गुरुवार, 17 जुलाई 2025

कांवड़ यात्रा का सफरनामा

कांवड़ यात्रा भारतीय पंचाग के सावन के महीने में परकाष्ठा पर होती है। दरअसल यह परकाष्ठा नहीं होती, कांवड़ यात्रा का यही उपयुक्त और निर्धारित समय है, और बाकी अवधि की यात्रा तो यात्रियों के सुविधा मुताबिक होती है। सामाजिक मीडिया में इस पर कई तरह की विद्वतापूर्ण टिप्पणियां - सकारात्मक और नकारात्मक - आती रहती है, कुछ तो विवाद का भी स्वरूप ले लेता है। ऐसी स्थिति में मुझे भी लगता है कि इस पर मुझे भी प्रकाश डालना चाहिए।

किसी भी सामाजिक, यानि सामूहिक मानसिकता ही संस्कृति होती है, जो समाज के अचेतन से ही संचालित, नियमित, निर्देशित, नियंत्रित और प्रभावित होती रहती है। यह समस्त प्रक्रिया अचेतन स्तर पर स्वचालित मोड में होती है, और इसीलिए अदृश्य भी होती है। इसी को मनोवैज्ञानिक कार्ल जुंग का "सामूहिक अचेतन" कहते हैं। चूंकि ये मानसिक अवस्थाएँ है, इसिलिए इसकी उत्पत्ति के मूल कारणों को समझने के लिए भी मानसिक दृष्टि को परिश्रम करना चाहिए। यह सब शारीरिक आंखें नही देख समझ पाती है। कांवड़ यात्रा से संबंधित समस्त भावनाएँ, विचार और व्यवहार ही उनकी संस्कृति की जड़ों से उत्पन्न होती है।

किसी भी समस्या का समुचित समाधान किसी को इसलिए नही मिल पाता है, क्योंकि हम उसे, यानि उस समस्या को उसी यथास्थिति में, यानि उसके जड़ों को उसी स्वरूप, प्रतिरुप, संरचना और विन्यास में नहीं देख समझ पाते हैं। एक चिकित्सक भी अपने रोगियों के समुचित ईलाज के लिए उन रोगों की उत्पत्ति के मूल कारणों को जानने समझने के लिए कई प्रकार के जांच करवाते हैं। हमलोगों को कांवड़ यात्रा से संबंधित यदि कोई समस्या दिखती है, तो इसके भी समुचित समाधान के लिए कई जांच परिणाम को जानना समझना चाहिए।

मैंने इतिहास के ऐसे ही पक्षों को समझने के लिए "इतिहास का गुरुत्वीय ताल" (Gravitational Lensing of History) की अवधारणा दिया। इस अवधारणा के अनुसार किसी भी वर्तमान को समझने के लिए हमें उसी काल में जाकर उन स्थितियों, पर्यावरणीय कारकों, उन संस्कृतियों को जानना समझना होता है, जिनसे यह सब उत्पन्न हुआ। भारत के वृहत् क्षेत्र में दक्षिण पश्चिम मानसून की सक्रियता तीन मासों - सावन, भादों और आश्विन में बना रहता है। स्पष्ट है कि शुरुआती माह सावन का हुआ। भादों के माह में जलाशय भरे होते हैं, नदी नाले ऊफान पर होता है, ग्रामीण भारत की तत्कालीन आवागमन की व्यवस्था अस्त व्यस्त हो जाता रहा, लोग अपने खेतों के निकाई, गुडाई, आदि कार्यो में व्यस्त हो जाते रहे, और शेष समय बरसात की अस्त व्यस्तता में अपने परिवार की उलझनों को सुलझाने में लगा हुआ होता था।

ऐसे ही समय में समाज के दिशा निर्देशक, समाज को समर्पित समाजसेवी, और विद्वान जमात किसी सुरक्षित एवं निश्चित स्थान पर तीन मास के लिए स्थिर हो जाते थे। यह तीन मास को वर्षावास भी कहा जाता है। इस अवधि में वे अध्ययन, मनन मंथन, और विमर्श में बिताते थे। शेष नौ महीने समाज के ये लोग समाज में सक्रिय रहते थे। ऐसे लोगों को देव भी कहा जाता था। देवों के इस स्थल ही देवस्थान कहलाते हैं। ये तीन महीने में इन लोगों के लिए भोजन आदि व्यवस्था होनी चाहिए, जिसे समाज को ध्यान में रखना होता था। इसी व्यवस्था में समाज के सभी समर्थ, सजग और जिम्मेदार लोग आवश्यक रसद लेकर ससमय उन स्थानों पर स्थित लोगो तक पहुँचाते थे। इसी को आज कांवड़ यात्रा कहते हैं।
यह कार्य भादों में संभव नहीं है। सावन की फिजा अलग होती है। पूरवैया ठंडी हवाएँ और फुहार थकने नहीं देती, बागों में झूले झूलने लगते हैं, नदियाँ खतरनाक नहीं होती, और वर्षावास के इसी सुहाने मौसम में आवश्यक रसद पहुंचा दिए जाते थे। यह ग्रामीण सहित समस्त आवाम का एक मनोरंजक टूरिज्म भी है। यह देशांतर भ्रमण का सामूहिक यात्रा भी है।  कांवड़ यात्रा का यही सफरनामा है। आज इसके वर्तमान स्वरूप का यही शुरुआती दौर था।

अब आपको समझना है कि इसमें यदि कोई विकृति दिखाई देता है, उसमें आवश्यक संशोधन और सम्वर्धन कैसे होगा?

आचार्य प्रवर निरंजन जी
अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान

4 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही तथ्यपरक ज्ञानवर्धक जानकारी

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  2. बहुत ही तथ्यपरक, तर्कपूर्ण एवं ज्ञानवर्धक जानकारी।

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  3. कांवड़ को आपने वहां से नहीं जोड़ा सर जहां से पूरी दुनियां जानती है।
    आपने वहां से जोड़ने का प्रयास किया है ,जहां से कोई जानता नहीं और शायद वह मानने लायक है भी नहीं।
    श्रृवण कुमार का जिक्र तो करें,परमआदरणीय।

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  4. बात शत प्रतिशत सही है रसद पहुंचाने का माध्यम ही कांवड़ यात्रा बन गया। रामचरितमानस में तुलसी दास जी ने भी लिखा है ।भरि भरि कांवर चले कहारा। विविध वस्तु को बरने पारा।। अर्थात उस समय यह कहार जाति तक सीमित रहा होगा जो ट्रांसपोर्टिंग का कार्य करते थे।

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