मंगलवार, 27 फ़रवरी 2024

क्रिएटिव (सृजक) कैसे बनें?

पहले क्रिएटिविटी (Creativity), अर्थात सृजनात्मकता को समझा जाय और इसे रचनात्मकता या  निर्माण करना (Manufacturing) से अलग किया जाना चाहिए। यह क्रिएटिविटी क्या हैइससे संबंधित भ्रम और मिथक क्या है? और क्रिएटिव कैसे बना जाता है? आजकल आधुनिक जीवन में और नए शिक्षा उपागम (Approach) में क्रिएटिविटी, अर्थात सृजनात्मकता का महत्व बहुत बढ़ता जा रहा है। इसीलिए जीवन क्षेत्रों में 'वैज्ञानिक दृष्टिकोण '(Scientific Temper), 'आलोचनात्मक चिंतन' (Critical Thinking), 'पैरेडाईम शिफ्ट' (Paradigm Shift) और 'लीक से हटकर चिंतन' (Out of Box Thinking) का प्रयोग एवं उपयोग बढ़ता जा रहा है। इन्हीं विषयों पर आपको ठहराने के लिए, यानि इसकी गहराईयों में उतारने के लिए और इसकी व्यापकता में फैलाने के लिए ही यह आलेख है।

सृजनात्मकता (क्रिएटिविटी) एक मानसिक (और आध्यात्मिक) प्रक्रिया है, जिसके सहयोग से ही कोई नए एवं मौलिक विचार, अवधारणा, समाधान, या क्रियाविधि का अवतरण (जन्म) होता है और उसकी उपादेयता का वर्धन (Improvement) होता है। यदि किसी सृजन में मौलिकता नहीं है, तो वह सृजन नहीं कहलाएगा , अपितु यह रचना कहलाएगा। रचना में उपादेयता तो होती है, लेकिन उपादेयता का वर्धन नहीं होता है। उपादेयता में वर्धन किसी नवाचार से ही आता है, जिसमें मौलिकता का तत्व अवश्य रहता है। इसीलिए कुछ लोग सृजन को रचना से अलग करने के लिए नवसृजन (Innovation) शब्द का इस्तेमाल करते हैं। पहले से सृजित विचार, अवधारणा, समाधान, या क्रियाविधि के उपयोग कर पहले से तैयार किसी उत्पाद की प्रतिलिपि, यानि  इसकी नयी इकाई का उत्पादन रचना कहलाएगा, सृजन नहीं माना जाएगा। लेकिन आप भी प्रारंभिक दौर में सृजनात्मकता और रचनात्मकता को ही एक मानकर चल सकते हैं।

आमतौर पर क्रिएटिविटी (सृजनात्मकता) का अर्थ यह लगाया जाता है कि आप किसी  अलग, नए, विशिष्ट और उत्पादक अवधारणा की सोच पाने की योग्यता रखते हैं। हार्वर्ड बिजनेस स्कूल के अनुसार ऐसे सोच का अर्थ मौजूदा अवधारणा को नए संदर्भ में स्थापित करना भी है। मेरे अनुसार क्रिएटिव सोच वह सोच है जिस सोच में नयी अवधारणा या नया संदर्भ हो और वह समाज के लिए उपयोगी हो एवं समाज का माहौल सुधारता हो, सृजन है। यह सृजन किसी वर्तमान अवधारणा का नए संदर्भ में नयी व्याख्या भी देना है, जिससे वर्तमान अवधारणा और ज्यादा उत्पादक हो और सकारात्मक ऊर्जा संधारित करे।

क्रिएटिविटी के संबंध में कुछ मिथक गढ़ दिए गए हैं, और यह उनकी यथार्थता नहीं है। इस संबंध में एक प्रमुख मिथक यह है कि यह खानदानी, यानि जेनेटिक, यानि वंशानुगत होता है। कुछ सामंती और सामान्यतः यथास्थितिवादी लोग अपनी  प्रतिभा को जन्मजात होने की सामाजिक विशिष्टता बनाएं रखना चाहते हैं। वे लोग इसे इसलिए जेनेटिक बताना चाहते हैं, ताकि  सामान्य वर्ग के लोग का ध्यान इसे विकसित करने में नहीं लगे। इस तरह यह मिथक आपके आविष्कारक (Inventive) बुद्धिमत्ता और नवाचारी (Innovative) बुद्धिमत्ता को आपके अचेतन स्तर पर ही बाधित कर देता है। यह मिथक आपके आविष्कारक और नवाचारी नहीं होने की स्थिति में आपके मन के भाव को को सही साबित करने में सहायक होता है, यानि यह आपके सोच को ही सही साबित कर बात वही समाप्त कर देता है। हालांकि यह आपके साथ धोखा है।

यह भी एक मिथक ही है कि क्रिएटिविटी उपयोगिता के संदर्भ में मौलिक रूप में 'एकदम नया' (Entirety New) प्रस्तुति होता है। अर्थात क्रिएटिविटी को एकदम मौलिक और अनूठी होना भी जरूरी नहीं है। यह किसी विचार, अवधारणा, क्रियाविधि या उत्पाद को और बेहतर बनाना भी है। यह विचार, यह अवधारणा, यह क्रियाविधि और यह उत्पाद किसी भी वस्तु, सेवा, सम्पत्ति, नीति, विज्ञापन, स्थान, व्यक्ति, इवेंट, या प्रस्तुति से  संबंधित हो सकती है। यह किसी प्रक्रिया को पाने का नया नजरिया भी हो सकता है। यह किसी स्थिति का नया संदर्भ हो सकता है। यह किसी वर्तमान अवधारणा का नया पुनर्गठन, पुनर्व्यवस्थापन, पुनर्विन्यास, पुनर्व्याख्यायापनपुनर्संरचना या नया समीकरण भी हो सकता है।

क्रिएटिविटी के संबंध में यह भी एक बड़ा मिथक है कि यह अचानक किसी भाग्यशाली व्यक्ति को प्राप्त होता है। अर्थात क्रिएटिविटी एक ही पल में किसी को सूझ जाता है, या उसके पास आ जाता है और किसी यह किसी भाग्यशाली के पास ही आती है। ऐसी ही कहानियां समाज में प्रचलित है कि न्यूटन ने सेव गिरते देखकर गुरुत्वाकर्षण बल, या बेंजामिन फ्रैंकलिन ने पतंग उड़ाते बिजली की खोज कर दी। ऐसी  स्तरहीन सामान्य कहानियां स्तरहीन सामान्य लोग ही दुहराते रहते हैं और वे उन महान वैज्ञानिकों की वैज्ञानिक मानसिकता, उनकी  पृष्ठभूमि और उनके नजरिए यानि दृष्टिकोण की चर्चा ही नहीं करते हैं। यदि कोई वैज्ञानिकों की इन वैज्ञानिक मानसिकता, उनकी  पृष्ठभूमि और उनके नजरिए यानि दृष्टिकोण की चर्चा करता है, तो ही वह उसे समझने और उसे विकसित करने का प्रयास करेगा। इसी  भाग्यशाली वाली व्याख्या को ही "यूरेका मिथक" कहा गया है। इसी मिथक के कारण लोग चमत्कारिक फल के इंतजार में अपना समय बर्बाद कर रहे हैं, और इसे पा लेने का सामान्य प्रयास भी नहीं करते हैं। 

क्रिएटिविटी के लिए आपको क्रिएटिव बनने की मानसिकता रखना पड़ता है। इसके लिए आपको कार्य -कारण संबंध (Cause n Effect Relation) को जानना और मानना चाहिए। इसके अतिरिक्त आपको प्राकृतिक शक्तियों और उसके मानवीयकरण स्वरुप (ईश्वर) के अन्तर को समझना जरूरी है। कहने का तात्पर्य यह है कि आपको प्राकृतिक शक्तियां और ईश्वर दो भिन्न एवं अलग अलग अस्तित्व को समझना चाहिए। क्रिएटिविटी के लिए अपनी कल्पनाओं (Imagination) का चित्रीकरण (Visualisation) में मनन करना पड़ता है, अर्थात कल्पनाओं का महत्व बहुत अधिक होता है। इसीलिए महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन कहते हैं कि सफलता प्राप्त करने में एक प्रतिशत "पसीना बहाना" (Perspiration) पड़ता है और निन्यानबे प्रतिशत "कल्पना करना" (Imagination) पड़ता है। इसे ध्यान से और ठहर कर पढ़ें।

क्रिएटिविटी से जुड़े भ्रम और मिथक लोगों की सफलता और उन्नयन में बाधा पहुंचाता है। इसी कारण  महान विद्वान डॉ आंबेडकर ने बुद्ध वाणी को नए स्वरूप में सूत्र के रूप में प्रस्तुत कियाजो Educate, Agitate, Organise है। इसका सामान्य अर्थ 'शिक्षा ग्रहण करों' (शिक्षित बनो), 'पाठों का मनन (मंथन) करों', और और उस निष्कर्ष को व्यवस्थित करो। Organise का अर्थ  व्यवस्थित करने के अतिरिक्त इस शिक्षा और इस निष्कर्ष पर संगठन (Organisation) में विमर्श करों भी होता है। वैसे कुछ राजनीतिक चालाकों ने और कुछ नादानों ने इनके मौलिक सूत्र के भावों को बदल कर इस सूत्र का ही नाश कर दिया है। इसे बदल कर Educate, Organise, Struggle कर दिया गया है। ध्यान दिया जाए कि Organise  को दूसरे क्रम पर रख दिया गया और Agitate को दूसरे क्रम से हटाकर तीसरे एवं अंतिम क्रम में लाकर Struggle शब्द से प्रतिस्थापित कर दिया गया है। अब उनके अनुयायी उनके बताए गए बौद्धिकता के मार्ग पर चलने से ज्यादा राजनीतिक संघर्ष में उलझ गए हैं। इससे भी उनके क्रिएटिविटी का नुक़सान हो रहा है।

क्रिएटिव बनने के लिए आपको विचारों की शक्तियों को मानना और समझना होगा। इसके बाद विचारों में नवाचार लाने की विभिन्न स्थितियों और प्रक्रियाओं को जानना और समझना होगा। इसी के लिए ही विचारों में पैरेडाईम शिफ्ट की बात की जाती है, जिसे साधारण भाषा में "लीक से हटकर चलना" भी समझा जाता है। इसमें कोई पहले से उपलब्ध विचार, अवधारणा, प्रक्रिया, प्रस्तुति या उत्पाद को नए संदर्भ में, नए पृष्ठभूमि में, नए दृष्टिकोण से देखने, समझने और इसकी उपयोगिता बढ़ाने पर विचार करते हैं।  यही सृजन है, यही नवाचार है। इसी के लिए आलोचनात्मक चिंतन की जरूरत होती है। आलोचनात्मक विश्लेषण एवं मूल्यांकन भी इसी आलोचनात्मक चिंतन का हिस्सा है। इसके लिए ही कार्य - कारण संबंध को जानना एवं अपने उपागम (Approach) में वस्तुनिष्टता (Objectivity) और विवेकशीलता (Rationality) का ध्यान रखना होता है।इसे ही आप समेकित रूप में वैज्ञानिक मानसिकता (Scientism) भी कह सकते हैं।

अतः आप भी क्रिएटिव बनिए और भारतीय संस्कृति का ध्वजवाहक बनकर प्राचीन भारतीय गौरव को फिर से स्थापित करने में योगदान कीजिए।

    आचार्य निरंजन सिन्हा

भारतीय संस्कृति का ध्वजवाहक

 


सोमवार, 26 फ़रवरी 2024

क्या श्रमिक वर्ग कभी भी शासन कर सकता है?

 अर्थातक्या श्रमिक कभी शासक हो सकते हैं?

यह प्रश्न बहुत महत्वपूर्ण और बहुत प्रचलित है, लेकिन इसका उत्तर बहुत भ्रमित भी है। भारत में बड़े बड़े बौद्धिकता रखने वाले गणमान्य जनों के प्रचलित धारणाओं के कारण ही मुझे यह आलेख लिखना पड़ रहा है। इस संबंध में जो भी आलेख देखने को मिलते हैं, वे सभी बड़े ही भावनात्मक होते हैं, लेकिन तथ्यात्मक और तार्किक नहीं होते हैं। इनकी  चित्रात्मक एवं कल्पनात्मक प्रस्तुति ऐसी होती है कि वे भावनाओं की ऐसी दरिया बहा देते हैं, कि उसमें सभी तथाकथित बौद्धिक आसानी से शारीरिक श्रम को ही एकमात्र श्रम समझने में डूबते उतरते हुए बहने लगते हैं, या यह कहें कि बह ही जाते हैं।

तो मूल प्रश्न यह है कि क्या कोई श्रमिक या श्रमिक वर्ग  कभी भी शासक बन सकता है, या कभी भी इतिहास के पन्नों में शासन किया हैशासन करने वाले ही शासक कहलाते हैं। यानि कभी भी श्रमिक वर्ग शासक रहा हैसामान्य व्यक्ति और समाज के जीवन पद्धति (Ways of Life), प्रतिरूप (Pattern) और प्रणाली (System) को नियमित करना, तथा नियंत्रित और संचालित करना ही शासन करना हुआ होता है और ऐसा करने वाला ही शासक कहलाता है। तो इस मूल प्रश्न का स्पष्ट उत्तर निम्न हैं -

हां, श्रमिक वर्ग कभी भी शासक बन सकते हैं।

नहीं, श्रमिक वर्ग कभी भी शासक नहीं बन सकते हैं।

तब, क्या दोनों ही कथन एक साथ सत्य हो सकता है ? या इनमें से कोई एक ही कथन सत्य हो सकता है, लेकिन दोनों कथन एक ही साथ सत्य नहीं हो सकता है? इसका सम्यक उत्तर इसमें निहित है कि हम श्रमिक या श्रमिक वर्ग से क्या समझते हैं और शासक वर्ग से क्या समझते हैं। स्पष्ट है कि उपरोक्त कथनों की सम्यक मूल्यांकन के लिए हमें श्रमिक और शासक वर्ग को परिभाषित करना होगा, यानि श्रमिक और शासक वर्ग की अवधारणाओं को समझ लेना चाहिए। 

तो प्रश्न यह उठता है कि शासक या शासक वर्ग कौन होता है? आप भी जानते हैं कि आधुनिक युग में शासन के चार स्तम्भ होते हैं - विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और संवादपालिका। जिन लोगों का, या जिन वर्गों का इन चारों मौलिक क्षेत्रों पर सम्यक, यानि समुचित एवं पर्याप्त बौद्धिक नियंत्रण होता है, वास्तविक शासक वही होते हैं। लोकतांत्रिक व्यवस्था में प्रत्येक नागरिक विधायिका के सदस्यों को या/ एवं कार्यपालिका प्रमुख को निर्वाचित करते हैं। इसीलिए हर नागरिक को एक वोट के आधार पर विधायिका में श्रमिक वर्ग का अच्छा खासा प्रतिनिधित्व दिख जाता है, लेकिन लगभग सभी प्रतिनिधि प्रखर बौद्धिकता के अभाव में असली शासक नहीं बन पाते हैं। कार्यपालिका भी प्रखर बौद्धिकता के नियंत्रण में होता और न्यायपालिका की सीमाओं के अन्तर्गत होता है। अर्थात कार्यपालिका और न्यायपालिका पर भी बौद्धिक नियंत्रण एवं नियमन ही होता है। और कार्यपालिका ही विधेयकों के मजमून के नियमन और निर्धारण कर विधायिका को भी नियंत्रित करता हैं। संवादपालिका यानि प्रचलित मीडिया सामान्यतः प्रत्यक्ष सरकारी नियंत्रण से बाहर होता है और वह ही सामान्य जनमानस को अपने तरीकों से संचालित और नियमित करता हुआ होता है।  ये सभी चारों अंग अपने को सरकार के नियंत्रण में दिखते हैं, या दिखाते तो है, लेकिन इनका नियंत्रण कुछ बौद्धिक लोग ही करते हैं। ऐसे  शासन संचालक लोगों को किस तरह का श्रमिक माना जाय - शारीरिक श्रमिक या बौद्धिक श्रमिक?

श्रम करने वाले को ही श्रमिक कहा जाता है। लेकिन श्रम तो शारीरिक भी होता है और श्रम बौद्धिक भी होता है। जिनके पास  देखने के लिए सामान्यतः शारीरिक आंखें ही होती है और बौद्धिक आंखें  यानि बौद्धिक दृष्टि यानि मानसिक दृष्टि काम नहीं करती, उनको शारीरिक श्रम करने वाला ही मात्र श्रमिक दिखता है। उनकी दुनिया में बौद्धिक श्रम का कोई वजूद भी होता है, यह उनकी मानसिकता से बाहर होता है। ये शारीरिक श्रमिक बौद्धिक श्रम करने वाले यानि बौद्धिक श्रमिक को शोषक समझते और इसीलिए बौद्धिक होने की अचेतन स्तर पर कोई इच्छा भी नहीं होती।  ये बौद्धिक श्रम को श्रम नहीं मानते और इसीलिए इन बौद्धिक श्रमिकों को ये शारीरिक श्रमिक किसी भी प्रकार का श्रमिक भी नहीं मानते। शारीरिक श्रम तो पशु भी कर लेता है, लेकिन एक पशु मानसिक श्रम नहीं कर पाता। स्पष्ट है कि मानसिक श्रम की प्रक्रिया कठिनतर होती है और इसीलिए बहुत कम लोग ही बौद्धिक श्रम कर पाते हैं। इसीलिए शासक वर्ग सदैव अल्पसंख्यक होते हैं, क्योंकि बौद्धिक श्रम करना सबके वश की बात नहीं होती। मात्र शारीरिक श्रम करने वाला कभी भी शासक नहीं रहा है और भविष्य में कभी भी शासक नहीं बन सकता। वैसे कल्पनाओं में जीने के लिए हर कोई स्वतंत्र हैं।

भारतीय प्राचीन इतिहास में श्रम करने वालों के संबंध में कुछ स्पष्ट भ्रम जमा हुआ है। भारतीय प्राचीन इतिहास में "बमण या बाह्मण" वर्ग और "शमण" वर्ग सम्मानित वर्ग रहा, जिसे चालाक और नादान इतिहासकारों ने इन्हें क्रमशः "ब्राह्मण" और "श्रमण" बना दिया या समझ लिया। यही अनुवाद यानि इसी भावार्थ ने सारा भ्रम पैदा करने में कामयाब रहा। प्राचीन भारत के इतिहास में वमण या बाह्मण एक विद्वतापूर्ण उपाधि रही है, जो सामंतवाद के काल में जाति का रुप ले लिया, अर्थात इसके पहले जाति एवं वर्ण व्यवस्था नहीं था। इसी तरह शमण वर्ग में वे सभी लोग शामिल थे, जो अपनी इच्छाओं और आकांक्षाओं को शमित कर समाज कल्याण को समर्पित थेजबकि शमण को श्रमण बना कर श्रम करने वाला समझा दिया गया। यह पूर्णतया ग़लत हुआ। यह शमण वर्ग को आज का  साधु या सन्त समाज समझा था, लेकिन शमण वर्ग कभी भी श्रमिक वर्ग नहीं रहा। बामण या बाह्मण से ब्राह्मण और शमण से श्रमण होना भाषाओं के संस्कृतिकरण का प्रभाव है, जिसे सामंतवाद की ऐतिहासिक शक्तियों ने पैदा किया। इसे भी समझना जरूरी है। 

आजकल इसी “शमण” वर्ग को “श्रमण” वर्ग समझना सारे भ्रम का आधार बन गया है। इसी भ्रम की सहायता से यह भी मान लिया जाता है कि प्राचीन भारत में कभी श्रमिक वर्ग का शासन रहा है। यह सभी को स्पष्ट रहें कि शारीरिक श्रम करने वाला ही यदि श्रमिक हैं, तो यह श्रमिक वर्ग कभी भी इतिहास के पन्नों में शासक वर्ग नहीं बना है और भविष्य में भी यह वर्ग कभी भी शासक नहीं बन सकता। यह सभी को स्पष्ट रहना चाहिए, वैसे मानसिक विभ्रम में रहने को सभी स्वतंत्र भी है।

मैंने पहले ही लिखा है कि श्रम मुख्यतः दो प्रकार का होता है - शारीरिक श्रम और बौद्धिक श्रम। शारीरिक श्रम तो शरीर से किया जाता है, जिसमें सामान्यतः शरीर से पसीना भी बहता है, यानि शरीर की अत्यधिक उर्जा की खपत होती है। बौद्धिक श्रम में मानव का दिमाग और मन यानि चेतना संयुक्त रुप में काम करता है, यानि दिमाग और मन यानि चेतना एक अलग तरह का श्रम करता है। इस बौद्धिक श्रम में आध्यात्मिक श्रम बहुत महत्वपूर्ण होता है और यह  प्रकार उत्कृष्ट एवं उच्च स्तरीय भी होता है। आध्यात्म का अर्थ होता है - अपने 'आत्म' को अधि यानि अनन्त प्रज्ञा से जोड़ कर उससे ज्ञान प्राप्त करना। इसमें बौद्धिक आभास (Intuition) आते हैं, यानि अन्तर्ज्ञान आता है।  ऐसे ही बौद्धिक श्रमिक में प्राचीन काल में गोतम बुद्ध का नाम लिया जाता है और आधुनिक युग में अल्बर्ट आइंस्टीन और स्टीफन हॉकिंग का नाम लिया जाता है। ये तीनों उदाहरण उत्कृष्ट बौद्धिक श्रमिक के लिए है।

बौद्धिकता उनमें होती है, जिन्हें आलोचनात्मक चिंतन (Critical Thinking) करने आता है और उसका विश्लेषणात्मक मूल्यांकन (Analytical Evaluation) भी करने आता है। स्पष्ट है कि इसके लिए वैज्ञानिक दृष्टिकोण (Scientific Temper) यानि मानसिकता अनिवार्य होती है, जो कार्य -कारण संबंध, तथ्य, निष्पक्षता (Neutrality/ Objectivity) तथा विवेकशीलता (Rationality) पर आधारित होती है। इसी के साथ विचारों में पैरेडाईम शिफ्ट (Paradigm Shift) यानि आउट आफ बाक्स विचार (Out of Box Thinking) भी अनिवार्य हो जाता है। यह बौद्धिकता मानव और मानव समाज पर कार्य करता है, अर्थात उसे '"मानवीय मनोविज्ञान" (Human Psychology)' की समझ होनी चाहिए। मानव और मानव समाज को संचालित करने वाला अदृश्य साफ्टवेयर उसकी संस्कृति होती है, जिसकी समझ उसके इतिहास बोध (Perception of History) से आती है। इसके लिए इतिहास का पारम्परिक और घिसा-पिटा व्याख्या के स्थान पर "इतिहास" (History) की वैज्ञानिक व्याख्या करना और समझना होगा। और अपने समझ को मानव और समाज के हित में व्यापक बनाने के लिए "दर्शन" (Philosophy) की समझ अनिवार्य हो जाता है। यही तीन समझ यानि  मनोविज्ञान, इतिहास और दर्शन की गहरी समझ एक शासक बनने के लिए अनिवार्य है।

शासित वर्ग अपने को सदैव शोषित और पीड़ित ही समझता है, लेकिन इस शोषण को दूर करने के लिए कोई तैयारी नहीं करता है। वह सदैव शारीरिक श्रम करने का रोना रोता रहता है, मानो वह बौद्धिक श्रम से ज्यादा कठिनतर कार्य कर रहा होता है। ऐसा शारीरिक श्रमिक बौद्धिक श्रमिकों को शोषक समझते हुए कोसता रहता है। वह सजगता से कभी भी अपनी बौद्धिक विकास की बातें नहीं करेगा और बिना अपेक्षित बौद्धिकता लाए शासक बनने का दावा करता रहेगा। ऐसा दावा शाय़द शारीरिक श्रमिकों की सहानुभूति और समर्थन लेने के लिए भी कुछ राजनीतिक नेताओं के द्वारा किया जाता है 

अन्त मेंफिर से स्पष्ट किया जाता है कि मात्र शारीरिक श्रम करने वाला कभी भी शासक नहीं रहा है और आगे कभी भी शासक नहीं बनेगा। शारीरिक श्रम करने वाला यदि अपेक्षित बौद्धिक संपदा, कुशलता एवं योग्यता पा लेता है, तो फिर वह श्रमिक या श्रमिक वर्ग बौद्धिक श्रमिक के श्रेणी में आ जाता है और वह शासक बनने की राह मे अग्रसर हो जाता है। फिर वह शारीरिक श्रमिक की श्रेणी में नहीं रह जाएगा। आप भी अपनी बौद्धिक संपदा, कुशलता एवं योग्यता विकसित करने, उसे बढ़ाने एवं सम्वर्धित करने पर ध्यान दें, आप भी शासक बन जाएंगे।

आचार्य निरंजन सिन्हा

भारतीय संस्कृति का ध्वजवाहक

 


मंगलवार, 20 फ़रवरी 2024

युद्ध जीतने के लिए एक ही योद्धा काफी है।

जी, यह सही है कि किसी भी युद्ध (War) को जीतने के लिए एक ही योद्धा (Warrior) काफी होता है ताश के खेल में एक इक्का भी राजा को पराजित कर देता है। वैसे भी भीड़ की जरूरत तमाशा करने और तमाशा दिखाने के लिए  होती है| युद्ध जीतने के लिए भाषण की नहीं, विमर्श की आवश्यकता होती है। ध्यान रहे कि मैंने एक योद्धा शब्द लिखा है, एक सिपाही (Soldier) शब्द नहीं लिखा है। एक सिपाही के पास लक्ष्य को साधने के लिए शारीरिक आंखें ही होती है, जिसकी सहायता से ही वह लक्ष्य देखता और बेधता है। वह सिपाही अपने मानसिक दृष्टि से उस लक्ष्य को हासिल करने के लिए स्थिति का आलोचनात्मक चिंतन, विश्लेषण एवं मूल्यांकन नहीं कर सकता और इसीलिए वह किसी रणनीति पर नहीं पहुंच पाता। 

लेकिन एक योद्धा के पास लक्ष्य पाने के लिए शारीरिक आंखों के अतिरिक्त मानसिक दृष्टि भी होती है। एक योद्धा अपने लक्ष्य का उस संदर्भ में, उस पृष्ठभूमि में, उस दिक् काल में और उस वैज्ञानिकता में आलोचनात्मक चिंतन एवं विश्लेषण कर उसका मूल्यांकन करता है और वह 'संदर्भ के बाहर' (Out of Box) भी जाकर सोच पाता है। इसके साथ ही वह एक बेहतरीन रणनीति के साथ आगे आता है। इनकी मानसिक दृष्टि पैनी भी होती है, तीखी भी होती है, गहरी भी होती है, समन्वित भी होती है और व्यापक भी होती है। तय है कि एक योद्धा की यह शक्ति, क्षमता और प्रभावशीलता उसके विचारों में होती है, किसी अस्त्र-शस्त्र में नहीं होती है। इसीलिए कहा गया है कि शास्त्र (विचार) शस्त्रों से ज्यादा घातक और प्रभावशाली होता है।

एक अकेला योद्धा लड़ाईयों (Battle) में हार जा सकता है, लेकिन वह युद्ध  (War) को जीत ही लेता है। सिपाही लड़ाईयां लड़ता है, लेकिन एक योद्धा युद्ध जीतता है। लड़ाई और युद्ध में अन्तर है। लड़ाईयां तो सिपाही  ही लड़ता है, और वह हारता जीतता रहता है। लेकिन युद्ध में तो योद्धा  ही सामने आता है और इसीलिए वह युद्ध जीत ही जाता है। विश्व में विभिन्न जीवन क्षेत्रों में अनेकों योद्धा हुए हैं, जिन्होंने बहुत कुछ जीत लिया। इनमें कुछ ही उदाहरण में गोतम बुद्ध, गैलीलियो, चार्ल्स डार्विन, कार्ल मार्क्स, अल्बर्ट आइंस्टीन, अलेक्जेंडर फ्लेमिंग, आदि अनेकों का नाम लिया जा सकता है, जिन्हें ऐसे प्रमुख महान योद्धा कह सकते हैं। इन लोगों ने जीवन के कई ऐतिहासिक युद्धों में जीत हासिल किया। इन संक्षिप्त उदाहरणों की सूची को काफी विस्तारित किया जा सकता है। जिसने भी जीवन युद्ध जीता है, उसने वैचारिक क्रांति ही लाया है। ऐसे ही व्यक्तियों के विचार -कार्य प्रभाव को ही सामान्यतः "तितली प्रभाव" (Butterfly Effect) भी कहते हैं।

आप लड़ाई (Battle) या झड़प (Fight) को सेना या पुलिस की प्रत्यक्ष सहभागिता से एक सीमित अवधि, क्षेत्र एवं बल के लिए परिभाषित कर सकते हैं। लेकिन युद्ध (War) को सरकार या सरकारों की सहभागिता या इनके बिना भी इसे व्यापक क्षेत्र को प्रभावित करने एवं लम्बे समय अवधि के लिए सामाजिक सांस्कृतिक एवं आर्थिक रुपांतरण करने वाला अवधारणा के रूप में व्याख्यापित कर सकते हैं। इसे आप जीवन मूल्यों एवं अंतरंग सम्बन्धों की भूमिका को बदलने वाला एवं एक व्यापक, गहन और विस्तृत प्रभाव पैदा करने वाला लड़ाईयों की श्रृंखला कह सकते हैं। युद्ध किसी विशिष्ट उद्देश्य की प्राप्ति के लिए एक लम्बी एवं व्यापक विचारों का अंतिम परिणाम होता है। मानवीय इतिहास में हुए दो विश्व युद्धों ने साम्राज्यवाद का स्वरूप ही बदल दिया। यह विश्व युद्ध आर्थिक और राजनीतिक हैसियत बढ़ाने के लिए भौगोलिक क्षेत्र का विस्तार करने के लिए हुआं था, हालांकि इसके और भौगोलिक विस्तार की संभावनाएं समाप्त हो गई थी। साम्राज्यवाद के नव उदित स्वरुप, अर्थात वित्तीय साम्राज्यवाद ने सारे उपनिवेशिक राजनीतिक एवं प्रशासनिक आवश्यकताओं को ही समाप्त कर दिया। यह विचारों की शक्ति का ही उदाहरण है। इस नवोदित विचार ने लड़ाईयों की श्रृंखला को ही समाप्त कर दिया।

इसीलिए ई० रुजवेल्ट कहतीं हैं कि उत्कृष्ट लोग विचारों (और आदर्शों) की बात करते हैं, मध्यम वर्गीय लोग घटनाओं के विवरण पर ही बात करते हैं, और निम्न एवं गरीब लोग किसी व्यक्ति यानि उसके व्यक्तित्व के ब्यौरे तक ही सीमित रहते हैं। विक्टर ह्यूगो ने कहा है कि जब विचारों का उपयुक्त समय आता है, तब वह विश्व की समस्त सेनाओं से भी शक्तिशाली हो जाता है। लेकिन मेरी समझ में, कभी भी विचारों का कोई उपयुक्त समय नहीं आता है, जब वह विचार विश्व की तमाम सेनाओं से भी शक्तिशाली हो जाता है। विचारों को विश्व की तमाम सेनाओं से भी शक्तिशाली होने के लिए विचारों को ही समय, संदर्भ और परिस्थितियों के लिए उपयुक्त (Appropriate) होना होता है। इसीलिए शताब्दियों का प्रभाव पैदा कर देने के लिए विचारों पर आधारित "सांस्कृतिक आवेग" (Cultural Momentum) और "सांस्कृतिक जड़ता" (Cultural Inertia) पैदा किया जाता है, जिसे हम महान सांस्कृतिक विरासत का आवरण भी देते हैं।

थामस सैम्युल कुहन भी अपनी पुस्तक The Structure of Scientific Revolution  में क्रांतिकारी बदलाव या रुपांतरण के लिए विचारों में पैरेडाईम शिफ्ट (Paradigms Shift) की बात करते हैं। वे समझते हैं और मानते भी हैं कि परम्परागत विचारों के विन्यास में, संरचना में और मूल प्रवृत्ति में कोई बड़ा दोष है, जिसके ही कारण बदलाव में गतिहीनता आ जाती है। इसीलिए इस गतिहीनता यानि स्थिति की जड़ता को मिटाने के लिए ही 'नवाचारी '(Innovative) विचारों को उत्पन्न करना होता है, जो समय और दिक् काल के संदर्भ एवं पृष्ठभूमि में उपयुक्त होता है। आप भी देखते होंगे कि कोई आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में सदियों का प्रभाव पैदा करना चाहता है या करता हैवह संबंधित विचारों को ही बदलता है। वह वृहत् सांस्कृतिक आवेग पैदा करता है और उसे सफलतापूर्वक बनाए भी रखता है। अल्प समय (वर्षों या दशकों) के लिए तो लड़ाईयां ही लड़ी जाती है, जिसमें अनेक सिपाही भाग लेते हैं।

मैं नहीं जानता कि आपको आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में सदियों का प्रभाव पैदा करना है, या अल्प समय का प्रभाव पैदा करना है? आपको यदि लोगो में यानि समाज में अति अल्प समय में कोई विशेष सुविधा चाहिए होता है, या कोई पहचान बनानी है, तो आप लड़ाईयां लड़ते रहिए। हो सकता है कि आप इन  लड़ाईयों में एक सिपाही की तरह लड़कर और दिख दिखा कर शासन में या विधायिका में कोई सम्मामित और लाभान्वित करने वाली हैसियत पा लें, लेकिन युद्ध में आपकी हार भी सुनिश्चित ही है। इसीलिए कुछ संगठन विचारों पर आधारित एक संस्थागत ढांचा ही खड़ा कर देते हैं, जो एक विशिष्ट लक्ष्य को पाने के लिए प्रयासरत रहता है। ऐसे संस्था एवं संस्थान ही व्यक्ति एवं घटनाओं के बदलने से भी प्रभावित नहीं होता है। ऐसे संस्थाओं और संस्थानों का एक मूल, मौलिक और विशिष्ट दर्शन होता है, जिसके लिए ही उन संस्थाओं और संस्थानों के सभी अंग अलग अलग दिशा, मात्रा और गति में समन्वित रूप में कार्य करता है। 

चूंकि ऐसे संस्था और संस्थान एक मूल, मौलिक और विशिष्ट दर्शन के लिए ही काम करते हैं, जो पूर्णतया विचारों पर ही आधारित होता है। अतः आप यदि किसी भी संस्थागत या संस्थानगत संरचना को और मजबूत करना चाहते हैं, या उसमें बदलाव करना चाहते हैं, या उसे समूल नष्ट ही कर देना चाहते हैं, तो सबसे पहले उस संस्था या संस्थान के एक मूल, मौलिक और विशिष्ट दर्शन को पहचानिए और समझिए। फिर इस एक मूल, मौलिक और विशिष्ट दर्शन के संदर्भ, आधार और पृष्ठभूमि का आलोचनात्मक विश्लेषण एवं मूल्यांकन कीजिए। हो सकता है कि उन संस्थागत ढांचा का वह मूल, मौलिक और विशिष्ट दर्शन ही कल्पना पर यानि किसी मिथक पर आधारित हो, जिसकी कोई तार्किकता, वस्तुनिष्टता, विवेकशीलता और वैज्ञानिकता ही नहीं हो। ऐसी स्थिति में ऐसे संस्थाओं और संस्थानों को समाप्त हो कर देना, या मौलिक रूप से ही बदल देना बहुत आसान होता है। ऐसे युद्धों को जीतने के लिए एक ही योद्धा काफी होता है।

यदि संस्थाओं और संस्थानों की एक मूल, मौलिक और विशिष्ट दर्शन तार्किक है, वस्तुनिष्ठ भी है और तथाकथित वैज्ञानिक भी है, तो उस संस्थाओं के विचार- दर्शन को समझ कर और उसमें 'पैरेडाईम शिफ्ट' करके ही उसे बदला जा सकता है, या नष्ट किया जा सकता है। यह ध्यान रखें कि यह बदलाव की शक्ति सिर्फ विचारों में ही है, और विचार भी कुछ लोग पैदा करते हैं उपयुक्त विचार पैदा करना ही दुनिया का सबसे कठोरतम, श्रमसाध्य और महत्वपूर्ण कार्य है। इसीलिए उपयुक्त विचार पैदा करने का क्षेत्र सदैव खाली पड़ा रहता है। साधारण और सामान्य लोग शारीरिक श्रम को ही महत्वपूर्ण श्रम और कार्य समझते एवं मानते हैं। और इसीलिए ऐसे लोगों की मानसिकता महत्वपूर्ण बौद्धिक श्रम करने तक नहीं पहुंच पाती है। इसी कारण ऐसे सामान्य साधारण लोग शारीरिक श्रम ही करते रहते हैं और कभी भी शासन नीति निर्धारण का भाग नहीं बन पाते हैं, यानि कभी भी शासक नहीं बन पाते हैं। इन सामान्य साधारण लोगों को यही लगता है कि शारीरिक श्रम ही सबसे महत्वपूर्ण होता है और बौद्धिक श्रम बहुत हल्का होता है। इसी कारण से वे बौद्धिक लोगों को शोषक के रुप में कोसते रहते हैं।

इसीलिए आप लड़ाईयां लड़ने या जीतने के लिए सिपाही बनने के चक्कर में नहीं पड़िए, आप युद्ध जीतने के लिए योद्धा बनिए। आप अकेले इस दुनिया में बहुत कुछ बदल कर सकारात्मक, रचनात्मक और सृजनात्मक परिणाम दे सकते हैं, जैसे उपरोक्त वर्णित महान योद्धाओं ने किया है। 

आप सिर्फ एक बड़ी ही "सांस्कृतिक आवेग" पैदा कीजिये, उस आवेग में सब कुछ स्वत: बहता चला जाएगा। 

ऐसा भी होता है, यानि होता रहता है, यानि संभव हैएक बार ऐसा मान तो लीजिए। इतना ही मान लेने से और उस पर आगे बढ़ जाने से ही परिवर्तन और रुपांतरण शुरू हो जाता है। सादर।

आचार्य निरंजन सिन्हा

भारतीय संस्कृति का ध्वजवाहक

 

शुक्रवार, 9 फ़रवरी 2024

“राजनीति” का ‘राज’ समझिए

 (Understand the 'Secret' in 'Politics')

आप “राजनीति” को ‘राज्य’ की ‘नीति’ (Policy) समझते हैं, या ‘राज्य’ पर ‘शासन’ करने की ‘नीति’ समझते हैं, तो आप ग़लत नहीं है। लेकिन मैं आज़ “राजनीति” के एक भिन्न आयाम पर आपको लाकर कुछ गहरे रेखांकन का अवलोकन कराना चाहता हूं। दरअसल “राजनीति” में ‘राज्य के लिए नीतियों’ का ‘राज’ (Secracy/ Mystery) बहुत गहरा होता है। मतलब यह है कि “राजनीति” में नीतियों को ‘राजदार’ यानि ‘गुप्त’ यानि ‘रहस्यमयी’ रखना पड़ता है, या रहता ही है। यानि आपको ‘राजनीति’ में जो ‘विचार’ (Thought), ‘भावना’ (Emotion) और ‘व्यवहार’ (Behaviour) सामान्य शारीरिक आंखों से दिखता है, समझ में आता है, वही तक राजनीति की वास्तविकता नहीं होती है| बल्कि उससे भी बहुत आगे और उससे भी अलग कुछ गहराई का उद्देश्य होता है। और ऐसे विश्लेषण के लिए गहरी आलोचनात्मक (Critical) एवं विश्लेषणात्मक (Analytical) मूल्याङ्कन क्षमता की आवश्यकता की जरुरत होती है, अन्यथा वह गहरी राजनीति ही नहीं है।

हम कह सकते हैं कि राजनीति में नीति का राज बहुत गहरी होता है, और गहरी राजनीति को सामान्य आदमी समझ ही ले, तो स्पष्ट है कि वह राजनीति ही बहुत छिछली (सतही) होगी।ऐसी स्थिति में वह दिखती राजनीति वास्तव में राजनीति ही नहीं है। इसीलिए एक सधे राजनीतिज्ञ के अगले कदम की आहटें भी उनके निकटस्थ को भी पता नहीं चल पाता है| और यदि उसके संगठन के अधिकतर सदस्यों को एक कुशल एवं सधे राजनीतिज्ञ की हर अगली चाल की संभावनाओं का पता ही चल जाय, तो वह कुशल राजनीतिज्ञ हैं ही नहीं। असली और कुशल राजनीतिज्ञ को पूरा समझ लेने का सामान्य लोगों का आत्मविश्वास ही हास्यास्पद है। इसीलिए गहरी राजनीति के प्रतिफल से वे लोग बहुत ज्यादा हताश-निराश भी हो जाते हैं, जो आज बहुत खुश हैं, या खुश दिखते हैं और ‘अंध भक्त’ की तरह अतिउत्साही समर्थक भी हैं।

हालांकि मैं ‘राजनीति’ में विकासात्मक कार्यों के कार्यान्वयन की रणनीति की बात नहीं कर रहा हूं, क्योंकि विकास सभी राज्यों की यानि राजनेताओं की नीतियों में शामिल होती ही है। दरअसल हर राजनीति में कोई एक या कुछ विशिष्ट सिद्धांत होता ही है और उसी के इर्दगिर्द उनकी राजनीति के रण के लिए चक्र घूमता है| सिद्धांत कुछ भी हो सकता है, और किसी विशिष्ट सिद्धांत का नहीं होना भी एक सिद्धांत ही होता है| कुछ के लिए सिद्धांत ‘कुर्सी से चिपके रहना’, ‘अपने परिवार तक के लिए रणनीति बनाना’, या ‘किसी दूर या बहुत दूर में जाकर गहरा बदलाव करना’ भी एक सिद्धांत हो सकता है| विकासात्मक कार्यों और योजनाओं के रणनीति, परिणाम और अन्य समीक्षाएं राजनीतिक मुद्दा नहीं होकर प्रशासनिक विकासात्मक मुद्दा है। वैसे कुछ राजनीतिक खिलाड़ी सीमेंट (निर्माण सामग्री) की खपत की ‘वृद्धि’ (Growth) को ही ‘विकास’ (Development) का पर्याय बताकर भी राजनीति करते हैं। जैसे कुछ राजनेता  सीमेंट के निर्माण को ही विकास समझ लेते हैं और ऐसा ही सामान्य जनता को समझा भी देते हैं| जबकि ‘वृद्धि’ ‘विकास’ का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होते हुए भी उससे मौलिक रूप में भिन्न है। “विकास” (Development, not Growth) का सबसे महत्वपूर्ण अवयव मानव को एक उत्पादक संसाधन में बदलना होता है| क्योंकि एक मानव ही सबसे महत्वपूर्ण संसाधन हैं, जो किसी भी चीज को एक महत्वपूर्ण संसाधन बना देता है, या बना सकता है। चूंकि मानव एक सांस्कृतिक जड़ता (Cultural Inertia) में जड़ा (Rooted/ Fix) एक चेतनायुक्त अस्तित्व है, इसीलिए उसे सम्हालने और विकसित करने के लिए भी राजनीति करनी पड़ती है एवं उसके राज को रहस्यमयी रखना पड़ता है। 

दरअसल अगर राज्य (राष्ट्र/ देश) के राजनेताओं की नीतियों का ‘राज’ (Secret) को सामान्य साधारण जनता समझ ही ले, तो वह कैसा राज है? यानि वह कैसा रहस्य है, जिसे सब जानते ही हैं, या जान ही जाए। आपने भी ध्यान दिया होगा कि चलती ट्रेन से कोई उतरता है, तो उसे ट्रेन की दिशा में ही चलने या दौडने की मजबूरी होती है, अन्यथा उसे झटका लगता है और वह गिर जाता है। इसी तरह क्रिकेट मैच में किसी बल्लेबाज को मैदान से बाहर (आउट/ Out) करने के लिए गेंद को जब किसी खिलाडी को सफल ‘कैच’ लेना होता है, तो कैच लेने वाले खिलाड़ी गेंद पकड़ते वक्त अपने हाथ को  आती गेंद की ही दिशा में पीछे ले जाना होता है। अर्थात वह खिलाड़ी गेंद को पकड़ने वक्त आती गेंद के विरुद्ध दिशा में कोई प्रतिरोध पैदा नहीं करता है, और अपने हाथ को गेंद की आती दिशा में कर गेंद कैच कर खिलाड़ी को ही मैदान से बाहर कर देता है। इसी तरह एक कुशल और सफल राजनीतिज्ञ को भी सामान्य एवं बहुसंख्यक जनता की ‘सांस्कृतिक मनोदशा’ (Cultural Sentiment) की दिशा में ही आगे बहता हुआ (सबसे आगे) दिखकर ‘राजनीति के मैदान’ के अन्य ‘राजनीतिक खिलाड़ियों’ को मैदान से बाहर कर देना होता है। इसे आप समाज की ‘सांस्कृतिक मनोदशा की आवेग' यानि “सांस्कृतिक आवेग” (Cultural Momentum) भी समझ सकते हैं। इसे समाज के सामान्य बहुसंख्यक जनता की ‘सांस्कृतिक जड़ता’ (Cultural Inertia) की मांग भी कह सकते हैं| इसे ध्यान से पढ़ें और इसकी गहराइयों को समझने का प्रयास कर सकते हैं| कहने का तात्पर्य यह है कि इस “सांस्कृतिक आवेग” के ध्वजवाहक दिखने की कवायद में आप किसी राजनीति का राज समझ ही लेने की भूल भी हो जा सकती है|

स्वभाविक है कि प्रत्येक समाज का सदस्य ‘सांस्कृतिक जड़ता’ के अनुरूप ही अपने विचार, भावना और व्यवहार को अभिव्यक्त करता है। ‘संस्कृति’ (Culture) किसी भी समाज का ‘समेकित मानसिक निधि’ होता है, जो किसी (कम्प्यूटर) तंत्र के साफ्टवेयर की तरह अपने अदृश्य रहकर भी उस विशिष्ट समाज के विचार, भावना और व्यवहार को संचालित, नियंत्रित और नियमित करता रहता है। एक चतुर और समझदार राजनीतिज्ञ इस "संस्कृति" एवं ‘सांस्कृतिक आवेग’ (Cultural Momentum) को  समझ कर ही उसी के अनुरूप ही अपनी रणनीति के विचार, भावना और व्यवहार को व्यक्त करता है और उस विशिष्ट समाज में अपनी लोकप्रियता को भंजाता है। 

सत्ता ही बदलाव का सबसे महत्वपूर्ण उपकरण होता है| और इसीलिए राजनीतिक दलों की यह बाध्यता रहती है कि वह विधायी सदन में बहुमत अच्छी तरह बनाए रखे, ताकि ‘सत्ता’ पर प्रभावशाली नियंत्रण रख सके। इसीलिए यदि किसी राजनीतिक दल की कोई अन्य भी मंशा रहती है, जो उस समाज की परम्परागत 'सामाजिक-सांस्कृतिक प्रतिरूप' से अलग यानि भिन्न हो, तो उस नई एवं अलग "राजनीतिक- सामाजिक-सांस्कृतिक प्रतिरूप' का विरोध करता दिख सकता है। ऐसी स्थिति में स्पष्ट एवं स्थायी बहुमत के अभाव में किसी नई यानि अद्भुत एवं एकदम अलग “राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक प्रतिरूप” (Political-Social-Cultural Pattern) को स्थापित नहीं किया जा सकता है। तब उस राजनेता को ऐसी बहुमत की स्थिति आने तक इंतजार करना पड़ेगा।

समुचित राजनीति में अगले कदम को ‘राज’ ही रखना पड़ता है, अन्यथा उनके अगले कदम को उसके प्रतिद्वंद्वी या अन्य विरोधी समय आने से पहले ही उसे समाप्त कर देंगे। आपने भी देखा होगा कि जो राजनीतिक दल अपने हर क़दम की घोषणा खुले मैदान में करते हैं, वह कभी सफल नहीं होता है। इसीलिए हर सफल राजनीतिक दल खुले मैदान में घोषणा कुछ करता है और जमीनी क्रियान्वयन के लक्ष्य में कुछ और ही रखता है। इसी ‘राज का खेल’ “राजनीति” है। हमने प्रकृति की व्यवस्था में भी देखा है कि जंगल के राजा शेर को भी शिकार करने के लिए चुपचाप और अचानक झपट्टा मारना पड़ता है। वह कभी भी आवाज देते हुए यानि हुँकार करते हुए शिकार के लिए आगे नहीं बढ़ता है। अत: रणनीति में ‘चुपचाप’ और ‘अचानक’ की नीति ही रहस्यमय होता है, जो कार्यान्वयन तक ‘राज’ ही रहता है| यही राजनीति है।

आपने समाज में कई चीखते चिल्लाते तथाकथित क्रांतिकारी राजनेताओं को देखा होगा, जो राजनीति की गहरी समझ का दावा करते हुए विचार व्यक्त करते हैं। ऐसे तथाकथित क्रांतिकारी राजनेता अपनी सोच और नीतियों का खुले आम घोषणा करते हैं और कोई उन्हें ‘काउन्टर’ (प्रतिरोध) भी नहीं करता है। दरअसल ये घोषणाएं और विचारों का रेला ही पूरा बकवास होता है, जिसका कोई सकारात्मक वास्तविक प्रभाव उनके बोलने की दिशा में नहीं रहता है| और इसीलिए ऐसे राजनेताओं को कोई भी समझदार राजनेता काउंटर करने में अपना समय, संसाधन, धन और ऊर्जा बर्बाद नहीं करना चाहता है। ऐसे बकवास घोषणाओं यानि विचारों को अभिव्यक्त करने वाले नेताओं का कोई काउंटर नहीं करता। ऐसी स्थिति में ये तथाकथित राजनेता अपनी वाहवाही लूटने में मशगूल रहते हैं और सामान्य जनता को यह समझाते हैं कि उनके विचारों और धारणाओं का कोई माकूल जवाब उनके विरोधियों के पास नहीं है। ऐसी स्थिति में सामान्य बहुसंख्यक जनता भी अपने ऐसे नेताओं की अभिव्यक्ति को सही और सच्चा मानते हैं और भ्रमित रहते हैं| दरअसल ये ‘थके हुए’, ‘पके हुए’ और ‘बिके हुए’ तथाकथित राजनेता उन्हीं विरोधियों का हित साधन करते हैं और इसकी समझ बिके हुए को छोड़कर अन्य ‘पके हुए’ और ‘थके हुए’ को नहीं होता है। ये अपने को क्रांतिकारी नेता समझते रहते हैं, जबकि इन्हें राजनीति की कोई समझ ही नहीं होती।

इसलिए आप बहती राजनीति की निहितार्थ को सामानयत: ठीक तरह से समझ लेने के भ्रम से बाहर निकलिए| कुछ लोग वर्षों की राजनीति करते हैं और इसमें सत्ता के व्यक्ति को बदल देने मात्र की राजनीति होती है, इसीलिए ऐसी सतही एवं क्षुद्र राजनीति को समझ लेना थोडा सरल होता है| लेकिन कुछ राजनीति सदियों के लिए होती है, जिसमे प्रभाव के लिए सदियों या दशको का भी इन्तजार हो सकता है| सदियों की राजनीति के लिए  ‘संस्कृति की राजनीति’ (Politics of Culture) की जाती है| अत: आप किसी भी राजनीति को समझने के लिए उसके राज यानि उसके मूलभूत सिद्धांत पर भी ध्यान रखिये, आपको बहुत कुछ समझ में आने लगेगा|

आचार्य निरंजन सिन्हा

भारतीय संस्कृति का ध्वजवाहक 

सत्ता ‘वैज्ञानिक भौतिकवाद’ से क्यों डरता है?

‘ सत्ता ’ में शामिल लोग ही असली ‘ शासक ’ ‘ वर्ग ’ कहलाते हैं , होते हैं।   तो सबसे प्रमुख प्रश्न यह है कि   ‘ सत्ता ’   क्या है और   ‘ शासक ...