मंगलवार, 16 जून 2020

विकास के लिए न्यायिक चरित्र क्यों अनिवार्य है?

नोबल पुरस्कार प्राप्त अर्थशास्त्री श्री अभिजीत बनर्जी के अनुसार दूसरे देशों से भारत में निवेश के स्थानांतरण होने की बहुत कम संभावनाएँ हैं। या भारत में इतनी संभावनाओं के बावजूद पर्याप्त निवेश नहीं होता है, या पर्याप्त निवेश नहीं है, जो होना चाहिए। ऐसा क्योआप भी स्पष्ट होंगे कि पूंजी का निवेश ही विकास का मूलाधार है। तो विकास का "न्यायिक चरित्र" (Judicial Character) से क्या सम्बन्ध है?      

क्या न्यायिक चरित्र और विकास में भी कोई सीधा सम्बन्ध है?  न्याय क्या हैचरित्र क्या हैन्यायिक चरित्र क्या हैविकास क्या हैपहले एक एक कर समझा जाएँ। न्याय ने सदैव ही समुचित समता (Equality), समानता (Equity), स्वतंत्रता, एवं बन्धुत्व के साथ ही क्षतिपूर्ति के सिद्धांत को प्रतिपादित किया है। न्याय का दूसरा साधारण नाम समुचित समता एवं समानता है। यह स्वतंत्रता और बंधुत्व के सम्यक संतुलन से आता है, या समुचित समता और समानता से ही स्वतंत्रता एवं बंधुत्व स्थापित होता है, और यह तीनों न्याय से प्राप्त होता है। 

न्याय, समता, समानतास्वतंत्रताऔर बंधुत्व का सिद्धांत  सभी आधुनिक समाजों और राष्ट्रों के सम्यक विकास का नैसर्गिक आधार है। इनके बिना कोई भी समाज और राष्ट्र पर्याप्त रुप में विकसित नहीं हो सकता है। मेरे अनुसार किसी का भी चरित्र किसी के प्रति एक स्थायी धारणा है, जिसे समुदाय या समुदाय के सदस्य एक अवधि में उसके प्रति बना लेते हैं। यहां किसी” शब्द में व्यक्तिसमाजराष्ट्रसंस्थाकम्पनी या अन्य कोई ‘कल्पित विश्वास’ या अन्य कोई ‘कल्पित वास्तविकता’ (Imaginary Reality) शामिल हो सकता है। 

किसी के प्रति बनायी गयी धारणाजिसे चरित्र कहा गयासे अन्य दूसरे व्यक्तिसमाजराष्ट्रया अन्य अपनी वर्तमान और भविष्य की योजनाओं एवं नीतियों के निर्धारण में इसका पूरा ध्यान रखते हैं| इसके आकलन से उन्हें अपनी भविष्य के निर्णयों के निर्धारण करने और बनाने में आसानी होती है।  न्यायिक चरित्र से तात्पर्य है किसी से उसे न्याय प्राप्त होने का स्थायी  एवं निश्चिंत विश्वास का होना, अर्थात उसे उसके भविष्य के व्यवहारों की निश्चिंतता से संतुष्टि का होना है। इसलिए किसी व्यक्तिसमाजराष्ट्रसंस्थाकम्पनी या अन्य कोई ‘कल्पित वास्तविकता’ (Imaginary Reality) के संबंध में एक चरित्र की धारणा होती है और इसमें “न्यायिक चरित्र” सबसे महत्वपूर्ण है|

विकास वृद्धि से भिन्न होता है| विकास को कुछ लोग सभी दिशाओं में सम्यक वृद्धि की अवस्था मानते हैं| विकास का एक महत्वपूर्ण शर्त है, जो जीवन की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए संरचनात्मक ढाँचा तैयार करता है। पर यह परिभाषा कालसमाजऔर राष्ट्र निरपेक्ष नही है। मेरे अनुसार  समाज और राष्ट्र का विकास समाज और राष्ट्र का वह अवस्था है, जिसमें सभी को समुचित न्यायपूर्ण अवसर मिले और क्षतिपूर्ति का सिद्धांत भी लागु हो। अमर्त्य सेन की विकास की अवधारणा स्वतंत्रता के रुप में ही परिभाषित है, जिसके लिए उन्हें नोबेल पुरस्कार भी मिला। विकास का यह अवधारणा सभी काल और समाज के लिए समान रुप समुचित है।     

मानव जाति का इतिहास बताता है कि न्यायिक चरित्र से युक्त समाज और राष्ट्र को पूँजी के निवेश और उद्यम की स्थापना के विपुल अवसर मिलें हैं| इसी अवसर के बदौलत उस समाज और राष्ट्र ने अद्भुत प्रगति की है एवं अकल्पनीय ऊंचाईयाँ पायी है। साम्राज्यवादी इतिहास में स्पेन और फ्रांस के प्रारम्भिक अभूतपूर्व सफलताओं के बावजूद छोटे से देश नीदरलैंड और ब्रिटेन ने बाद के कालों में साम्राज्यवादी विस्तार के लिए जो अभूतपूर्व पूंजी निवेश प्राप्त कियाउसका एकमात्र आधार उसका “स्थापित न्यायिक चरित्र” था। विकास के लिए पूंजी के निवेश का एकमात्र अनिवार्य शर्त 'न्यायिक चरित्र में विश्वास' होता है| यह उस समाज और क्षेत्र में आधारभूत संरचनाओं के साथ साथ अन्य उद्यमों को स्थापित एवं संचालित करने के लिए अनिवार्य होता है। 

यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि पूँजी निवेश आधारभूत संरचना तैयार करता हैउद्यम लगाता हैरोजगार पैदा करता हैगरीबी दूर करने में मदद करता हैविकास को बढ़ाता हैऔर आर्थिक गतिविधियों में तेजी लाता है| कुल मिला कर यह कहा जाए कि इसके बिना खुशहाल जीवन की कल्पना सम्भव नहीं है। पूँजी के निवेश कराने के लिए पूंजी निवेशको कों अपने मजबूत एवं स्थिर न्यायिक चरित्र का भरोसा दिलाना अनिवार्य होता है, और उस भरोसा का आधार तर्कपूर्ण और वैज्ञानिक हो। यदि आपने ऐसी बातें सैद्धांतिक तौर पर मान रखी है और उस पर  उनके आस्था को विश्वास नहीं है, तो उन सिद्धांतों का कोइ अर्थ या मतलब नहीं रह जाता है। आपकी बातों और सिद्धांतों की अस्पष्टता के बावजूद भी, उनको यदि आपके न्यायिक चरित्र में विश्वास है, तो यह पूँजी के निवेश के लिए पर्याप्त है। अत: निवेश के लिए “भरोसा” बहुत जरुरी है|

भारत में पूँजी के निवेश और उद्यमों की स्थापना के संदर्भ में न्यायिक चरित्र के इस पक्ष पर कभी व्यापक एवं गम्भीर विमर्श नहीं किया गया है। मैं भारतीय समाज और इस राष्ट्र के सम्बन्ध में विश्व में बनी न्यायिक चरित्र की अवधारणाओं के सम्बन्ध में गम्भीर और व्यापक विमर्श का आह्वान करता हूँ। हमारी तथाकथित गौरवमयी विरासत और पुरातन संस्कृति का आधार ही “प्राकृतिक और वैज्ञानिक न्याय का विरोध” है, जिसे जाति और वर्ण व्यवस्था कहते हैं। 

द्वितीय विश्व युद्ध में भू राजनीतिक (Geo- Political, not Political- Geographic) विस्तार के लिए कई लडाइयाँ लड़ी गयी, जिसका आधार जन्म आधारित तथाकथित जीनीय शुद्धता, सर्वोच्चता एवं सर्वश्रेष्ठता रही। ऐसे ही जीनीय शुद्धता के दावे को यूनेस्को (UNESCO) ने 1950 में, 1951 में1967 में और 1978 में तर्कहीन और अवैज्ञानिक घोषित कर दिया है| भारत में अभी भी मात्र शब्दों का हेर फेर कर ऐसे दावे मज़बूती से किए जा रहें हैं। भारत में जीनीय शुद्धता के नाम पर जाति और वर्ण की संकल्पना को सही बताने के लिए कई आंदोलन आज भी इस वैज्ञानिक युग में संचालित है। इस जीनीय शुद्धता के आधार पर न्यायिक चरित्र का लोप हो जाता है, जिसका आधार ही अवैज्ञानिक है।

न्याय प्रणाली पर टिप्पणी देना भारत में सांविधानिक मनाही है, पर न्यायिक विलम्ब सहित कई कारणों से लोगों में खिन्नता (Disgust) मौजूद है। इसे भी न्यायिक चरित्र से जोड़ कर देखा जाना चाहिए। न्यायिक चरित्र किसी व्यक्तिसमुदाय और राष्ट्र के तीव्र और सम्यक विकास के लिए महत्वपूर्ण है। न्यायिक चरित्र में सिर्फ न्यायाधीशन्यायिक तंत्रऔर न्यायिक प्रक्रिया ही शामिल नहीं हैअपितु इसमें कार्यपालिकाप्रचारपालिका (मीडिआ) भी शामिल  है और इससे विधायिका को भी इस दायरे से बाहर नही किया जाना चाहिए। 

भारत में जीवन के हर पहलू को संचालित एवं प्रभावित करने वाले तंत्रों के संबंधों के संदर्भ में इस न्यायिक चरित्र के बारे में सामान्य भारतीय और विदेशियों के मन में क्या धारणाएँ बनी हुई हैइसे जानने की नितांत आवश्यकता है। इस सम्बंध में कभी भी कोई निरपेक्ष सर्वेक्षण सामान्य लोगों में हुआ होमुझे जानकारी नहीं है। ऐसे व्यापक सर्वेक्षण की आवश्यकता से इंकार नहीं किया जाना चाहिए, जो न्यायिक चरित्र जैसे महत्वपूर्ण विषय पर आवश्यक निर्देश देते हों। यह विश्वनीयता के लिए यानि लोगों में साख बनाने के लिए आवश्यक है।

यदि किसी  व्यवस्था पर या किसी समुदाय पर न्यायिक “चरित्र के अभाव” का आरोप लगाया जाता है, तो उस समुदायव्यवस्था और राष्ट्र को सचेत और सतर्क हो जाने की अनिवार्यता है। पहले आत्मनिर्भर व्यवस्थाओं  में यह उतना महत्वपूर्ण नही था, परन्तु आज के परिप्रेक्ष्य में वैश्विक संदर्भ से आप अलग नही रह सकते। विश्वव्यापी पूँजी निवेश यदि भारत के लिए उतना महत्वपूर्ण नहीं होता, तो पूँजी के निवेश की आस (Expectation) नहीं लगायी जाती। यदि श्री अभिजीत बनर्जी की बातों में दम है, तो क्योंअन्य कई अर्थशास्त्री भी ऐसा ही कह रहे हैं। भारत में इतने प्राकृतिक और मानवीय संसाधनों के बावजूद विदेशी निवेश क्यों नहीं हुए और बदनाम शासनों में भी निवेश क्यों होता रहा?  भारत एक लोकतांत्रिक गणतंत्र है और यहाँ कई तथाकथित स्वतंत्रता उपलब्ध है, फिर भी स्थिति दयनीय है। क्यों? 

भारत में पर्याप्त पूँजी निवेश नहीं होने का एकमात्र कारण वैश्विक निवेशकों का भारत में न्यायिक चरित्र में मजबूत और स्थायी विश्वास का नही होना है। यह मेरा मानना है और मेरे इस मंतव्य पर अन्य की पूर्ण सहमति की आवश्यकता भी मुझे नहीं है, परन्तु इस पर एक गम्भीरव्यापकऔर गहन विमर्श की अनिवार्यता तो है ही। आइए इस विमर्श की शुरुआत करे|

ई०  निरंजन सिन्हा    

स्वैच्छिक सेवानिवृत्त

राज्य कर संयुक्त आयुक्त, बिहार, पटना। 

 

3 टिप्‍पणियां:

  1. लेख प्रेरक, प्रासंगिक, पठनीय है।

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  2. आपका लेख काबिले-तारीफ है।लेख्य के माध्यम से अपने सुक्ष्म व गुमनाम पहलुओं को रूखांकित व उजागर किया है।

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  3. इस लेख में न्यायिक चरित्र के महत्व को समझाना अत्यंत प्रासंगिक है, जिसे नोबेल पुरस्कार विजेता अभिजीत बनर्जी के विचार भी पुष्ट करते हैं। उन्होंने 2019 में कहा था कि भारत में संस्थाएँ ज़ॉम्बी (zombie) बन गई हैं — यानी वे लकवाग्रस्त और निष्क्रिय हो चुकी हैं, जो स्पष्ट निर्णय लेने में असमर्थ हैं। बनर्जी कहते हैं, “You don’t know who’s going to call you up and say that’s not the right thing to do.” निवेशकों के लिए इस अनिश्चितता और न्यायिक प्रक्रिया की धीमी गति के कारण भरोसा कम हो गया है। जब तक भारत अपने न्यायिक तंत्र, प्रशासन और अन्य संस्थाओं में स्थिरता और पारदर्शिता नहीं दिखाएगा, तब तक पूंजी निवेश की समस्या बनी रहेगी। इसलिए न्यायिक चरित्र — यानी सभी के लिए समान न्याय और भरोसेमंद व्यवस्था — विकास का अनिवार्य आधार है। यह लेख और बनर्जी के विचार मिलकर स्पष्ट करते हैं कि विकास केवल आर्थिक नीतियों से नहीं, बल्कि विश्वासपूर्ण न्यायिक व्यवस्था से संभव है।

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