रविवार, 6 अप्रैल 2025

जाति का इतिहास

‘जाति’ भारतीय समाज का एक अवैज्ञानिक, न्याय विरोधी एवं मानवता विरोधी सामाजिक सांस्कृतिक वर्गीकरण की वास्तविकता है, जिसके मूल एवं मौलिक अवधारणा एवं उसकी जड़ों को समझें बिना उसका कोई अंतिम समाधान नहीं पाया जा सकता है| यह मध्ययुगीन सामाजिक- सांस्कृतिक सामन्तवाद की निरंतरता मात्र है|

यदि आपको किसी जाति’ का आधुनिक एवं वैज्ञानिक इतिहास यानि “सत्य एवं प्रमाणिक इतिहास” समझना है, जानना है, तो आपको सर्वप्रथम इतिहास अवधारणा को ही सम्यक एवं पर्याप्त ढंग से समझना चाहिए, कि इतिहास क्या होता है? चूँकि कोई जाति सूचक शब्द’ एक पेशागत वर्ग को भी संबोधित करता है, और चूँकि कोई जाति सूचक शब्द’ एक जातीय वर्ग को भी रेखांकित करता है, इसीलिए इस ‘पेशागत वर्ग’ एवं इस ‘जातीय वर्ग’ की अवधारणा को भी जानना समझना चाहिए, कि ‘पेशा’ क्या होता है, और इसकी उत्पत्ति एवं विकास कैसे हुआ है| इसी तरह एक ‘जाति’ की उत्पत्ति क्यों एवं कैसे हुई है? इस जाति की उत्पत्ति एवं विकास में किसी व्यक्ति या समुदाय का योगदान प्रमुख रहा है, या यह जाति किसी ऐतिहासिक शक्तियों की अनिवार्य क्रियाविधियों का परिणाम रहा है? मतलब इस जाति व्यवस्था को किसी व्यक्ति या समुदाय ने उत्पन्न किया, या यह किसी ऐतिहासिक अनिवार्य शक्तियों अनिवार्य परिणाम रहा? इसके साथ ही यह भी जानना महत्वपूर्ण होगा कि किसी जाति सूचक शब्द’ के वर्गीकरण में कौन कौन वर्तमान पेशा या जातियाँ शामिल हैं, या हो सकती है? तब ही हम ‘जाति’ का इतिहास वैज्ञानिक एवं आधुनिक तार्किकता पर पर्याप्त एवं समुचित ढंग से समझ सकते हैं, बाकि सभी जातीय इतिहास अवैज्ञानिक, असत्य, सतही एवं उथला, यानि छिछला ही होगा|

भारत में पेशा (Profession), जाति (Jati), एवं कास्ट (Caste) की अवधारणा में बहुत से भ्रम एवं त्रुटियाँ हैं| मैंने इन तीनों शब्दों को इसी क्रम में रखा है, क्योंकि सबसे पहले प्राचीन युग में ‘पेशा’ का उदय हुआ, फिर यही ‘पेशा’ ही मध्य युग में ‘जाति’ बन गया, और यूरोपीय साम्राज्यवादियों के समय  से यह ‘कास्ट’ के रूप में भी जाना जाने लगा, हालाँकि यह तीनों अवधारणा अलग अलग हैं, परन्तु भारत के सम्बन्ध में, यानि भारत के सन्दर्भ में यह बड़ी सूक्षमता से एक दूसरे से गुंथा हुआ भी है| इसीलिए ही इसे समझना बहुत जरुरी है|

‘पेशा’ का उदय एवं विकास “बुद्धिवाद” यानि ‘बुद्धि’ के उदय एवं विकास के साथ साथ हुआ, यानि प्राचीन काल में हुआ|जाति’ का उदय एवं विकास “सामन्तवाद” यानि ‘समानता के अंत’ के काल में उदय एवं विकास के साथ साथ हुआ, यानि मध्य काल में हुआ|कास्ट’ का उदय एवं विकास “आधुनिकवाद” यानि ‘आधुनिकता’ के उदय एवं विकास के साथ हुआ, यानि आधुनिक युग में ‘पुर्तगालियों’ के भारत आगमन के साथ हुआ| स्पष्ट है कि एक जाति और एक कास्ट अलग अलग हुआ| लेकिन किसी भी इतिहास को जानने एवं समझने की जो प्रविधि (Technologies) एवं क्रियाविधि (Mechanism) उपयुक्त एवं सम्यक है, वही प्रविधि एवं क्रियाविधि ही भारत में पेशा, जाति, एवं कास्ट के इतिहास को भी जानने समझने के लिए जरुरी है|  

आजकल ‘इतिहास लेखन’ के सम्बन्ध में सामान्य समाज में यह प्रश्न अक्सर कौंधता रहता है कि आज के वर्तमान एवं आधुनिक वैज्ञानिक युग में ‘इतिहास’ का, यानि ‘पुरानी बातों’ के अध्ययन या अवलोकन करने की क्या अनिवार्यता है? अक्सर लोग इतिहास को पढ़ना, ‘गड़े हुए मुर्दों को उखाड़ना’ समझते हैं, कहते हैं, मानों आधुनिक वैज्ञानिक युग में इस अध्ययन की कोई सार्थकता ही नहीं है, अर्थात हमें इतिहास क्यों पढ़ना चाहिएहमें आगे देखना चाहिएया हमें पीछे देखना चाहिएदरअसल ऐसे लोग ‘इतिहास’ की अवधारणा, परिभाषा एवं आवश्यकताओं को ही जानते समझते नहीं होते है? ऐसे लोगों में ‘तथाकथित बुद्धिजीवियों’, यानि शैक्षणिक डिग्रीधारियों  की संख्या कम नहीं है| यदि आप ‘इतिहास’ पढ़ने चले हैं, या कोई ‘इतिहास’ लिखने वाले हैं, या रचने वाले हैं, तो आपको सबसे पहले यह जानना समझना चाहिए कि ‘इतिहास’ क्या होता है? ‘इतिहास’ क्यों आवश्यक होता है? ‘इतिहास लेखन’ कैसे किया जाय, यानि ‘इतिहास लेखन’ में क्या क्या सामग्री हो ? आधुनिक यानि ‘वैज्ञानिक इतिहास’ लेखन क्या है, जिसे संतोषप्रद, तार्किक, तथ्यपूर्ण, एवं समुचित माना जाय? चाहे आप ‘इतिहास’ किसी व्यक्ति का, किसी वर्ग का, किसी समुदाय का, किसी जाति का, किसी संस्कृति का, किसी क्षेत्र का, या किसी राष्ट्र का, इत्यादि का पढ़ रहे हैं, या लिख रहे हैं, आपको उपरोक्त बिन्दुओ, परिभाषाओं,  एवं अवधारणाओं को अच्छी तरह से जानना और समझना चाहिए|

यहाँ विख्यात लेखक जार्ज ऑरवेल को एक बार याद कर लिया जाय| उन्होंने कहा था - जो इतिहास पर नियंत्रण रखता हैवह वर्तमान और भविष्य पर भी नियंत्रण रखता है|” दरअसल किसी भी वर्तमान एवं भविष्य की नींव इतिहास में ही होता है,यानि किसी भी भव्य एवं विशाल भवन की नींव भी गहरी एवं मजबूत होनी चाहिए| जड़ों में सुधार किये बिना पौधों की प्रकृति में सुधार करना संभव नहीं है| इसलिए इतिहास को पढ़ेंइतिहास को जानेंइतिहास को समझेंइतिहास की रचना करें, और इतिहास को सुधारें भी, ताकि आप का, समाज का, राष्ट्र का एवं मानवता का वर्तमान एवं भविष्य को सँवारा जा सके| लेकिन इतिहास को आधुनिक और वैज्ञानिक होना चाहिएआइएइतिहास को आधुनिक, वैज्ञानिक और पुरातात्विक दृष्टिकोण से समझें|

इतिहास क्या है :

अक्सर लोग बीती हुई बातों को, यानि अपने अतीत के वर्णन’ या ‘ब्यौरा’ को ही ‘इतिहास’ समझ लेते हैं| सामान्यत: लोग ऐतिहासिक काल खंड के किसी व्यक्ति (शासक, या नेता, या कार्यकर्त्ता) के जीवन वृत्त को, यानि उनके कार्य कलापों के वर्णन एवं ब्योरे को ही इतिहास मान लेते हैं, या समझ लेते हैं, जबकि ‘इतिहास’ इससे बहुत ज्यादा व्यापक, गहन एवं गंभीर विषय होता है| एक इतिहास में यह नहीं होता है कि एक व्यक्ति का जीवन वृत्त मात्र हो, जिसमे कोई एक व्यक्ति आया, खाया और बिना कोई मौलिक एवं कुछ नया परिणाम दिए ही गुजर गया, और उसके जीवन विवरण का विस्तार कर दिया गया हो| जिन व्यक्तियों ने इतिहास की धारा को नहीं बदला, वह ऐतिहासिक व्यक्ति हो ही नहीं सकता है|

अधिकतर विद्वान् विचारों’ (Thoughts) के उद्विकास’ (Evolution) की गाथा को, यानि विचारों  के क्रमिक एवं व्यवस्थित विकास की व्याख्या को ही इतिहासमानते  है| आप इतिहास को चेतनाओं’ (Consciousnesses) का उद्विकासभी समझ सकते हैं| ‘चेतनाओं’ के उद्विकास को, यानि इसकी उत्पत्ति एवं क्रमिक एवं व्यवस्थित विकास को, आप इतिहास कह सकते हैं, क्योंकि हमारे मूल में चेतना का विकास ही है| इस तरह, आप इतिहास को मानव समाज की ‘बौद्धिकता’ का, यानि ‘बुद्धि’ के विकास की क्रमिक एवं व्यवस्थित कहानी समझ सकते हैं| आप इतिहास को ‘सामाजिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं’ (Institutions, not Institutes) के उदविकासीय सफरनामा भी कह सकते हैं, अर्थात एक ‘इतिहास’ सामाजिक, सांस्कृतिक, एवं आर्थिक संस्थाओं के विकास की गाथा है| यानि यदि किसी इतिहास वर्णन या विषय में इन संस्थाओं में एवं इन संस्थाओं के आपसी सम्बन्धों एवं संरचनाओं में कोई बदलाव नहीं हो रहा है, या नहीं दिख रहा है, तो यह एकदम स्पष्ट है कि यह ‘इतिहास’ नहीं है, कुछ अन्य चीज है| इसीलिए ‘इतिहास’ को संस्कृतियों के अग्रगामी विकास की कहानी भी कह सकते हैं| इस तरह आप इतिहास को संस्कृतियों का सफरनामा भी कह सकते हैं| यानि इतिहास’ मानव समाज का सामाजिक सांस्कृतिक रूपान्तरण का क्रमानुसार व्यवस्थित ब्यौरा है, जो तथ्यों, तर्कों एवं साक्ष्यों पर आधारित होता हैइसे दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है, कि इतिहास मानव का सामाजिक सांस्कृतिक रूपांतरण का क्रमानुसार विश्लेष्णात्मक मूल्याङ्कन का विवरण है”|

आप इतिहास को उत्पादन, वितरण, विनिमय एवं उपभोग के साधनों एवं शक्तियों के अंतर्सम्बंधीय प्रक्रियायों के प्रतिफलों के क्रमानुसार एवं व्यवस्थित विवरण भी कह सकते हैं| इस तरह इतिहास का निरूपण तत्कालीन आर्थिक शक्तियाँ ही करती है| इसे आप बाजार के साधन एवं शक्तियों के अंत:क्रियाओं के प्रतिफलों का संचयन भी कह सकते हैं| इन्ही शक्तियों को तत्कालीन समय में ‘तत्कालीन शक्तियाँ’ कहते हैं, जिसे इतिहास के काल खंड में ‘ऐतिहासिक शक्तियाँ’ कहा जाता है| स्पष्ट है कि आर्थिक शक्तियाँ ही भौतिक एवं अभौतिक व्यवस्थाओं को नियमित, निर्देशित, नियंत्रित एवं संचालित करती रहती है, अर्थात यही शक्तियाँ इतिहास का नियमन करता रहता है| यही इतिहास को समझने का ‘वैज्ञानिक भौतिकवाद’ की अवधारणा है| ‘भौतिकवादी व्याख्या’ ही ऐतिहासिक काल की सभी भौतिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक ऐतिहासिक विचारों, घटनाओं एवं व्यवहारों यानि क्रियाओं की समुचित व्याख्या कर पाता है|

किसी अतीत के वर्णन में वैसी बहुत सी बातें होती है, जिसका वर्णन ‘इतिहास’ की आधुनिक एवं वैज्ञानिक पुस्तकों में नहीं किया जा रहा है| संयुक्त राज्य अमेरिका की प्रथम चर्चित महिला ई० रूजवेल्ट ने कहा है, - “छोटे एवं साधारण स्तर के चिन्तक अपनी बातों में ‘व्यक्तियों’ (Individuals) का वर्णन ज्यादा करते हैं, मध्यम स्तर के चिन्तक ‘घटनाओं’ (Incidents) का ब्यौरा ज्यादा देते हैं, और बड़े यानि उचें स्तर के चिन्तक ‘विचारो’ एवं ‘आदर्शों’ (Ideas) पर ज्यादातर विमर्श देते हैं, या करते हैं| इन्हें 3 I’s (तीन आई) भी कहते हैं| इसीलिए साधारण एवं निम्नतर लोग अपने इतिहास लेखन एवं अध्ययन में व्यक्तियों के कृतत्वों एवं सम्बन्धित घटनाओं के विवरण को ही इतिहास समझते हैं, जबकि आधुनिक एवं वैज्ञानिक इतिहास की पुस्तकों में यह प्रवृति नहीं दिखती है| आपने भी ध्यान दिया होगा कि आधुनिक वैज्ञानिक इतिहास की पुस्तकों में एक इतिहास में ‘व्यक्तियों’ एवं ‘घटनाओं’ के ढांचें (Framework) में, यानि उसी क्रमबद्धता में ही ‘विचारो’ एवं ‘आदर्शों’ का विस्तार रहता है, जो सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक प्रगति के लिए आवश्यक होता है| इसीलिए ‘व्यक्तियों’ एवं ‘घटनाओं’ को इतिहास का उदाहरण माना जाता है, लेकिन इतिहास नहीं माना जाता है| इसी कारण अतीत के सभी व्यक्तियों के जीवन विवरणियों एवं घटनाओं के ब्यौरे को इतिहास में स्थान नहीं दिया जाता है|

स्पष्ट है कि एक ‘इतिहास वर्णन’ में यदि सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक ढाँचाओं में, एवं उनके आन्तरिक संरचनाओं में, उनके अन्तर्सम्बन्धों में, उनके आंतरिक विन्यासों (Matrix) में यदि कोई स्थायी बदलाव नहीं हुआ है, तो कभी भी यह सब इतिहास नहीं कहलायगा| मतलब, एक इतिहास में किसी साधारण एवं सामान्य अस्थायी बदलाव के लिए कोई स्थान नहीं है, अर्थात उस बदलाव को सदैव ही अपरिवर्तनकारी, यानि स्थायी प्रभाव का होना चाहिए| यदि किसी इतिहास लेखन के नाम पर सिर्फ किसी व्यक्ति का ऐसे कृतित्व का महज वर्णन हो, या किसी घटनाओं में किसी की भागीदारी का विवरण भरा पड़ा हुआ है, लेकिन उनके द्वारा या उन घटनाओं के द्वारा  सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक प्रगति के लिए आवश्यक बदलाव नहीं हुआ है, तो अवश्य ही इतिहास नहीं है, चाहे आप उन विवरणों को कोई भी नाम दे दें|

इतिहास महत्वपूर्ण क्यों होता है :

इतिहास क्यों महत्वपूर्ण है, अर्थात इसका अध्ययन या लेखन क्यों किया जाता है, या क्यों किया जाना चाहिएइतिहास वह विषय है, जो मानव को और ज्यादा बुद्धिमान बनाता है| और यदि कोई इतिहास लेखनमानव को और ज्यादा बुद्धिमान नहीं बनाता है, तो निश्चितया वह लेखनइतिहास नहीं है, अपितु एक कथा वर्णन है| अर्थात इतिहास हमें विश्लेषण करना सीखाता है, तर्क करना भी समझाता है, विवेकशीलता भी बढाता है और वैज्ञानिक समझ भी विकसित करता हैकिसी भी समाज की वर्तमान सोच, समझ, व्यवहार, मूल्य, प्रतिमान, आदर्श, संस्कार, संस्कृति, एवं गतिविधियों को, यानि उस समाज की “सामाजिक एवं सांस्कृतिक साफ्टवेयर” को अच्छी तरह समझने के लिए हमें उसके इतिहास को ही समझना होता है| लेकिन विचारों का जड़त्व यानि सांस्कृतिक जड़ता किसी को वही देखने या समझने को बाध्य कर देता है, जो वह आदतन अभी तक देख या समझ रहा होता है, या वह देखना एवं समझना चाहता है| इसीलिए किसी समाज को आमूल चूल परिवर्तन, या रूपांतरण करने के लिए उसको बेहतर ढंग से समझना होगा, एवं तत्पश्चात उसे व्यवहार, मूल्य, प्रतिमान, आदर्श, संस्कार, संस्कृति, एवं गतिविधियों में बदलाव करने के लिए ‘सामाजिक  सांस्कृतिक साफ्टवेयर‘ को ‘री-प्रोग्राम्ड’ करना होगा| इस ‘सामाजिक  सांस्कृतिक साफ्टवेयर‘ को ही उस समाज का ‘संस्कृति’ कहा जाता है, या समझा जाता है|

‘संस्कृति’ किसी व्यक्ति, समाज, एवं राष्ट्र का समेकित एवं सम्पूर्ण मानसिक निधि है, जो उसे उसके परम्परा एवं ‘सामाजिक सांस्कृतिक पर्यावरण’ से प्राप्त होता हैयह परम्पराओं एवं संस्कारों के निर्धारित एवं निश्चित प्रतिरूपों में समाज में रहकर समाज से सीखा जाता है| कोई भी संस्कृति किसी समाज को संचालित, नियमित, निर्देशित, प्रभावित, नियंत्रित एवं संचालित करने वाला एक साफ्टवेयर होता हैकिसी भी ‘संस्कृति’ यानि उसकी ‘सांस्कृतिक बोध’ (Cultural Perception) की जड़ें उसकी ‘ऐतिहासिक बोध’ (Historical Perception) में होती हैइसीलिए किसी समाज को अपनी इछ्छानुसार ढालने के लिए, बदलने के लिए, उस समाज की इतिहास को ही बदला जाता है| अर्थात उस समाज को बदलने के लिए उस इतिहास को ही संशोधित किया जाता है, यानि पुनार्व्यख्यापित किया जाता है| इसीलिए किसी समाज की ‘संस्कृति रूपी साफ्टवेयर’ को बदलने एवं समझने के लिए, यानि उस ‘संस्कृति रूपी साफ्टवेयर’ को नए ढंग से नियमित एवं निर्देशित करने के लिए ही इतिहास का अध्ययन किया जाता है, ताकि नया एवं नवाचारी ‘संस्कृति रूपी साफ्टवेयर’ को सुनिश्चित किया जा सकेइस तरह इतिहासकिसी भी व्यक्ति, समाज, राष्ट्र एवं मानवता के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है|

कहा जाता है कि कथानक/ आख्यान (Narrative) ही जन समुदाय पर शासन करता हैं’| तो कथानक या ‘आख्यान’ क्या है? किसी भी विषय या सन्दर्भ में एक विश्वास करने योग्य कहानी ही कथानक है| चूँकि एक कथानक को विश्वास करने योग्य होना चाहिए, इसलिए एक कथानक इतिहास एवं विज्ञान का आवरण (Veil) ओढ़े एक महज कल्पना भी हो सकता है| इसमें प्रवचन, यानि कहानी का बाह्य ढाँचा तो समान ही रहता है, लेकिन उसके ओट में, यानि उसके आड़ में व्याख्याएँ कथा वाचक की मंशा के अनुरूप होता है| कहने का तात्पर्य यह है कि किसी भी कथानक/ कहानी में 'इतिहास का सुगंध' यानि 'इतिहास का छौंक' एवं ‘विज्ञान का सतही स्पर्श’ ही उस कहानी यानि कथानक को विश्वसनीय बनाता है| इतिहास के एक हिस्से या प्रसंग के रूप में प्रस्तुत होने से इसके प्रवाह में अच्छे अच्छे बुद्धिजीवियों की तथाकथितवैज्ञानिकता, प्रज्ञाशीलता एवं विद्बता बह जाती है| यह कथानक उनको बहा ले जाने या उड़ा ले जाने का बहुत ही आसान तरीका होता है| इन कथानकों को भी सामान्य जन इतिहास ही समझता है, लेकिन यह इतिहास के नाम पर कुछ और ही कहता हुआ होता है| इसीलिए वैज्ञानिक इतिहास जानना एवं समझना आवश्यक होता है|

यदि कोई भी उपरोक्त विश्लेषण एवं मूल्याङ्कन को समझता है, तो वह अवश्य ही आधुनिक एवं वैज्ञानिक इतिहास लिख सकता है, समझ सकता है, जो पुरातात्विक तथा प्राथमिक प्रमाणिक साक्ष्यों एवं तथ्यों पर आधारित तर्कपूर्ण, वैज्ञानिक एवं विवेकशील होगा| जहां पुरातात्विक एवं प्राथमिक प्रमाणिक साक्ष्यों एवं तथ्यों को शोधों एवं अनुसंधानों में शामिल नहीं किया जाता है, वहाँ कथानक यानि मिथक ही शासन करता है| इसी कारण बहुत से समाज अनावश्यक इतिहास में उलझ कर अनावश्यक क्रिया एवं प्रतिक्रिया में अपना समय, संसाधन, धन, उर्जा, जवानी और वैचारिकी को बर्बाद करता रहता है|

इतिहास की क्रियाविधि :

प्रसिद्ध इतिहासकार प्रो० एडवर्ड हैलेट कार ने एक अन्य इतिहासकार ऐक्टन को उद्धृत करते हुए कहा है कि – हम अपने जीवन में अंतिम इतिहासनहीं लिख सकते, लेकिन हम परम्परागत इतिहासको रद्द  अवश्य कर सकते हैं|” मतलब कि कोई भी इतिहास अन्तिम रूप में लिखा नहीं जा सकता है, परन्तु इतिहास के वर्तमान स्वरुप में सदैव परिवर्तन किया जा सकता हैया सदैव परिवर्तन किया ही जाना चाहिए| इतिहास बदलने में इतिहास का ढाँचागत संरचना तो समान ही रहता है, यानि इतिहास के पात्र एवं घटनाएँ तो समान ही रहती है, लेकिन व्याख्याएँ बदलती रहती है| अर्थात इतिहास के पात्रों की मंशा, इच्छाएँ, मजबूरियाँ, उनकी स्थितियों, एवं उन शक्तियों की व्याख्याएँ बदल जाती है| ऐसा इसलिए कि समाज का सन्दर्भ बदलते परिस्थिति एवं आवश्यकता के अनुरूप सदैव बदलता रहता है, और इतिहास सदैव ही वर्तमान एवं भविष्य के समाज के लिए ही लिखा जाता है||

किसी इतिहास का 'ऐतिहासिक तथ्य' स्वयं 'इतिहास' के लिए कच्चा माल (Raw Material) नहीं होता, बल्कि  'इतिहासकार' के लिए कच्चा माल होता है| ऐसा इसलिए कहा जाता है, क्योंकि इतिहास के उन कच्चे सम्ग्रयियों से वही बात कहलायी जाती है, जिसे वह इतिहासकार उन तथ्यों के बहाने प्रस्तुत करना चाहता है| इन ऐतिहासिक तथ्यों की व्याख्या एवं निर्धारण उन इतिहासकारों के पूर्वग्रहों एवं मान्यताओं से सुनिश्चित होता है| एक इतिहासकार को अपनी रचना के द्वारा जनता की, यानि समाज की सोच, विचार, संस्कार, आदर्श, मूल्य, मंतव्य, आशय (Intention), प्रयोजन (Purpose), लक्ष्य (Target), राय (Opinion), अवधारणा और दृष्टिकोण आदि को प्रभावित, नियमित, नियंत्रित एवं संचालित करना होता है| और इसके लिए सबसे असरदार तरीका यह है कि वह इतिहासकार समाज में जो प्रभाव उत्पन्न करना चाहता है, उसी उद्देश्य एवं लक्ष्य के ही अनुरूप ही उपलब्ध तथ्यों एवं प्रक्रियाओं का उपस्थापन (Presentation) और व्यख्यापन (Explanation) करता हैयह सब इतिहास लेखन की सूक्ष्म क्रियाविधि है, जिसे सभी जागरूक एवं सतर्क पाठक को जानना समझना चाहिए|

प्रो0 हैलेट कार अपने प्रसिद्ध पुस्तक “इतिहास क्या है” में स्पष्ट करते हैं कि जब तक आप एक इतिहासकार की मंशा (Intention) नहीं समझ लेते हैंतब तक आप उस इतिहास को वास्तविक रूप में नहीं समझ सकते हैं यह हमेशा ध्यान में रहना चाहिएकि एक इतिहासकार स्वयं इतिहास का उत्पाद होता है| यह इतिहासकार कौन है और उसकी सामाजिक सांस्कृतिक पृष्ठभूमि क्या है? किसी तथ्य या प्रस्तुतीकरण अपने आप में तबतक इतिहास नहीं बन जाता है, जब तक कि यह सब मानव के सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक विकास, यानि उन्नयन की गाथा में प्रासंगिक नहीं बन जाता| इतिहास का अर्थ सिर्फ यह नहीं है कि वह तथ्यों की प्रस्तुतीकरण करें, जो उसने समझा है, या जो वह बताना या समझाना चाहता है, बल्कि वह समग्र समाज की, मानवता एवं प्रकृति की वर्तमान एवं भविष्य को भी सुधार एवं सँवार सके, यानि वर्तमान एवं भविष्य का भी ध्यान रखें|

एक इतिहासकार अपने युग के साथ अपने मानवीय अस्तित्व के सुनहरे भविष्य की शर्तों पर जुड़ा  होता है| एक इतिहास में विश्लेषण (Analysis) भी होता है, मूल्याङ्कन (Evaluation) भी होता है, सभी संभाव्य प्रश्नों यानि शंकाओं (Inquiry) का समाधान भी होता है, इन सभी का एक सामान्यीकृत एवं सर्वव्यापक (Openness) स्वरुप, यानि सिद्धांत भी होता है, और उपरोक्त सभी कुछ एक में संयोजित या संगठित या एकीकृत (Unite) भी होता है| किसी इतिहासकार को वर्तमान की सर्वव्यापक आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर ही उसे अतीत के बारे में लिखना होता है| इनमे से कोई एक भी तत्व यदि विलोपित होता है, तो वह वैज्ञानिक एवं समुचित इतिहास नहीं होता है| अर्थात एक वैज्ञानिक एवं सम्यक इतिहास को अवश्य ही वर्तमान एवं भविष्य के मानव समाज की उत्पादकता एवं विवेकपूर्ण वैचारिकी का विकास करता हुआ होना चाहिए, अन्यथा उस इतिहास का कोई ‘अर्थ’ या मतलब नहीं है|

समाज के ‘अग्रगामी रूपांतरण’ को ही ‘इतिहास’ कहते हैं, और इस रूपांतरण को ‘तत्कालीन ‘बाजार की शक्तियां’ (Market Forces) ही निर्धारित करती है| यही शक्तियाँ इतिहास के सन्दर्भ में ‘ऐतिहासिक शक्तियां’ (Historical Forces) कहलाती है| इसे ही वर्तमान में तत्कालीन यानि तात्कालिक शक्तियाँ भी कहते हैं| इन बाजार की शक्तियों, यानि ऐतिहासिक शक्तियों में उत्पादन (Production), वितरण (Distribution), विनिमय (Exchange) एवं उपभोग (Consumption) के साधनों एवं शक्तियों एवं उनके अंतर्संबंधों की ही भूमिका प्रमुख है, जैसा कि ऊपर के भागों में वर्णित हैइसी के कारण इन शक्तियों से मानवीय संस्था, मूल्य, विचार, प्रतिमान, दृष्टिकोण, संस्कार, संस्कृति एवं इससे सम्बन्धित भौतिक स्वरुप भी बदल जाते हैं| मानवीय (मानव निर्मित) संस्थाओं में विवाह, परिवार, समुदाय, राज्य, राष्ट्र, मुद्रा, बाजार, व्यापार, आस्था, आदि शामिल है, और इसमें जो परिवर्तन होता है, उसे ही इतिहास के रूप में याद किया जाता है| इन्ही सब कारणों से आधुनिक एवं वैज्ञानिक इतिहास लेखन का आधार  उत्पादन, वितरण, विनिमय एवं उपभोग के साधन एवं शक्तियाँ ही होता है|

जाति इतिहास सम्बन्धित शोध एवं अनुसंधान :

इतिहासकार क्रोशे ने घोषणा की कि सभी इतिहास ‘समसामयिक इतिहासहोते हैं”| इसीलिए सभी जातीय इतिहास भी सम सामयिक होता है| इसका स्पष्ट अर्थ यह हुआ कि इतिहास का लेखन ही वर्तमान के सन्दर्भ में होता है, और वर्तमान की समस्यायों को ही सुलझाने के लिए होता है| इस तरह इतिहास सम्बन्धित शोध एवं अनुसंधान भी वर्तमान की समस्यायों को सुलझाने के लिए और भविष्य की तैयारी के लिए होता है|

लेकिन किसी भी इतिहास को समुचित, यानि वैज्ञानिक ढंग से जानने समझने के लिए किसी को भी चार्ल्स डार्विन के ‘उद्वविकासवाद’, सिगमण्ड फ्रायड के ‘मनोविश्लेषणवाद’, कार्ल मार्क्स के ‘वैज्ञानिक भौतिकवाद (ऐतिहासिक भौतिकवाद)’, अल्बर्ट आईन्सटीन के ‘सापेक्षवाद’, फर्डीनांड दी सौसुरे का ‘संरचनावाद’ एवं जाक देरिदा के ‘विखंडनवाद’ को अवश्य ही समझना चाहिए| यह इतिहास के सभी पहलुओं को वैज्ञानिक तरीके से स्पष्ट कर देता है|

चार्ल्स डार्विन का ‘उद्वविकासवाद’ यह समझाता है कि इतिहास के सभी पहलुओं का, यानि सभी अवधारणाओं एवं क्रियाविधियों का, अर्थात किसी भी सभ्यता, संस्कृति, भाषा, विचार, चेतना, परम्परा आदि का भी उद्विकास यानि क्रमिक विकास हुआ है, अर्थात यह सदैव ही ‘सरलीकृत’ अवस्था एवं संरचना से ही ‘जटिलतर’ वर्तमान अवस्था एवं संरचना को प्राप्त करता है| सिगमण्ड फ्रायड का ‘मनोविश्लेषणवाद’ यह समझाता है कि एक व्यक्ति का मन कैसे नियमित, निर्देशित एवं नियंत्रित होता है, और एक इतिहासकार भी एक व्यक्ति ही होता है| इसीलिए एक इतिहासकार के ‘मन’ अर्थात ‘आत्म’ की विचार, भावनाएँ, व्यवहार एवं कार्य को समझने के लिए  ‘मनोविश्लेषणवाद’ आता है| कार्ल मार्क्स का ‘वैज्ञानिक भौतिकवाद’ यह समझाता है कि एक इतिहास कैसे बाजार की शक्तियों से प्रभावित एवं संचालित होता है| अर्थात बाजार की शक्तियाँ ही भौतिक एवं अभौतिक समबन्धों, संरचनाओं एवं तथ्यों का निर्धारण एवं नियमन करता है| अल्बर्ट आईन्सटीन का ‘सापेक्षवाद यह समझाता है कि इतिहास में भी सब कुछ सापेक्षिक है, अर्थात कोई भी इतिहास एक इतिहासकार के, समय के, क्षेत्र के, शक्तियों के, परिस्थिति आदि के सापेक्ष बदलता रहता है| फर्डीनांड दी सौसुरे का ‘संरचनावाद’ यह समझाता है कि प्रत्येक शब्दों, शब्द समूहों, या वाक्यों की एक विशिष्ट संरचना होती है, और इसी कारण एक ही शब्द, शब्द समूह, या वाक्य के अर्थ सतही भी हो सकते हैं, गूढ़ भी सकते हैं, एवं निहित अर्थ भी भिन्न हो सकते हैं| यह अवधारणा इतिहास में काफी उलट पुलट कर सकता है| जाक देरिदा का ‘विखंडनवाद’ यह समझाता है कि शब्द तो लेखक के होते हैं, लेकिन उसके अर्थ ‘पाठक’ के अपने होते हैं, और इसीलिए लेखक के अर्थ से भिन्न भी हो सकते हैं| इसीलिए एक इतिहास के पठनीय पाठ सामग्री को एक इतिहासकार इस तरह भी प्रस्तुत कर सकता है, कि एक पाठक उनको उसी तरह अर्थ में ले, जैसा वह इतिहासकार चाहता है, या इतिहासकार के अर्थ भाव से एक पाठक भिन्न अर्थ समझ सकता है|

इसलिए इतिहास सम्बन्धित शोध एवं अनुसंधान में उपरोक्त बातों का ध्यान रहना चाहिए|

जातीय इतिहास क्यों :

वर्तमान भारतीय समाज में, जाति एक अवैज्ञानिक अमानवीय अवधारणा होते हुए भी एक भारतीय जमीनी सामाजिक सांस्कृतिक वास्तविकता है, और यह भारत में संगठनात्मक सामाजिक समूहीकरण का मौलिक आधार माना जाता है| एक जाति के सदस्य गण अपने को एक ही विस्तारित परिवार का सदस्य मानते हैं, या माने जाते हैं, और इसी आधार पर एकापन का भाव रखते हुए संगठित/ एकत्रित होना चाहते हैं| भारत में जाति ही ‘सामाजिक पूंजी’ (Social Capital) का प्रमुख  एवं प्राथमिक मौलिक आधार होता है| जाति के आधार पर संगठित होने वाले ‘संगठन’ भी ‘जाति व्यवस्था’ को ही ध्वस्त करना अपना सर्वोच्च लक्ष्य बताते हैं, क्योंकि ये लोग भी इस ‘जाति व्यवस्था’ को एक अवैज्ञानिक एवं अमानवीय अवधारणा मानते एवं समझते है| यह ‘जाति की संरचना’ ही ‘सामाजिक सांस्कृतिक सामन्तवादी व्यवस्था’, यानि तथाकथित ‘ब्राह्मणवादी व्यवस्था’ की मूल एवं मूलभूत निर्मात्री इकाइयाँ हैं| तो फिर यह एक प्रमुख प्रश्न है कि ‘यह जातीय इतिहास’ क्यों जरुरी है?

चूँकि एक जाति भारतीय सामाजिक सांस्कृतिक धरातलीय वास्तविकता है, और यह इनके सदस्यों को एक ही ‘विस्तारित परिवार’ के होने का भ्रामक या वास्तविक अहसास देता है, इसीलिए जाति इनके सदस्यों को एकत्रित होने के लिए भावनात्मक आधार देता है| भारतीय संविधान सामाजिक एवं शैक्षणिक रूप से वर्गीकृत एवं वंचित वर्गों को इसी जातीय आधार पर कई वैधानिक तथाकथित सुविधाएँ भी देती है, और इसी कारण भारतीय समाज में जाति अपना अस्तित्व बनाए हुए है| इसके अतिरिक्त भारतीय लोकतान्त्रिक गणराज्य में प्रत्येक स्तर पर सरकार के गठन में प्रत्येक मतदाता के एक एक मत का महत्व है, इसलिए ही प्रत्येक राजनीतिक संगठन इसी के भावनात्मक आधार पर अपनी पहुँच सत्ता तक बनाना चाहता है, और जातीय आधार को हर तरह से भावनात्मक मुद्दा बनाए रखना चाहता है|

‘जाति’ ही भारतीय धार्मिक सांस्कृतिक –सामाजिक संगठन का मौलिक आधार है, अर्थात जाति ही हिन्दू धर्म के अंतर्गत जातीय श्रेष्टता एवं निम्नता आधारित सांस्कृतिक समाज का ईंट की तरह निर्मात्री मौलिक इकाई है| इसीलिए भी इस सांस्कृतिक-सामाजिक व्यवस्था के लाभार्थी भी इस अवैज्ञानिक व्यवस्था को बनाए रखना चाहते हैं| इसी कारण सभी जातियों का गौरवमयी, पुरातन एवं तथाकथित ऐतिहासिक इतिहास लेखन की परम्परा भी शुरू हुई है, और सामाजिक व्यवस्था से उसे आश्चर्यजनक समर्थन भी मिल रहा है| इस तरह जाति एक अवैज्ञानिक एवं काल्पनिक अवधारणा होते हुए भी इनके सदस्यों के लिए एवं समाज के लिए एक ‘वास्तविकता’ की तरह, एक सच्चाई की तरह कार्य करता है| भारत में ‘जाति’ एक “काल्पनिक वास्तविकता” (Imaginary Realities) की तरह कार्य करती है|

किसी भी व्यक्ति, समुदाय और समाज का “मनोबल”, यानि “आत्मविश्वास” ही सबसे बड़ा एवं प्रभावशाली शक्ति होता है, जिसके भरोसे उस व्यक्ति, समुदाय और समाज को बदला जा सकता है, उचाईयों पर ला सकता है, या इसके अभाव में बर्बाद कर दे सकता है| यही मनोबल समाज एवं व्यक्ति की अभिवृति को बदल देता है| इस ‘मनोबल’ में इतिहास बदलने की अपार क्षमता होती है| बिस्मार्क ने अपने जर्मन कबीलाई समुदायों को अपनी गौरवशाली इतिहास बता कर ही इनके मनोबल को उचाईयों पर ले जाकर जर्मनी का एकीकरण किया| औए फिर उसी मनोबल के भाव पर सवार होकर हिटलर ने विश्व को रौंद दिया| यह ‘मनोबल’ की शक्ति ही है| और दूसरी तरह, भारत के कुछ नेतृत्व भारतीय बहुसंख्यक आबादी का ही ‘क्षुद्रिकरण’, यानि “शुद्रीकरण” का अभियान चलाए हुए हैं, यानि इनके मनोबल को ध्वस्त करने का अभियान चलाए हुए है| तथापि यह होना चाहिए कि सम्पूर्ण भारतीय जनों के मनोबल को मजबूती देने की आवश्यकता है| ऐसी ही स्थिति में ही बहुसंख्यक भारतीय समाज को गौरवपूर्ण इतिहास की अनिवार्यता हो जाती है|

किसी भी समुदाय का ‘इतिहास बोध’ ही उसकी संस्कृति, यानि उसके मूल्य, प्रतिमान, संस्कार, मानसिकता, व्यवहार, अभिवृति, मनोबल, सोच आदि को निर्धारित एवं नियमित करता रहता है| अत: समुदाय की दशा एवं दिशा बदलने के लिए इतिहास को बदलना होगा, समुदाय के इतिहास का पुनर्लेखन करना होगा, लेकिन ऐसा इतिहास अवश्य ही वैज्ञानिक एवं तथ्यों पर आधारित हो|

पेशा का उद्भव एवं विकास :

‘पेशा’, ‘जाति’ एवं ‘कास्ट’ में सबसे पहले प्राचीन काल में ‘पेशा’ (Profession) की उत्पत्ति हुई, और यह अभी भी सर्वव्यापक है| तदुपरांत इस पेशा का ही भारतीय उपमहाद्वीप में मध्य युग में सामाजिक एवं सांस्कृतिक विशिष्टता के साथ ‘जाति’ (Jati) का उद्भव हुआ, और सबसे अन्त में आधुनिक युग में ‘कास्ट’ (Caste) की अवधारणा ने अपना वर्तमान स्वरुप लिया| दरअसल सभ्यता एवं संस्कृति का उद्भव कृषि कार्य के प्रारंभ से ही और कृषि कार्य के कारण ही हुआ| कृषि कार्य कोई 8000 साल पहले, यानि छह हजार साल ईसा पूर्व में प्रारंभ होना इतिहास में स्थापित है| जबतक कृषि कार्य प्रारंभ नहीं हुआ, तबतक लोग अपने जीवन की निरंतरता को बचाए रखने के उपक्रम में ही व्यस्त रहे| जब तक कृषि कार्य प्रारंभ नहीं हुआ था, तबतक लोग विपरीत प्राकृतिक आपदाओं से, हिंसक पशुओं एवं खतरनाक जीवों से, और अपनी शारीरिक आवश्यकताओं की व्यवस्था से ही जूझते रहे|

जब लोग पत्थरों की निर्भरता से मुक्त हो गए, और धातुओं के उपयोग के साथ पहाड़ों से उतर कर नदी घाटी के मैदानों, या झीलों के कछारों में आ गये, तो कृषि कार्य प्रारंभ हो गया| पहले ताम्बा एवं उसके साथ  ही मिश्र धातु (Alloy), यथा कांसा के उपयोग ने कृषि कार्य को करना व्यावहारिक बना दिया|  कृषि कार्य सबसे पहले नदियों एवं झीलों के कछारों में शुरू हुआ| लेकिन लोहे के उपयोग एवं प्रयोग ने कृषि कार्य को काफी गति दिया| इस तरह वर्तमान मानव, यानि होमो सेपियंस सेपियंस का पहला पेशा ‘कृषि’ कार्य हुआ| इस रूप में कृषक होना मानव जाति का प्रथम पेशा हुआ| इसके पहले इनका जीवन खाद्य संग्राहक का था, जीवों का शिकार करना था, और पशुओं के साथ भोजन के तलाश में अनुकूल प्राकृतिक प्रदेशों की खोज में घुमंतू था| यह सब इनकी जीवन यापन की मज़बूरी थी, और इसका कोई विकल्प भी इनके पास नहीं था, इसीलिए यह सब इनका पेशा नहीं था| मानव की लाखों वर्ष पूर्व की उत्पत्ति के बाद मानव जीवन में पहली बार कृषि के साथ स्थिर एवं स्थायी जीवन प्रारंभ हुआ| जब तक कृषि नहीं था, तबतक कोई सभ्यता एवं संस्कृति की बात नहीं थी, और इसलिए किसी पेशा की भी बात नहीं थी|

कांसा एवं लोहे के उपयोग के साथ कृषि कार्यों से इतना ज्यादा खाद्य सामग्री उत्पन्न किया जाना संभव हुआ, जिससे कृषि कार्यों में लगे हुए लोगों के अतिरिक्त वैसे लोगों के लिए भी भोजन की सुनिश्चित व्यवस्था किया जा सका, जो कृषि कार्य नहीं कर रहे थे| इस तरह, कृषि कार्य ही कृषि सहित अन्य पेशों को जीवन आधार सुनिश्चित किया, जिसके कारण अन्य पेशों का उदय संभव हो सका| कृषि के साथ सुनिश्चित खाद्य व्यवस्था संभव हुआ, और यही अन्य सभी पेशाओं को उदित होने का आधार दिया| इसी के साथ समुदाय के लिए अर्थव्यवस्था में ‘निर्माण’ प्रक्षेत्र की शुरुआत हुआ, यानि कृषि एवं मानव जीवन को सुगम एवं सरल बनाने के सम्बन्धित ‘निर्माण’, यथा उपकरण, औजार, बर्तन, हथियार, घर, कपड़ा आदि के निर्माण कार्य शुरू हुआ| यह कार्य प्रक्षेत्र अर्थव्यवस्था का द्वितीयक सेक्टर कहलाया| इस तरह द्वितीयक सेक्टर के पेशों का प्रारंभ हुआ| इसी के साथ ही अर्थव्यवस्था में ‘सेवा’ प्रक्षेत्र में ‘सेवा- प्रदाताओं’ के सम्बन्धित पेशाओं, यानि धोबी, नाई, कसाई, पुरोहित, वैद्य, ओझा, आदि का उदय भी हो गया. जिसे तृतीयक सेक्टर कहा गया|

अर्थव्यवस्था के उपरोक्त तीनों सेक्टरों के उद्विकास के साथ ही समाज के कुछ बौद्धिक जन ‘बौद्धिक सृजन’ में लग गए, जो मानव के बुद्धि का व्यवस्थित एवं समेकित विकास करने लगे| कहा जाता है कि प्राचीन भारत में बुद्धि के विकास में कोई 63 परम्परा (स्कूल) एक साथ चल रहा था| ये लोग ज्ञान का सृजन कर रहे थे, जिसे आज अर्थव्यवस्था का चतुर्थक सेक्टर (Quaternary Sector) कहते हैं| ज्ञान सृजन के चौथे सेक्टर के अतिरिक्त अर्थव्यवस्था में पंचम सेक्टर का भी उदय हो गया था, और उसका विकास होने लगा| इस पांचवें सेक्टर (Quinary Sector) में व्यक्तियों, परिवारों, समाजों, गांवों एवं राज्यों के लिए नीतियों के निर्माण एवं निर्धारण किया जाने लगा| तथागत बुद्ध अर्थव्यवस्था के इसी चतुर्थक एवं पंचम सेक्टर में कार्य कर रहे थे, यानि बुद्ध ज्ञान सृजक, वैज्ञानिक, शिक्षक, शोधार्थी एवं उपदेशक के पेशा का कार्य कर रहे थे|

अर्थव्यवस्था के पाँचों सेक्टरों का उदय एवं विकास इसी कृषि पर आधारित था| अपने शुरूआती समय से ही इन कृषि पुत्रों ने, यानि कृषकों की संतानों ने ही अर्थवयवस्था के सभी, यानि इन पाँचों सेक्टरों में कमान सम्हाला और मानव सभ्यता एवं संस्कृति को विकसित किया, जिस पर वर्तमान आधुनिक जगत टिका हुआ है| कोई भी पेशा इन कृषक परिवारों से इतर नहीं हुआ है, और अन्य सभी पेशाओं की उत्पत्ति के सभी दैवीय सिद्धांत अवैज्ञानिक हैं| आज के सभी पेशाओं के महारथियों सहित सभी पेशाओं के सभी सदस्य इन्ही कृषकों के वंशज पुत्र- पुत्रियाँ ही हैं| चार्ल्स डार्विन का उद्विकासवाद भी इसी तथ्य को संपुष्ट करता है| इस तरह कृषि कार्य करने वाले ही सभी पेशाओं के पूर्वज माता-पिता हुए| यानि वर्तमान सभी सभ्यता एवं संस्कृति के उद्भव एवं विकास में योगदान देने वाले सभी ही इन कृषकों की संतानें हुई| इस तरह, कृषक ही सभ्यता एवं संस्कृति का पितामह हुआ| इस सिद्धांत के अतिरिक्त अन्य पेशाओं की उत्पत्ति का सिद्धांत अवश्य ही दैवीय होगा, जिसे आधुनिक विज्ञान अस्वीकृत करता है, यानि बाकी सभी दैवीय मान्यताएँ कल्पनाएँ ही हैं|

कृषि कार्य एक ही साथ नदियों एवं झीलों के कछार में उतरते हुए पानी में ‘स्थलीय खेती’ और ‘जलीय खेती’ के रूप में शुरू हो गया| इस तरह स्थलीय कृषि एवं जलीय कृषि करने वाले पेशाओं का उदय हुआ| स्थलीय कृषि में, खेती में अनाज उत्पादन के अतिरिक्त पशुओं का पालन, पक्षियों का पालन, शाक - सब्जी एवं फल उत्पादन शुरू हुआ| जलीय कृषि में भी खाद्य उत्पादन के साथ मत्स्य संग्रहण, अन्य जलीय जीवों का व्यवस्थित शिकार करना शुरू हो गया| एक ही मानव समूह में, यानि एक ही समुदाय में, यानि एक ही समाज में एक ही साथ अनाज उत्पादन, पशुपालन, शाक- सब्जी, मछली एवं अन्य जलोत्पादन करने वाला पेशाओं का उदय हो गया| अपने प्रारंभिक काल में सभी एक ही विस्तारिय परिवार के सदस्य थे, जो अपनी अभिरुचियों, आवश्यकताओं, एवं क्षमताओं के अनुरूप भिन्न भिन्न कार्यों को कर रहे थे, जो नियमत: वंशानुगत रूप में स्थिर नहीं था| मतलब इन पेशाओं का चयन स्थिति अनुरूप, आवश्यकता अनुरूप, क्षमता अनुरूप एवं अभिरुचि अनुरूप होता रहा , इसीलिए यह गतिशील व्यवस्था रही| भले ही वे परिवार या समाज में रहते, देखते, समझते एक विशेषज्ञ की तरह निपुण हो रहे हों|

इसी तरह ही, इन कृषकों ने ही और इनकी आगामी संतानों ने ही बाकी सभी पेशाओं की उत्पत्ति की एवं इनको अपनाया| लेकिन इन पेशाओं में पूरे प्राचीन काल में, पारिवारिक वंशानुगत स्थिरता नहीं थी, यानि सभी पेशाओं के दरवाजे सभी के लिए खुले हुए थे, और उन पर कोई भी नैतिक, या सामाजिक, या सांस्कृतिक शर्तें नहीं थी| प्राचीन काल में पेशा एक गतिशील कार्य था, जो किसी भी परिवार या समुदाय से बंधा हुआ नहीं था| सभी पेशाओं का चयन उनकी स्वेच्छा से होता था, जो उनकी योग्यता एवं दक्षता, उनकी आवश्यकता एवं अभिरुचि, बाजार की आवश्यकता या मुखिया एवं शासक की आज्ञा पर निर्भर भी होता था| ऐसा पूरे प्राचीन काल में चलता रहा, जबतक कि मध्य युग में सामन्तवाद ने इन पेशाओं को जाति के रूप में ‘जड़’ कर मजबूत एवं सशक्त नहीं बना दिया|

स्पष्ट है कि एक ‘वर्ग’ का उदय प्राचीन काल में एक पेशा के रूप में तो अवश्य हो गया था, लेकिन एक ‘जाति’ के रूप में उदय नहीं हुआ था| इस तरह, एक पेशा के रूप में “कृषक जाति” सभी पेशाओं का पूर्वज हुआ, पितामह हुआ; और सभी पेशा उनकी ही उत्पत्ति हुई, उनकी ही संतानें हुई| एक ‘जाति’ अपनी सम्पूर्ण विशेषताओं में मध्य काल के मध्य में ही उदित एवं मजबूत हो सका, इसीलिए एक जाति को अपनी सम्पूर्ण वर्तमान विशेषताओं के साथ इसके पहले खोजना अवैज्ञानिक होगा, और इसीलिए गलत भी होगा|

वर्ण एवं जाति का उद्भव एवं विकास :

‘वर्ण’ एवं ‘जाति’ भारतीय समाज को विभाजित करने वाली जन्माधारित और पेशा आधारित एक सामाजिक एवं सांस्कृतिक व्यवस्था है, जिसे कोई भी व्यक्ति अपने एक जन्म काल में कभी बदल नहीं सकता है| भारतीय वर्ण एवं जाति व्यवस्था एक ही साथ समाज का कार्य विभाजन के रूप में क्षैतिज (Horizontal) विभाजन भी करता है, और नीचता एवं उच्चता के साथ समाज का खड़ा (Vertical) विभाजन भी करता है| वर्ण व्यवस्था समाज को मात्र चार वर्ण में ही विभाजित करता था, लेकिन ध्यान रहे कि शूद्र वर्ण के ब्रिटिश काल में विलुप्त होने के बाद आधुनिक वर्तमान युग में वर्ण व्यवस्था में मात्र तीन ही प्रथम वर्ण बचे रह गए| वर्ण व्यवस्था का आधार ‘अवर्ण व्यवस्था’ रहा, जिस पर वर्ण व्यवस्था एवं सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था आधारित था| ‘अवर्ण व्यवस्था’ सामन्तवादी कार्यपालिका के बाहर की सामान्य जनता थी, जिनमे से ही योग्यता अनुसार लोग चयनित होकर वर्ण व्यवस्था के सदस्य बनते थे| कालान्तर में अवर्ण व्यवस्था में ही जाति व्यवस्था बनी, लेकिन बाद कालों में यह सब पुनर्परिभाषित एवं पुनर्व्यवस्थित होकर एवं सारे अवधारणाओं को मिलाकर वर्तमान स्वरुप ले लिया|

समाज का क्षैतिज विभाजन का अर्थ हुआ अलग अलग पेशाओं पर आधारित स्वतंत्र विभाजन, और समाज का खड़ा विभाजन का अर्थ हुआ एक दूसरे के सापेक्ष उच्चता एवं निम्नता की सापेक्षिक स्थिति की व्यवस्था| यह जाति की मौलिक प्रकृति है| ध्यान रहे कि ‘कास्ट’ समाज का क्षैतिज विभाजन, यानि पेश विभाजन तो करता है, लेकिन खड़ा विभाजन नहीं करता है, इसीलिए कास्ट में ऊँच नीच नहीं होता है| बहुत से समाज शास्त्री मानते हैं, कि जाति का अंग्रेजी अनुवाद जाति ही होगा, नहीं कि कास्ट, जैसे ‘साडी’ का अंग्रेजी शब्द ‘साड़ी’ ही होता है, ‘गाउन’ या ‘फ्राक’ नहीं होता| सामाजिक विभाजन की ऐसी विशिष्टताओं के साथ कोई भी अन्य व्यवस्था, जो जाति के सामानांतर हो, का विश्व में कोई दूसरा उदाहरण नहीं है, यानि यह ‘जाति व्यवस्था’ अद्वितीय है| चूँकि जाति में पेशा सम्बन्धी कोई गत्यात्मकता नहीं होती है, इसलिए जाति से सम्बन्धित पेशाओं के बदलने की संभावना भी नहीं होती है| यह सांस्कृतिक रूप में ‘जड़’ (स्थिर) होता है, हालाँकि भारतीय गणतांत्रिक संविधान इन बन्धनों को नहीं मानती है|

जाति एवं वर्ण का कोई भी पुरातात्विक एवं प्राथमिक प्रमाणिक साक्ष्य प्राचीन काल से सम्बन्धित नहीं है, अर्थात किसी भी तथाकथित जाति एवं वर्ण का कोई भी अस्तित्व प्राचीन काल में नहीं था| प्राचीन काल में पेशा आधारित सामाजिक विभाजन था, जिसमे मुख्यत: सात प्रकार के पेशा शामिल बताये गये हैं| प्रारंभिक सामन्ती काल में सर्वव्याप्त पेशा आधारित गतिशील अर्थव्यवस्थाही थी, जो सामन्त काल के मजबूत होने के ही साथ ‘जाति’ के रूप में गतिहीन व्यवस्था हो गई, यानि पेशा में जाति सम्बन्धित जड़ता आ गई| प्राचीन काल के समापन पर गतिहीन अर्थव्यवस्था में यही पेशा अपने अपने क्षेत्रों की संस्कृतियों, भाषाओं, बोलियों एवं समझदारियों के अनुरूप जाति में नामित होकर वर्तमान स्वरुप ले लिया| एक ही जाति के एक ही पेशा होने के बावजूद भी भिन्न भिन्न जातियों के नामकरण में शब्दावली का प्रयोग इन्हीं आधार पर किया जाता है|

वस्तुत: जाति एवं वर्ण की उत्पत्ति ही मध्ययुगीन है, जिसे किसी व्यक्ति या समुदाय ने नहीं, अपितु ऐतिहासिक सामन्ती शक्तियों की क्रियाविधियों ने ही मध्य काल में जन्म दिया है| मध्य काल में जाति व्यवस्था एवं वर्ण व्यवस्था एक दूसरे के पूरक और एक दूसरे पर आधारित सामानांतर व्यवस्था थी| दरअसल वर्ण व्यवस्था आधुनिक काल की नौकरशाही की ही तरह सामन्ती शासन की कार्यपालिका व्यवस्था थी, जो तत्कालीन सामाजिक आर्थिक व्यवस्था के अनुरूप शासन चलाने के लिए उत्पन्न हुई थी| इसे आधुनिक युग के कार्यपालिका व्यवस्था की ही तरह समझी जानी चाहिए, जो संख्या में कभी भी सम्पूर्ण आबादी का पाँच प्रतिशत हिस्से से ज्यादा नहीं हो सकता| स्पष्ट है कि वर्ण व्यवस्था के सभी सदस्य कभी भी सम्पूर्ण आबादी का पाँच प्रतिशत ज्यादा नहीं हो सकता| ब्राह्मण प्राचीन काल में स्थापित विद्वान् एवं बौद्धिक थे, जो सामान्य जनों में से आते रहे और जिन्हें प्राचीन काल में “बाम्हन” कहा जाता था, और यह योग्यता एवं दक्षता आधारित था| मध्य काल में यह बाम्हन”नाम संशोधित होकर एवं पारिवारिक वंशानुगत होकर ‘ब्राह्मण’ कहलाया| इस तरह एक बुद्धिगत पेशा, जिन्हें प्राचीन काल में “बाम्हन” कहा जाता रहा, मध्य युग में एक जाति एवं वर्ण के रूप में ‘ब्राह्मण’ हो गया| वाचन, लेखन एवं संस्कारक के अतिरिक्त मध्ययुगीन स्थानीय राजाओं का राजतिलक करना इनका प्रमुख कार्य रहा|

क्षत्रिय प्राचीन काल के क्षेत्रीय थे, जो बड़े भू- क्षेत्रों के स्वामी थे एवं बड़े खेतिहर भी थे| ये भी पेशागत थे, और ये भी सामान्य जनों में से ही आते रहे| ये अपने क्षेत्रों में बड़े ही प्रभावशाली थे| जब मध्य काल में सर्वमान्य एवं सर्वव्यापक मुदाओं के प्रचलन का अभाव होने लगा, तो वस्तुओं के रूप में राजस्व संग्रहण करने के लिए एवं राजकीय सेवाओं के बदले वस्तुओं के रूप में ही भुगतान करना एकमात्र विकल्प रहा| ऐसी स्थिति में राजस्व संग्रहण एवं भुगतान करने के लिए स्थानीय दबंग, प्रभावशाली एवं योग्य कर्मियों की जरुरत शासको को हुई| इसी क्रम में शनै शनै ये क्षेत्रीय ही ‘क्षत्रीय’ बने, और अपनी कार्यों की अनिवार्यता के अनुरूप ताकतवर एवं प्रभावशाली भी होते गये, और कालांतर में ये अपने स्वतंत्र राज्य के राजा या सामन्त भी घोषित हुए या करने लगे| अब ये क्षेत्रीय से क्षत्रिय वर्ण एवं जाति हो गये|

वैश्य वर्गों के वैश्विक कार्य प्रणाली एवं उनकी व्यापक गतिशीलता के कारण उन्हें इस नई व्यवस्थाओं से कोई अन्तर नहीं पडा| ये सामान्य जीवन के लिए आवश्यक वस्तुओं के साथ साथ सामंतों को हथियारों एवं विलासतापूर्ण सामानों के भी आपूर्तिकर्ता थे| ये धनी होने के कारण आवश्यकतानुसार सामन्तो को अपने धन से ऋण आदि के रूप में राजकीय सहायता भी करते थे| अपनी गतिशीलता के कारण वे किसी एक सामन्त के अधीन कभी नहीं रहे| इस तरह ये एक महत्वपूर्ण आर्थिक एवं सामाजिक व्यक्ति या समुदाय हुए, और इसी कारण इन्हें भी वर्ण व्यवस्था में सम्मानित स्थान दिया गया|

शुद्र, जो वस्तुत: अपनी संख्या एवं अपनी सामाजिक कार्य भूमिका में भी ‘क्षुद्र’ (नगण्य/ महत्वहीन) थे, एवं इस नवोदित सामन्ती कार्यपालिका में सेवक या आधुनिक चपरासी की ही तरह थे| जैसे अभी 25 व्यक्ति के कार्यालयी परिवार  में दो या तीन सेवक/ चपरासी होते हैं, वैसे ही उस समय भी 25 व्यक्ति की व्यवस्था में दो तीन ही शूद्र सेवा में रहते थे| ध्यान रहे कि सामान्य जन को शूद्र बनाने का प्रचलन प्रथम विश्वयुद्ध के बाद शुरू हुआ, और तथाकथित बहुजन नेताओं ने इस क्षुद्रिकरण यानि शुद्रिकरण अभियान को गति दी है| यही वर्ण व्यवस्था थी| शूद्र की नगण्य संख्या का ब्रिटिश शासन में विलोप हो गया| शेष उपरी तीन वर्ण समय के साथ एवं सामाजिक सांस्कृतिक गतिहीनता में जाति के रूप में स्थापित हो गये| आधुनिक समय में कोई भी जाति शूद्र वर्ण में नहीं बचा है, भले ही कोई अपने को कुछ भी बता रहा हो| इसे ऐसे समझा जा सकता है कि जैसे आधुनिक पदस्थ कलक्टर का बेटा भी अपने को बिना पद या योग्यता के ही कलक्टर कहने लगे, और उसका नाम भी यही हो गया| चूँकि उस समय में पद वंशानुगत होने लगा, और पिता की सभी उपाधि भी पुत्र को प्राप्त होने लगा, इसलिए यह उपाधि भी जाति का स्वरुप लेने लगा| चूँकि वर्ण व्यवस्था के सदस्य गण ‘अवर्ण’ व्यवस्था में से ही अपेक्षित योग्यता अनुसार आते थे, इसीलिए जबतक वर्ण व्यवस्था जाति के रूप में ‘जड़’ नहीं हुआ था, तबतक सभी जातियों के सक्षम लोग ब्राह्मण एवं क्षत्रिय बनते रहे| इसके उदाहरण इतिहास में भरे पड़े हैं|

इस ‘वर्ण’ व्यवस्था से बाहर ‘अवर्ण’ व्यवस्था थी, और अपने शुरूआती काल में यह वर्ण व्यवस्था इसी अवर्ण व्यवस्था से उपजी सामन्ती कार्यपालिका, यानि सामन्ती ‘शासन व्यवस्था’, यानि नौकरशाही रही| यही ‘अवर्ण’ व्यवस्था पंद्रहवीं सोलहवीं में आर्थिक एवं सामाजिक गतिहीनता में जड़ होकर ‘जाति’ का स्वरुप ले लिया, और यह जन्म आधारित हो गया| समय के साथ अपने अपने पेशाओं के अनुरूप जातियाँ बनी या कहलायी| सामाजिक सांस्कृतिक रूपांतरण की इस क्रियाविधि  की गत्यात्मकता (Dynamism of Mechanics) को समझे बिना जाति के इतिहास को नहीं समझा जा सकता है|  इस तरह यह स्पष्ट है कि किसी भी जाति का इतिहास मध्य युग के पहले, यानि प्राचीन काल में नहीं जा सकता है| अत: किसी भी जाति एवं वर्ण के इतिहास को प्राचीन काल में बताना गलत और अवैज्ञानिक है| जातियों का इतिहास को पेशा के रूप में प्राचीन काल में ले जाया जा सकता है, क्योंकि प्राचीन काल में तो पेशागत कार्यों का विभाजन था, और यही पेशा ही मध्य काल में जातियों के कार्य का आधार भी बना| पाषाण युग में आधुनिक वर्तमान मानव के पूर्वज पहाड़ों पर रहते थे, और वे पूर्णतया पत्थरों पर ही निर्भर थे| उन्हें अपनी एवं अपने समूह की शारीरिक आवश्यकताओं से ही फुर्सत नहीं थी और इसीलिए पाषाण काल में किसी भी सभ्यता एवं संस्कृति का उद्भव नहीं हो सका था|

रोमन साम्राज्य के पतन एवं अरबों के उदय के साथ ही कई स्थापित सत्ता अस्थिर हो गए, और संरक्षण के अभाव में सर्वमान्य एवं सर्वव्यापक मुद्रा ही प्रचलन से बाहर होना शुरू हो गया| ध्यान रहे कि एक मुद्रा राज सत्ता से ही प्रत्याभूत होता है, यानि गारंटीड होता है| नगदी के प्रचलन के अभाव में ही सामन्तो का, यानि सामन्ती व्यवस्था का उदय हुआ, यानि सामन्तवाद फैलने लगा| वाणिज्य एवं व्यापार के सिकुड़ने से अर्थव्यवस्था गतिहीन होने लगा, नगरों का पतन होने लगा, और अर्थव्यवस्था मुख्यत: कृषि प्रधान होने लगी| इससे सामाजिक जीवन ही गतिहीन होकर स्थानीयता में जड़ होने लगी| पेशा आधारित जीवन ही जड़ होकर जाति का स्वरुप लेने लगा| जाति एक गतिहीन समुदाय के रूप में उभरने लगा, और समूह के अन्दर ही विवाह होने से यह समुदाय स्थानीयता में सिकुड़ता चला गया| देश देशांतर भ्रमण का प्रयोजन सिर्फ धार्मिक ही रहा, जो जीवन में कभी कभार ही किया जा सकता था, और वह भी पर्याप्त धन की वयवस्था से ही संभव था|

आर्थिक गतिहीनता के कारण, यानि कृषि भूमि पर आधारित होने के कारण समय के साथ ही समुदाय का अपने पारिस्थितिकी, यानि भौगोलिक अनुकूलन के कारण उसकी जीनीय संरचना में भी बदलाव होने लगा| जीनीय संरचना में जीनोटाइप (Genotype) बनावट में तो मामूली, लेकिन फेनोटाइप (Phenotype) बनावट में अनुकूलन के कारण दृश्य अन्तर भी स्पष्ट दिखने लगा| सीमित समुदाय के जीनीय संरचना में जीनीय बहाव’ (Genetic Drift) होता है, और विस्तृत क्षेत्र में फैले हुए समुदाय के जीनीय संरचना यानि बनावट में ‘जीनीय प्रवाह’ (Genetic Flow) होता है| किसी जीनीय पूल से किसी ख़ास जीन के बाहर निकल जाने एवं उसके फिर से वापस नहीं होने की संभावना ही जीनीय बहाव कहलाता है| इसी तरह किसी जीनीय पूल में किसी ख़ास जीन के निकल जाने के बाद फिर से उसी जीन के वापस उसी पूल में आने को हो जीनीय प्रवाह कहा जाता है| इसी कारण जिन जातियों का संख्या के आधार पर आकार छोटा यानि कमतर होता है, और जिन जातियों का आकार व्यापक भौगोलिक क्षेत्र में प्रसारित होता है एवं संख्या ज्यादा होता है, उनकी जीनीय बनावट में अंतर देखा जा सकता है| कुछ चतुर बुद्धिजीवियों ने इसे आधार बना कर और इसकी स्वाभाविक वैज्ञानिकता को छिपा कर जातियों को सदियों पुराना बताना चाहते हैं| यह सब वैज्ञानिकता की ओट में सामान्य जन को भ्रमित करने का खेल हैं, और इसे सांस्कृतिक विरासत के रूप में स्थापित करना चाहते हैं, इसे समझने की जरुरत है| 

वर्ण व्यवस्था के उपरी तीन वर्ण अपने कार्य प्रकृति के कारण पूरे भारतीय क्षेत्र में फैले हुए थे, और उनमे जीनीय प्रवाह के कारण उनकी जीनीय बनावट स्थिर रही| अर्थव्यवस्था के प्राथमिक, द्वितीयक एवं तृतीयक सेक्टर में काम करने वाले लोगों का कार्य क्षेत्र स्थानीयता में ही सीमित रह गया| अर्थव्यवस्था के चतुर्थक एवं पंचम सेक्टर के लोगों की प्रकृति अखिल भारतीय होती रही| कालांतर में और बढती एवं गतिशील आबादी की यही पेशा मध्य काल में जाति का स्वरुप ले लिया, जो आज भी मौजूद है| अवर्ण समुदाय कालांतर में जातियों में चिह्नित हो गया, जो सामान्य अर्थव्यवस्था का आर्थिक आधार था|

वर्ण एवं जाति के सम्बन्ध में विगत पचास एवं सत्तर वर्षों में कई नए पुरातात्विक साक्ष्य, वैज्ञानिक खोज एवं शोध तथा अध्ययन की वैज्ञानिक तकनीकों में सुधर एवं अवधारणाओं में कई मौलिक, मूल एवं मूलभूत परिवर्तन हुए हैं, जिससे पहले की बहुत से स्थापित एवं प्रमाणिक तथ्य, तर्क एवं साक्ष्य आज अवैज्ञानिक, अतार्किक, एवं गलत साबित हो गये हैं| पाठक इसका ध्यान अपने चेतना में अवश्य ही रखें|

जाति आधारित विभाजन होने के बावजूद ग्रामीण क्षेत्रों में, यानि ग्रामीण अर्थव्यवस्था में कृषि एवं सम्बन्धित कार्य ही जीवन की प्रमुख गतिविधि रही| पंद्रहवीं एवं सोलहवीं तक जाति व्यवस्था इस तरह सुदृढ़ एवं स्थापित होने लगी, जिसका स्वरुप आज से मिलता जुलता हुआ होने लगा| मतलब गैर खेतिहर जातियां भी कृषि कार्यों में ही लगी हुई थी| अनाज यानि खाद्यान्न उत्पादन सभी जातियां का मुख्य पेशा रहा, क्योंकि खाद्यान्न उत्पादन ही जीवनयापन का प्रमुख आधार था| जिनके पास अपनी भूमि नहीं थी, वे दूसरों के खेतों में या तो बटाई पर खेती करते थे, या दूसरों के लिए खेतिहर श्रमिक बने| एक पशुपालक, या मत्स्य पालक भी खेती कार्य ही प्रमुख रूप में करता था, यदि उनके पास पर्याप्त जमीने थी| स्थलीय प्रमुख खेतिहर ‘कृषक’ या ‘कुर्मी’ कहलाये, और जलीय प्रमुख खेतिहर ‘मल्लाह’ कहलाये, जो ‘निषाद’, ‘मछुआरा’, ‘केवट’, ‘बिन्द’ आदि नामों से जाने जाते हैं| स्पष्ट है कि जातियों की भूमिका यानि जातियों का स्वरुप बाजार की आश्यकताओं के अनुरूप बदलता रहता था, और खाद्यान्न के अतिरिक्त अन्य कार्य बाजार की ‘मांगों’ के अनुसार ही होता था|

प्राचीन काल में और मध्य काल में, यानि हाल तक पशुपालन कार्य एवं कृषि कार्य एक दूसरे पर ही निर्भर था| पौराणिक कथाओं में भी भगवान श्रीकृष्ण, जिन्हें ‘बंशीधर’ कहा जाता था, के बड़े भाई बलराम को, ‘हलधर’ कहा जाता था| अर्थात बड़े भाई खेती करते थे, और छोटे भाई अपने स्वभाव या इच्छानुसार पशुओं को चराते थे| यह भी सही है है कि पौराणिक कथाएँ पूर्ण एवं सच्चा इतिहास नहीं होता है, परन्तु ये इतिहास के मजबूत स्रोत भी होते हैं| पशुपालक जातियों में ‘यादव’, अहीर, ‘गड़ेरिया’, ‘गुज्जर’, रेवारी’, ‘भूटिया’, ‘गद्दी’, आदि प्रमुख हुए| हाल तक, खेती के लिए ट्रैक्टर के बहु उपयोग के पहले तक, किसानों के पास उपलब्ध पशुओं की संख्या के ही आधार पर उनके द्वारा जोते जाने वाले खेतों के क्षेत्रफल के आकार को समझा जाता रहा| इस आधार पर खेतिहर जातियाँ और पशुपालक जातियाँ हाल तक एक परिवार के सदस्य रहे|

कालांतर में, खेती का भी विशेषीकरण होने लगा| परिवार के कुछ सदस्यों को, किसी विशेष कारणों से, गाँव के समीपवर्ती खेती दिया जाने लगा, और ये लोग अपने को मुख्यत: शाक सब्जी, फल एवं फल तक ही  सीमित कर लिए, और ‘कुशवाहा’. ’कोइरी आदि जाति कहलाए| इसी तरह ‘पान’ का उत्पादन, मखाना का उत्पादन, मसाला का उत्पादन, कपास का उत्पादन, ईंख का उत्पादन, ‘रंग’ का उत्पादन आदि भी किया जाने लगा, और इसी अनुरूप विभिन्न जातियां उभरने लगी| इस तरह, ये भी कृषक परिवार के ही सदस्य हुए| गाँव से दूर की खेती करने वाले प्रमुखतया ‘अनाज’ के ही उत्पादन में लगे रहे और ‘कुर्मी’ कहलाए| अनाज में ‘धान’ की खेती की विशेषज्ञता करने वाले ‘धानुक’ जाति कहलाए| जाति को विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न नामों से जाना जाने लगा| ‘कृषक जाति’ के विभिन्न नाम यानि एक कार्य ही करने वालों को विभिन्न क्षेत्रीय नामों, कार्य विशिष्टता, भाषाई विविधता एवं विविध सांस्कृतिक पहचान के कारण विभिन्न नामों से, यथा ‘कुनबी’, ‘पटेल’, ‘पाटीदार’, ‘मराठा’, ‘जाट’, ‘गुर्जर’, ‘धानुक’, ‘लोधी, ‘कापू’, ‘कम्मा’, रेड्डी’, ‘नायडू’, ‘नायर’, ‘भूमिहार’, आदि कहलाए| इसी तरह विभिन्न जातियों का उद्भव एवं विकास हुआ|

‘आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है’, इसीलिए तत्कालीन जीवन की आवश्यकताओं ने इन्हीं कृषकों को ही अर्थव्यवस्था के अन्य द्वितीयक, तृतीयक, चतुर्थक, एवं पंचम सेक्टरों में योग्य, क्षमतावान, एवं अभिरुचि के अनुसार लोगों को आकर्षित किया| इस तरह अन्य जातियाँ भी उत्पन्न हुई| अत: कृषक, पशुपालक, एवं मत्स्य पालक आदि पेशा एवं जाति एक ही मानव समूह या समुदाय से उत्पन्न हुआ|  भारत की सभी जातियों का उद्भव इसी एक ही समुदाय – कृषक से हुआ, जिसने सभ्यता एवं संस्कृति को जन्म का आधार दिया|| इन आधारों पर ये सभी उपरोक्त जातियाँ शेष अन्य जातियों का “पैत्रिक जाति” (Parental/ Ancestral  Jati) हुआ| आज की सभी जातियों की उत्पत्ति इसी अवर्ण व्यवस्था के कृषक जातियों से ही हुआ है|

कास्ट का उद्भव एवं विकास :

जाति’ की अद्वितीय संरचना के कारण बहुत से समाजशास्त्री जातिका अंग्रेजी अनुवाद  ‘Caste’ को सही नहीं मानते हैं| ‘जाति’ के लिए अंग्रेजी शब्द ‘Caste’ पुर्तगाली अवधारणा के शब्द ‘Casta’ पर आधारित होने के कारण एवं इसके अर्थ में संरचनात्मक भिन्नता के कारण ही ऐसी आपत्ति करते है| जैसे भारतीय ‘साड़ी’ एवं ‘धोती’ का अंग्रेजी ‘Sari’ एवं ‘Dhoti’ ही होता है, और कोई दूसरा शब्द इसका विकल्प नहीं हो सकता| इसीलिए बहुत से समाजशास्त्री जातिका अंग्रेजी अनुवाद ‘Jaati’ (Jati) ही रखने के पक्ष में हैं| इसी गलत अनुवाद के कारण पश्चिमी दुनिया ‘जाति’ को पुर्तगाली ‘Casta’ के अनुरूप ही समझ कर ‘जाति’ को सही ढंग से नहीं समझ पाता है| इसे और अच्छी तरह समझने के लिए आप फ्रेंच दार्शनिक जाक देरिदा के ‘विखंडनवाद’ (Deconstructionalism) का अवलोकन कर सकते हैं| यह ‘विखंडनवाद’ यह समझाता है कि शब्द तो लेखक के होते हैं, लेकिन उसके अर्थ पाठक के अपने होते हैं| अर्थात लेखकों ने ‘जाति’ शब्द के अंग्रेजी में ‘जाति’ की संरचना के अनुरूप ही ‘Caste’ तो लिखा, लेकिन अंग्रेजी भाषा समझने वाले विद्वानों ने उसे पुर्तगाली ‘Casta’ के अनुरूप ही अर्थ समझा, जिससे जाति सम्बन्धित बहुत सी विशिष्टताएँ, यानि अमानवीय एवं अवैज्ञानिक पक्ष संप्रेषित नहीं की जा सकी| 

शब्द ‘Caste की संरचना वस्तुत: ’पुर्तगाली शब्द ‘Casta’ की अवधारणा पर आधारित है| यह पुर्तगाली संस्कृति एवं उपनिवेशवाद से व्युत्पन्न अवधारणात्मक शब्द है, जिसका भारतीय जाति से कोई प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं है| शब्दों की संरचना को अच्छी तरह से समझने के लिए आप स्विस दार्शनिक फर्दिनांड दी सौसुरे की ‘संरचनावाद’ (Structuralism) का अवलोकन कर सकते हैं| सौसुरे का ‘संरचनावाद’ यह स्पष्ट करता है, कि किसी भी शब्द या वाक्य के सतही अर्थ के साथ ही संरचनात्मक अर्थ भी होते हैं, यानि  निहित अर्थ भी होते हैं| इसलिए भारतीय जाति के लिए अंग्रेजी में ‘Jati’ के स्थान पर ‘Caste’ लिखने, यानि प्रयोग करने से ‘जाति’ का सतही अर्थ तो स्पष्ट करता है, लेकिन इसका निहित अर्थ संप्रेषित नहीं करता है| अग्रेजी शब्द Caste से ‘जाति’ शब्द अपनी पूरी संरचनात्मक अर्थ स्पष्ट नहीं कर पाता है, और पश्चिमी विद्वान् इस संबध में विशेष समझने की आवश्यकता भी नहीं समझते| पश्चिम की दुनिया मानवता के इस वीभत्स चेहरे - जाति में नीचता एवं छुआछूत - का अनुमान भी नहीं लगा पाते हैं| इस शब्द का प्रचलन पुर्तगालियों के भारत आगमन से शुरू हुआ, लेकिन इसे इस यथास्थिति में बनाये रखने के लिए भारतीय बौद्धिक ही दोषी हैं|

अब आप ‘पेशा’, ‘जाति’ एवं ‘कास्ट’ के उद्गम एवं विकासात्मक इतिहास की संकल्पना समझ गए होंगे| स्पष्ट है कि किसी भी जाति का इतिहास पंद्रहवीं सोलहवीं शताब्दी के पहले का नहीं हो सकता है, क्योंकि इसके पहले जाति अपने ठोस स्वरुप में नहीं आया था| इसके ही साथ आप जातीय इतिहास को भी समझ गये होंगे, जो अपने में जाति, कास्ट, एवं पेशाओं के इतिहास को समेटे हुए है| यही वैज्ञानिक एवं मानवीय इतिहास है, इसे ध्यानपूर्वक समझिए|

किसी भी जाति का विकास कैसे हो :

किसी भी जाति का विकास कैसे हो, अर्थात उनकी पेशा का विकास कैसे हो, एक अहम् सवाल है| जब आप किसी जाति की मौलिक संरचना एवं मौलिक उत्पत्ति को समझने लगे, तो उसकी प्रत्येक समस्यायों को भी बेहतर ढंग से समझने लगते हैं| तब ही कोई भी इनकी सभी समस्यायों का समाधान कर सकता है| सभी आधुनिक पेशा तो व्यक्ति, जाति, समाज, राष्ट्र एवं मानवता का विकास तो करता है, लेकिन इसके साथ ही शिक्षा सभी प्राचीन जातियों के मौलिक एवं मूल तत्वों यानि आधारों को भी नष्ट करता है| तब जाति की अवधारणा भी व्यवहारिक नहीं रह जायगी| यह विकास बौद्धिकता, यानि चेतना के विकास से ही और बाजार की शक्तियों के अनुकूलन करने से ही हो सकता है|

किसी भी जाति का अन्तिम भविष्य क्या है :

किसी भी जाति का सामाजिक सांस्कृतिक विलोपन होना ही आधुनिकता है, वैज्ञानिकता है, और मानवता है| ऐसा बाजार की शक्तियों के अनुरूप होना सुनिश्चित ही है, और कोई भी शक्ति इसे बाधित भी नहीं कर सकती| जाति एक सामन्ती व्यवस्था की उपज रही, जो मध्यकालीन सामन्ती शक्तियों से नियमित, निर्देशित, संचालित एवं नियंत्रित थी| आज के आधुनिक, वैज्ञानिक एवं आर्थिक युग में इस सामन्तीय संरचनात्मक एवं ढाँचागत व्यवस्था एवं स्वरुप मानवता विरोधी है, प्रगति विरोधी है, राष्ट्र एवं समाज विरोधी है, एवं लोकतत्र विरोधी भी है| यह ‘जाति’ सामाजिक सांस्कृतिक जड़ता का द्योतक है, इसीलिए  ‘जाति’ की अवधारणा का विलोपन अनिवार्य है, और यह जल्द ही समाप्त हो जायगा| नगरीकरण, वाणिज्यीकरण, संवैधानिक प्रावधान, एवं चेतना (ज्ञान) के विकास के इस दौर में पेशा का जातीय आधार धूमिल होता जा रहा है, परन्तु राजनीतिक कारणों से इसे मजबूती भी देने का प्रयास जारी है| लाभदायक एवं आधारभूत पेशाओं का चयन करना ही चेतना की समझदारी है, आवश्यकता है, और इसमें जाति की कोई भूमिका नहीं है|

अर्थव्यवस्था के विकास के साथ ही अर्थव्यवस्था में कृषि का, यानि कृषकों का सम्पूर्ण योगदान का हिस्सा सकल घरेलू उत्पादन में क्रमश: घटता जा रहा है, और इस रूप में भी कृषकों की स्थिति महत्वपूर्ण होते हुए भी कृषकों की भूमिका गौण होती जा रही है| सभी को बदलते हुए बाजार एवं तकनिकी की शक्तियों एवं मांगों के अनुरूप अपने को अद्यतन करते रहना चाहिए| किसी भी जाति का यही वैज्ञानिक एवं आधुनिक व्यवहारिक इतिहास है|

आचार्य प्रवर निरंजन जी 

अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान|

जाति का इतिहास

‘जाति’ भारतीय समाज का एक अवैज्ञानिक, न्याय विरोधी एवं मानवता विरोधी सामाजिक सांस्कृतिक वर्गीकरण की वास्तविकता है, जिसके मूल एवं मौलिक अवधारण...