एक बड़ा प्रश्न है कि क्या न्यायिक तंत्र
में विश्वास और उस प्रदेश या देश के विकास में कोई प्रत्यक्ष संबंध है? इसका
उत्तर काफी स्पष्ट और सकारात्मक है। इतिहास गवाह है कि स्पेन और पुर्तगाल विश्व के
कई भू भागों को पहले ख़ोज निकाला और सबसे पहले उपनिवेश भी बनाना शुरू किया;
लेकिन इस मामले में पूंजी (Capital) निवेश की
भारी आवश्यकता होती है। इन देशों में उस समय न्यायिक तंत्र पर लोगों का भरोसा उठ
गया था; परिणामत: देशी पूंजी निवेश बाहर जाने लगा और बाहरी
पूंजी निवेश इन देशों में आने से बचने लगा। वहीं ब्रिटेन और हालैंड की न्यायिक
तंत्र में लोगों का बड़ा विश्वास रहा और इसी से वे हर मामले में आगे बढ़ते चले गए।
क्या भारत के बारे में ऐसा कहना उचित रहेगा? क्या यह नियम
सर्व व्यापी है और सर्व कालिक है? यदि "हां",
तो भारत के बारे में आवश्यक विश्लेषण अवश्य किया जाना चाहिए।
नकारात्मक आलोचना नहीं हो, परन्तु सकारात्मक, रचनात्मक, सुधारात्मक और सृजनात्मक आलोचना का स्वागत
किया जाना चाहिए। न्यायिक तंत्र में सिर्फ वैधानिक विधि ही शामिल नहीं है, अपितु प्रशासनिक विधि सहित विधि के प्रचलित सभी स्वरुप शामिल हो जाते हैं
जो वैधानिक नियमों, निर्देशों, आज्ञाओं,
प्रतिषेधों सहित सभी रुपों को नियमित, नियंत्रित,
संचालित, और प्रभावित करता है।
जब किसी क्षेत्र या समाज के न्यायिक तंत्र में
किसी व्यक्ति, समाज या संस्थान का विश्वास नहीं होता तो वह
वहां पूंजी, समय और संसाधन में निवेश नहीं करता है और परिणाम
पिछड़ापन होता है। न्यायिक तंत्र में विश्वास नहीं होने का कई कारण हो सकते हैं -
लोगों का निम्न शैक्षणिक स्तर, निम्न बौद्धिक क्षमता,
जटिल एवं लम्बी न्यायिक प्रक्रिया, जजों की
अपर्याप्त संख्या बल, जजों की बहाली की अपारदर्शी प्रक्रिया,
और कभी कभी न्यायिक तंत्र से जुड़े लोगों का विवादास्पद, तथा अवैज्ञानिक एवं मानवीय मूल्यों के विरुद्ध बयान। लोगों (वैश्विक एवं
स्थानीय) के अविश्वास के लिए व्यवस्था भी दोषी है। इसे बनाए रखने एवं इसे और मजबूत
करने की जबावदेही क्या व्यवस्था पर नहीं है?
आप चर्चा पर रोक लगा सकते हैं और पारदर्शिता को बाधित कर सकते हैं, परन्तु
भरोसा (Faith) को नियंत्रित नहीं कर सकते। यह भरोसा अपना काम
अपने ढंग से करता रहता है। इन्टरनेट संबद्धता (Connectivity) और पारदर्शिता (Transperity) - दोनों को बढ़ा रहा
है। आज़ के समय में पहले से उपलब्ध डिजिटल तकनीकों का बेहतर एवं सूक्ष्म समन्वय (Integration)
हो रहा है और परिणाम शक्तियों के बदलते प्रभाव एवं नए स्वरूप में
दिखता है। शक्तियां ऊर्ध्व (Vertical) से क्षैतिज (Horizontal)
हो रहा है, विशिष्ट (Exclusive) से समाविष्ट (Inclusive) हो रहा है और व्यक्तिगत (Individual)
से सामाजिक (Social) हो रहा है। इसी कारण
न्यायिक तंत्र में अविश्वास का परिणाम पहले की तुलना में अधिक तेज (Fast), व्यापक (Vast) और प्रभावकारी (Effective) होता जा रहा है जो पहले इतना नहीं था। इसलिए ही कहा है कि वर्तमान युग
"सूचना का युग"" नहीं; अपितु "सूचनाओं के
प्रसार" (Sharing of the Information) का युग है।
कहा जाता है कि न्याय से किसी को हानि नहीं होती; सही
कहा गया है परन्तु समुचित न्याय समुचित समय में एवं समुचित व स्वस्थ प्रक्रिया से
मिले, तब किसी को हानि नहीं होती। शासन में पारदर्शिता और
जवाबदेही तय करने के लिए ही "सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005" लागू किया गया है जो व्यवस्था में प्रशासनिक न्याय के कार्यान्वयन को
समुचित नहीं मानता और सुधार की अपेक्षा करता है। यह भी कहा जाता है कि न्यायिक
तंत्र में अविश्वास ही भ्रष्टाचार कारण है। यह भी कहा जाता है कि न्याय में अत्यधिक
विलम्ब न्याय नहीं है। यह भी कहा जाता है कि न्यायिक तंत्र में विश्वास बनाना और
बनाए रखना न्यायिक तंत्र की प्राथमिकता होनी चाहिए। जब न्याय विकास में इतना
महत्वपूर्ण है तो जनता के भ्रम और अविश्वास कितना घातक होगा, यह समझने की चीज है। आप प्रचार तंत्र से इस पर काबू पा सकते हैं, परन्तु जब प्रचार तंत्र ही अपनी विश्वसनीयता खो दे तो प्रचार तंत्र भी
निष्प्रभावी होने लगता है या हो जाता है। भारत के अधिकांश प्रचार तंत्र के बारे
में यह निश्चिंतता से कहा जा सकता है।
ऐसे में यदि न्यायिक तंत्र से जुड़े लोग प्रेस कॉन्फ्रेंस करते हैं, और
विपरीत बयान देते हैं, इससे न्यायिक तंत्र की विश्वसनीयता
क्षरित होता है। इस पर सवाल से यह ज्यादा महत्वपूर्ण है है कि उनको इस स्थिति का
सहारा क्यों लेना पड़ा; वह भी बहुत ही जबावदेह और
संवेदनशील उच्च पदस्थ प्राधिकारों को। पूर्व का कोई न्यायमूर्ति मोर - मोरनी के
आंसुओं से उनके गर्भ धारण का वक्तव्य देता है या ऐसा ही कोई अन्य व्यक्ति ऐसा
अटपटा अवैज्ञानिक, तथ्यहीन, अतार्किक
बातें सार्वजनिक प्लेटफार्म पर कहता है तो स्वाभाविक है कि उसके तर्कक्षमता और
विवेकशीलता पर प्रश्न चिह्न लगेगा। आज के वैज्ञानिक युग में यदि कोई, जो न्यायिक तंत्र से किसी तरह जुड़ा है; तर्क,
तथ्य, और विवेक को छोड़ आस्था, रूढ़िवादिता, मानवीय मूल्यों के विरुद्ध बोलता है या
व्यवहार करता है तो न्यायिक तंत्र के विश्वास को क्षति पहुंचती है।
न्यायिक तंत्र में विश्वास, राष्ट्र के निर्माण एवं विकास, और पूंजी निवेश के बीच के अन्तर्सम्बन्धों पर विशेष अध्ययन किया जाए और
परिणाम का अवलोकन किया जाए। न्यायिक तंत्र में विश्वास ही पूंजी का निवेश कराता है,
समृद्धि और विकास के लिए भावनात्मक आधार देता है। मानव भावनाओं से
संचालित होता है और मशीन तर्क से प्रभावित होता है। कहा जाता है कि दिल (भावना - Emotions)
हमेशा दिमाग (तर्क - Logic) पर हावी रहता है;
खासकर कम शिक्षित एवं जागरूक लोगों के मामलों में। यदि यह
महत्वपूर्ण है तो समाज और राष्ट्र इस पर विमर्श करें और खुले दिल एवं दिमाग से इस
विमर्श को आगे बढाए। यह एक अति गंभीर विषय है।
आइए, एक नए मुद्दे पर विमर्श करें और नया सशक्त एवं
समृद्ध समाज तथा राष्ट्र का निर्माण करें।
निरंजन सिन्हा
स्वैच्छिक सेवानिवृत्त,
राज्य कर संयुक्त आयुक्त, बिहार, पटना।
व्यवस्था विश्लेषक एवं चिन्तक।