शनिवार, 26 मार्च 2022

इतिहास की व्याख्या का आधार

 Basis of Interpretation of History

ऐतिहासिक व्याख्या (Historical Interpretation) किसी भी ऐतिहासिक घटना, प्रक्रिया या रूपांतरण का प्रस्तुतीकरण है| इसके द्वारा हम उन ऐतिहासिक घटनाओं, प्रक्रियाओं एवं रूपांतरण का वर्णन, विश्लेषण, मूल्याङ्कन, एवं रचना (निर्माण) करते हैं| इसमें हम ऐतिहासिक घटना, प्रक्रिया या रूपांतरण को साक्ष्यों, सन्दर्भों, दृष्टिकोणों, पृष्ठभूमियों एवं परिदृश्यों में विश्लेषण कर व्यवस्थित करते हैं| इस तरह कोई भी व्याख्या किसी विशेष उद्देश्य से पूर्ण होता है, और इसीलिए इतिहास के व्याख्या में इतिहासकार के चेतनता का परावर्तन (Conscious Reflection) होता है|

स्पष्ट है कि इतिहास होना चाहिएएवं होता है”-  दो श्रेणी में विभक्त हो जाता है| यह सब इतिहासकार के उद्देश्य एवं मंशा पर आधारित होता है| कोई इतिहासकार साम्राज्यवादी हितों के अनुरूप व्याख्या करना चाहेगा, तो कोई इतिहासकार राष्ट्रवादी हितों के अनुरूप व्याख्या करना चाहेगा, तो कोई इतिहासकार सामन्ती व्यवस्था के धार्मिक स्वरुप को बनाये रखने के ध्येय से व्याख्या करेगा| इसी तरह जनवादी, मार्क्सवादी या वैज्ञानिक इतिहासकार अपने लक्ष्यों को पाना चाहेगा| परन्तु एक सम्यक व्याख्या उसे कहा जाना चाहिए, जो मानवतावादी हो, तथ्यपरक हो, तार्किक हो, विवेकशील और बुद्धि का भी विकास करता हो| यह तय है कि यह व्याख्या समरसता के साथ न्याय, समानता, स्वतंत्रता एवं बंधुत्व को स्थापित करेगा और समुचित विकास को भी स्थान देगा|

हम कोई उपस्थापन यानि प्रस्तुतीकरण को पूर्णरूपेण सही अवस्था में प्रस्तुत नहीं कर सकते, यानि आदर्श सत्य को स्थापित करता हुआ नहीं बता सकते| परंतु उस व्याख्या को उपलब्ध साक्ष्यों एवं तार्किकता के साथ वास्तविकता के निकट तो ला ही सकते हैं| इसे बौद्धिकता से पूर्ण होना चाहिए एवं सम्पूर्ण मानवता के सम्यक कल्याण के निकट भी होना चाहिए| इतिहास की व्याख्या में घटनाओं, क्रियाओं एवं विचारों को क्या’, ‘कैसे’, एवं क्योंके रूप में  वैज्ञानिक एवं विवेकपूर्ण अध्ययन एवं व्यख्यापन किया जाता है|

इतिहास की यह व्याख्या चयनित ऐतिहासिक कारको एवं इतिहास लेखन के उद्देश्य से भी निर्धारित होते हैं| इसी कारण अधिकतर ऐतिहासिक व्याख्या इतिहासकार एवं शासन की विचारधारा एवं राजनीतिक मांग के अनुरूप होती है| मेरा मानना है कि एक सम्यक यानि समुचित इतिहासकार को इतिहास की व्याख्या का उद्देश्य यह रखना चाहिए कि मानवता एवं राष्ट्र के महत्तम संभावनाओं को अभिव्यक्त करने के आवश्यक संरचानाओं के निर्माण में वह व्याख्या पृष्ठभूमि तैयार करे| अर्थात एक बोद्धिक इतिहासकार का यह प्रयास होना चाहिए कि वह उस समाज में समुचित बौद्धिकता स्थापित करने में मदद करे, ताकि उस समाज का सम्यक विकास का आधारभूत ढांचा तैयार हो सके| एक सजग एवं उत्कृष्ट इतिहासकार की यह जबावदेही होती है कि वह मानवता एवं समाज को स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व, एवं प्राकृतिक न्याय की स्थापना के लिए समेकित रूप में प्ररित करे|

यदि किसी इतिहासकार का उद्देश्य ऐसा नहीं है, तो वह अपने सामाजिक, मानवता, एवं राष्ट्रीय कर्तव्यों से विमुख है| उसकी यह विमुखता किसी साजिश के कारण हो सकती है, किसी अज्ञानता के कारण हो सकती है या किसी अनुचित दबाव के कारण हो सकती हैयदि कोई इतिहासकार ऐसा नहीं कर रहा है, यानि अपने लक्ष्यों में मानवता, वृहत समाज, एवं राष्ट्र को समाहित नहीं कर रहा है, तो उसे एक बोद्धिक इतिहासकार नहीं माना जाना चाहिए| इतिहास का सर्व व्यापक प्रभाव संस्कृति के माध्यम से किसी के चिंतन तंत्र को नियंत्रित करता है|

इस तरह इतिहासकार की कई महत्वपूर्ण भूमिका निश्चित है| इसके बावजूद यदि वह अपने जातीय, अपने समूह यानि सामन्ती वर्ग के पक्ष के उद्देश्य से संचालित एवं नियंत्रित है, तो उसे भले ही तत्कालीन समाज एवं व्यवस्था माफ़ कर दे, परन्तु इतिहास उसे कभी माफ़ नहीं करेगा| वह इतिहासकार और उसके द्वारा रचित इतिहास कालक्रम के इतिहास में काले पन्नो के रूप में दर्ज होगा, जिस पर उस इतिहासकार की आगामी पीढ़ी भी अपने नाम से उसे जोड़ना पसंद नहीं करेगा| हर अगली पीढ़ी अपनी बुद्धिमता में अधिक तार्किक, अधिक समझदार, अधिक विवेकशील होता जा रहा है, और इसी कारण ऐसे इतिहासकारों की अगली पीढ़ी उसके कृत्यों से घृणा करेगी| इतिहास एवं इतिहासकारों के सम्बन्ध में इन बातों को ध्यान से दुबारा पढने की जरुरत है|

एक इतिहासकार अपने इतिहास की व्याख्या के लिए कुछ भी चयन कर सकता है| कुछ इतिहासकार मिथकों को भी यानि कल्पित कहानियों को भी इतिहास का आधार बना देते हैं| शुरू में तो सामान्य लोगों को अच्छा लगता है, परन्तु बाद में उसे इतिहास के पन्नों से भी हटाना पड़ता है| पहले भारत के इतिहास में एक अध्याय महाकाव्य युग (Epic Age) हुआ करता था, जिसे समुचित साक्ष्य के अभाव में विश्व जगत ने नकार दिया| परिणाम यह हुआ कि आज भारत के इतिहास की किताबों से उस अध्याय को ही हटाना पडा| जब ऐसे इतिहासों की अधिकता हो जाती है, तब विदेशी यह कहतें हैं कि भारतियों में इतिहास बोध ही नहीं था या है| यह सब राष्ट्रीय छवि को नुकसान पहुंचाती है|

लेकिन यदि एक इतिहासकार जब अपने इतिहास लेखन का आधार कार्य कारणआधार को बनाता है, तो उसका इतिहास वैज्ञानिकता के निकट पहुंचता है| विश्व के मान्य एवं उत्कृष्ट इतिहासकार इन्हीं पद्धति को अपनाते हैं| इसके लिए इतिहासकार को उस ऐतिहासिक काल में उसी स्थान पर जाकर उन घटनाओं एवं प्रक्रियाओं को देखने एवं समझने का अवसर मिलता है, जिस काल में एवं जिस स्थान पर वे घटनाएं एवं प्रक्रियाएं हुई थी| इसे ही मैं इतिहास का गुरुत्वीय ताल“ (Gravitational Lensing of History) कहता हूँ|

इतिहास की समुचित व्याख्या के लिए हमें प्राथमिक स्रोत को ज्यादा महत्व देना चाहिए| यदि द्वितीयक स्रोत का प्रयोग भी किया गया है, तो उसे भी प्राथमिक स्रोत से पुष्ट किया जाना चाहिए| इतिहास लेखन के प्राथमिक स्रोत में (खासकर प्राचीन काल के इतिहास लेखन में) पुरातात्विक साक्ष्य, प्रमाणिक अभिलेख एवं शिलालेख, एवं समकालीन वैश्विक अन्य साहित्य ही शामिल किए जा सकते हैं| सभी तथाकथित प्राचीन ग्रन्थ, जो स्वयं दसवी शताब्दी के बाद (कागज के आविष्कार होने एवं उस क्षेत्र में आने के बाद) रचे गए हैं और दावा प्राचीनतम का करते हैं, कभी भी इतिहास के लेखन के प्राथमिक स्रोत नहीं माने जा सकते हैं| यदि फिर भी कोई ऐसा दावा करता है, तो निश्चितया वह वृहत समाज के प्रति गंभीर बौद्धिक अपराध कर रहा है| इतिहास के द्वितीयक स्रोत उसे कहते हैं, जो प्राथमिक स्रोत पर ही निर्भर करता है| अर्थात द्वितीयक स्रोत इतिहास के प्राथमिक स्रोत से प्राप्त तथ्यों की इतिहासकार की व्याख्या से तैयार होता है| भारत में तो कई इतिहासकार या अधिकतर इतिहासकार इतिहास की व्याख्या यानि इतिहास की रचना बिना किसी प्राथमिक एवं द्वितीयक स्रोत के ही काल्पनिक ग्रंथों के आधार पर कर देते हैं| ऐसे ग्रंथों को काल्पनिक ग्रन्थ इसलिए कह रहा हूँ, क्योंकि इनका कोई भी प्रमाणिक पुरातात्विक आधार यानि साक्ष्य नहीं होता है|

किसी भी इतिहास की रचना के लिए प्रयुक्त किसी भी स्रोत की मौलिकता, सत्यता, एवं वास्तविकता को अवश्य ही सुनिश्चित किया जाना चाहिए| आजकल बिना किसी प्राथमिक स्रोत के ही द्वितीयक स्रोत तैयार कर लिया जाता है| और इसी के आधार पर इतिहास की लम्बी लम्बी व्याख्या कर इस तरह परोसा जाता है कि लोग इसकी सत्यता एवं वास्तविकता की खोज पर ध्यान भी नहीं देते| यदि आप सावधान एवं सजग नहीं हैं, तो आप पग पग पर भारतीय प्राचीन इतिहास में धोखा खाते रहेंगे|

एक ही प्रचलित उदहारण ऐसे मामलों को समझने के लिए पर्याप्त है| भारत में चाणक्य के ऐतिहासिकता का कोई प्राथमिक स्रोत नहीं है, सिर्फ द्वितीयक स्रोत ही उपलब्ध है| यह भी द्वितीयक स्रोत बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ का है, और उसके पूर्व का कोई द्वितीयक स्रोत ही नहीं है| चाणक्य के सम्बन्ध में कोई भी प्राथमिक साक्ष्य आज तक उपलब्ध नहीं है| फिर भी चाणक्य पर आधारित लम्बी लम्बी बातें एवं वर्णन इतिहास एवं इतिहास के साक्ष्य के रूप में व्याख्यापित है| कहने का तात्पर्य यह है कि इस काल्पनिक पात्र को रच कर बिना किसी प्राथमिक साक्ष्य के ही इसे ऐतिहासिक बना दिया गया है| प्राचीन भारत में ऐसे कई उदहारण भरे पड़े हैं, आपको सिर्फ अपनी नजरे घुमानी है|

कोई भी इतिहास व्यक्ति एवं समाजका होता है, ‘व्यक्ति एवं या समाजके लिए होता है और व्यक्ति एवं या समाज; के द्वारा ही होता है| अर्थात कोई भी इतिहास किसी काल एवं क्षेत्र के लोगों का होता है| कोई भी इतिहास वर्तमान के लोगों में समरसता एवं विकास के लिए होता है| और कोई भी इतिहास की रचना वर्तमान यानि तत्कालीन व्यक्ति एवं समाज के द्वारा ही तैयार किया जाता है|

एक व्यक्ति एवं या समाज का अस्तित्व शारीरिक भी होता है, मानसिक भी होता है, और आध्यात्मिक भी होता है| किसी भी व्यक्ति एवं या समाज का आधार शारीरिक ही होता है यानि भौतिक ही होता है| इसी भौतिकता पर उसका मानसिक एवं आध्यात्मिक अवस्था तथा प्रभा (Radiance) क्षेत्र बनाता है| इसीलिए किसी भी व्यक्ति या समाज यानि संस्कृति की व्याख्या का मूल आधार भौतिकीय ही होता है, जिसे आर्थिक शक्तियां ही प्रभावित एवं नियंत्रित करती हैं| इसी कारण किसी भी काल एवं किसी भी क्षेत्र का इतिहास आर्थिक शक्तियों के कारकों पर आधारित होता है, और इसीलिए आर्थिक शक्तियों के नियमों से व्याख्यापित यानि रचित होती है|

इसी कारण इतिहास यानि सामाजिक रूपांतरण की क्रमबद्ध गाथा की व्याख्या आर्थिक शक्तियों के तत्वों यानि उत्पादन, वितरण, विनिमय एवं संचार की शक्तियों एवं उनके अंतर्संबंधों के ही आधार पर किया जाता है| इसके आधार पर सम्पूर्ण सामाजिक रूपांतरण की सही (Correct), सम्यक (Proper), समेकित (Integrated) एवं समुचित (Appropriate) व्याख्या हो जाता है| यही व्याख्या वैज्ञानिक एवं समुचित भी है|

उपरोक्त वर्णित आर्थिक शक्तियों के आधार पर वर्णित इतिहास समुचित एवं सच्चा होता है| इसी के आधार पर ऐतिहासिक नियमों को प्रतिपादित किया जा सकता है| इन स्थापित किये गए नियमों के आधार पर वर्तमान को समझा जा सकता है और भविष्य का पूर्वानुमान किया जा सकता है| ये नियम ही ऐतिहासिक घटनाओं एवं प्रक्रियाओं को निर्धारित एवं प्रभावित करते हैं| इतना ही नहीं, ये नियम ही विचारधाराओं यानि आदर्शों को बनाते हैं| इसीलिए समय एवं संदर्भ के अनुसार ये विचार एवं आदर्श भी बदलते रहते हैं| इसी कारण समय एवं सन्दर्भ में ऐतिहासिक व्याख्या भी बदलते रहते हैं|

इस व्याख्या के आधार पर इतिहास काल में संग्राहक अवस्था, पशुचारण व्यवस्था, कृषि का आगमन, नगरों एवं राज्य का उदय, सामंतकाल का उदय एवं विस्तार, वणिकवाद एवं पूंजीवाद, साम्राज्यवाद एवं साम्यवाद, वित्तीय साम्राज्यवाद एवं डाटावाद; सभी प्रकारों की सभ्यताओं और संस्कृतियों की समेकित, सम्यक एवं समुचित व्याख्या हो जाता है| संस्कृतियों की व्याख्या में सभी पक्ष यथा सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, मनोवैज्ञानिक, धार्मिक, सामरिक, कलात्मक, शैक्षणिक आदि शामिल हो जाते हैं| आप भी इतिहास की ऐसी व्याख्या से संतुष्ट हो जायेंगे

 निरंजन सिन्हा

आचार्य प्रवर निरंजन

बुधवार, 16 मार्च 2022

दर्द के सौदागर और मरहम

(Traders of Pain and its Remedies) 

परीक्षा में फेल होने के डर से बचने के लिए किसी को बाजार के "दर्द के सौदागर" या "डर के सौदागर" द्वारा अंगूठी या ताबीज देना, मन्त्र देना, ईश्वर की सहायता उपलब्ध कराना आदि कई तरीके किये जाते हैं| गरीबी या बिमारी या पारिवारिक अशांति आदि कई झोलों से बचने के लिए किसी को स्वर्ग में स्थान सुरक्षित करा देना भी गरीबी या बीमारी या पारिवारिक अशांति आदि के दर्द से बचाने के स्थायी उपाय है|

ऐसे सौदागर किसी जाति या जाति समूह के लोग को यह बताते, जताते या समझाते हैं कि कोई दुसरा जाति समुदाय या जातियों के समूह उन पर हावी होते जा रहे हैं, और उसे जल्द ही बर्बाद करने वाले हैं। ये सौदागर इन जाति समुदायों या जाति समूहों के दर्द यानि डर का खूब राजनीतिक उपयोग करते हैं| इसी तरह,  कोई चतुर सौदागर किसी खास धर्म के लोग को यह बताते, जताते या समझाते हैं कि अब जल्दी ही उनके धर्म को निगल जाने वाले हैं, या उनके धर्म का वजूद ही मिट जाने वाला हैं, के दर्द या डर का बखूबी उपयोग करते हैं| ऐसे कई उदहारण आप अपने आसपास देख सकते हैं| इन दर्द या डर के व्यापार के स्वरूपों एवं क्रियाविधियों को समझना चाहिए| इन सभी का समाधान आसानी से पाया जा सकता है, परन्तु इसे यदि दर्द या डर को मिटा ही दिया जायगा, तो ये सौदागर व्यापार किसका करेंगें? यही विचारणीय सवाल है|

आइए, अब दर्द और सौदागर की प्रवृत्ति और प्रकृति को समझते है। दर्द (Pain) को पीड़ा, व्यथा, वेदना, कष्ट, हूक, और अन्य कई नामों से भी जाना जाता है| दर्द यानि पीड़ा एक अप्रिय अनुभव होता है। अर्थात यह एक अनुभव है और इस अनुभव को अच्छा नहीं होना चाहिए| किसी अनुभव को कोई भी अपने न्यूरोन के द्वारा अपने मस्तिष्क एवं चेतना को सम्बन्धित संकेत (सिगनल) भेजने से प्राप्त करता है| यानि किसी का भी अनुभव उसके अपने अवबोध (Perception) से ही आता है, चाहे वह काल्पनिक हो या वास्तविक हो| अर्थात दर्द को अनुभव कराने वाला कोई वास्तविकता हो सकता है, या कोई काल्पनिक वास्तविकता (Imaginary Reality) हो सकता है, या महज कोई  कल्पना मात्र ही हो सकता है|

‘अंतर्राष्ट्रीय पीड़ा अनुसंधान संघ’ द्वारा दी गई परिभाषा के अनुसार "एक अप्रिय संवेदी और भावनात्मक अनुभव जो वास्तविक या संभावित ऊतक-हानि से संबंधित होता है; या ऐसी हानि के सन्दर्भ से वर्णित किया जा सके, पीड़ा कहलाता है"| इसका अनुभव कई बार किसी चोट, ठोकर लगने, किसी के मारने, किसी घाव में नमक या अन्य रसायन आदि लगने से भी होता है। यह विवरण मात्र शारीरिक दर्द के बारे है, जबकि दर्द मानसिक भी होता है| इस तरह यह परिभाषा पूर्ण नहीं है| दर्द की परिभाषा में शारीरिक एवं मानसिक दर्द दोनों के स्वरुप को समाहित होने चाहिए|

चूंकि दर्द न्यूरान्स तंत्र में असहज और अप्रिय संकेत या सूचना है, इसलिए इसका स्रोत वास्तविक और काल्पनिक दोनों स्थापित हैं। चूंकि दर्द एक अहसास है, इसलिए इसका वास्तविक होना आवश्यक नहीं है और यह मनोवैज्ञानिक ज्यादा है। इसी विशेषता के कारण "भावनाओं के सौदागर" इसका उपयोग और दुरुपयोग करते हैं। वैसे सौदागर शब्द में सौदा के लिए "लाभ" अंतर्निहित होता है, इसलिए इनके यहां इन भावनाओं का उपयोग कम और दुरुपयोग ज्यादा ही होता है।

अब आप सहमत होंगे कि दर्द किसी नुकसान या किसी अप्रिय स्थिति आ जाने का “डर” (Fear) की मनोवैज्ञानिक स्थिति है, एक भावना है| इस तरह डर भी दर्द का पर्यायर्वाची हो जाता है| जब कोई इस “दर्द” एवं “डर” का सौदा करने में ही उपयोग करता है, तो उसे 'दर्द का सौदागर' कहते हैं| वैसे एक सौदागर कोई भी सौदा किसी लाभ के लिए ही करता है| अब यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि कोई भी सौदागर अपने सौदा किए जाने वाले किसी भी वस्तु (Things) को, चाहे वह कोई माल (Goods) हो, कोई सेवा (Services) हो, कोई विचार (Ideas/ Thoughts) हो, या कोई आदर्श (Ideals) हो, को नष्ट यानि बर्बाद करना नहीं चाहेगा| एक सौदागर के लिए सौदा किए जाने वस्तु बहुत ही महत्त्वपूर्ण होती है, जिसे वह सुरक्षित (Conservation) एवं संरक्षित (Preservation) रखना चाहेगा| यानि इस डर को सदैव जीवित रखा जाएगा, ताकि इसके सौदागर इसका सौदा करता रहे। 

मैंने शीर्षक में मरहम शब्द का प्रयोग किया है| वैसे मरहम एक लेप होता है, जो दर्द को मिटाता है या कम करता है। इसी कारण मरहम को मलहम भी कहा जाता है। यदि मरहम को दर्द मिटने का उपाय मान लिया जाय, तो मरहम में व्यायाम, सेकाई (Warming / Heating), अन्य थेरापी, अन्य दवाइयां और अन्य उपाय भी शामिल हो जाते हैं| लेकिन दर्द के सौदागर मरहम नहीं देते हैं, मरहम बेचने का नाटक भले ही कर सकते हैं| यदि वे दर्द को मिटा ही देंगे, तो किन भावनाओं का व्यापार करेंगे? इस तरह दर्द को बरक़रार रहना यानि रखना सौदागर की नैतिकता है, आदर्श है| इसे समझना चाहिए|

स्पष्ट है कि दर्द शारीरिक हो, या मानसिक हो, या आध्यात्मिक हो, यह एक अनुभव ही है| जब यह अनुभव ही है, तो यह वास्तविक हो सकता है या काल्पनिक हो सकता हैं, जैसा ऊपर भी लिखा गया है। लेकिन दर्द की दुनिया में काल्पनिक का हिस्सा या भागीदारी बहुत ज्यादा है। इसका वास्तविक निदान यानि समाधान यानि इसे निपटने का उपाय "ज्ञान" ही है। ज्ञान दोनों तरह के - वास्तविक और काल्पनिक - दर्द को मिटाता है या कम करता है। लेकिन व्यवस्था यानि सौदागर कभी भी इसका समाधान नहीं होने देता|

इन सभी दर्दों को शारीरिक दर्द से ही जोड़ दिया जाता है, यानि सभी प्रकार के दर्द का अंतिम परिणाम शारीर को ही नुकसान के रूप में दिखाया जाता है| आपको मानसिक या आध्यात्मिक दर्द भी होता है, परन्तु वह भी भविष्य के किसी शारीरिक नुकसान के ही रूप में लिया जाता है| यह किसी के शारीरिक अस्तित्व के अन्त या समापन के रूप में भी हो सकता है| दर्द के सौदागर किसी के जाति, धर्म, अमीरी, बिमारी और इनसे जुड़ी कई खतरों के दर्द यानि डर का व्यापार करते हैं| इस व्यापार का सबसे आकर्षक पहलु यह है कि इसे व्यापार के रूप में लिया ही नहीं जाता है| इस व्यापार को सदैव आपके मददगार के रूप में लिया जायेगा या लिया जाता रहा है| ऐसे व्यापारियों का व्यापार सदियों से अबाध गति से जारी है| चूँकि इसका निदान ज्ञान ही है, अत: जब तक अज्ञान रहेगा, तब तक यह जारी ही रहेगा| यदि आप इसे रोकने का प्रयास करेंगे, तो यही अज्ञानी लोग आपको  अपना दुश्मन नम्बर एक मान बैठेंगे|

जब इन दर्दों का समाधान एकमात्र सम्यक ज्ञान ही है, तो हमें इस सम्यक ज्ञान को समझना होगा| जब बात ज्ञान की आती हैं, इसके स्तर और गुणवत्ता की बात आ जाती है, तो डिग्री और उपाधि को लेकर कई भ्रम पैदा हो जाते हैं| ज्ञान का होना और उसमें स्तर एवं गुणवत्ता का होना कई कारणों और कारकों से संचालित, नियंत्रित, और प्रभावित होती है। इन कारकों में समुदाय, समाज, या राष्ट्र का शैक्षिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, सामाजिक आदि कई कारकों को प्रमुख स्थान मिला हुआ है। बुद्ध के आष्टांग मार्ग भी सम्यक ज्ञान ही है, जिसमे सभी पहलु समाहित हैं|

लेकिन यदि आपको भी दर्द का सौदागर बनना है, तो आपको कई बातों का ध्यान रखना होगा| आप किसी भी मूर्ख को ज्ञान के उच्चतर श्रेणी में होने के उसके भ्रम को सही मानने का उसे अहसास दिला दीजिए| उनके मूर्खतापूर्ण निर्णयों में बुद्धि की उत्कृष्टता का बोध उसे करा दीजिये| अपने जाति और धर्म में अपनापन खोजने के अहसास और दूसरे जाति एवं धर्मों में दुश्मन देखने का अहसास जगा दीजिए| अपनी जाति एवं धर्म में दर्द का समाधान खोजने में तैरने के प्रयास की खूब प्रशंसा कर दीजिए| पूर्ण काल्पनिक उड़ानों में जैसे ईश्वरीय शक्ति के सहयोग का अस्तित्व, आत्मा एवं पुनर्जन्म की क्रिया प्रणाली के उसके मान्यता को सही मान लेने को बौद्धिक ज्ञान से परिपूर्ण बताइये| आप भले ईश्वर को मत मानिए, परन्तु दूसरों के सामने उनके शक्ति का गुणगान कीजिए| सिर्फ ध्यान यह रखना है कि उन्हें वास्तविक यानि सम्यक ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो| यानी यदि कोई विद्यार्थी है, तो उसे पढने के अलावे सारे देश दुनिया का सरोकार देकर उलझाये रखिये| उसे पढने नहीं दीजिए, सिर्फ उनको क्रान्तिकारी और प्रबुद्ध बताइए| वे खुश रहेंगे| वे पढेंगे नहीं, तो उनकी विश्लेषण क्षमता भी नहीं होगी और वे आपकी नापाक इरादों को समझ भी नहीं पाएंगे| तब ही आप दर्द के सफल सौदागर बनेंगे|

आप 'दर्द के मरहम' के नाम पर उनके लिए आवश्यक ज्ञान उपलब्ध कराने को छोड़कर उसके सभी संसाधन, धन, उर्जा,  समय, वैचारिक और जवानी का उपयोग कर सकते है| आपको खूब दान भी मिलेगा, सम्मान भी मिलेगा और खूब जय जयकार भी होगा| आप भी कईयों की तरह दर्द के सफल सौदागर बन सकते हैं| इस पर कभी ठहर कर विचार कीजियेगा।|

 आचार्य प्रवर निरंजन 

शुक्रवार, 11 मार्च 2022

लोकतंत्र का सफ़र प्रजातंत्र तक

जी, हाँ| आज मैं आपको ‘लोकतंत्र’ का सफ़र ‘प्रजातंत्र’ तक या ‘प्रजातंत्र’ का सफ़र ‘लोकतंत्र’ तक कैसे होता है? इस पर थोडा समझेंगे| आपने भी देखा हैं कि भारतीय संविधान में “लोकतंत्र” शब्द है, ‘प्रजातंत्र’ नहीं है| हालाँकि सामान्य राजनेता और सामान्य जन भी इन दोनों में कोई अंतर नहीं कर पाते हैं| इसका एक साधारण कारण यह है कि इन दोनों के लिए अंग्रेजी एक ही है – Democracy शब्द, जिसका सामान्य अर्थ वह तंत्र जो मानवो के लिए है| इस अग्रेजी अनुवाद और असावधानी के कारण लोग इस पर ध्यान ही नहीं देते हैं|

मानवों (Human) में ‘आदमी’ (Man, in general) भी आते हैं, ‘लोग’ (People, Public) भी आते हैं, ‘प्रजा’ (Subject) भी आती है,और ‘नागरिक’ (Citizen) भी आते हैं| लेकिन ‘व्यक्ति’ (Person) में ‘मानव’ भी आते हैं और ‘मानव’ नहीं भी आते हैं| ‘संयुक्त हिन्दू परिवार’ (Hindu Undived Family) एक “व्यक्ति” (Person) तो है, परन्तु आदमियों (Men) का समूह भी है| एक कम्पनी या एक संस्थान (Institute, not institution) एक ‘व्यक्ति’ तो है, तो परन्तु एक ‘नागरिक’ नहीं है और एक ‘आदमी’ भी नहीं है| जब कोई ‘मानव’ एकवचन में है, तो वह ‘आदमी’ हुआ| जब ‘मानव’ बहुवचन में हुआ, तो वह ‘लोग’ (Public) हुआ| जब लोग किसी राजा यानि किसी शासक (Ruler) का शासित (Ruled) हुआ, तो वह ‘प्रजा’ (Subject) हुआ| जब लोग किसी गणतंत्र का कर्तव्य (Duties) और अधिकार (Rights) से युक्त है, तो वह वहां का ‘नागरिक; हुआ| ‘लोग’ को उत्कृष्ट अवस्था में ‘लोक’  कहते हैं|

आपने भी देखा है कि संविधान में ‘लोग’ और ‘नागरिक’ का अलग अलग अर्थों में प्रयोग हुआ है| ‘लोग’ को जीवन जीने का अधिकार तो है, परन्तु चुनाव में भाग लेने का अधिकार नहीं है| जबकि एक ‘नागरिक’ को  यह दोनों अधिकार दिया हुआ है| एक कम्पनी या कोई संस्थान एक वैधानिक व्यक्ति (Person) तो है, परन्तु उसे आदमी के रूप में या नागरिक के रूप में कोई अधिकार नहीं है| ये कम्पनी या संस्थान व्यक्ति का निर्माण है, किसी प्राकृतिक उद्विकास का प्रभाव नहीं है| इसीलिए ये कम्पनी या संस्थान ‘कृत्रिम व्यक्ति’ कहलाते हैं|

अब हमलोग मूल विषय पर आयें| जहां गणतन्त्र होता है यानि शासनाध्यक्ष जनता द्वारा निर्वाचित होता है| इसमें शासन भी जनता द्वारा होता है, तो वहां की जनता “लोक” कहलाती हैं और वह तंत्र लोकतन्त्र हुआ| लेकिन जहाँ राजतन्त्र होता है, यानि शासनाध्यक्ष वंशानुगत होता है, वहां की जनता “प्रजा” कहलाती है| इस तरह आधुनिक युग में शुद्ध स्वरुप में “लोकतन्त्र” हुआ, जबकि इसके पूर्व काल में सामान्यत: लोकतंत्र नहीं हुआ करता था| चूँकि अब भारत में कोई व्यक्ति शासक नहीं है, एक निर्वाचित व्यवस्था (System) ही शासक है, इसलिए भारत के लोग यानि “लोक” किसी का प्रजा नहीं हो सकता है| इसलिए भारत में “प्रजातन्त्र” नहीं हो सकता या ‘प्रजातन्त्र’ नहीं होना चाहिए| यानि किसी राजा यानि किसी व्यक्ति का शासित नहीं हो सकता या नहीं होना चाहिए| यहाँ तो लोकतन्त्र है, लोगों द्वारा बनाई गई व्यवस्था द्वारा शासित तंत्र है|

परन्तु प्राचीन काल में सामान्यत: एवं मध्य काल में सभी व्यवस्था में लोग प्रजा ही था| ‘प्रजा’ यानि किसी व्यक्तिगत शासक द्वारा शासित व्यवस्था के अंतर्गत रहने वाले लोग| पहले के तन्त्र में शासन किसी व्यक्ति के प्रति जबावदेह होता, लेकिन जनता के प्रति नहीं| प्रजातंत्र में लोग शासन (तंत्र) से अपेक्षा (Expectations) नहीं रख कर, शासक व्यक्ति से अपेक्षा रखते हैं| इस तरह शासक (King) प्राथमिक हुआ, और व्यवस्था (तंत्र) द्वितीयक हुआ| इसमें ‘कृपा’ (Mercy) कोई व्यवस्था नहीं करता, बल्कि कोई व्यक्ति करता है| इसमें शासन का अन्तरण (Transfer) किसी एक खानदान (Family) में ही होता है| जबकि लोकतन्त्र में लोगों की अपेक्षा (Expectations) भी व्यवस्था (System) से होती है, और उन अपेक्षाओं (Expectations) की पूर्ति भी व्यवस्थाओं के द्वारा ही होती है| इन दोनों में यही अंतर है, जिसे सामान्य आदमी समझने के लिए समय भी नहीं देना चाहते| इसी कारण कब लोकतन्त्र अपना सफ़र प्रजातन्त्र तक कर लेता है, पता ही नहीं चलता| हाँ, जब प्रजातन्त्र का सफ़र लोकतन्त्र की ओर होता है, तो तामझाम और शोर भी काफी होता है| इस स्पष्ट है कि लोकतन्त्र का सफ़र प्रजातन्त्र की ओर चुपचाप होता है| अब आप इन दोनों के परिणाम समझने लगे होंगे|

जब आपको या किसी को भी समझने में कोई दिक्कत आ रही है, तो समझने के लिए शान्त चित्त (Mind/  Consciousness) से ठहर (Halt) जाना होता है| इससे आप उसकी गहराई (Depth) में उतर सकते हैं और आपको सब कुछ साफ साफ़ दिखने लगेगा| भारत के लोग ठहरना नहीं चाहते हैं, जबकि बुद्ध इसी कारण विश्व गुरु बन गए| आज भी जो शांत चित्त से ठहरा हुआ है, बहुत आगे निकला हुआ है| अब भारत के सामान्य लोग भी खाने के लिए, शारीरिक आवश्यकता के लिए हो या मानसिक आवश्यकता के लिए भोजन, तैयार सामग्री ही चाहते हैं| जबकि स्वयं का पकाया हुआ सामग्री स्वास्थ्यवर्धक होता है, और इसिलिए बाजार के तैयार खाना को ‘जंक फ़ूड’ कहा गया है| ‘जंक’ (Junk) को आप ‘जंग’ (Rust) समझ रहे हैं, तो आप सही ही हैं|  अब आप मेरे द्वारा परोसे गए मानसिक सामग्री पर मनन मंथन करेंगे, सब कुछ झलकने लगेंगे| सब कुछ जब सुलझा हुआ होता है या मिलता है, तो मानसिक शक्तियां सक्रिय नहीं हो पाती है, क्योंकि उसका समुचित व्यायाम नहीं हो पाता है|

लोकतन्त्र का सफ़र प्रजातन्त्र में होने का अर्थ भी आप समझ रहे हैं, और इसका प्रभाव भी समझते होंगे| हालाँकि भारत के लोग अभी भी प्रजातन्त्र की मानसिकता से ग्रसित हैं, और यह गहरी अशिक्षा के कारण ही है| इसी का एक सामान्य उदहारण है – शासको का वंशानुगत होने की प्रक्रिया या कोशिश| हालाँकि आज प्रजातन्त्र (लोकतन्त्र नहीं) को पूरी तरह से अप्रासंगिक होना चाहिए, जैसा कि सभी विकसित समाजों यानि राष्ट्रों में है| शायद इसी के कारण आज भी इसी भ्रम में भारत में लोकतन्त्र अपनी पुरे प्रवाह (Flow) में नहीं आ पाया है| मेरा काम इन दोनों में अन्तर रेखांकित करना था, अब आप निष्कर्ष निकालते रहिए|

(आप मेरे अन्य आलेख www,niranjansinha,com  या https://niranjan2020.blogspot.com पर भी अवलोकन कर सकते हैं|)

निरंजन सिन्हा 

 

सत्ता ‘वैज्ञानिक भौतिकवाद’ से क्यों डरता है?

‘ सत्ता ’ में शामिल लोग ही असली ‘ शासक ’ ‘ वर्ग ’ कहलाते हैं , होते हैं।   तो सबसे प्रमुख प्रश्न यह है कि   ‘ सत्ता ’   क्या है और   ‘ शासक ...