शनिवार, 13 जून 2020

बिहार में बाढ़ प्रबन्धन (Flood Management in Bihar)

पानी का स्थलीय क्षेत्रों में अनियंत्रित एवं अकस्मात फैलाव ही बाढ़ होता हैयह स्थलीय क्षेत्रों को जलमग्न कर देता है बाढ़ आने के कारणों में वर्षापातजल निकासी में पर्याप्त क्षमता का अभावतटबंधों या बाँधों का टूटनातटबंधो या बाँधों के उपर से पानी का बहना,  बाँधों से अचानक भारी मात्रा में पानी का छोड़ा जानानदियों के सामान्य परिवहन क्षमता से अधिक का जल प्रवाह होनानीचे के क्षेत्रों में जल का ठहराव होना यानि बाधा का होना अर्थात बाँधों के फाटकों का नहीं खोला जानानदियों के मुहाने पर ज्वार (High Tide) का आना या कोई अन्य प्राकृतिक या मानवीय बाधा का आ जानासागरों में सुनामी समतुल्य के कारण सागरीय पानी का तटीय क्षेत्रों में फैलाव,  बादलों का फटना आदि शामिल है| 

उत्तरी भारत में और बिहार में बाढ़ की समस्या एक बडी़ आबादी को प्रभावित करती है इसके साथ ही यह इसके एक बड़े क्षेत्र के उपजाऊ जमीन को डूबा भी देता है| यह एक निर्विवाद तथ्य है। आँकड़ों के जाल में उलझे बिना सभी इस महत्वपूर्ण तथ्य से सहमत होगें। धन और जन सहित नदी घाटी क्षेत्र में विभिन्न प्रकार के संसाधन नष्ट या क्षतिग्रस्त होते हैं। बाढ़ पर नियंत्रण या बाढ़ का रोकथाम एक गलत अवधारणा है|  शब्दों से अर्थ ही नहीं बदल जाते है, अवधारणा भी बदल जाता है अर्थात पूरी सोच एवं सम्बंधित व्यवस्था भी बदल जाता है। "बाढ़ नियंत्रण" (Flood Control) के स्थान पर "बाढ़ प्रबंधन" (Flood Management) ज्यादा समुचित शब्द है और ज्यादा उपयुक्त भी। जहां 'बाढ़ नियंत्रण' में बाढ़ की रोकथाम शामिल हो जाता है, वही 'बाढ़ प्रबंधन' में बाढ़ को रोकने के बजाए बाढ़ के हानि को लाभ में बदलने की अवधारणा समाहित होती है।

महत्वपूर्ण  प्रश्न यह है कि क्या गंगा और ब्रह्मपुत्र नदी घाटी सहित अनेक क्षेत्रों में आने वाली बाढ़ों को रोका जा सकता है? मैं यहाँ उत्तर भारत की बाढ़ पर केंद्रित कर रहा हूँ, क्योंकि देश के अन्य क्षेत्रों में आने वाली बाढ़ पर इसी तरीके से या अन्य आंशिक संशोधित तरीको से नियंत्रण पाया जा सकता है। क्या इन नदी घाटियों में बाढ़ आना प्रशासनिक विफलता (Administrative Failure) है या कोई अन्य भौगोलिक बाध्यता (Geographical Compulsion) है? इसके लिए इन क्षेत्रों का भूगर्भीय एवं भौगोलिक इतिहास जानना जरूरी है। इन क्षेत्रों में बाढ़ का इतिहास हिमालय पर्वतमाला की उत्पत्ति से भी पुराना है। दरअसल गंगा और ब्रह्मपुत्र नदी घाटी का निर्माण ही हिमालय से निकलने वाली नदियों में आने वाली बाढ़ों के प्रभाव से ही हुआ है। आगे ब्रह्मपुत्र नदी घाटी को गंगा नदी घाटी के प्रसंग में समाहित समझा जाए। भूगर्भीय वैज्ञानिक बताते हैं कि यूरेसियाई प्लेट और इंडियन प्लेट के नजदीक आने के समय इन दोनों प्लेटों के बीच टेथिस सागर (Tethis Sea) लहराता था।  इंडियन प्लेट के उत्तर -पुर्व दिशा  में आगे बढ़ने एवं युरेसियाई प्लेट पर दबाव बनाने के कारण ही  हिमालय पर्वत की उत्पत्ति हुई। इसके उभरने एवं इसके गादों (Silt) के बहने एवं भरने से ही इस गंगा के मैदान की उत्पत्ति हुई। हिमालय पर्वत का उभरना अभी भी जारी है, जिसका समायोजन भुकम्पन से अक्सर होता रहता है। उभरते हिमालय से अभी गाद निकलना और मैदानों में  भरना जारी है और आगे भी जारी रहेगा| स्पष्ट है कि इन नदियों की बाढ़ों को रोका नहीं जा सकता। जब इन क्षेत्रों में बाढ़ को स्थायी रुप में रोका नहीं जा सकता, तो बाढ़ का समुचित प्रबंधन करना ही उचित है ।  इस भराव के अनेक तथ्य एवं साक्ष्य मौजूद है।

ऐसी स्थिति में बाढ़ को रोक देना एक गलत अवधारणा होगा। तो "बाढ़ का प्रबंधन" ही उपयुक्त अवधारणा होगा, और इसमें बाढ़ का नियंत्रण भी शामिल होगा। इस दिशा में सबसे महत्वपूर्ण कदम होगा ‌– गंगा नदी घाटी आयोग (Gangaa River Basin Commission) का गठन। प्रत्येक नदी घाटी के लिए एक एक आयोग होना चाहिए। गंगा नदी घाटी आयोग गंगा और उसकी सहायक नदियों के जल ग्रहण क्षेत्रों (Catchment Area) से लकेर सागर में विसर्जन (Discharge) तक निगरानी करेगा।  यह आयोग पुरे नदी घाटी क्षेत्र के सभी नदियों के जलग्रहण क्षेत्र में होने वाली वर्षाजल प्रवाह की मात्रा एवं जल के उपयोग और बाँधों के जलाशयों (Reservoir of Dam) से विसर्जन तथा फरक्का सहित सभी बराजों का समन्वय तथा नियंत्रण करेगा।  इसके लिए यदि सांविधानिक संशोधन की आवश्यकता हो, तो संशोधन करा लिया जाए। यह नदी घाटी आयोग इसके जलग्रहण क्षेत्रों में मिट्‍टी के क्षरण (Soil Erosion)वनस्पति की प्रकृति एवं उसका घनत्व, वनस्पति आच्छादन, जल के उपयोग के प्रतिरुप (Pattern) का निर्धारण एवं जल के उपयोग की मात्रा निर्धारणइन क्षेत्रों में चेक डैम (Check dam) की आवश्यकता और निर्माण का भी समन्वय करेगा एवं निगरानी रखेगा। छोटे बड़े चेक डैम उन क्षेत्रों में पानी को रोकते हैं, ठहराते हैं ताकि एक्पीफर (Aquifer - जल धारण करने वाला परत) चट्टानों को पानी की उपलब्धता बढ़ाकर रिचार्ज (Water Recharge) करता है। इससे जल ग्रहण क्षेत्रों में वनस्पति आच्छादन का विस्तार होता है और घनत्व भी बढ़ता है। इससे वन्य जीवों को भी आधार मिलता है, जिसका समेकित प्रभाव भूगर्भीय जल में वृद्धि होता है। नदी घाटी क्षेत्र के विभिन्न सहायक नदियों के जलग्रहण क्षेत्रों में होने वाली वर्षाजलप्रवाह की मात्रा एवं भंडारण का नजदीकी निगरानी करेगा।  इससे बड़े जलाशयों से अचानक भारी मात्रा में पानी छोड़ने (विसर्जन)  की नौबत नहीं आयेगी। समन्वित ढंग से पानी छोड़ने से गंगा नदी अपनी जलवहन क्षमता (Water Carrying Capacity)  का समुचित उपयोग करेगी। इसी समन्वय से फरक्का बराज भी नियंत्रित होगा और अत्यधिक जलप्रवाह के समय फरक्का बराज (Barrage) के फाटक खोलने के लिए सिफारिश की आवश्यकता नही होगी। इससे बराज का समुचित संचालन हो सकेगा और गंगा में जलप्रवाह भयावह नहीं होगा। इन सहायक नदियों में जलग्रहण क्षेत्रों की उच्चावच (Relief) को देखते हुए  बाँध (Dam)जलाशयों (Reservoir)नहरों और तटबंधो का निर्माण बहुत हद तक बाढ़ को नियंत्रित करते हैं, परन्तु नदियों पर मात्र तटबंधो (Embankment) का निर्माण बाढ़ का स्थायी समाधान नहीं हो सकता। चूँकि गंगा के मैदान की सभी हिमालयी नदियाँ नेपाल से ही आती है और इसी कारण नेपाल से समन्वय अति महत्वपूर्ण है।      

बिहार में गंगा नदी अपनी प्रौढावस्था (Adult Stage) में है। प्रौढावस्था में नदियों की जलवहन क्षमता तरुणावस्था (Juvenile Stage)  की तुलना में घट जाती है। इसी कारण मैदानी इलाकों में नदियों में गाद/ सिल्ट जमा हो जाता है और नदियों की जल धाराएँ बँट जाती है। धाराओं के बँटने एवं गाद जमा होने से टापू / दियारा क्षेत्र का निर्माण हो जाता है। इस अवस्था में नदियाँ उथली (Shallow) हो जाती है और इसी कारण चौड़ी भी हो जाती है। घनी आबादी और नदियों का उपजाऊ अवस्था इसी कारण उथले क्षेत्र में बसावट (Settlement) को प्रेरित करती है। बाढ़ के बाद के समय में जल की सुलभतामिट्‍टी की उत्तम उर्वरा शक्ति (Fertility Strength)घनी आबादी इस क्षेत्र में कृषि एवं पशुपालन को समर्थन देता है और आबादी आवश्यकतानुसार बस (Settle) जाती है  बाढ़ के समय यही आबादी ज्यादा प्रभावित होती है। यह प्रभावित आबादी तीन श्रेणी - भुमिहीन मजदूरसीमांत किसान तथा सम्पन्न किसान की होती है। भूमिहीन मजदूर में अधिकांश वंचित समाज के कमजोर लोग होते हैं। इन क्षेत्रों के पशुपालक भी इसी श्रेणी में रखे जा सकते हैं। इस श्रेणी के लोग कमाकर खाने वाले होते हैं और इसलिए आपदा या सामान्य अवस्था के लिए अनाज भंडारित नहीं रखते| ये बस्ती के बाहरी हिस्से में रहते हैं और इसलिए निचले हिस्से में होते हैं। इनके घर भी मिट्‍टी या झोपड़ी के होते हैं, जो साधारण से जल के प्रवाह को सह (Tolerate) नहीं पाते और गिर जाते हैं। बाढ़ में सबसे ज्यादा प्रभावित यही लोग होते हैं। इन तीनों वर्गों की सुचीबद्धता बाढ़ के पुर्व अर्थात गर्मी के माहों में ही कर ली जाए। इन सुचीबद्धता से बाढ़ के समय सहाय्य (Relief) कार्य समुचित ढंग से  करने में आसानी होती है। बाढ़ का जलस्तर थोड़ा भी बढ़ जाने से मजदूर श्रेणी और पशुपालको को ज्यादा कठिनाई आ जाती है। मजदूरो को रोजगार का अभाव खाद्य आपुर्ति की आवश्यकता जताती है। जलमग्न क्षेत्र के पशुओं के रहने एवं चारा की आवश्यकता तत्काल हो जाती है। कमजोर (Vulnerable) वर्ग में रहन सहन के तरीकों में जागरूकता का अभाव भी उपयुक्त पोषण का अभाव एवं स्वास्थ्य की समस्या पैदा करता है। सीमांत (Marginalised)  एवं सम्पन्न किसान बाढ़ के समय कम परन्तु बाढ़ के बाद ज्यादा प्रभावित होते है। इनके घर सामान्यतया ऊँचे होते हैंऊँचे स्थान पर होते हैं और स्थायी प्रकृति (पक्के) के होते हैं। सम्पन्न किसानों के पास अपनी नाव (Boat) भी होता है।

बाढ़ के समय इन क्षेत्रों में पहुँचने का सामान्य साधन जल परिवहन होता है जो नावडेन्गी आदि हैं। ये कम गहरे एवं ज्यादा गहरे जल में चलते हैं तथा अपेक्षाकृत छोटा होने के कारण प्रत्येक टोला तक पहुँच जाते हैं। इन क्षेत्रों में  जल परिवहन की सबसे बडी़ समस्या जलगम्य (Water-Transportable) सुरक्षित एवं चिन्हित जलमार्गो (Waterways) का अभाव है पानी में डूबा लोहे का पोलचापाकलखूँटाअर्ध निर्मित संरचनाया ऐसे ही अन्य कड़े पदार्थ जो जल में डूबे होने के कारण दृश्य (Visible) नही होते और इंजनयुक्त नावों को क्षतिग्रस्त कर दुर्घटनाग्रस्त कर देते हैं। ऐसी स्थिति में नदीनहरया अन्य प्राकृतिक जलधारा को ऐसे विकसित किया जाय, ताकि दो सामान्य नावों की चौड़ाई का क्षेत्र "स्थायी जलपथ" (Permanent Waterways) के रुप से चिन्हित किया जा सके| यह बाढ़ के समय जल परिवहन को सुगमता प्रदान कर सकेगा| ऐसे क्षेत्रों में किसी भी कड़े (Hard) संरचना के निर्माण पर प्रतिबंध हो। ऐसे जलमार्गो पर स्थायी कंक्रीट के पुल के स्थान पर खुलने वाले लोहे का पुल हो, जिसे बाढ़ के समय खोला जा सके ताकि जल परिवहन सुगम्य हो सके।

दूर संचार व्यवस्था का असफल होना बाढ़ के समय एक सामान्य अवस्था है। दुर संचार व्यवस्था विद्युत आपूर्ति बाधित होने से ही ठप हो जाता है। सौर ऊर्जा एक सार्थक विकल्प है। बरसात के समय वायुमंडल में धुलकणों के अभाव में सुर्य की किरणें तीक्ष्ण होती है और पर्याप्त अवधि तक चमकती है। सौर ऊर्जा मोबाईल और दुर संचार टावर दोनों के लिए उपयुक्त है। इन क्षेत्रों के लोगों को अनुदान एवं अन्य प्रोत्साहन के द्वारा सौर ऊर्जा के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए। बाढ़ के समय सही एवं सटीक जानकारी सही समय पर मिलना ही एक बड़ा राहत कार्य है।            

बाढ़ क्षेत्रों में सड़क तंत्र विशेष प्रकृति का होना चाहिए- सामान्यत: ऊँचासीमेंट कंक्रीट का बनावट और सड़क के दोनों किनारों पर पत्थरों की चिनाई (Boulder Pitching)। बाढ़ क्षेत्र के बसावट – टोला,  गाँवएवं नगर  को जोड़ने वाले मार्ग सामान्य जल प्रवाह के समानांतर  होने चाहिए ताकि सामान्य जलप्रवाह को न्यूनतम या शुन्य बाधित करे। इन समानांतर सम्पर्क मार्गों को निकट नगर या प्रमुख सड़क मार्ग से जोड़ने  वाली सड़क ऐसे बनाए जाएँ जो प्राकृतिक जलप्रवाह को न्यूनतम बाधित करें। इसके लिए ऐसी सड़कों की संख्या तो कम हो परन्तु इन सड़कों में पुलों की संख्या पर्याप्त हो। इसकी ऊँचाई भी सामान्य से अधिक होनी चाहिए।

इन क्षेत्रों की बाढ़ों की बारम्बारता (Frequency) और इन क्षेत्रों की ऊँचाई को देखते हुए अगले पचास वर्षों के लिए सम्भावित बाढ़ का एक  उच्चतम स्तर (Highest Level) निर्धारित किया जाना चाहिए। इससे सरकार के अलावे सामान्य जन को भी स्थायी संरचना के निर्माण में इसका ध्यान रख सकेगें। बिहार के मैदानी क्षेत्रोंखासकर नदी के बाँधों के अंदर के बसावट में स्थायी संरचनाओं के निर्माण में भारी लापरवाही बरती जाती है। इसी तरह सम्भावित उच्चतम जल (बाढ़) स्तर के निर्धारण के बाद प्रत्येक गाँव के बसावट के सम्भावित प्रसार को देखते हुए एक पक्का का घेरा बना दिया जाय। इस ऊँचे घेराबंदी के अलावा अन्यत्र बसावट को अनुमति नहीं दी जायइसका उत्तरदायित्व स्थानीय निकायों के जिम्मे हो। ऐसे टीलों के विचारण मे पशुओं को भी शामिल किया जाना चाहिए। यह मानव और पशुओं के जीवन रक्षण के लिए अनिवार्य है।

 बाढ़ के समय गादयुक्त पानी फैलता है तथा ठहराव के निश्चित समय के बाद पानी गाद को छोड़ कर वापस भी चला जाता है। गाद नदियों के आधार तल (River Bed) को ऊँचा करने के साथ साथ खेतों और मैदानों को भी ऊँचा  करती है तथा उर्वरता बढ़ाती है। जल एक बेहतरीन प्राकृतिक संसाधन है, जो बाढ़ के समय बड़े इलाकों को उपलब्ध हो जाता है। बाढ़ के ऐसे अत्यधिक ठहरे हुए जल का प्रबंधन इन क्षेत्रों में जल की उपलब्धता की अवधि बढ़ाती है, जो वैकल्पिक जलीय खेती को प्रेरित करती है। इन क्षेत्रों में बनाए गए टीलों और गड्ढों में अर्थात भू आकृति में यथाआवश्यक परिवर्तन कर नए अनुकूल वनस्पति लगाए जा सकते हैं तथा जलीय जीवों का पालन किया जा सकता है। इस तरह क्षेत्र स्वामी की आमदनी बढ़ती हैबाढ़ का प्रकोप कम होता हैऔर क्षेत्र की उत्पादकता बढ़ती है। समेकित रुप में कहा जा सकता है कि बाढ़ के जल का यथोचित प्रबंधन के द्वारा बाढ़ की विभीषिका को बदला जा सकता है। 

समस्या उसको कहते हैं जिसका समाधान नहीं ढूंढा जा सके। यदि हम बाढ़ की समस्या का यथोचित समाधान खोज लें, तो यह समस्या नहीं होकर इसे वरदान में बदला जा सकता है।  

ई० निरंजन सिन्हा

स्वैच्छिक सेवानिवृत  राज्य कर संयुक्त आयुक्तबिहारपटना ।  

www,niranjansinha,com         

 

 

 

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