शुक्रवार, 15 अगस्त 2025

शाहदत देना समझदारी नहीं है

इस आलेख का शीर्षक थोडा अटपटा हो गया है, लेकिन ऐसा नहीं होना चाहिए था| खैर, शहादत एक बहुत ही सम्मानजनक अवधारणा है| आखिर इसमें किसी के जीवन का अन्त हो जाता है| चूँकि विज्ञान पुनर्जन्म नहीं मानता है, इसलिए उसके एकलौते जीवन का समापन हो जाना एक बहुत ही असाधारण घटना होती है| ऐसी अवस्था में किसी की शहादत बहुत ही सम्मानीय अवस्था होनी ही चाहिए|

किसी भी समाज या संस्कृति में 'शहादत दे देना' या 'शहादत का हो जाना' बहुत ही सम्मानीय स्थिति होती है, लेकिन उस समाज या उस संस्कृति के कुछ लोगों की प्रवृति और प्रकृति इसके विपरीत होती है| ऐसा क्यों होता है? यह सवाल मुझे बहुत परेशान करता रहता है| शायद आपको भी परेशान कर दे, लेकिन मेरा उद्देश्य किसी को भी परेशान करना नहीं है| सवाल यह है कि जब शहादत इतना सम्मानजनक होता है, तो उस समाज और उस संस्कृति के अग्रणी लोग, समृद्ध लोग, उच्च स्तरीय बौद्धिक लोग, उच्च स्तर के अधिकारी गण, राजनीतिक नेता एवं दिव्य लोग इस शहादत में बहुत पीछे क्यों रह जाते है? शायद मैंने कुछ गलत कह दिया है| ये लोग शहादत के कतार में पीछे ही नहीं होते, ये लोग शहादत की कतार में कहीं भी दूर दूर तक नहीं होते|

एक फिल्म का एक प्रसंग है| दो देशों में युद्ध हो रहा था| अवश्य ही उसमे राष्ट्रीयता की भावना उभार पर होगा| उस युद्ध में दो भाई भी शामिल थे| चूँकि दोनों भाई थे, इसलिए भी उनमे बहुत जुड़ाव था| उनमे एक को युद्ध के मोर्चे पर शहादत प्राप्त हो गया| जब दूसरे भाई को यह सब मालूम हुआ, तो यह बदला लेने के लिए उग्र और आक्रोशित हो गया| वह युवा अपने ‘जोश’ के उच्चतम उभार में था, लेकिन उसने अपना ‘होश’ खो दिया था| जब वह अपने आक्रोश और अपनी उग्रता को सम्हाल नहीं पा रहा था, तो उसके कमांडर ने उस उतावले को एक करारा तमाचा जड़ दिया| वह घबरा कर बैठ गया कि शहादत देना उनको अच्छा क्यों नहीं लग रहा?

वह सोचने लगा कि उसे भी शहादत मिलती और इस प्रक्रिया में वह अपने भाई का बदला भी तो ले लेता| उसके कमान्डर ने उससे कहा, 'तुम्हारी शहादत हमारा लक्ष्य नहीं है'| तुम पर इस राष्ट्र ने बहुत समय, संसाधन, उर्जा और वैचारिकी का निवेश किया है| यह सिर्फ तुम्हारे शहादत को पाने के लिए नहीं, बल्कि इस युद्ध को जीतने के लिए किया गया है| यह पशुओं की प्रवृति होती है कि वह सिर्फ 'रिफलेक्स तंत्र' द्वारा ही प्रतिक्रिया देता है, वह कोई और मानसिक प्रक्रिया नहीं करता है| तुम भी बिना सोचे समझे बेचैन हो गये हो| शायद उसका कमान्डर उसे ‘शहादत देने’ और ‘शहादत पाने’ में अन्तर समझा रहे थे| लेकिन मुझे यह अन्तर समझ में नहीं आया|

प्रसिद्ध लेखक मुंशी प्रेमचंद ने लिखा है, ‘अन्याय को मिटाओ, लेकिन अपने आप को मिटा कर नहीं’| इतना असाधारण वाक्य किसी असाधारण लेखक ने क्यों लिखा? क्या वे यह चाहते थे कि लोग शहादत नहीं दें, या कोई और गूढ़ बात कह रहे थे; जिसे मैं समझ नहीं पा रहा हूँ| ऊपर के प्रसंग में कमान्डर भी कुछ ऐसा ही कहना चाह रहा था| शायद ये लोग विचारों की अदम्य शक्ति को रेखांकित करना कहते थे| शायद ये लोग शारीरिक शक्ति की सीमा को समझते थे| ये वैचारिक शक्ति, यानि मानसिक शक्ति के संवर्धन और सामर्थ्य को समझाना चाहते हो| गूढ़ एवं गहरा विचार ही किसी भी रणनीति का सार (Essence) होता है| इसी सार को ही बौद्धिक भाषा में ‘दर्शन’ भी कहते हैं|

विक्टर ह्यूगों ने भी कहा है कि “जब उपयुक्त समय आता है, तब विचारों की शक्ति तत्कालीन विश्व की सभी सेनाओं की संयुक्त शक्ति से भी ज्यादा भारी होता है|” तब यह भी कहा जा सकता है कि विचारों का कभी भी कोई उपयुक्त समय आता है, या नहीं भी आता है, लेकिन यदि जब विचारों को उपयुक्त बना लिया जाय, तो वह ‘उपयुक्त विचार’ दुनिया समस्त सेनाओं को भी हरा देगा| बात यह हो या नहीं हो, यह तो स्पष्ट है कि विचारों में अदम्य शक्ति होती है| जब विचारों में अदम्य शक्ति होती है, तब शारीरिक शहादत देने के पीछे कौन लोग भाग रहे हैं?

तब शारीरिक शहादत या तो दुर्घटनाओं में हो जाती है, या उनकी प्राथमिकताओं में आ जाती है. जिनको विचारों की शक्ति पर भरोसा नहीं होता है| बौद्धिक लोग विचारों की शक्ति पर विश्वास करते हैं| ज्यादा बौद्धिक लोगों को ही दार्शनिक कहते हैं, क्योंकि वे दार्शनिक लोग बौद्धिकता के सिद्धांतों का प्रतिपादन करते हैं| दार्शनिक शताब्दियों या सहत्राब्दियों की स्थापित मान्यताओं, मूल्यों, और संस्कृतियों को उलट देते हैं| कम चिन्तनशील लोग शहादतों की तैयारी करते हैं| ज्यादा चिन्तनशील लोग जीतने की तैयारी करते हैं| आपने भी देखा होगा कि सामान्य किस्म के लोग शहादतों के आंकड़ों पर ज्यादा बौद्धिकता प्रदर्शित करते हैं|

अन्त में, एक ‘महा’ ‘राष्ट्र’ नायक, जिसने इस भारत में राष्ट्रीयता की भावना का वास्तविक एवं जमीनी शुरुआती आधार दिया, महान शिवाजी की चर्चा के बिना यह आलेख अधूरा ही रहेगा| अपने सीमित एवं अल्प संसाधनों के साथ विशाल मुग़ल साम्राज्य के विरुद्ध एक महान राष्ट्र का नींव डालकर एक आदर्श स्थापित कर दिया| वह क्षेत्र तो आज भी ‘महाराष्ट्र’ के नाम से जाना जाता है| ध्यान रहे कि मैंने किसी देश (Country) की बात नहीं की, क्योंकि एक देश राजनीतिक सीमाओं से ही बँधा होता है| लेकिन एक राष्ट्र (Nation) उस भौगोलिक क्षेत्र से जुड़ाव रखने वाले लोगों से बना होता है| इसी ऐतिहासिक एकापन की भावना को जोसेफ स्टालिन राष्ट्र कहते हैं| तब यह क्षेत्र मात्र एक ‘राष्ट्र’ ही नहीं बना, बल्कि ‘महाराष्ट्र’ बन गया| भारत आज भी एक मजबूत 'राष्ट्र' नहीं बन पाया है, और इसीलिए भारतीय संविधान की उद्देशिका में ‘राष्ट्र’ की ‘एकता एवं अखंडता’ की बात की गयी है, किसी ‘देश’, ‘राज्य’ (State) या ‘प्रान्त’ (Province) की एकता एवं अखंडता की बात नहीं है|

यहाँ बात ‘शहादत’ की चल रही है| महान शिवाजी युद्धों में सामने से भिड़ने से बचते थे| वे शहादत देने में विश्वास नहीं करते थे, अपितु वे जीत लेने में विश्वास करते थे| वे अकसर आक्रमण के लिए चुपके से आते थे, और फिर घनघोर जंगलों और पहाड़ों में विलीन भी हो जाते थे| जीत कर एक समृद्ध एवं शक्तिशाली राष्ट्र का निर्माण करने में कामयाब भी रहे|

तो हमको आपको यह विमर्श करना है कि शहादत देने की योजना बनाना है, या जीत लेने की 'दर्शन' को तैयार कर उसे क्रियान्वित करना है|

आचार्य प्रवर निरंजन जी, 

दार्शनिक, शिक्षक एवं लेखक

अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं  संस्कृति संवर्धन संस्थान|

3 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही प्रेरणादायक आलेख।
    आचार्य प्रवर को बहुत बहुत साधुवाद।

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  2. विक्टर ह्यूगों के कथन *“जब उपयुक्त समय आता है, तब विचारों की शक्ति तत्कालीन विश्व की सभी सेनाओं की संयुक्त शक्ति से भी ज्यादा भारी होता है|”*, प्रसिद्ध लेखक मुंशी प्रेमचंद के विचार *‘अन्याय को मिटाओ, लेकिन अपने आप को मिटा कर नहीं।'* तथा महान शिवाजी की व्यावहारिक स्थिति *'युद्धों में सामने से भिड़ने से बचना, शहादत देने में विश्वास नहीं करना, अपितु जीत लेने में विश्वास करना, अकसर आक्रमण के लिए चुपके से आना, तथा फिर घनघोर जंगलों व पहाड़ों में विलीन भी हो जाना एवं जीत कर एक समृद्ध व शक्तिशाली राष्ट्र का निर्माण करने में कामयाब भी रहना|'* - इन तीनों से प्रथम दो शहादत होने एवं देने के विचार से संबंधित है किन्तु तीसरा के व्यावहारिक कर्म से संबंधित होने के बावजूद मृत्यु सभी स्थितियों में किसी भी क्षण एवं किसी भी कारण से भले ही कुछ भी परिस्थिति हो एक- न - एक दिन अवश्यंभावी होता है लेकिन मानव - मूल्य संरक्षण व संवर्द्धन विरूद्ध सत्ता, जिसे मैं सत्य (सच्चाई व अच्छाई) का अंता, हंता या हत्यारा ही समझता हूं, की हठधर्मिता एवं आमजन के उस व्यक्ति के विचार विरोधी स्थिति में सत्ता प्रेरित मृत्यु का निर्भीक होकर संवरण करने की प्रतिबद्धता में ही 'शहादत' शब्द की मर्यादा परिलक्षित होती है -ऐसा मैं समझता हूं और मेरा दृढ़ विश्वास है कि सत्ता जानती ही नहीं है बल्कि इस सत्य व तथ्य कि क्रांति करनेवाले में से कुछ बेज़मीर का चयन कर सत्ता में भागीदार बना लीजिए, क्रांति बेमौत मर जाएगी।' को भलीभांति समझती है और हर हाल में इसका प्रयोग करने से नहीं चूकती है जिसे तथाकथित रूप से डॉ बी आर आंबेडकर निर्मित संविधान में सन्निहित आरक्षण और उसकी परिणति में वंचित में पैदा हुई विपन्नता व सम्पन्नता की स्थिति के मद्देनजर मॉर्क्स के विचार के अनुरूप व्यवहार तो दूर अपनी जरूरतों को भूलकर हाथरस में हुई घटना, दुर्घटना के लिए वातावरण बनाने से नहीं चूकते हैं किन्तु मैं यह अपेक्षा रखता हूं कि किसी तरह की असहमति मानवता की सेवा में ज्ञान के आयाम को उच्चतर स्थिति में ले जायेगा। वैसे बच्चों की पुस्तक 'मनोहर पोथी ' में *'खर्चा मत कर । खूब खा।'* लिखा होता था जिसे व्यवहार में लाना असंभव है क्योंकि खाने में खर्चा लगेगा और खूब खाने में तो खूब खर्चा भी करना पड़ेगा किन्तु मेरे पूज्य पिताजी, जिनकी पुण्य स्मृति ही शेष है, हमें पढ़ाते थे कि यहां खर्चा का तात्पर्य ऐसे खर्चे से जिससे अन्य खर्चे को आमंत्रण मिलता है जैसे बीड़ी, सिगरेट, मदिरापान आदि किन्तु स्वास्थ्यवर्द्धक खाद्य पदार्थों पर किया गया खर्च नहीं, भविष्य की आवश्यकता एवं बचत ही नहीं है, बल्कि उसकी सुरक्षा भी है।

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  3. बहुत अच्छा लेख और टिप्पणी

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