मैंने कुछ युवाओं में पाया है कि यदि उनका किसी
से यौन सम्बन्ध हो जाता है, तो वे विवाह की भी सोचने लगते हैं| इसमें बहुत कुछ गलत
नहीं है, लेकिन सब कुछ सही भी नहीं है| हमें यह समझना चाहिए कि विवाह और यौन
सम्बन्ध दो अलग अलग अवधारणा है| इन दोनों में प्रत्यक्ष सम्बन्ध होते हुए भी दोनों
एक दूसरे से भिन्न है, और इसीलिए यह विचारणीय भी है|
यौन सम्बन्ध की अवधारणा भारतीय न्याय संहिता, 2023
की धारा 63 में व्यापक रूप से वर्णित है, जिसमे कई प्रक्रियाओं को इस वर्गीकरण में
शामिल किया गया है, लेकिन कुछ को इसका अपवाद भी मान लिया गया है| इसे यहाँ विस्तार
से समझना समझाना विषयान्तर होगा| इसी यौन सम्बन्ध के आधार पर विवाह कर लेना समुचित
नहीं है| लेकिन यौन सम्बन्ध से उत्पन्न में नए सामाजिक सदस्य के आगमन के कारण
विवाह को अनेक संस्कृतियों में नैतिक रूप से अनिवार्य मान लिया जाता है, हालाँकि
इससे कई सामाजिक सांस्कृतिक विवाद भी हो जाते हैं| यहाँ राज्य की भूमिका पर अलग से
विमर्श किया जा सकता है| यौन सम्बन्ध को समझ लेने के बाद, इसके लिए विवाह को भी
समझ लेना महत्वपूर्ण है|
विवाह को समझने से पहले हमें ‘ब्रह्माण्ड की ‘प्रकृति’,
‘प्रवृति’ एवं ‘सहज स्वभाव’ (Drive) को समझ लेना चाहिए| ‘ब्रह्माण्ड एवं प्रकृति के
सभी पदार्थ द्वैत (Duality) की अवस्था में मौजूद है| सभी पदार्थ कणिका (Particle)
भी हैं, और तरंग (Wave) भी है, दोनों अवस्था एक ही साथ वर्तमान होता है| इसी तरह
इतिहास और संस्कृति भी द्वैत अवस्था में होती है| इसमें ‘तथ्य’ (भौतिक पक्ष) भी
होते हैं, और इसके ही साथ उसका ‘दर्शन’ (विचार पक्ष) भी होता है| इसमें दोनों को एक
दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता है| इसी तरह प्रत्येक चेतन में ‘वस्तु पक्ष’ भी
होता है, और ‘भाव पक्ष’ भी होता है| इसी तरह सभी उच्च स्तरीय चेतनशील प्राणी में
एक स्त्री होती है और दूसरा पुरुष होता है| इन्ही दोनों के युग्मों से इस संसार
में निरंतरता है| इन दोनों में, यानि इन स्त्रियों एवं पुरुषों में ‘समन्वय’ (Co ordination),
‘सहयोग’ (Co operation) एवं ‘संवाद’ (Communication) से ही इस श्रृष्टि का स्तरीय विकास
हुआ है, अन्यथा मानव भी कीड़े मकोड़े ही होते| यही समझ प्रकृति एवं संसार के
उद्विकास एवं विकास का मूल एवं मौलिक आधार है| यहीं विवाह की अवधारणा समझ में आती
है| यौन सम्बन्ध तो पशुओं सहित अन्य जीव भी कर लेते हैं, लेकिन विवाह नामक संस्था
का निर्माण नहीं कर पाते और इसीलिए वे अपना संसार नहीं बना पाते|
विवाह एक सामाजिक संस्था (Instituition, not
Institute) है, और इस रूप में यह समाजिक व्यवस्था के आवश्यक ढाँचे एवं संरचना का
एक मूल, मौलिक एवं आधारभूत इकाई है| जब कोई व्यक्ति विवाह करता है, तो वह एक सामाजिक
सांस्कृतिक संस्था के निर्माण करता है, उसका सामाजिक घोषणा भी करता है| इस सामाजिक
सांस्कृतिक ‘घोषणा’ (Declaration) के कई गवाह होते हैं, जिनकी उपस्थिति प्रत्यक्ष
एवं अप्रत्यक्ष रूप में होती है| इसीलिए एक विवाह बिना किसी कर्मकांड के संपन्न ही
नहीं होता| कर्मकांड पर अनावश्यक विवाद वही लोग ज्यादा करते हैं, जिन्हें कर्मकांड
की ही समझ नहीं है|
मैंने यहाँ विवाह के लिए व्यक्ति शब्द का
प्रयोग किया है, क्योंकि विपरीत लिंगी के अलावे कई समाजों में समलिंगी विवाह को भी
वैधानिक मान लिया जा रहा हैं| जब हम आगे विवाह संस्था का विवेचन करेंगे, तो यह
स्पष्ट होगा कि ऐसा समलिंगी विवाह क्यों अप्राकृतिक है, और क्यों यह प्रकृति के मूल,
मौलिक एवं आधारभूत स्वभाव, लक्षण एवं प्रवृति के विरुद्ध जाता हुआ होता है? चूँकि बहुत
से विद्वान् विवाह की संस्थागत भूमिका नहीं समझते होते है, और यौन सम्बन्ध और
विवाह को समानार्थी ही समझ लेते हैं, इसी कारण ऐसे लोग समलिंगी विवाह के समर्थक हो
जाते हैं| ऐसे विद्वानों को विवाह की भूमिका यौन संतुष्टि तक ही समझ में आती है|
यौन तुष्टि तो अलग विचार है और शायद इसीलिए दो
वयस्कों के आपसी सहमति से बनाया गया यौन सम्बन्ध भारतीय न्याय संहिता की धाराओं
में अपराध नहीं है| ‘सहमति’ को स्वतंत्र, स्वैच्छिक, संसूचित एवं स्पष्ट होना
चाहिए, लेकिन यह सहमति कई अन्य प्रावधानों के अंतर्गत है| कहने का तात्पर्य यह है
कि यौन सम्बन्ध विवाह नामक संस्था के दायरे से भी बाहर हो जाता है, जिसे
विवाहेत्तर सम्बन्ध के वर्गीकरण में रखा जाता है| विवाहेत्तर संबंधों के बारे में
विधिक प्रावधान एवं नैतिक मान्यताएँ संस्कृतियों के अनुसार, या राज्यों की
व्यवस्थाओं के अनुसार बदलता हुआ भी हो सकता है|
चूँकि विवाह एक सामाजिक संस्था है, और प्रत्येक
संस्था का एक मूल एवं आधारभूत सार (Essence) होता है, एक दर्शन (Philosophy) होता
है, इसीलिए विवाह का भी एक सामाजिक सांस्कृतिक दर्शन होगा, कोई मौलिक एवं आधारभूत
उद्द्देश्य यानि कोई सार होगा| हमें विवाह के इसी मूल, मौलिक एवं आधारभूत दर्शन को
जानना एवं समझना है| विवाह के साथ ही यह सामाजिक घोषणा होता है, कि ये दोनों
व्यक्ति सामाजिक ढाँचे में एक ‘नाभिक परिवार’ के रूप में सामाजिक संरचना का एक मौलिक
इकाई हुए है| इस विवाह के साथ ही यह भी व्यक्तिगत घोषणा होता है कि इन विवाहित
युग्मों में किसकी कौन व्यक्तिगत भूमिका होगी, यानि इनमे कौन पति एवं कौन पत्नी
होंगे| इसके ही साथ इन युग्मों की विस्तारित (Extended) परिवार एवं संयुक्त (Joint)
परिवार के प्रति एक दूसरे की अपेक्षाएँ स्पष्ट होती है| ध्यान रहे कि भारत में विस्तारित
परिवार प्रचलित है, जिसमे एक ही साथ नाभिक परिवार के अतिरिक्त बड़े बुजुर्ग सहित कई
भाई बहने भी अपने नाभिक परिवार के साथ रहतें है| भारत में संयुक्त परिवार प्रचलित नहीं है, जिसमे एक से अधिक अलग अलग नाभिक
परिवार एक ही छत के नीचे रहते हैं और एक ही रसोई का प्रयोग करते हैं| इसी तरह विवाह
में नव गठित नाभिक परिवार की सामाजिक एवं सांस्कृतिक भूमिका भी निर्धारित होती है| इसी के साथ कई सामाजिक सांस्कृतिक
सीमाएँ भी निर्धारित हो जाती है, जो पद, प्रस्थिति, सम्मान आदि से भी जुडा होता
है| इसी पद, प्रस्थिति, सम्मान आदि के कारण समाज में आत्महत्या या ‘आनर किलिंग’
होते हैं|
इस तरह विवाह में द्वैत सदस्य अपनी यौन
संतुष्टि भी करते हैं, बच्चे का प्रजनन भी करते हैं, उसका पालन पोषण करते भी है,
और अपनी सामाजिक स्संस्कृतिक उत्तरदायित्वों का निर्वहन भी करते हैं| लेकिन विवाह
किसी के यौन संतुष्टि को किसी निश्चित सीमाओं में बाँधता है, या नहीं बाँधता है,
यह उसकी राज्य व्यवस्था तय करता है|
जैसा कि ऊपर समलिंगी विवाह के सम्बन्ध में यह
स्पष्ट किया गया कि ऐसा विवाह अप्राकृतिक होने के कारण ही अधिकतर संस्कृतियों में वैधानिक
रूप में अमान्य है| अप्राकृतिक यौन सम्बन्ध बना लेना, या किसी यौन आकर्षण में यौन
सम्बन्ध बना, या किसी परिस्थितिवश यौन संतुष्टि का आधार बना लेना, कदापि विवाह का
आधार नहीं बनाया जा सकता, अन्यथा समाज में कोई पशुओं से, पक्षियों से, किसी
उपकरणों से भी विवाह करता हुआ पाया जाता| यौन संबंधों को विवाह का एकमात्र आधार
मान लेना, या यौन संबंधों की पूर्ति कर लेने को ही विवाह का उद्देश्य मान लेना वैसे
विद्वानों के अनिवार्य हो जाता है, जो विवाह के दर्शन को नहीं समझते हैं|
आचार्य प्रवर निरंजन जी
अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म
एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान|