंत्रित बताया| आर्थिक शक्तियों से इनका
तात्पर्य मानव समाज के उपभोग, उत्पादन (Production), वितरण (Distribution) एवं विनिमय
(Exchange) के साधनों और शक्तियों एवं उनके अंतर्संबंधों से है|सामाजिक सांस्कृतिक बदलाव की यानि इतिहास की व्याख्या का यही आधार ही वैज्ञानिक आधार है, अन्यथा वह मिथक है, और इतिहास के नाम पर भ्रम है। आज भी इतिहास के किसी
समाज या किसी काल खंड की वैज्ञानिक व्याख्या करने में सक्षम है| इसके पहले समाज
में पौराणिक कल्पित कथाओं का ही चलन व्याप्त था| आज भी जिस समाज ने अपने इतिहास की
वैज्ञानिक व्याख्या नहीं की है, वहाँ मिथक ही प्रचलित है, जो उस समाज की एक बड़ी आबादी
को निकम्मा बनाए हुए है|
फ्रायड ने सामाजिक विकास एवं रूपांतरण की व्याख्या में पहली बार मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण को आधार दिया| इसमें मानवीय सहज प्रवृति (Instincts या Drives) को मानवीय विचार, व्यवहार, भावना एवं आदर्श को निर्धारित एवं नियंत्रित करने वाला पाया| इन्होंने आत्म (Self) को इड (Id), इगो (Ego), एवं सुपरइगो (Superego) के आधार पर समझया| जहाँ इड जैवकीय अचेतन की प्रेरणा (Biological Unconscious Drives) है (और इसीलिए यह सभी जीवों में है, और यह प्राकृतिक प्रवृति है), वही सुपरइगो समाज द्वारा नियंत्रित आलोचनात्मक चेतना (Critical Conscious) है, जो इड की भावनाओं को संस्थाओं (विवाह, परिवार, समाज, विद्यालय, राज्य, मुद्रा, कम्पनी इत्यादि) द्वारा प्रतिबंधित करता है और ऐसा निम्नतर पशुओ में नहीं हो सकता है| इगो शेष दोनों इड एवं सुपरइगो के बीच वास्तविक संतुलन बनाता है| किसी भी मानवीय विचार, व्यवहार एवं आदर्श को समझने के लिए मनोविज्ञान का होना महत्वपूर्ण हो गया|आज मनोविज्ञान बहुत ही विकसित अवस्था में है| अविकसित समाजो एवं देशों में किसी भी कार्य के क्रियान्वयन में सचेत मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण नहीं रखा जाता है| मिथकों को इतिहास से अलग करने में इस प्रक्रिया को ध्यान में रखना चाहिए। ये आधार ही इतिहास की व्याख्या करने वाले इतिहासकार की नीयत और परिणाम को स्पष्ट करता है।
आइन्स्टीन ने विज्ञान में पूरा पैरेडाइम शिफ्ट कर दिया| उन्होंने पृथ्वी की हर वस्तु एवं घटना को सापेक्षिक (Relative) बताया, समय (Time) और स्थान एवं आकार (Space) को भी| उन्होंने सापेक्षिता के विशेष नियम (1905) एवं साधारण नियम (1915) के द्वारा परम्परागत भौतिकी में क्रान्ति ला दिया| इन्होंने फोटोइलेक्ट्रिक प्रभाव (आइन्स्टीन को नोबल पुरस्कार इसी के लिए मिला, सापेक्षिता के सिद्धांत के लिए नहीं) की व्याख्या कर पदार्थ एवं उर्जा के अंतर्संबंधों को समझाया| इन नए अवधारणाओं पर बुद्ध के कई दर्शन आधुनिक भौतिकी में सही साबित हो गए| आज के भौतिक विज्ञानी भी बौद्ध दर्शन को जादू, धर्म एवं विज्ञान से ऊपर की चीज मानते हैं| भौतिकी के नोबल पुरस्कार विजेता सर रोजर पेनरोज भी बुद्ध के दर्शन को इसी नजरिये से देखते हैं| इन सबों ने मिथक की कहानियों से ऊपर बुद्धि यानि बुद्ध को स्थापित किया, जो पहले संभव नहीं था|यह अवधारणा ऐतिहासिक तथ्यों को उसी काल संदर्भ में देखने के आवश्यकता को रेखांकित करता है।
फर्डीनांड डी सौसुरे ने लिखावट के शब्दों एवं वाक्यों को समझने के तरीको को बदल डाला| इन्होंने अर्थो के मकडजाल (The Web of Meaning) के अवधारणा को जन्म दिया एवं संरचनावाद (Structuralism) का सिद्धांत दिया| इनका कहना है, कि किसी भी शब्द के अर्थ का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता है, बल्कि उसका अर्थ अपने सन्दर्भ, अन्य शब्द एवं वाक्य के सम्बन्ध में होता है| इससे भाषाओं के अध्ययन में एक क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ| इन्होंने कहा कि शब्द किसी लिखावट में संकेतों (Sign, Charactars) का समूह है, जो किसी ध्वनि को, किसी विचार, या अवधारणा को प्रतिबिंबित (Reflect) करता है, सम्बन्धित (Corelate) करता है| इस तरह शब्द का स्वयं कोई अर्थ नहीं होता, और वह उस पुरे लिखावट के सन्दर्भ में तथा पुरी पारिस्थितिकी (Whole Ecosystem) (समय, स्थान, कालक्रम, परिस्थिति) के सन्दर्भ में होता है| इसीलिए किसी भी शब्द के अर्थ को सही ढंग से समझने के लिए उस पुरे लिखावट को, उसके प्रतिरूप (Pattern) को, उस समय के काल क्रम को, उस समय की परिस्थिति (Situation) को, उस स्थान की पारिस्थितिकी (Ecology) को सम्यक (Proper) रूप में समझना होगा| इस तरह किसी शब्द का सतही अर्थ (Surface Meaning) भी हुआ और उसका अन्तर्निहित अर्थ (Underlying Meaning) भी| इसलिए किसी भी लिखावट के प्राधिकृत व्याख्या पर संशय किया जाने लगा| अत: हमें भी किसी शब्द के ‘सतही अर्थ’ एवं ‘अन्तर्निहित अर्थ’ को समझना है| इससे मिथकों की संरचना और वास्तविकता समझने में सहायता मिली। इसने इतिहास में "नवबोल संरचना" को समझने में सहायता की है और इसने इतिहास की कई गुत्थियों को सुलझा कर इतिहास को स्पष्ट किया है।
उपरोक्त पाँचों विचारको
के कारण मिथक मरणासन्न हो गया है और इतिहास वैज्ञानिक होने लगा है| अब ये मिथक कुछ दिनों के मेहमान हैं| आज मिथकों
को जीवविज्ञान (Biology), आणविक जीवविज्ञान (Molecular Biology), अनुवांशिकी (Genetics),
मानव विज्ञान (Anthropology), पुरातत्व विज्ञान (Archaeology), मनोविज्ञान (Psychology),
अर्थशास्त्र (Economics), भाषाविज्ञान (Linguistics), आधुनिक भौतिकी (Modern Physics)
(क्वांटम क्षेत्र सिद्धांत – Quantam Field Theory) के आधार पर देखा एवं कसा जाने
लगा है| आज विश्व एक सीमित गाँव हो गया है| जिस भी चीज को विश्व यदि मिथक मान लेता
है, तब विश्व के किसी भी अन्य हिस्से को उसे कल्पना मान लेने की बाध्यता हो जाती है|
आप अपनी बात को विश्व जनमत तक पहुचाईए, आपकी विजय निश्चित है|
उपरोक्त पांचों की अवधारणाओं के सहयोग से ही मिथकों का सही,
तार्किक, तथ्यात्मक एवं वैज्ञानिक विश्लेषण किया जा सकता है और सत्य के करीब
पहुंचा जा सकता है| मिथक विहीन इतिहास ही वैज्ञानिक, सच्चा, समुचित और सही इतिहास होगा। जब इस मिथक की गंदगी को हटाया जाएगा, तब ही समाज एवं राष्ट्र का सम्यक
विकास शुरू हो सकता है| इसी पथ पर चल कर ही कोई अविकसित समाज एवं राष्ट्र कल
विकसित एवं समृद्ध हो सकता है| इसी तरह हमारा भारत भी कल विकसित एवं समृद्ध समाज
एवं राष्ट्र बनेगा| हमारा सुनहरा भविष्य निकट है और निश्चित भी|
निरंजन सिन्हा
आचार्य प्रवर निरंजन|