गुरुवार, 5 अगस्त 2021

आरक्षण समाप्त कैसे करें?

आरक्षण को एक विवाद का विषय बनाया हुआ है| क्या आरक्षण समाप्त होना चाहिए? किन वर्गों का आरक्षण समाप्त किया जाना चाहिए – सदियों से प्राप्त अरक्षित वर्गों का या सत्तर वर्षों से प्राप्त अरक्षित वर्गों का या इन सबों का? आरक्षण की आवश्यकता को क्यों पड़ी? आरक्षण क्या होता है अर्थात क्यों दिया जाता है? आरक्षण यदि आवश्यक है, तो इसका कौन सा आधार यानि शर्तें उपयुक्त हो सकता है? आरक्षण विश्व के और कौन से समाज में प्रचलित है, और क्यों? आरक्षण यदि विश्व के दुसरे समाज में प्रचलित है, तो किस स्वरुप में है? आरक्षण यदि उपयुक्त है, तो क्यों? आरक्षण यदि गलत है, तो क्यों? आरक्षण कैसे समाप्त हो सकता है? आज हमलोग उपरोक्त सभी पहलुओं के सामाजिक, सांस्कृतिक, एवं वैज्ञानिक अध्ययन करते हैं, जिसमे तर्क हो, विश्लेषण हो, विवेकशीलता हो, वैज्ञानिकता हो, एवं प्राकृतिक न्याय हो|

भारत में आरक्षण के दो स्वरुप – ऐतिहासिक (सांस्कृतिक) एवं सांविधानिक है| भारत में आरक्षण का पहला एवं प्रमुख स्वरुप ऐतिहासिक है, हालाँकि जिसके प्रत्यक्ष स्वरुप का आरक्षण से कोई सम्बन्ध नहीं दीखता है| यह ऐतिहासिक आरक्षण अपने सांस्कृतिक स्वरुप में है| इसी कारण यह संस्कृति का एक हिस्सा दीखता है, और इसी कारण सामान्य जन इसके वास्तविक स्वरुप की पहचान नहीं कर पाते हैं| इस संस्कृति को ऐतिहासिक, पुरातन, सनातन, गौरवशाली एवं अनुकरणीय बताने के लिए इसे काल्पनिक कहानियों के आधार पर सहस्त्राब्दियों पीछे का बताया जाता है| दरअसल ये कहानियां नौवीं शताब्दी के बाद बनाई गयी है| इसलिए ही यह अपने पुरातात्विक साक्ष्यो एवं अन्य वैज्ञानिक प्रमाणों के अभाव में विश्व में मान्यता खोता जा रहा है| पहले भारत के इतिहास में महाकाव्य काल (Epic Age) होता था, परन्तु अब साक्ष्यों के अभाव में इसे इतिहास के किताबों से बाहर कर देना पड़ा है| नौवीं शताब्दी के पहले सिर्फ योग्यता एवं कुशलता ही पेशा का आधार रहा, जाति के नहीं होने से जाति इसका आधार ही नहीं था| सांवैधानिक आरक्षण संविधान के रचनात्मक एवं उपचारात्मक प्रावधानों के अनुपालन में शुरू हुआ|

सांस्कृतिक व्यवस्था में सामान्य भारतीय समाज को चार वर्णों में विभक्त बताया जाता है| यह सामंती व्यवस्था की आवश्यकता एवं उपज भी है| वर्णों के आधार पर सामाजिक, प्रशासनिक, आर्थिक, एवं धार्मिक विशेषाधिकार (Privilege) निर्धारित किये गए एवं अनुपालित (Implement) भी किये गए| इसी वर्णों के आधार पर शूद्रों के लिए सामाजिक, प्रशासनिक, आर्थिक, एवं धार्मिक निर्योग्यताएं (Disability) निर्धारित किए गए एवं अनुपालित किए गए|  इसमें “अवर्णों” की चर्चा छोड़ दिया गया है| अर्थात ‘अवर्ण’ को इस व्यवस्था में शामिल नहीं किया गया है| इस तरह भारतीय समाज में जन्म यानि वंश के आधार पर कुछ विशेष वर्ग या वर्गों को आरक्षण सुनिश्चित किया गया, जो अपने सांस्कृतिक आवरण में अभी तक अविछिन्न रूप में जारी है| जन्म के आधार पर यानि योग्यता एवं कुशलता को छोड़ कर सिर्फ वंश के आधार पर भारत के बृहत् समाज को साजिशतन पीछे ठेल (Push to Back) दिया गया| एक सशक्त एवं समृद्ध राष्ट्र के निर्माण के लिए यह आवश्यक है, कि राष्ट्र निर्माण में सभी सदस्यों यानि नागरिकों को योग्यता एवं कुशलता के आधार पर शासन के प्रत्येक स्तर पर न्यायिक भागीदारी (Judicious Participation) मिलें| इसके लिए जन्म यानि वंश आधारित विशेषाधिकारों को समाप्त किया जाना है| और जन्म यानि वंश आधारित निर्योग्यतायों को भी समाप्त किया जाना है| यदि भारतीय समाज में जाति एवं वर्ण वास्तविकता (Reality) है, तो इसके आधार पर शासन के प्रत्येक स्तर पर सभी सामाजिक वास्तविक वर्गों को वास्तविक न्यायिक प्रतिनिधित्व (Judicious Representation) भी सुनिश्चित हो| यह एक सशक्त एवं समृद्ध राष्ट्र निर्माण की एक आवश्यक एवं प्राथमिक शर्त है| इसी कारण भारतीय संविधान में संवैधानिक व्यवस्था की गयी है| इस आरक्षण का आधार किसी सामाजिक वर्ग का “सामाजिक एवं शैक्षणिक पिछड़ापन” है| यह गरीबी उन्मूलन आरक्षण नहीं है| यह सामाजिक, शैक्षणिक एवं सांस्कृतिक पिछड़ापन को दूर करने के लिए संवैधानिक व्यवस्था है| वर्ष 2019 में भारत सरकार ने इसके अंतर्गत इसे सामान्य वर्ग के आर्थिक सुदृढिकरण करने के लिए आरक्षण भी दिया गया| इस तरह इसे गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम भी मान लिया गया|

हमें बुद्धिमता (Intelligence) के वैज्ञानिक आधार को जानना एवं समझना चाहिए| इससे हमें जाति और बुद्धिमता में सम्बन्ध को समझने में मदद मिलेगी| बुद्धिमता तो ज्ञान एवं विवेक आधारित होता है, चाहे वह सामान्य बुद्धिमता हो, या भावनात्मक बुद्धिमता, या सामाजिक बुद्धिमता| भारतीय समाज में बुद्धिमता एवं कुशलता (Skill) को जन्म पर आधारित यानि वंश पर आधारित मान लिया गया है| अर्थात भारतीय संस्कृति में बुद्धिमता एवं कुशलता को जाति एवं वर्ण आधारित मान लिया गया है| विज्ञान के अनुसार बुद्धिमता निर्धारण के दो ही पहलु –आनुवाशिकी (Genetics) एवं पर्यावरण (Environment) है| बुद्धिमता पर आनुवंशिकी एवं पर्यावरण के पारिस्परिक क्रियात्मक (Interactive Action) प्रभाव पड़ता है| शिक्षा भी पर्यावरण का ही भाग है, इसलिए इसे अलग से वर्गीकृत नहीं किया गया|

बुद्धिमता (Intelligence)  क्या है? बुद्धिमता किसी भी चीज को बढ़िया से समझने एवं बदलते पर्यावरण के अनुरूप अनुकूलित (Adoptation) होने की क्षमता एवं योग्यता है| बुद्धिमता में तर्क (Logic, Reasonsing), स्व जागरूकता (Self Awareness), सीखना, भावनात्मक समझ, रचनात्मकता, विश्लेषण क्षमता एवं समस्या समाधान की क्षमता एवं योग्यता शामिल है| कुछ लोग इसे “भविष्य की स्वतंत्रता” (Freedom of Future) को महत्तम करने की क्रिया भी कहते हैं| इस तरह बुद्धिमता सोचने, अनुभव से सिखने, समस्या का समाधान करने, एवं नए अवस्था में अनुकूलित होने की योग्यता है| विश्व के वैज्ञानिको के अनुसार बुद्धिमता के 206 जीनोमिक केन्द्रक (Genomic Loci) एवं 1041 जीनों की पहचान की गयी है| बुद्धिमता पर आनुवंशिकी एवं पर्यावरण का संयुक्त क्रियात्मक प्रभाव पड़ता है| आनुवंशिकी किसी व्यक्ति के बुद्धिमता के जीनीय आधार का उपरी (Upper) एवं निचली (Lower) सीमा निर्धारित कर देता है| यह सीमा यानी परास (Range) आदमी को किसी अन्य पशु से अलग कर देता है| एक बन्दर का बच्चा एक सीमा तक आदमी के बच्चे से ज्यादा तेजी से सीखता है, उसके बाद उसका सीखना रुक या कम जाता है| यही उसका उपरी जीनीय क्षमता है| यह सभी मानवों में एक समान होता है| आदमी का सबसे नजदीकी जीवित सम्बन्धी चिम्पाजी है| आदमी एवं चिम्पाजी के डी एन ए (DNA) में 98.7 % समानता बताई जाती है| तो एक आदमी एवं किसी भी दुसरे आदमी में इससे अधिक की ही समानता यानि 99% से अधिक ही पाई जाएगी| स्पष्ट है कि आज के मानव, जो होमो सेपियन्स कहलाता है, के सन्दर्भ में बुद्धिमता से सम्बंधित जीनिय विभिन्नता खोजना दुष्टता है| अर्थात एक मानव में बुद्धिमता को प्रभावित करने में कुछ बीमारियों, पोषण एवं दवा के प्रभाव को छोड़ कर सिर्फ पर्यावरण के कारक ही प्रमुख हैं| अब तक आपने यह देखा कि बुद्धिमता के निर्धारण में किसी वंश या जन्म की योग्यता का कोई विशेष जीनीय अर्थ नहीं है|

पर्यावरण में उसका गर्भावस्था, उसका बचपन, उसके पालन –पोषण की विधि, उसका सामाजिक एवं संस्थानिक शिक्षण, उसके प्रति किए गए सामाजिक एवं सांस्कृतिक व्यवहार, उसकी बोधगम्य क्षमता (Perception Ability) एवं उसको मिलने वाला पोषणाहार प्रमुख होता है| इसके अतिरिक्त, अपरिपक्व (Premature) जन्म, पोषण, हार्मोन्स, प्रदुषण, किरणें (Rays), दवाएं, मानसिक रोग, अन्य रोग, भी बुद्धिमता को प्रभावित करने वाले कारक होते हैं| बच्चों का बचपन, पालन –पोषण, सामाजिक एवं शैक्षणिक वातावरण का मनोविज्ञान उस बच्चे के अभिगम (सीखना) बोध (Learning Perception) को प्रभावित करता है| इस तरह वातावरण उसके जीनीय अभिव्यक्ति (Genetic Expression) को प्रभावित करता है| अत: बुद्धिमता के निर्माण, विकास एवं विस्तार में जाति एवं वर्ण यानि जन्म के परिवार का कोई विशेष जीनीय प्रभाव नहीं है| स्पष्ट है कि योग्यता एवं कुशलता के निर्धारण में जाति एवं वर्ण की जीनीय भूमिका खोजना गलत है, भ्रामक है, और सजिशतन व्यवहार है|

आरक्षण के सम्बन्ध में भारत में यह सकारात्मक सुधार की क्रिया यानि Affirmative Action नहीं है| “सकारात्मक सुधार के क्रिया” प्राकृतिक रूप से समाज में पीछे छुट गए लोगों को सामान अवसर देने की योजना है, जैसा संयुक्त राज्य अमेरिका के मूल निवासियों को दी जाती है| वहां के मूल निवासी का अर्थ नीग्रों प्रजाति के वे सदस्य है, जो पूर्व काल से वहां रह रहे हैं| सकारात्मक सुधार की प्रक्रिया में सामाजिक वर्ग के सामाजिक एवं शैक्षणिक रूप से पिछड़ गए लोगों को मुख्य धारा में लाना प्रमुख उद्देश्य है| भारतीय  समाज में किसी विशेष नियत से पीछे ठेल दिए सामाजिक वर्ग को समान अवसर देने की आवश्यकता है| जबकि अमेरिका में बाद में रहने आये विकसित व्यवस्था के लोगो के समकक्ष लाने के लिए विशेष प्रयास है| जहाँ अमेरिका में इस सकारात्मक प्रयास से किसी का आरक्षण कम या समाप्त नहीं होता है, वहीँ भारत में सदियों से प्राप्त आरक्षण कम या समाप्त होता है| अमेरिका में ऐसे आरक्षित लोगों की संख्या सम्पूर्ण आबादी का दस प्रतिशत भी नहीं है, अर्थात वहां सामान्य जनसंख्या बहुसंख्यक है| भारत में स्थिति एकदम विपरीत है| भारत में सामान्य वर्ग की आबादी दस प्रतिशत भी नहीं है एवं सामाजिक तथा सांस्कृतिक पिछड़े लोगों की संख्या बहुसंख्यक की है| बहुत से लोगों का यह भी मानना है कि इसी आंकड़े के सार्वजनिक होने से बचने के लिए ही वर्ष 2011 की जातिगत जनगणना को प्रकाशित नहीं कराया गया| हालांकि यह प्रतिवेदन के प्रकाशित होने के बाद ही यह स्पष्ट हो सकेगा कि सही बात क्या है, शेष सिर्फ अटकलें ही हैं| वर्ष 2011 की जनगणना के आधार पर भारत में अनुसूचित जाति के सदस्यों की आबादी लगभग 16.6 % है, एवं अनुसूचित जनजाति के सदस्यों की आबादी 8.6 % है| लेकिन पिछड़े वर्ग की प्रकाशित प्रतिवेदन वर्ष 1931 की है, जिसे बीते हुए 90 वर्ष हो चुके हैं| इसके अनुसार पिछड़ों की आबादी 52% थी| यह सामाजिक वर्ग सामान्यत: अपने श्रम पर आधारित है और सामाजिक, शैक्षणिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक रूप से पिछड़ा हुआ है| ऐसे पिछड़े वर्ग में जन्म दर विकसित एवं समृद्ध सामान्य वर्ग से बहुत ज्यादा होता है| इस तरह नब्बे वर्षों के लम्बी अवधि के आधार पर एवं सामान्य से अधिक जन्म दर के आधार पर बहुत से ज्ञानी लोगों का अनुमान है, कि अभी पिछड़ों की आबादी लगभग 70% (सत्तर प्रतिशत) तक पहुँच गयी है| इस तरह सामान्य वर्ग की आबादी पांच प्रतिशत निर्धारित हो जाती है| इसके अनुसार सामान्य वर्ग को आर्थिक आधार पर दस प्रतिशत का आरक्षण तर्कहीन एवं अमानवीय हो जाता है| इन विवादों को दूर करने का एकमात्र तरीका तर्कहीन, मनगढ़ंत, अकुशल, अवैज्ञानिक एवं अमानवीय सामाजिक विभाजन के आधार – जाति एवं वर्ण को ही समाप्त किया जाना है|

भारत में आरक्षण को सकारात्मक प्रक्रिया (Affirmative Action) नहीं माना जाना चाहिए| भारतीय आरक्षण व्यवस्था को तटस्थता, निष्पक्षता, यानि उदासीनता की कारवाई (Neutralisational Action) कहा जाना चाहिए| भारत में तो संवैधानिक आरक्षण “बौद्धिक एवं सांस्कृतिक षड्यंत्र (साजिश) के अंतर्गत पीछे ठेल दिए गए” लोगों को सामान अवसर देने के उद्देश्य से संचालित है| इस पिछड़ेपन में गलत नीयत है, इसलिए उसे तटस्थतिकरण किया जाना माना जाना चाहिए है| भारत में किसी सामाजिक वर्ग को जन्म के आधार पर विशेषाधिकार के रूप में जो आरक्षण दिया गया है, और किसी सामाजिक वर्ग को जन्म के आधार पर निर्योग्यताओं के कारण वंचित किया गया था, दोनों को निष्प्रभावी (Neutralise) बनाना है| दोनों – भारत एवं अमेरिका के समाजों के आरक्षण का उद्देश्य स्पष्टतया अलग- अलग है| हर बुद्धिजीवी को इस अंतर को समझना चाहिए| अमेरिका में किसी का जन्म आधारित विशेषाधिकार को नुकसान नहीं होता है, जबकि भारत में किसी को जन्म के आधार पर सदियों (इसे सहास्त्रियों में भी माना जाता है) से प्राप्त विशेषाधिकार को नुकसान पहुंचता है| इसे दुसरे शब्दों ऐसे समझते हैं| जहां भारत में इस (सांवैधानिक) आरक्षण से किसी छोटे सामाजिक वर्ग का ऐतिहासिक –सांस्कृतिक आरक्षण कम या समाप्त होता है, वही विदेशों में दिए गए आरक्षण से किसी भी सामाजिक वर्ग का पहले से प्रचलित कोई आरक्षण प्रभावित नहीं होता है, क्योंकि वहां पहले कोई आरक्षण प्रचलित था ही नहीं| इसीलिए भारत में सदियों से प्राप्त आरक्षण के लाभार्थी संवैधानिक आरक्षण का विरोध करते हैं, क्योंकि इनको समान अवसर देने से उनका आरक्षण समाप्त होता है|

हमें समानता (Equality) एवं समता (Equity) का भी अर्थ समझना चाहिए| समानता का अर्थ है कि प्रत्येक व्यक्ति या लोगों के समूह को समान संसाधन या अवसर दिए जाते हैं| समता (Equity) यह मानता है कि प्रत्येक व्यक्ति की अलग –अलग परिस्थितियाँ एवं पृष्टभूमियाँ होती है| और एक समान परिणाम या एक न्यायोचित अवसर तक पहुँचाने के लिए उसको आवश्यक संसाधनों एवं अवसरों को उपलब्ध कराता है| समता में  प्रत्येक को समान व्यवहार देने के लिए किसी खास की अपंगता (Disability) को दूर करने के लिए समुचित एवं विवेकशील तरीका अपनाया जाता है| जैसे किसी स्टेडियम में किसी आयोजन को कोई दर्शक देखना चाहता है| हर दर्शक को देखने की छुट है, चाहे वह सामान्य व्यक्ति हो या कोई पैर से विकलांग| इनको सिर्फ विहित शुल्क के साथ या निशुल्क प्रवेश है| यह समानता (Equality) हुई| लेकिन उस पैर से विकलांग व्यक्ति को दर्शक दीर्घा तक पहुंचने एवं बैठने की विशेष व्यवस्था को समता (Equity) कहते हैं| इस समता मूलक व्यवस्था या सुविधा के बिना इस पैर से विकलांग व्यक्ति के लिए समानता (Equality) का कोई अर्थ नहीं रह जाता है|

स्पष्ट है कि समता की अवसर यानि न्यायोचित व्यवस्था के बिना समानता का कोई मतलब नहीं रह जाता है| प्राकृतिक न्याय (Natural Justice) के लिए समता के साथ समानता दिया जाना चाहिए या दिया जाता है| प्राकृतिक न्याय में समता एवं समानता – दोनों के तत्व अवश्य शामिल होने चाहिए| न्याय, चाहे प्राकृतिक हो या वैधानिक, के तीन आवश्यक तत्व – स्वतंत्रता (Freedom), समानता (Equality), एवं बंधुत्व (Fraternity) है|  और समता के बिना समानता नहीं का कोई अर्थ नहीं है| और समानता के बिना बंधुत्व नहीं आ सकता है| और समानता के बिना स्वतंत्रता का कोई अर्थ नहीं रह जाता, सिर्फ कागजी घोषणा बन कर रह जाता है| इन तीनो के अभाव में समुचित न्याय की व्यवस्था खोखला है, दिखावटी है, ढोंग मात्र है| और समुचित न्याय के बिना कोई भी समाज अपनी पूर्ण संभावित क्षमता नहीं पा सकता| ऐसा समाज विश्व में कोई महत्वपूर्ण स्थान नहीं पा सकता| किसी भी समाज की शक्ति उसका ज्ञानवान व्यक्ति है| ज्ञान ही सबसे बड़ी शक्ति है| कोई भी वैधानिक न्याय किसी समाज में प्राकृतिक न्याय को प्राप्त करना चाहता है| प्राकृतिक न्याय ही किसी समाज का वैधानिक आदर्श होता है| अब आप भी समझ रहे होंगे, कि समता एवं समानता के बिना कोई समाज या देश वैश्विक सन्दर्भ में विकसित नहीं हो सकता है| सांवैधानिक आरक्षण व्यक्ति एवं समाज को समता प्रदान करता है|

जाति व्यवस्था को समाप्त करने का सबसे आसान एवं सरल रास्ता यानि उपाय भी है| सामान्यत: जाति की प्रथम दृष्टया सामाजिक पहचान उसके नाम या परिवार के नाम से जुड़ा उपनाम यानि सामाजिक घोषणा है| आज संस्कृतिकरण (Sanskritisation), पश्चिमीकरण (Westernisation), भुमंडलीकरण (Globlisation), एवं सामाजिक गतिशीलता का दौर है| संस्कृतिकरण में भारतीय सामाजिक व्यवस्था में उच्च सांस्कृतिक प्रतिमान के माने जाने वाले वर्गों के संस्कारों, प्रतिमानों, व्यवहारों एवं कर्मकांडों का अनुकरण कर वे भी अपने को उच्च सांस्कृतिक प्रतिमान के समाजों के अनुरूप समझते हैं| कालान्तर में उनके इन प्रतिमानों में सुधार होता दीखता है| पश्चिमीकरण में पश्चिमी  जगत के ज्ञान, संस्कारों, विचारों एवं प्रतिमानों का अनुकरण करते हैं| ज्ञान सभी प्रकार के अन्धकार एवं धुंध को दूर करता है और वे वास्तविक प्रगति सुनिश्चित करता है| भूमंडलीकरण के कारण आज सम्पूर्ण विश्व एक गाँव के रूप में तब्दील हो गया है| विश्व की किसी भी कोने में घटित कोई भी विशेष कारवाई या विचार सम्पूर्ण विश्व को प्रभावित करती है| सामाजिक गतिशीलता में आज कोई इहाँ है, तो कल कहीं और भी रहने लगता है| इस तरह बदलते सांस्कृतिक प्रतिमानों (Cultural Norms) के बीच पुरातन प्रतिमान असान्दर्भिक हो जाता है| नए सांस्कृतिक सन्दर्भ में नए प्रतिमान अतुलनीय हो जाता है|

एक दिन में भी जाति व्यवस्था समाप्त किया जा सकता है| किसी भी व्यक्ति का समाज में पहचान का एकमात्र सूचक उसकी जाति को सूचित करता उसका उपनाम होता है| इसी के आधार पर कोई किसी को अपना समझाता है या विद्वेष करता है, यदि वह व्यक्ति उस बीमार मानसिकता का है| इसलिए इसे दूर करने का एक उपाय यह है, कि किसी भी व्यक्ति को कभी भी अपना नाम, या उपनाम रखने, संशोधित करने, एवं बदलने का अधिकार एवं सुविधा दिया जाय| इसके साथ उसे अपने अभिभावक का भी इसी तरह नाम को संशोधित करने का सुविधा दिया जाय| इससे कोई अराजकता नहीं आएगी| क्योंकि किसी व्यक्ति का आधार संख्या निर्धारित एवं निश्चित होता है| शासन को यह व्यवस्था करना होगा कि “आधार संख्या” के आधार पर एक ऐसा डाटा बैंक तैयार करना होगा, जो उसके मूल आरक्षित वर्ग के पहचान को संरक्षित एवं सुरक्षित रखें| इस आरक्षित एवं मूल आंकड़े को देखने का अधिकार किसी जिला (जनपद – District) के वरीय पुलिस अधिकारी को होगा, जो किसी अपराध के अन्वेषण में इसे आवश्यक समझता है| इसके साथ ही ऐसा अधिकार किसी नियोक्ता एजेंसी को भी होगा, जो आरक्षण का लाभ देता है| इन आकड़ों को देखे जाने का कारण उस तंत्र के प्रणाली में दर्ज करना होगा, और यह देखे जाने की प्रविष्टि भी स्थायी रूप से अंकित रहेगी| इसके अतिरिक्त इसकी सत्यता किसी को ज्ञात नहीं होगा| इस तरह जाति एवं वर्ण सूचक शब्द बेकार एवं असंगत हो जायेंगे| धीरे- धीरे यह प्रचलन से ही बाहर हो जायगा|

उपरोक्त सभी पहलुओं को समझने के बाद आरक्षण को समाप्त करना सहज, सरल, व्यवहारिक उपाय है| जब तक समाज में जाति है, तब तक शासन एवं व्यवस्था में सबकी भागीदारी सुनिश्चित करना ही होगा| यह विज्ञान समर्थित भी होगा|

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निरंजन सिन्हा

मौलिक चिन्तक, बौद्धिक उत्प्रेरक एवं लेखक|

2 टिप्‍पणियां:

  1. आप ने सत्य कहा कि जातियो के विनाश के बिना देश की तरक्की सम्भव नही है।इस के लिए सबका सरनेम हटाना ही एक मात्र उपाय है। सरनेम की जगह अपने माता या पिता का नाम इस्तेमाल मे लाया जाए। हमेशा की तरह आप का लेख अद्भुत है।

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  2. Wonderful presentation of fact n the solution provided by you is panacea for eradication of all the problems, so that we can achieve the desired goals for eglatarian social order.
    Regards

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