लोग
कहते हैं कि सभी बरबादियों की क्षतिपूर्ति किसी न किसी समय हो ही जाती है परन्तु एक औरत की जब “आबरु” लूट
जाती है तो उसकी क्षतिपूर्ति नहीं होती। औरतो की आबरु लुटने की बात एक्दम सही है। इस तथ्य को कहीं से गलत नहीं
बताया जा सकता है। पर यह आबरु लुटती है तो सिर्फ औरतों की ही। पुरुषों की आबरु
नहीं लुटती। मैं यह सोचने पर बाध्य हूँ कि “आबरु” शब्द के कितने भावार्थ के वाक्य बनाए जा सकते हैं? पर अफसोस है कि आबरू शब्द के साथ सिर्फ “लुटना” शब्द
ही जुड़ पाता है जैसे अंग्रेजी वर्णमाला के ‘क्यू’ अक्षर के साथ सिर्फ ‘यू’ अक्षर ही जुड़ता है। किसी की आबरु बचती नहीं, लुटने
से बच जाती है; यहाँ भी
लुटना शब्द ही लगा है। मैंने आज तक कभी नहीं देखा कि किसी की आबरु विकसित हुई, किसी की आबरु सृजित हुई, किसी की आबरु नष्ट हो
गई, किसी की आबरु पायी गई, या
किसी की आबरु समझी गई, आदि आदि। हर बार आबरु के साथ
लुटना ही एकमात्र नकारात्मक शब्द आता है।
जब “आबरु” लुटने के लिए ही होती है तो क्या मुझे भी इसके बारे में एक लम्बा और गहन
विलाप वर्णन करना चाहिए? मैं आबरु के लुटने के सम्बन्ध में कोई विलाप वर्णन इसलिए नहीं करना चाहता
क्योंकि विलाप वर्णन करना यानि हाय तौबा मचाना आबरु के लुटने का समाधान नहीं
देगा। हाँ, विलाप वर्णन से मुझे भी महिलाओं का समर्थक
माना जा सकेगा या लिंग आधारित भेदभाव के विरुद्ध बड़ा लड़ाका की उपाधि मिल सकेगी
या महिलाओं का नेतृत्व पाया जा सकेगा। महिलाएँ और अन्य लोग समझने लगेगें कि मैं
महिलाओं की भावनाओं और उनके दुख दर्द को अच्छी तरह से समझता हूँ। आबरु को लुटने से
बचाने के लिए आँदोलन चलाया जाता है और जुझारु नेतृत्व को मान्यता भी मिलती है; परन्तु इसका कोई समाधान नहीं मिलता।
प्रकृति
ने स्त्री और पुरुष को अलग अलग तो बनाया है परन्तु एक दुसरे का पूरक भी। यह पूरकता
शारीरिक ही नहीं, अपितु मानसिक, आध्यात्मिक, और अधिआध्यात्मिक भी है। दोनों की पूरकता से ही इस संसार का सृजन
हुआ और आज भी अस्तित्व में है। दोनों में आकर्षण है तथा प्यार है और जिसका परिणाम
यह संसार है। आकर्षण प्राकृतिक है और यह
प्रकृति का आदेश है। इस आदेश की अवहेलना नहीं किया जा सकता है। इसी आकर्षण
और प्यार का कई रूपों में एक रुप की परिणति पति- पत्नी या प्रेमी-
प्रेमिका के रुप है। इस प्रतिरुप के अलावा या इस भूमिका के अलावे स्त्री- पुरुष
सम्बन्धों के कई अन्य भूमिकाएँ है जिनका व्यवस्थित संचालन इस सम्यक संसार के
लिए अनिवार्य भी है। इसी व्यवस्था के तहत आकर्षण और प्यार की भूमिका का भी
निर्धारण है और उसका अतिक्रमण सामाजिक व्यवस्था का ही अतिक्रमण है। सामाजिक व्यवस्था के अतिक्रमण के
मामलों का वर्गीकरण फौजदारी एवं दीवानी की तरह किया गया है। इसमें शारीरिक
अतिक्रमण भी होता है, आक्रमण भी होता है, और मानसिक वेदना एवं कष्ट भी होता है। यहाँ मेरा मानना है कि बलात्कार भी एक अतिक्रमण है, एक आक्रमण
है, मानसिक वेदना है, कष्ट
एवं उत्पीड़न है और इसकी प्रकृति एवं सीमा इस अतिक्रमण का चरमोत्कर्ष
है। इसे हत्या के समान अपराध माना जा सकता
है। बलात्कार एक अपराध है जिसमें शारीरिक एवं मानसिक वेदना का चरमोत्कर्ष
रहता है। परन्तु इसके लिए “आबरु”
का लूट जाना जैसे शब्द का प्रभाव बलात्कार से भी भयानक होता
है।
“आबरु” शब्द का निर्माण बहुत सोच समझकर किया गया
है। “आबरु” शब्द में स्त्री का सम्पूर्ण व्यक्तित्व समाहित हो जाता है। आबरु शब्द के
आगे एक स्त्री की उपयोगिता या संदर्भ शुन्य हो जाता
है। आबरु शब्द को स्त्री के लिए उसके जीवन में उसके जीवन से भी महत्वपूर्ण बना
दिया गया है। एक स्त्री परिवार, समाज, देश, एवं मानवता के लिए रचनात्मक हो सकती है, सृजनात्मक हो सकती है, उत्पादक हो सकती है, परन्तु “आबरु” शब्द के सामने
यह सब निरर्थक हो जाता है। स्त्री से उसके जीवन में से यदि आबरु शब्द का भाव
निकाल दिया जाए तो उसे समाज अस्तित्वविहीन मान लेता है अर्थात
आबरु लूटी महिलाओं का समाज में स्थान नहीं है। पुरुष तो चाहता है कि एक स्त्री “आबरु” शब्द और भाव का महत्तम इस्तेमाल करे। “आबरु” शब्द वह बेडी है, वह
बन्धन है, वह महाबोझ है जो एक स्त्री सदैव ढोतीं रहती
है। वह काम पर जाती है, वह पढ़ने जाती है, वह सामाजिक कार्यों पर जाती है, वह घूमने जाती
है, वह परिवार के लिए निकलती है, वह देश और मानवता के लिए घर से बाहर निकलती है, या किसी अन्य कार्यों से निकलती है तो वह सदैव अपने आबरु के प्रति
सजग, सचेत और चौकन्ना रहती
है। इनके सभी कार्यों का महत्व इनके लिए और इनके समाज के लिए द्वितीयक हो जाता है
परन्तु “आबरु” के प्रति इनकी सजगता और
सतर्कता प्राथमिक यानि सर्वोपरि हो जाता है। एक
स्त्री भी बिना सोचे समझे “आबरु” के
चक्रव्यूह में उलझकर उस भाव या अर्थ को ही संपुष्ट कर देती है जो पुरुष प्रधान
समाज चाहते है। पुरुष भी अपने अचेतन,अवचेतन और चेतन में यही चाहता है।
इन
शब्दों के विरोध में अनेकों प्रयास द्वारा इन शब्दों को हम दुहराते
रहते हैं, चिन्हित
करते रहते हैं, कल्पनाओं से खाका बनाते रहते हैं, स्मरण की बारम्बारता बढ़ाते हैं और नहीं चाहते हुए भी इसे अवचेतन एवं अचेतन
मस्तिष्क में बैठाते रहते हैं। पुरुष प्रधान समाज भी तो इन शब्दों का ऐसा ही
प्रभाव चाहकर इसे गढ़ा है। इस तरीके से इस शब्द का विरोध कर उसे संपुष्ट किया जाता
है, और पुरुषों के इच्छा को ही पूरा किया जाता
है। ऐसा कर स्त्री अपने सार्थक जीवन के अस्तित्व को “आबरु” के घेरे में ही सुदृढ़ करता है। आंदोलनों
एवं विलापों का उद्देश्य आबरु का विरोध करना
होता है परन्तु परिणाम विपरीत और भयावह होता है। बार- बार के स्मरण से और
मानसिक चित्रण से जो स्त्रियों के अवचेतन एवं अचेतन में निश्चित और
निर्धारित होता है; वही स्त्रियों को स्वप्न से लेकर चेतन तक संचालित और नियंत्रित करता रहता
है।
मेरा मानना है कि बलात्कार को आबरु का लूट जाना मान लेना बलात्कार
से भी भयानक निहितार्थ को मान लेना है क्योंकि आबरु के लूट जाने से स्त्री का
सर्वस्व का लूट जाना मान लिया जाता है। एक स्त्री
आबरु को ही बचाने में अपना पुरा समय, सजगता और सतर्कता
लगाए रहती है और अन्य रचनात्मकता और सृजनशीलता की ओर पर्याप्त ध्यान नहीं दे
पाती। बलात्कार को एक शारीरिक और मानसिक अपराध की
परकाष्टता मानना चाहिए। यह एक साजिशतन अपराध है। बलात्कार सामाजिक व्यवस्था को अभद्र ढंग से अव्यवस्थित करने का कुत्सित
अपराध है और इस अपराध से विमुख कर देने के लिए आवश्यक दंडात्मक प्रावधान का मैं भी
समर्थन करता हूँ।
परन्तु बलात्कार के द्वारा
स्त्री के आबरु के लूट जाने का समानार्थी शब्द का इस्तेमाल नही किया जाना चाहिए। स्त्री संसार की सृजनकर्ता है। “आबरु” लूट जाने से स्त्री का अस्तित्व का समाप्त
होना मान लिया जाता है। इस बहाने स्त्री के अस्तित्व
को खोखला बना देने का प्रयास समाप्त होना चाहिए। पुरुष शारीरिक रुप में
स्त्रियों से शक्तिशाली हो सकता है और इस रुप में क्षति पहुँचा सकता है। स्त्रियाँ
मानसिक अवस्था में पुरुषों से बेहतर होती है। कुछ
मानसिक विकृत पुरुषों की वजह से सम्पूर्ण स्त्रीत्व द्वारा “आबरु”
शब्द के भाव को ढोया जाना अनुचित है। “आबरू” शब्द का इस्तेमाल ही बंद कर देना चाहिए। यह
शब्द सिर्फ लूट जाने के लिए ही बनाया गया है। इस शब्द में बोझ है, बाधा है, मानसिक तनाव है। इसको समझना है। इसे
इस नजरिए से देखना होगा। इस तरह एक क्रांतिकारी परिवर्तन होगा। इस नयी सोच
से दिशा और दशा बदलेगी। “आबरु” एक मानसिक अवस्था है और इसे स्त्रियाँ अपने
सकारात्मक पक्ष में करें। इसका इस्तेमाल ही बंद कर दीजिए।
निरंजन
सिन्हा,
स्वैच्छिक
सेवानिवृत राज्य कर संयुक्त आयुक्त, बिहार, पटना।
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