बुद्ध
की परंपरा के साक्ष्य सिन्धु घाटी सभ्यता में भी मिली है| इसका यह अर्थ हुआ कि नव उदित नगरीय समाजों और राज्यों के सम्यक विकास के लिए सम्यक दर्शन की खोज सिन्धु घाटी सभ्यता के समय में
भी रहा और इसके पहले भी इसका खोज जारी रहा| समाज में बदलाव, वृद्धि एवं विस्तार के
होने के साथ ही सम्यक दर्शन की खोज जारी था|
मानव
और उसके समाज का प्रकृति में हस्तक्षेप तथा इसके परिणामस्वरूप विकास या रूपांतरण
का ब्यौरा ही इतिहास कहलाता है| इतिहास (History) को अतीत का लिखित दस्तावेज
के रूप में परिभाषित किया गया है| चूँकि इतिहास को अतीत का
लिखित दस्तावेज कहा गया है, इसलिए इसके अलिखित या लिखित
एवं अपठनीय दस्तावेज का भी वर्गीकरण इसी के आधार पर किया गया| अलिखित इतिहास को प्राक- इतिहास (Pre-
History) कहा गया| जिस काल का लिखित दस्तावेज तो मिला परन्तु उसको पढ़ा नहीं जा सका, उस काल के इतिहास को आद्य इतिहास (Proto- History) कहा गया, जैसे सिन्धु घाटी सभ्यता| इसको दुसरे
शब्दों में उत्पादन, वितरण, विनिमय
एवं उपभोग के साधनों एवं शक्तियों के आधार पर भी वर्गीकृत किया गया| पाषाण काल को प्राक- इतिहास, ताम्र या कांस्य
काल को आद्य- इतिहास और लौह काल को इतिहास कहा गया|
मानव
के उद्विकास में मानव की कई प्रजातियाँ अवतरित हुई| मानव की कुछ प्रमुख प्रजाति ऑस्ट्रेलोपिथेकस, नियंडरथल, होमो इरेक्टस समय के साथ समाप्त हो
गई और होमो
सेपिएंस (बुद्धिमान मानव, प्रबुद्ध मानव) ही आज तक जीवित बचे है जिनके वंशज हम सभी मानव हैं| पाषाण काल फल- कंद संग्राहक और शिकारी समाज का
इतिहास रहा| आग एवं पहिया महत्वपूर्ण
आविष्कार हो गया था, जो
उत्पादन की शक्तियों को प्रभावित कर रहा था| समय
के साथ धातुओं ने पाषाण का स्थान लेना शुरू कर दिया था| सबसे पहले ताम्बा का प्रयोग हुआ, फिर इसे कडा
कर इसकी उपयोगिता बढाने के लिए इसमे जस्ता और टिन मिलाया जाने लगा| इसे कांस्य (Bronze) मिश्र धातु (alloy) कहा गया| यह समय तीन हजार ईसा पूर्व का
है| इस धातु युग के साथ ही कृषि और पशुपालन का
सम्यक विकास हुआ| स्थाई आवास, मिश्रित अर्थव्यवस्था, सामाजिक समूह की निरंतर
आवश्यकता, कृषि और पशुपालन एक दुसरे से गुंथे हुए थे और
यह सब इस काल की प्रमुख विशेषता हो गई| इससे अलग ढंग का
सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन का विकास एवं बदलाव होने लगा| कृषि और पशुपालन से खाद्य पदार्थों का अतिरिक्त उत्पादन होने लगा, जिससे इस क्षेत्र में निवास करने वाले लोगों के अतिरिक्त अन्य लोगों के
लिए भी भोज्य पदार्थ उपलब्ध होने लगे| विभिन्न
किस्म के खाद्यान्न और पशु उत्पाद (घी, बाल, चमड़ा, सींघ, हड्डी)
का संग्रहण, परिवहन और भंडारण शुरू हो गया| इस तरह शिल्प, शासन, शिक्षा, चिकित्सा, सेवा, व्यापार और सुरक्षा में लगे लोगों का भरण- पोषण होने लगा| नगरों का उदय होने लगा और
राज्यों के आदिम अवस्था स्वरुप में आने लगे| समय के साथ साथ लौह का उपयोग बढ़ता गया और इसने अपनी
उपयोगिता में कांस्य को भी प्रतिस्थापित कर दिया| लोहा में कई ऐसे गुण हैं, जिससे यह कांस्य से
कई मायनों में बेहतर साबित हुआ|
कोई
लगभग एक हजार ईसा पूर्व में लोहा का उपयोग बढ़ गया| लोहा की सबसे प्रमुख विशेषता यह थी कि यह प्रचुर मात्रा में उपलब्ध था और
सुलभता के साथ सर्व व्यापक भी था| इसके (लोहा
के) मिश्र - धातु लोहा से अथिक कडा होते हैं और इसी कारण इसकी उपयोगिता और बढ़ जाती
है| लोहा की उपलब्धता सर्वव्यापक थी यानि सभी
क्षेत्रों में उपलब्ध रही| लोहा को किसी भी रूप में
ढाला जा सकता है| लोहा के उपयोग से गहरी जुताई
और बेहतर सिंचाई का प्रबंधन होने लगा, जिससे कृषि का
उत्पादन काफी बढ़ने लगा| लोहा के उपयोग से परिवहन
के बेहतर साधन का उत्पादन होने लगा| बेहतर नावों एवं बेहतर गाड़ियों के निर्माण में लोहे के मजबूत उपकरण, कील, बंध, आदि का
उपयोग बढ़ने लगा| लोहे के उपयोग ने बेहतर और
विविध युद्ध के हथियार दिए| लोहा प्रकृति में
ज्यादा हस्तक्षेप करने में सक्षम बनाया| पहाड़ो
को काटना और पत्थरों को छांटना सुगम हो गया| जंगलों
को साफ़ करना और खेतों से अनावश्यक पदार्थों को हटाने में भी लोहा अपेक्षाकृत
ज्यादा उपयोगी साबित हुआ|
ई०
पू० चौथी एवं तीसरी सहस्त्राब्दी से उत्तरी अफ्रीका के मिश्र, एशिया के भारत, इराक, एवं चीन तथा दक्षिण-पूर्वी यूरोप के
यूनान में नव- पाषाण की ग्राम- संस्कृति से नदी- घाटी सभ्यता का उदय प्रारम्भ हो गया था| इस तरह मानव सभ्यता प्रागैतिहासिक काल से आद्यएतिहासिक युग में प्रवेश
करना शुरू कर दिया| शिल्प अब कृषि काअभिन्न भाग
नहीं होकर स्वतंत्र आर्थिक प्रक्षेत्र के रूप में उभरने लगा| छोटी- बड़ी बस्तियों के बीच
नगरों का उदय होने लगा| उसी समय एक नए सामाजिक एवं राजनीतिक संस्था “राज्य” का प्रदुर्भाव होने लगा और विकसित होने लगा था| इसी समय लेखन कला एवं
सम्बंधित सामग्रियों का भी विकास होने लगा| मानव पहली बार फुर्सत के क्षणों में अपने सोंच पर सोचना शुरू दिया, यानि अपने सोच पर विचार, विमर्श एवं चिंतन- मनन
की प्रक्रिया प्रारंभ कर दिया| शिक्षा की
आवश्यकता सामाजिक रूप में स्वीकार्य हो गया और इसके लिए प्रयास भी शुरू हो गए|
पाषाण
काल जहाँ पत्थरों के स्रोतों पर निर्भर था और इसी कारण पहाड़ो की निकटता इसकी
अनिवार्यता रही; वही नई संस्कृति नदी घाटी क्षेत्रों में मौजूद थी, जो नदी एवं समुद्री मार्गों से जुड़ा हुआ था| नदी घाटी क्षेत्र में समतल मैदान, उपजाऊ मिट्टी
की प्रचुरता, पानी की सालों भर उपलब्धता एवं परिवहन की
सुगमता कृषि और पशुपालन के सर्वथा अनुकूल रही| समतल
मैदान हिंसक पशुओं के लिए सर्वथा अनुकूल नहीं होता है| समतल मैदान, सदाबहार नदियाँ, समुद्र तक नदियों तक पहुँच परिवहन को बहुत ही उपयुक्त बनाते हैं| इससे कृषि और पशुपालन का उत्पादन बहुत बढ़ गया| अधिशेष (Excess) एवं अतिरिक्त (Additional) उत्पादन, इस उत्पादन का आसान परिवहन, इन उत्पादों का लम्बे समय तक भंडारण ने अर्थव्यवस्था के द्वितीयक प्रक्षेत्र, तृतीयक प्रक्षेत्र, चतुर्थक प्रक्षेत्र एवं
पंचक प्रक्षेत्र को जन्म दिया| परिवहन और व्यवसाय
का समुचित विकास हुआ| साहित्य और शिक्षित समाज
का उदय हुआ| नव
उदित सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, एवं आर्थिक गतिविधियों के लिए नए दर्शन की आवश्यकता तीव्रता से महसूस की
जाने लगी| इसी नई आवश्यकता को बौद्धिक क्रान्ति भी कहा जाने लगा| इसी क्रम में बुद्धि और बुद्धिमानों का महत्त्व बढ़ने लगा| यह संज्ञानात्मक क्रान्ति का
प्रतिफल था| यह विकास लोहे विकास के
साथ साथ तेज होता गया| इसी कारण कई बुद्धिमान मानवों यानि बुद्धों
की आवश्यकता हुई|
इन
बुद्धों का क्या काम रहा? इन्हें समाज के आर्थिक अवस्था के चतुर्थक एवं पंचक स्तर पर कार्य करना था| बौद्ध परम्परा के अनुसार यह कहा जाता
है कि गोतम बुद्ध के समय सिर्फ गंगा के मैदान में ही 62 दर्शन प्रचलित थे और जैनियों की परंपरा में 263 दर्शन प्रचलित थे| मेरे कहने का यह अर्थ है कि उस समय सामाजिक, आर्थिक, राजनितिक, और
सांस्कृतिक सूचनाओं का संग्रहण, वर्गीकरण, विश्लेषण के आधार पर नए निष्कर्ष निकाले जा रहे थे और नए सिद्धांत गढ़ने के
प्रयास किए जा रहे थे, जो अर्थव्यवस्था का चौथा
प्रक्षेत्र है| कुछ दार्शनिक तो इसके साथ साथ इन सूचनाओं एवं सिद्धांतो को
एक नए दृष्टिकोण से देखने का प्रयास कर रहे थे| इन सूचनाओं एवं सिद्धांतो को नए
पुनर्विन्यास (Re- Orient), नए
पुनर्व्यवस्थापन (Re-Arrange) और नए पुनर्गठन (Re-
Structure) करके नया स्वरुप देने में लगे हुए थे|
उस
समय ह्वांगहो
नदी घाटी में कन्फयुशिस और लाओत्से, दजला- फरात
नदी घाटी में जरथ्रुष्ट, यूनान में पायथागोरस आदि इसी प्रयास में लगे हुए दार्शनिक विद्वान् थे| भारत मे इस परम्परा को
बुद्ध का परम्परा कहा जाता था, अर्थात भारत में ऐसे प्रयासों के सफल माने जाने वाले दार्शनिकों को बुद्ध
की उपाधि दी जाती रही|
ऐसे
ही समय में गोतम का अवतरण हुआ, जो बुद्ध भी हुए | इन्होंने अपनी
प्रथामिक एवं माध्यमिक शिक्षा अपने गणराज्य के शिक्षकों से प्राप्त की थी| ख्याति प्राप्त एवं उच्च स्तर के शिक्षको की उपलब्धता राजकीय परिवारों के
बच्चों को आसानी से उपलब्ध रही; भले ही साहित्यिक
रचनाकारों ने इन सामान्य बातों को असामान्य ढंग से अपने विद्वतापूर्ण वर्णन में
स्थान नहीं दिया हो| इन प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा के उपरान्त इनको उच्चतर अध्ययन की लगन रही| इसी समय रोहिणी नदी के जल विवाद ने इन्हें एक उपयुक्त निर्णय का मौका दिया| यह अलग बात है कि इनके विरोधियों ने सामंत काल में इनके व्यक्तित्व को
धूमिल करने के प्रयास में पत्नी से चुपके चोर की तरह रात्रि में भागने की कहानी
बना डाली| उस समय ज्ञात विश्व में मगध और
लिच्छवी के क्षेत्र उच्चतर और दार्शनिक अध्ययन का प्रमुख केंद्र था| इसी कारण गोतम कपिलवस्तु से सीधे राजगीर आए और अध्ययन के केन्द्रों राजगीर
एवं वैशाली और इसके आस-पास ही रह कर चिंतन एवं मनन करते रहे|
इस
तरह स्पष्ट है कि बुद्धों का अवतरण उत्पादन, वितरण, विनिमय
एवं उपभोग के साधनों एवं शक्तियों एवं उनके अंतर सम्बन्धों के कारण ही ऐतिहासिक
आवश्यताओं का अनिवार्य परिणाम था| भारत में इन किया, पुनर्संगठित किया एवं
पुर्नार्विन्यासित किया|
इस
तरह गोतम तथागत एवं बुद्ध हुए|
निरंजन सिन्हा
व्यवस्था- विश्लेषक एवं चिन्तक
(प्रकाशनाधीन पुस्तक-“बुद्ध: दर्शन एवं रूपांतरण”से)