बुद्ध की बात करने का अर्थ ही है - बुद्धि की बात करना। और उत्कृष्ट बुद्धि अवश्य ही तार्किक, व्यवस्थित एवं बार बार सत्यापित किए जाने योग्य होगी, अर्थात ऐसी बुद्धि यानि ज्ञान वैज्ञानिक भी होगा। इस तरह बुद्ध में वैज्ञानिकता ही वैज्ञानिकता होगा, अन्यथा वे बुद्ध ही नहीं होते।
तार्किक, व्यवस्थित एवं बार बार
सत्यापित किए जाने वाले ज्ञान को विज्ञान कहते हैं। किसी भी विमर्श में सम्यक
निर्णय पर पहुँचने के लिए विज्ञान यानि वैज्ञानिक मानसिकता काम आता है। जो तार्किक
होते हैं, उन्हीं में विश्लेषण की क्षमता होती है। विज्ञान की भावनाओं से संचालित विचार एवं
व्यवहार को ही वैज्ञानिकवाद कहते हैं। सही निर्णय पर पहुँचने के लिए वैज्ञानिक मानसिकता की आवश्यकता होती है। भारत में प्रत्येक वर्ष विज्ञान दिवस पर विज्ञान तथा वैज्ञानिकवाद के विकास एवं प्रचार पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता
बतायी जाती है। इसी वैज्ञानिकता के अभाव के कारण भारत में लोग ढोंग, पाखंड, अंधविश्वास, कर्मकांड
आदि ऐसे ही अनावश्यक और अनुत्पादक विचारों, कार्यों एवं
व्यवहारों मे उलझे हुये है। इसमें समय, धन और संसाधन ही
नहीं लगा हुआ है, बल्कि इनकी ऋणात्मकता तो सकारात्मक
कार्यों के प्रतिफलों को भी निष्प्रभावी बनाए हुए है। सही मायनों में विज्ञान और वैज्ञानिकवाद ही देश और समाज के प्रत्येक
व्यक्ति को शांतिमय, सुखमय, और
समृद्धमय जीवन उपलब्ध करा सकता है। सरकारों एवं गैर
सरकारी संस्थाओं के सतत प्र्यास के बावजूद इस दिशा में सार्थक उपलब्धि अभी बहुत
दूर है।
प्रश्न
यह है कि इतने प्रयासों के बावजूद भी अपेक्षित सफलता क्यों नहीं मिल रही? हमारी सोंच और हमारी
ज्ञान की बुनियाद में ही कुछ बडी़ अवधारणात्मक त्रुटि तो नहीं है? ऐसा प्रतीत होता है कि सामंती वर्ग अपनी जन्म आधारित विशेषाधिकार को यथावत
बनाए रखने की साजिश में सफल है और अपनी अज्ञानता एवं
गहन विश्लेषणात्मक क्षमता के अभाव में सामान्य जन ढोंग, पाखंड, अंधविश्वास, कर्मकांड
आदि में ही उलझे हुए हैं। विज्ञान और वैज्ञानिकवाद सिर्फ कक्षाओं एवं प्रयोगशालाओं
तक सीमित रखने के लिए नहीं है, अपितु समाज और जीवन के प्रत्येक पहलुओं को जानने एवं समझने के लिए है तथा उसका सम्यक विकास के
लिए आवश्यक है।
विज्ञान
और वैज्ञानिकवाद को समझने के लिए महान भारतीय सामाजिक वैज्ञानिक गोतम बुद्ध की कुछ
विचारों और अवधारणाओं को जानना आवश्यक है। इसी से वैज्ञानिकवाद प्रसारित किया जा
सकता है। इतिहास एवं वर्तमान में जितना समाज विकसित है, जाने या अनजाने में, थोड़ा या अधिक, सभी बुद्ध की अवधारणाओं का
अनुसरण किए हुए है। विकास को वृद्धि से अंतर कर समझने की आवश्यकता है, विकास जीवन के हर क्षेत्र से सम्बन्धित है। डा० भीम राव आम्बेदकर ने अपनी पुस्तक- “बुद्ध और उनका धम्म“ में बुद्ध की शिक्षाओं को विस्तार से बताया है। बुद्ध ने परा- प्राकृतिक में विश्वास (Belief in Un- Natural), ईश्वर में विश्वास (Belief in God), आत्मा में विश्वास (Belief in Aatma) तथा कल्पना आश्रित विश्वास (Belief in Imaginary Basis) को गलत और साजिशपूर्ण बताया है। उन्होंने
इसे समझने योग्य तर्क दिया है। उपरोक्त अवधारणाओं का अध्ययन एवं मनन करने से ही
समाज और जीवन में विज्ञान और वैज्ञानिकवाद का विकास हो सकता है।
किसी
घटना के घटित होने का कारण यदि तार्किक रुप से प्राकृतिक (वैज्ञानिक) नहीं है और उसका
कारण प्रकृति से परे है – इसी को परा – प्राकृतिक कहते हैं। किसी घटना के घटित होने का
कोई तार्किक आधार या कारण नहीं जानना या जानकर भी अनजान बनना ही करिश्मा या जादू
या भाग्य का आधार है। बुद्ध ने अपने समय में
प्रचलित सभी करिश्माओ के सम्बन्ध में परा- प्राकृतिक कारण का खंडन कर सभी का
तार्किक क्रिया विधि समझाया। इनका मानना था कि हर घटना का कोई न कोई तार्किक कारण
होता है और हर कारण या तो मानवी होता है या प्राकृतिक होता है। यदि समय, आवश्यकता, परा- प्राकृतिक ही किसी घटना का एकमात्र कारण है तो क्या आदमी कठपुतली
मात्र है? यदि आदमी स्वतंत्र है और उसके बुद्धि का कोई
प्रयोजन है, तो हर घटना का या तो कोई मानवीय कारण होगा या
प्राकृतिक कारण होगा। कोई ऐसी घटना हो ही नहीं सकती, जिसका
कोई प्रकृति से परे कारण हो। इसीलिए उनका आग्रह था, कि आदमी बुद्धिवादी बने, आदमी स्वतंत्रतापूर्वक
सत्य की खोज करेँ तथा अतार्किक नहीं रहे। यह बुद्धिवाद यानि तर्कसंगतता की शिक्षा
देती है।
एक सामान्य प्रश्न है कि इस संसार को किसने पैदा किया? एक सामान्य उत्तर है, कि इस संसार को ईश्वर ने बनाया, पैदा किया। यह प्रश्न कि यह ईश्वर कौन है और कैसे अस्तित्व में आया तो इन प्रश्नों का कोई समुचित उत्तर नहीं है। आस्तिको की योजना के अनुसार ईश्वर सर्व- शक्तिमान, सर्व- व्यापक, सर्व अंतर्यामी तथा सर्वज्ञ है, परोपकारी है, दयालु है, और न्यायी भी है। बुद्ध ने ईश्वर के अस्तित्व के सिद्धांत को अस्वीकार कर दिया। ईश्वर अज्ञात है, अदृश्य है और कोई भी यह सिद्ध नहीं कर सकता कि इस संसार को किसी ईश्वर ने बनाया है। इस संसार का उद्विकास (Evolution) हुआ है, निर्माण (Construction) नहीं हुआ है।
उन्होंने प्रश्न किया कि ईश्वर में विश्वास करने से कौन सा लाभ हो सकता है? सर्वजन को इस अवधारणा से कोई लाभ नहीं है। हाँ, तथाकथित ईश्वर के स्वघोषित प्रतिनिधियों को लाभ होता है, जो सर्वजन की अज्ञानता के कारण होता है। बुद्ध का प्रश्न था कि यदि ईश्वर
स्थायी है, सतत रहने वाला है, नित्य है, अपरिवर्तनशील है तथा अनंत काल तक ऐसा
ही रहेगा और हमलोग उनके अंश है, उनकी संतानें हैं तो हम
सभी अनित्य क्यों हैं, परिवर्तनशील क्यों हैं, अस्थिर क्यों है, मरणधर्मी क्यों हैं? इसका कोई उत्तर नहीं है। बुद्ध का अगला
तर्क था, कि यदि ईश्वर सर्व शक्तिशाली है और सृष्टि का
पर्याप्त कारण है, तो आदमी के दिल में कुछ करने इच्छा
ही उत्पन्न नहीं हो सकती, कुछ करने की आवश्यकता भी नहीं
हो सकती। यदि ऐसा ही है, तो ईश्वर ने आदमी को क्यों पैदा किया? यदि ईश्वर कल्याणकारी है, तो सर्व कल्याण के विरोधी को रोकते क्यो नहीं? यदि ईश्वर दयालु
और न्यायी है, तो इतना अन्याय क्यों है? ईश्वर क्यों नहीं अपनी रचना को सुधारकर
त्रुटिहीन बनाता? यदि किसी की रचना अन्याय एवं पाप के
लिए दोषी है, तो रचनाकार भी पापयुक्त है। या तो आदमी ईश्वर
के अधीन नहीं है, या ईश्वर ही न्यायी और नेक नहीं है,
या ईश्वर अंधा है या ईश्वर ही नहीं है।
बुद्ध
का मानना था कि ईश्वर की चर्चा से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। यह संसार ईश्वर और
आदमी के सम्बन्ध पर नहीं टिका है, अपितु आदमी और आदमी के सम्बन्धों पर टिका है। ईश्वर में विश्वास ही
पुरोहिती को बरकरार रखता है और इसमें अंध विश्वास को स्थान मिलता है। ईश्वर में
विश्वास वैज्ञानिकता को अवरुद्ध करता है। बुद्ध का इस सम्बन्ध में अंतिम तर्क काफी
गम्भीर एवं विचारणीय है। क्या ईश्वर ने सृष्टि की रचना किसी पदार्थ से की, या “कुछ नहीं” (Nothing)
से की? यह तो विश्वास करना असम्भव है कि “कुछ नहीं” से “कुछ” (Something) की रचना की गई। यदि ईश्वर ने सृष्टि की रचना “कुछ”
से की है तो वह ”कुछ” जिसमें से नया “कुछ” उत्पन्न
किया गया है; वह चीज को किसने बनाया था? इसलिए उस “कुछ” का निर्माता
नहीं माना जा सकता, जो ईश्वर के किसी चीज के बनाने से पहले
से मौजुद था। इस तरह ईश्वर को सृष्टि का निर्माता नहीं माना जा सकता। इससे स्पष्ट है कि ईश्वर में विश्वास झूठा है।
बुद्ध
ने आत्मा की अवधारणा को भी साजिशतन बताया है और उसे कल्पना पर आश्रित बताया है। आत्मा अज्ञात एवं अदृश्य है। इस आत्मा को मन या
चित्त से अलग बताया जाता है और मन या चित्त को वास्तविक बताया जाता है। आत्मा को
एक तत्व विशेष बताया जाता है, जो शरीर से पृथक, किन्तु शरीर के ही भीतर, जन्म के समय से लेकर लगातार बना रहता है। शरीर के साथ ‘आत्मा’ का मरण नहीं होता। यह दुसरे जन्म के समय
दुसरे शरीर के साथ जन्म ग्रहण करती है। शरीर आत्मा का परिधान है, जिसे आत्मा बदलता रहता है। बुद्ध ने पुछा कि आत्मा क्या है? आत्मा की उत्पत्ति कैसे होती है? आत्मा कहाँ से
आता है? शरीर के मरने पर इसका क्या होता है? यह शरीर के नहीं रहने पर कहाँ और कैसे रहता है? आदि आदि। सभी का उत्तर गोल मटोल मिला। आत्मा की अवधारणा ज्यादा
खतरनाक है क्योँकि पुरोहित वर्ग इसके द्वारा शरीर के समाप्त हो जाने के बाद भी उस
व्यक्ति के आत्मा को प्रभावित करने का डर उसके वंशजों को दिखा कर उसके वंशजों से
धन ठगता है। आत्मा के द्वारा पुनर्जन्म
को स्थापित किया जाता है, और पुनर्जन्म के द्वारा इस जन्म के कष्टों को पुर्व के जन्म या अगले जन्म
से जोड़ कर सत्ता को कुव्यवस्था की जबावदेही से ही मुक्त कर देता है। मन या चित्त
का कार्य ही यदि आत्मा का भी कार्य है, तो मन या चित्त से
अलग “आत्मा” की अवधारणा की आवश्यकता ही नही है।
बुद्ध
सभी के लिए ‘विद्या’ के पक्षपाती थे। उनकी विद्या सिर्फ विद्या के लिए नहीं होकर, सर्वजन के लिए उपयोगी थी। उनके
अनुसार ‘मुँह’ एवं ‘विचार’ संयत होना चाहिए और ‘व्यवहार’ विरुद्ध नही होना चाहिए। आस्था के सम्बन्ध में उनका मानना था कि कोई ऐसी चीज हो ही नही सकती, जो गलत होने की सम्भावना से परे हो, अर्थात सभी कुछ
अंतिम सत्य नहीं है| इसलिए हर चीज परीक्षणयोग्य तथा पुन:
परीक्षणयोग्य है। यही विज्ञान के विकास का आधार है। तथ्यों की प्रामाणिकता के सम्बन्ध में उन्होंने कहा कि किसी की
बात को सिर्फ इसलिए मत मानो कि वह परम्परा से प्राप्त हुई, किसी भी बात को इसलिए मत मानो कि बहुत से लोग उसके समर्थक है, किसी भी बात को केवल इसलिए मत मानो कि वह ग्रंथों में लिखी है, या किसी आदरणीय ने कही है। बुद्ध के अनुसार वही कार्य
सही है जिसे करने से समाज में चिरकालिक सुख, शांति, और
समृद्धि स्थापित हो।
उपरोक्त
बातों, विचारों
और अवधारणाओं से अंध विश्वास, मिथ्या विश्वास, ढोंग और पाखंड का नाश होगा तथा वैज्ञानिक
सोच की प्रवृति फैलेगी। इसी के अध्ययन एवं अवलोकन से ही विज्ञान का विकास होगा।
लोग बुद्ध के अन्य शिक्षाओं का अवलोकन करते हैं, पर इस
वैज्ञानिक मानसिकता वाले विचारों का अवलोकन नहीं करते है।
हमें
बुद्ध की अर्थात बुद्धि की आधारभूत संरचनाओं को जानिए, समझिए और अन्य लोगों को भी
समझाइए। बुद्ध की वैज्ञानिकता को हमलोग मिलकर बढ़ाएं।
आचार्य निरंजन सिन्हा
स्वैच्छिक
सेवानिवृत्त
राज्य
कर संयुक्त आयुक्त, बिहार, पटना।
बहुत ही सुंदर आलेख है, सर!
जवाब देंहटाएंऐसे ही ज्ञानवर्धक लेख से हमें लाभान्वित करते रहें!
आपके संस्थागत टिप्पणी का स्वागत है। संस्थागत इसलिए क्योंकि आपके नेतृत्व में आपकी संस्था बौद्धिकता का कारखाना बन गया है।
हटाएंधन्यवाद।
Hindi sahitya
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