बुधवार, 10 जून 2020

न्याय की अवधारणा और विकास (Concept of Justice and Development)


विकास चहुमुखी होता है
, और यह जीवन को अपनी संभावनाओं (Possibilities) को ढंग से पाने का आधारभूत संरचना (Infrastructure) उपलब्ध कराता है| इसीलिए समुचित विकास की अवधारणा (Concept of Proper Development) भी समुचित न्याय की अवधारणा (Concept of Proper Justice) पर आधारित हैविकास चाहे व्यक्ति का होसमाज का होया क्षेत्र का हो या देश का हो, समुचित न्याय पर ही आधारित होगा| 

पहले विकास की अवधारणा को समझ लें, तो न्याय की अवधारणा को समझना भी आसान होगा।विकास 'सामान्य' के साथ साथ उनका भी  किया जाता है, जिनको विकास की ज्यादा आवश्यकता होती है| अर्थात वे सभी जो समान क्षमतासमान बनावटसमान जीनीय विन्यास के बावजुद विकास के दौड़ में पीछे रह गए या छुट गए हैं |  हालाँकि पीछे छूटे लोगों एवं समाजों में कई कारकों के अलावा इसका मुख्य कारण सांस्कृतिक है| यह पिछड़ापन साजिश एवं शोषण पर आधारित होता है, जो सामान्य जन को अपने सांस्कृतिक आवरण (Veil) में नहीं दीखता है|  

विकास में सभी समुदायों और क्षेत्रों को  अपनी सकारात्मक संभावनाओं को उभारने या पाने का समुचित अवसर मिलता है। दौड़ में पीछे रह गए  जैसे महिलाएँगरीबउपेक्षित (Neglected)वंचित (Deprived)विलगित (Isolated) एवं पिछड़े समुदाय के लोगऔर ऐसे ही क्षेत्र इसमें शामिल है । अर्थात यह विकास एक सापेक्ष (relativeअवधारणा है। विकास जहां बहु आयामी (Multi Dimensional) अवधारणा हैवहीं वृद्धि (Growth) एक आयामी (Single Dimensional) अवधारणा है।  विकास जहां सभी दिशाओ को समाहित करता हुआ होता हैवही वृद्धि एकमात्र ऊर्ध्वाधर दिशा में आगे बढ़ना है। मैं विकास क़े लिए संस्थागत ढाँचा का होना आवश्यक मानता हूँ, क्योंकि उसके बिना व्यक्तिसमुदायऔर क्षेत्र का समुचित विकास नहीं हो सकता। विकास में समग्रता होता है अर्थात जीवन क़े सभी पक्षों में विकास। चूँकि यह सापेक्ष अवधारणा हैइसलिए विकास में सबको बेह्तर होने का अवसर मिलता हैसबका विकास होता है। विकास एक निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है, जो सकारात्मक बदलाव लाता है। व्यक्ति को केन्द्रित किए बिना ही सिर्फ आधारभूत संरचना निर्माण करना वृद्धि का एक उदाहरण हो सकता है, विकास का नहीं | विकास के लिए व्यक्ति ही मुख्य केंद्र होगा, क्योंकि कोई भी विकास व्यक्ति का, व्यक्ति के द्वारा और व्यक्ति के लिए ही होता है |   

परिस्थितियां बदलती रहती है अर्थात संदर्भ बदलते रह्ते हैं| इसलिए विकास की आवश्यकता हर लोगसमुदायऔर क्षेत्र को रहती है, क्योंकि इसके मानदंड भी समय के साथ बदलते रहते हैंबुद्ध का अनित्यवाद (Non Determinism ) यही कहता है, कि हर क्षण बदलाव होता है। पहले जब दुनियाँ  तीन आयामों (Three Dimensional) में विश्वास करता था, तो अनित्यवाद गलत लग सकता था| पर अब अल्बर्ट आइंस्टीन ने अपने सापेक्षता के सिद्धांत के अनुसार समय को भी एक आयाम बताया है। अर्थात अब दुनिया चार आयामी (Four Dimensional) हो गयीवैसे Quantum Mechanics क़े गणित के अनुसार 12 आयाम की संभावनाएँ है। इस तरह यदि कोई वस्तु का स्थान स्थिर भी रहता है, तो समय बदल जाता है। मतलब परिवर्तन सदैव होता रहता है और  इसलिए विकास की सदैव आवश्यकता होगी। अब प्रश्न है कि विकास कैसा होना चाहिए और इसका न्याय के साथ क्या सम्बन्ध है?

विकास को न्यायपूर्ण होना चाहिए यदि न्याय को विकास में शामिल नहीं किया जाता है, तो किसी का विकास जितना होना चाहिए, उससे बहुत कम ही विकास होता है। आज़ भारत सबसे बडी़ युवा आबादी वाला देश होते हुए भी बहुत पीछे है, तो न्यायपूर्ण विकास के अभाव मे। आज भारत सातवीं अर्थव्यवस्था है, और स्टाक बाज़ार के बाज़ारगत पूँजी के मामलों में दसवाँ स्थान पर है। इसलिए बडी़ संभावनाओं क़े बीच विकास के साथ न्याय की आवश्यकता है। 

न्याय क्या है इसे अंग्रेजी में Justice कहते हैं। लोगोसमुदायोंऔर क्षेत्रों के साथ समुचित व्यवहार ही न्याय है। इस संदर्भ में समुचित न्याय का अर्थ उसकी नैसर्गिक संभावनाओं  की अभिव्यक्ति का उचित अवसर देना है, तकि वह विकास में अपना महत्तम योगदान कर सके या दे सके।  जीव विज्ञानी यह बताते है कि किसी भी दो होमो सेंपिएंस (वर्तमान मानव) में जो भी भिन्नताएँ हैवह बहुत मामूली (Negligible) यानि सतही (Superficial) होता है। इन भिन्नतायो को जीनोटाईप (Genotype) नहीं , बल्कि फीनोटाइप (Phenotype) कहा जाता है। अर्थात ये भिन्नताएँ दिखावटी मात्र होती हैऔर जीवन सञ्चालन में इससे कोई अंतर नहीं पड़ता है। ये सब प्रकृति यानि परिस्थतियों के अनुकूलन के परिणाम हैंएक वानर और मानव में जीनीय समानता वैज्ञानिकों के अनुसार 99% होती हैतब दो सेपिएंस मे कितनीं असमानता होगी। होमो सेपिएंस मतलब बुद्धिमान  मानव अर्थात विश्व के वर्तमान सभी मानव हैं। कम मानसिक क्षमता वाले मानव जैसे होमो इरेक्टसनियंडरथल आदि बहुत पहले ही समाप्त हो चुके है। जब दो लोग समान होक्षमता समान होजीनीय बनावट समान हो और संभावनाओं मे भी समानता होतो उन्हें विकास का समान अवसर मिलना ही चाहिए। इसे ही न्याय कहा जाता है।

न्याय के दो भिन्न आयाम है वैधानिक (Legal) और प्राकृतिक (Natural)। न्याय को वैधानिक भी होना चाहिए और प्राकृतिक भी  होना चाहिए। प्राकृतिक मतलब उसकी नैसर्गिक क्षमता के अनुरुप।  इसका अर्थ हुआ कि यदि प्राकृतिक क्षमता है और वैधानिक प्रावधान नहीं है, तो उनके प्राकृतिक क्षमता के अनुरूप वैधानिक प्रावधान करना ही प्राकृतिक न्याय है। न्याय का सरोकार समाज से भी होना चाहिए और व्यक्ति से भी। अर्थात न्याय को समाजवादी भी होना चाहिए और व्यक्तिवादी भी न्याय से समाज का भी हित होना चाहिए और व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास के विपरीत भी नहीं जाना चाहिए। न्याय यदि रूढ़िवादी (Conservative) है तो उसे सुधारवादी (Reformative) भी होना चाहिए अर्थात न्याय यदि अतीत की ऒर अभिमुख हो, तो उसे उज्जवल भविष्य की ऒर भी अभिमुख होना चाहिए। प्लेटो तो कहते है कि न्याय के साथ संयमसाहसऔर तर्क अर्थात तार्किकता भी होनी चहिए पहले कबिलाई हितोंसाम्राज्य के हितों और सामंतों के हितों के अनुरूप न्याय किए जाते रहे| इसका कारण यह था कि उस समय विज्ञान इस अवस्था तक ज्यादा विकसित नहीं था| पर आज न्याय के साथ जनतंत्र है और वैज्ञानिक तार्किकता का समर्थन भी है। इसलिए आज के वैज्ञानिक युग के नव अनुसंधानों के परिप्रेक्ष्य में ही अवसर उपलब्ध कराना ही समुचित न्याय है। 

एक प्रसंग "समान अवसर की आवश्यकता" का दे रहा हूँ।  एक सौ साल पहले कोल्हापुर के महाराजा साहूजी महाराज ने समुचित न्याय का उदाहरण अपने दरबरियो को दिया था| इसमें उन्होंने सारे घोड़ों को एक ही चना के बोरे के लिए खोल दिया था। मजबूत घोड़े चना के बोरे में खा भी रहे थे और कमजोर एवं  बीमार  घोड़ों को दुलत्ती मार कर उन्हें दूर भी रख रहे थे। महराज ने कहा कि उन्हें सभी घोड़ों में समुचित क्षमता चाहिए और इसलिए सभी को न्याय के तहत समान अवसर दिया जाना चाहिए। क्या उनके सोंच को गलत माना जाना चाहिएयदि हाँतो क्यो?

न्याय के साथ समानता अवश्य होता है और समानता के बिना न्याय भी नहीं होता। न्याय के लिए स्वतंत्रता भी चाहिए और बंधुत्व भी। आज़ सभी विकसित समाजों और व्यवस्थाओं का मूलभूत आधार न्यायसमानतास्वतंत्रताऔर बंधुत्व ही है। इसी दर्शन के साथ ही व्यक्तिसमाजऔर राज्य को सुखशांतिसन्तुष्टि और समृद्धि पा सकता है। भारत को संकट से उबरने और विकास की लम्बी छलांग लगाने के लिए न्याय के साथ विकास की अवधारणा पर गंभीरता से विमर्श किए जाने अनिवार्यता है।

इस न्याय की अवधारणा में प्रकृति को भी मानवता के  दीर्घ हितों के कारण शामिल करना होगा। इस न्याय में महिलाओं और समाज की मुख्य धाराओं से पीछे छूट गए लोगों को भी शामिल किया जाना चाहिए। इस न्याय में कृषकों और मेहनतकशों को भी शामिल किया जाना आवश्यक है। इनको शामिल किए बिना प्रकृति से समुचित समन्वय स्थापित नहीं किया जा सकता। इसके बिना भविष्य के संभावित आपदाओ से बचना भी संभव नहीं है, क्योंकि विश्व एक छोटा सा कस्बा बन चुका है। विमर्श जारी रहना चाहिए।


 निरंजन सिन्हा

राज्य कर संयुक्त आयुक्त,

बिहारपटना.                               

 

 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

सत्ता ‘वैज्ञानिक भौतिकवाद’ से क्यों डरता है?

‘ सत्ता ’ में शामिल लोग ही असली ‘ शासक ’ ‘ वर्ग ’ कहलाते हैं , होते हैं।   तो सबसे प्रमुख प्रश्न यह है कि   ‘ सत्ता ’   क्या है और   ‘ शासक ...