शनिवार, 29 मार्च 2025

इतिहास का झूठ कैसे समझें?

इतिहास का विषय वस्तु, चूँकि बीते हुए काल का होता है, और चूँकि प्राचीन काल बहुत पहले का होता है, इसीलिए प्राचीन इतिहास में कई कई झूठ को इतिहास के पन्नो में ‘सत्य’ की तरह स्थापित कर दिया गया होता है| ऐसा नहीं है कि प्राचीन काल के अतिरिक्त अन्य काल में अनेक झूठों को स्थापित नहीं किया गया है, लेकिन प्राचीन काल में अनेक झूठों को ‘सत्य’ की तरह अटल और स्थिर बना दिया गया है, लेकिन ये सब है एकदम ‘सफ़ेद झूठ’|

यह भी सही हो सकता है कि प्राचीन इतिहास की बहुत सी त्रुटियाँ अनजाने में हुई होगी, या अज्ञानतावश हुई होगी, लेकिन बहुत सी त्रुटिपूर्ण अवधारणाएँ साजिशतन भी स्थापित किया गया लगता है| लेकिन आज यह भी आरोप लगाए जाते हैं कि उन त्रुटियों को ‘सत्य’ की ही तरह स्थापित रखने में, या तो अज्ञानतावश मजबूती दिया जा रहा है, या स्वार्थपन में संरक्षित एवं सुरक्षित कर ‘निरन्तरता’ दिया जा रहा है| अब तो ऐसा लगता है कि विज्ञान एवं तकनिकी के नाम पर इस खेल को और गति देने का प्रयास किया जा रहा है|

लेकिन कुछ आधुनिक एवं स्थापित वैज्ञानिक सिद्धांत ऐसे हैं, जो प्राचीन काल के बहुत से स्थापित ‘तथाकथित सत्य’ को ऐसे खंडित कर देते हैं, जो सब कुछ एक ही झटके में  स्पष्ट कर देता है, कि यह सब सिर्फ कपोल कल्पना ही है| आपको अपनी “आलोचनात्मक चिंतन” (Critical Thinking) को समृद्ध करने के लिए चार्ल्स डार्विन का ‘उद्विकासवाद’, सिगमण्ड फ्रायड का ‘मनोविश्लेषणवाद’, कार्ल मार्क्स का ‘ऐतिहासिक (वैज्ञानिक) भौतिकवाद’, अल्बर्ट आइन्स्टीन का ‘सापेक्षवाद’, फर्डीनांड दी सौसुरे का ‘संरचनावाद’, एवं जाक देरिदा का ‘विखण्डनवाद’ को अवश्य ही समझना जानना चाहिए|

इसमें सिर्फ चार्ल्स डार्विन का ‘उद्विकासवाद’ अकेले ही काफी है| साधारण एवं सरल शब्दों में, “उद्विकासवाद” यही कहता है कि कोई भी संरचना अपने जटिल अवस्था को अपने सरलतम अवस्था से ही सुधारते हुए प्राप्त करता है| अब इसका प्रयोग एवं उपयोग विविध विषयों में विभिन्न अवधारणाओं की सत्यता को समझने के लिए किया जाता है| यदि कोई भी अवधारणा अपनी प्रथम उत्पत्ति में ही जटिलतम अवस्था में आई है, तो वह अवश्य उत्पत्ति के दैवीय सिद्धांत के द्वारा ही मान्य होगा, जो अवश्य ही कल्पित है|

यदि कोई इतिहास अपनी विकासगाथा की व्याख्या में उद्विकासवाद को पर्याप्त स्थान नहीं देता है, यानि किसी वस्तु, या विचार यानि अवधारणाओं, या संस्था (सामाजिक, सांस्कृतिक, या आर्थिक आदि), या भाषा, संस्कृति, या घटनाओं की उत्पत्ति को उद्विकासवाद से व्याख्यापित नहीं करता है, या नहीं किया जा सकता है, तो स्पष्ट है कि वह भाग इतिहास के काल खंड में मात्र ‘झूठ’ है, ‘मिथक’ है, कल्पना है| इसी कारण ऐसी ही स्थिति में इनकी उत्पत्ति दैवीय बता कर ही व्याख्यापित किया जा सकता है, क्योंकि अन्य कोई आधार तार्किक हो ही नहीं सकता है| इतिहास का यदि कोई विचार, अवधारणा, संस्कृति, भाषा, घटना, या अन्य कोई संकल्पनात्मक उत्पत्ति की व्याख्या अप्राकृतिक हो, यानि दैवीय हो, तो आप स्पष्ट रूप में वैसी व्याख्याओं को, यानि इतिहास के वैसे भाग को, हिस्से को ‘इतिहास का झूठ’ मान सकते हैं| स्पष्ट है कि ऐसी व्याख्याओं को तार्किकता एवं वैज्ञानिकता के आधार पर व्याख्यापित किया जा संभव नहीं है| तब ऐसी व्याख्याएँ ‘बौद्धिक षड़यंत्र’ या ‘ऐतिहासिक घोटाले’ की तरह नजर आने लगती है|

अब प्राचीन इतिहास के कई हिस्सों पर “उद्विकासीय सिद्धांत” पर आधारित बड़े ही सरल एवं साधारण सवाल खड़े किये जा रहे हैं, जिसका ‘समुचित एवं पर्याप्त उत्तर’ दिया जाना मुश्किल हो रहा है| ‘समुचित एवं पर्याप्त उत्तर’ से तात्पर्य है कि ऐसा उत्तर, जो वैज्ञानिक हो, यानि तर्क पर, यानि कारण- कार्य के सिद्धांत पर आधारित हो, जिसका प्रमाण ‘प्राथमिक एवं प्रमाणिक’ हो और तथ्यात्मक भी हो| ऐसा ही उत्तर किसी को पूर्ण रूप से संतुष्ट कर पाता है| ‘समकालीन साहित्य’ को तो ‘प्राथमिक प्रमाणिक प्रमाण’ माना जा सकता है, लेकिन प्राचीनता के नाम पर बाद के काल में रचा हुआ पुरातात्विक साक्ष्य रहित साहित्य तो कतई ‘प्राथमिक प्रमाणिक प्रमाण’ नहीं माना जा सकता है| जो साहित्यिक प्रमाण ‘प्राथमिक प्रमाणिक प्रमाण’ पर आधारित नहीं है, वे ‘द्वितीयक प्रमाणिक प्रमाण’ भी नहीं हो सकते हैं, और इसीलिए इनकी प्रमाणिकता संदेह के घेरे में सदैव रहती है| यानि किसी पुस्तक में लिखी होने और उसे प्राचीन मात्र मान लेने से ही उसे ‘प्रमाणिक स्रोत’ नहीं माना जा सकता है|

यदि ‘कोई तथाकथित समाज’ अपने को किसी क्षेत्र विशेष में “मूल निवासी’ मानता है, तो उस पर कई सवाल खड़े किये जा रहे हैं| क्या उस समाज की मौलिक उत्पत्ति उसी क्षेत्र विशेष में हुई थी, या वे उस क्षेत्र विशेष में सबसे पहले रहने आए थे? ध्यान देने योग्य यह है कि सभी ‘वर्तमान मानव’ ‘होमो सेपियंस सेपियंस’ हैं, और हम सभी मानव की उत्पत्ति अफ्रीका के वोत्सवाना मैदान में कोई लगभग एक लाख वर्ष पूर्व एक ही ‘परिवार समूह’ से होने को स्थापित है| ऐसी स्थिति में कोई भी समाज या संस्कृति को अपनी ऐतिहासिक गाथा उसी उदविकासीय कड़ी में स्थापित करना होगा, अन्यथा वह झूठा है| यदि किसी प्रदेश में आप्रवासियों के झुण्ड के बार बार आते रहने की प्रक्रिया रही है, तो उस प्रदेश विशेष कोई भी मूल निवासी नहीं है, और कोई भी विदेशी नहीं है| इस तरह ‘मूल निवासी’ एवं ‘विदेशी’ की कहानी पूरी तरह झूठी है|

यदि कोई “भाषा” अपने को किसी भी क्षेत्र में ‘प्राचीनतम’ बताने का दावा करती है, तो सवाल यह है कि उसका सरलतम स्वरुप क्या रहा था, जिससे वह विकसित होकर आज तथाकथित समृद्ध एवं विकसित हुआ है? यदि किसी ऐसी भाषा को कोई दूसरे प्रदेशों से अपने साथ लाया है, तो वहाँ इसके होने के कोई प्राथमिक प्रमाण उपलब्ध हैं? चूँकि सभी वर्तमान मानव एक ही परिवार समूह की संताने हैं, इसलिए इस आधार पर भी भाषाई समानता को ध्यान में रखना होगा| किसी भी समृद्ध एवं विकसित भाषा ऐसी ही किसी ‘उन्नत’ अवस्था में उत्पन्न हुई थी, यह मानना संभव नहीं है| कहीं ऐसा तो नहीं कि किसी प्राचीन साहित्य की सामग्री को नई भाषा में अनुवादित कर या संपादित कर नया साहित्य रच दिया गया हो, और पुराने साहित्य को अब अप्राप्त बना दिया गया हो? फिर ऐसी नई साहित्य को ही प्राचीनतम बताया जा रहा है, जिसकी अधिकतर सामग्री वास्तव में प्राचीनतम ही है| यदि ऐसी किसी भाषा के साहित्य को पुरानी बतायी जाती है, तो उसे इन प्रश्नों का संतोषप्रद उत्तर देना ही होगा, अन्यथा उसकी प्राचीनता पर सवाल खड़े ही रहेंगे|

भारतीय क्षेत्र में सामाजिक विभाजन का प्रमुख आधार वर्ण एवं जाति है, जिसकी उत्पत्ति मध्य युग में सामन्तवाद के कारण हुई, लेकिन कतिपय ‘जातियों के इतिहासकार’ इसे प्राचीन काल में स्थापित करना चाहते हैं| कुछ लोग तो कई प्राचीन ऐतिहासिक सम्राटों को जातीय आधार देना चाहते हैं, जबकि उस समय जातियों का उद्भव हुआ ही नहीं था| यदि यह वर्ण एवं जाति की उत्पत्ति प्राचीन काल में ही हुई थी, तो इसके उद्भव की प्रक्रिया क्या थी? इस प्रश्न के तार्किक उत्तर नहीं देने पर यह मान लेना सामान्य है कि वर्ण एवं जाति की उत्पत्ति मध्य काल में ही हुई थी|

कुछ तथाकथित बौद्धिक यह मानते हैं कि इन वर्णों एवं जातियों की व्यवस्था एक ‘ख़ास वर्ण एवं जाति’ के लोगों ने बनायी, तो उन्हें यह भी स्पष्ट करना चाहिए कि उस ‘ख़ास वर्ण एवं जाति’ का उद्भव कैसे हुआ? ऐसे तथाकथित बौद्धिकों को “वैज्ञानिक भौतिकवाद” के बारे में कोई समझ नहीं है, यानि ऐसे तथाकथित बौद्धिकों को ऐतिहासिक शक्तियों, यानि आर्थिक शक्तियों की क्रियाविधि की समझ नहीं है| ये सभी वर्ण एवं जातियाँ सामन्ती व्यवस्था की ऐतिहासिक उपज है, और इसमें किसी व्यक्ति विशेष या किसी खास जाति विशेष की कोई ऐतिहासिक भूमिका नहीं है|

कुछ तथाकथित बौद्धिकों का यह मानना होता है किसी ख़ास प्रदेश की संस्कृति किसी दूसरे प्रदेश से संस्कृतियों के प्रवाह के परिणाम है, यानि किसी ऐसे प्रदेश की संस्कृति किसी ख़ास प्रदेश से आयी है| यह सही भी हो सकता है| लेकिन ऐसे दावा करने वालों को यह भी स्थापित करना होगा कि वहाँ यह संस्कृति कैसे उत्पन्न हुई, जहाँ से यह संस्कृति आयी हुई बतायी जा रही है? यदि यह व्याख्या करने में वैसे लोग सक्षम नहीं हैं, तो उनके दावों पर प्रश्न खड़ा हो जाता है|

आप देख रहे होंगे कि कई क्षेत्रों की ऐतिहासिक विरासत, संस्कृति एवं इतिहास ऐसे ही आधारों पर स्थापित हैं, जिनकी कोई वैज्ञानिक तार्किक आधार नहीं है| यदि ऐसी ऐतिहासिक विरासत, संस्कृति एवं इतिहास पर ऐसे ‘उदविकासीय सवाल’ खड़े होते हैं, ती इनकी सारी ऐतिहासिकता एक ही झटके में ध्वस्त हो जाती है| आप भी सोचिए, और अपने आसपास देखिए|

ऐसे ही सवाल “स्थापित इतिहास” को उल्टा कर देते हैं|

आचार्य प्रवर निरंजन जी

अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान|

2 टिप्‍पणियां:

  1. इतिहास को बिना आलोचनात्मक सोच (Critical Thinking) के स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए।

    वैज्ञानिक, पुरातात्विक, और ऐतिहासिक प्रमाणों के बिना किसी भी दावे को सत्य मान लेना खतरनाक हो सकता है।

    इतिहास को परखने के लिए तार्किकता, प्रमाण, और वस्तुनिष्ठता (Objectivity) आवश्यक है।

    हमें किसी भी ऐतिहासिक अध्ययन में पूर्वाग्रह रहित दृष्टिकोण अपनाना चाहिए और "जो लिखा है, वही सच है" की मानसिकता से बचना चाहिए।

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  2. वास्तविक इतिहास बहुत कम ही लिखा जाता है आम लोगों की जीवन शैली संस्कार संस्कृति और परम्पराओं में भी इतिहास छुपा होता है जो लेखनी में नहीं श्रुति और स्मृति के सहारे जीवित रहता है जिसके कोई ठोस भौतिक प्रमाण नहीं जुटाये जा सकते हैं।

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