प्राकृतिक न्याय का एक उदाहरण बिहार के बिहारशरीफ़, नालन्दा के न्यायालय से
है। मामला कोरोना वायरस के कारण लगे लाक डाउन के समय का है जब लोगों को घरों में
ही बंद रहना था और शासन द्वारा तत्काल भोजन आदि का कोई व्यवस्था नही की गयी थी। एक
महिला को चोरी के आरोप में न्यायालय में प्रस्तुत किया गया। माननीय न्यायाधीश ने सभी बातों और परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए
न्याय निर्णय दिया जिसमें प्रतिवादी को आरोप से मुक्त करते हुए प्रशासन को आदेश
दिया कि प्रतिवादी को खाने की व्यवस्था करें। उस महिला ने अपने बच्चे की भुख
मिटाने के लिए ही चोरी की थी क्योंकि उसे इस बन्दी (लाक डाउन) में उसके पास कोई अन्य विकल्प नहीं था। इसे
प्राकृतिक न्याय कहते हैं।
यह
वैधानिक न्याय का नहीं, प्राकृतिक न्याय का उत्तम उदाहरण है। वैधानिक न्याय (Legal Justice) स्थापित विधि (Established
Law) के अनुसार किया जाता है और माना जाता है कि न्याय से किसी को
हानि होती।स्थापित
न्याय के अनुसार उस महिला को भारतीय दण्ड संहिता के अनुसार दण्ड मिल सकता था, परन्तु उसे प्राकृतिक न्याय की आवश्यकता थी जिसकी आवश्यकता उस माननीय
न्यायाधीश ने समझा।
न्याय के दो आयाम है – वैधानिक न्याय और
प्राकृतिक न्याय।न्याय
क्या है? इसे अंग्रेजी में Justice कहते
हैं।लोगो, समुदायों, प्रकृति और क्षेत्रों के साथ समुचित व्यवहार ही न्याय है। न्याय को
वैधानिक भी होना चाहिए और प्राकृतिक भी होना
चाहिए। प्राकृतिक न्याय का
मतलब उसकी नैसर्गिक आवश्यकता और क्षमता (Natural Necessity and Capacity) के अनुरुप व्यवहार किया जाना। इसका अर्थ
हुआ कि यदि
प्राकृतिक आवश्यकता और क्षमता के अनुरुप वैधानिक प्रावधान नहीं
है तो उनके प्राकृतिक आवश्यकता और क्षमता के अनुरूप वैधानिक प्रावधान करना ही
प्राकृतिक न्याय है। न्याय का सरोकार समाज से
भी होना चाहिए और व्यक्ति से भी। अर्थात न्याय को समाजवादी भी होना चाहिए और व्यक्तिवादी
भी। न्याय से समाज का भी हित
होना चाहिए और व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास के विपरीत भी नहीं जाना चाहिए। न्याय यदि रूढ़िवादी (Conservative) है तो उसे सुधारवादी
(Reformative) भी होना चाहिए।अर्थात न्याय यदि अतीत की ऒर अभिमुख हो तो उसे
उज्जवल भविष्य की ऒर भी अभिमुख होना चाहिए। प्लेटो तो कहते है कि न्याय के साथ संयम, साहस, और तर्क अर्थात तार्किकता भी होनी चहिए।
पहले
कबिलाई हितों, साम्राज्य के हितों और सामंतों के हितों के अनुरूप न्याय किए जाते रहे,
क्योंकि विज्ञान और तर्क इस अवस्था तक विकसित नहीं था। अज्ञानता के
दुनिया में छोटा भी ज्ञान शासन करता है। पर आज
न्याय के साथ जनतंत्र है और वैज्ञानिक तार्किकता का समर्थन भी है। इसलिए आज के वैज्ञानिक युग के नव अनुसंधानों के परिप्रेक्ष्य में ही अवसर
उपलब्ध कराना ही समुचित न्याय है। इस संदर्भ में समुचित न्याय का अर्थ उसकी
नैसर्गिक संभावनाओं की अभिव्यक्ति का उचित अवसर
देना है ताकि वह समाज और प्रकृति के कल्याण में
अपना महत्तम योगदान कर सके या दे सके। न्याय के साथ समानता अवश्य होता है और
समानता के बिना न्याय भी नहीं होता। न्याय के लिए स्वतंत्रता भी चाहिए और बंधुत्व
भी। आज़ सभी
विकसित समाजों और व्यवस्थाओं का मूलभूत आधार न्याय, समानता, स्वतंत्रता, और बंधुत्व ही है। इसी दर्शन के
साथ ही व्यक्ति, समाज, और
राज्य को सुख, शांति, सन्तुष्टि
और समृद्धि पा सकता है। प्राकृतिक न्याय के भी विभिन्न आयाम है।
प्रशासनिक
विधि के कई
पक्ष है। इसे समुचित प्रशासनिक प्रक्रिया का एक
अभिन्न भाग माना जाता है। इसके अन्तर्गत कई बातें
स्थापित है जैसे लोक प्राधिकारी मनमानी नहीं करें।सभी संबंधित पक्षों को सुनवाई के
लिए समुचित समय दें। सभी संबंधित पक्षों को सुनवाई के लिए समुचित अवसर दें ताकि वे
अपनी बातों का उपस्थापन न्यायाधीश के समक्ष कर सके जिस पर न्याय तंत्र द्वारा सम्यक विचारण किया जा सके। यह
विधि का स्थापित नियम है और कोई इसके विरुद्ध नहीं जा सकता।उसे समुचित समय और अवसर
ही नहीं दिया जाएँ अपितु समुचित ढंग से सुना भी जाएँ। यदि कोई न्याय निर्णय में इनका अनुपालन नहीं किया जाता तो वह न्याय निर्णय
उसी तरह शुन्य माना जाएगा जैसे अन्य मामलों में न्याय से असंगत होने पर शुन्य माना
जाता है। इसी कारण किसी व्यक्ति को अपने से संबंधित मामलों में न्यायाधीश की तरह सुनवाई नहीं करने दिया जा सकता।
अर्थात कोई व्यक्ति अपने मामलों में न्यायाधीश
नहीँ हॉ सकता। यह पक्षपात के प्रभाव को रोकने के
अनिवार्य है।
प्राकृतिक न्याय का पहला आयाम को AUDI ALTERAM PARTEM भी कहते है जिसका
अर्थ होता है कि दूसरे
पक्ष को भी सुना जाएँ। किसी भी विवाद में किसी एक ही पक्ष को सुनने पर समुचित न्याय नहीं दिया जा
सकता है। जब तक दोनों पक्षों को समुचित ढंग से नहीं सुना जाए, न्याय हो ही नहीं सकता। किसी भी विवाद में दोनों पक्षों को लगता है कि
उनकी गलती या तो नहीं है या बहुत ही कम है या यह विवाद ही दुसरे पक्ष के द्वारा
शुरु किया गया। हर पक्ष को लगता है कि विवाद का
कारण दुसरा पक्ष ही है। अत: समुचित न्याय के लिए दोनों पक्षों को अवश्य सुना जाए।
प्राकृतिक न्याय का दुसरा आयाम है कि इसकी सुनवाई उचित ढंग से हो और इसी कारण इन सुनवाइयो
को जनता के समक्ष किया जाता है, कुछ मानवीय गरिमा के
विशिष्ठ मामले इस स्थापित नियम के अपवाद होते है जैसे बलात्कार या चरित्र हनन की
सुनवाई । ऐसा माना जाता है कि न्यायिक प्रक्रिया और न्याय निर्णय यदि सार्वजनिक
रहे तो समुचित न्याय की स्थापना हो सकती है। प्रत्यक्ष
सुनवाई ही इसका दूसरा आयाम है।
प्राकृतिक न्याय का तीसरा आयाम है कि इसकी सुनवाई एक निश्चित समय सीमा के
अन्दर किया जाएँ। सामान्य मान्यता है कि समयबद्ध न्याय
निर्णय का नहीं होना न्याय नहीं है। ऐसे कई मामले
है जिसमे न्याय निर्णय कई पीढ़ियों के बाद आए या उन न्याय निर्णयों का कोई अर्थ नहीं रह गया जब न्याय निर्णय आया। परन्तु पर्याप्त न्यायाधीशों का अभाव होना मज़बूरी बतायी जाती है। इसके लिए प्रक्रिया विधियों में कई सुधार अपेक्षित है जो शायद न्यायिक
आयोग के समक्ष विचाराधीन हो। इसके लिए 150 सालों
से ज्यादा पुराने विधियों की समी़क्षा भी जरूरी है। छोटे मामलों को स्थानीय स्तर
पर निपटाने की भी आवश्यकता है, परन्तु इसमें दो समस्या
है। पहला, उन स्तरों पर समुचित प्रशिक्षण की आवश्यकता है और दूसरा उनमें न्यायिक चरित्र का विकास करना है। न्यायिक चरित्र की चर्चा सबसे पहले
ब्रिटिश शासन में की गई। न्यायाधीशों में न्यायिक चरित्र का होना अनिवार्य है और
उसके बिना न्याय नहीं हो सकता। ऐसा सांस्कृतिक
पूर्वाग्रहों के कारण होता है जो धार्मिक सामंतवाद या शासनिक सामंतवाद के कारण
पैदा होता है या हुआ है और आज भी मजबूती से
स्थापित है। इन्हीं सामंतवादी लाभों को बनाए रखने के लिए ही चेतन या अचेतन स्तर से
नियंत्रित व्यवहार के कारण ही न्यायिक चरित्र का मुद्दा विवाद में आता है।
प्राकृतिक न्याय का चौथा आयाम है कि प्राकृतिक न्याय के तत्वों की
सुस्पष्ट उल्लेख यदि विचाराधीन विधि में नहीं भी हो तो भी इसकी उपस्थिति उस विधि
के प्रावधानों में हमेशा समाहित माना जाता है। इसका अर्थ हुआ कि इसकी चर्चा यदि
विधियों में स्पष्ट नहीं भी है तो भी माना जाता है कि प्राकृतिक न्याय के तत्व हर
विधियों में अंतर्निहित है और इसे नियमों मे
समाहित मानते हुए इसका समुचित पालन किया जाना चाहिए। इसे स्वविवेक का क्षेत्र नहीं
माना जाता है और इसे शताब्दियों से स्थापित माना जाता है। यह वैधानिकता का मूलाधार
है, यह तार्किकता का आधार है, यह यथार्थिता का पैमाना है और समुचित न्याय का धुरी (Axis) है।
प्राकृतिक न्याय का पांचवा आयाम है कि विवाद में अपने पक्ष को समुचित
ढंग से प्रस्तुत करने के लिए सुनवाई के समय किसी अधिकृत वक्ता (अधिवक्ता) यानि
वकील को भी रख सकता है। अपने पक्ष को समुचित ढंग से रखने और अपनी बातों के समर्थन
में किसी
अन्य व्यक्ति को गवाह के रुप में उपस्थित करा सकता है। यह प्राकृतिक न्याय का एक
अटूट हिस्सा है।
प्राकृतिक न्याय का छठा आयाम है कि यह न्यायिक ही नहीं, अर्ध न्यायिक मामलों में भी
अनिवार्य रुप से लागु है। इसका स्पष्ट अर्थ हुआ कि यह नियम कराधान और अन्य अर्ध न्यायिक मामलों मे
भी समान रूपों में लागु है। उचित समुचित प्रशिक्षण के अभाव में और संबधित जनता के
जागरूकता के अभाव में इन अर्ध न्यायिक मामलों मे इस प्राकृतिक न्याय से लोग लाभान्वित
होने से वंचित हो जाते है। या यों कहें कि इन मामलों में न्याय से ही वंचित रह
जाते है। भारत में जब सामान्य न्यायालय में ही न्यायिक चरित्र का प्रश्न उठ जाता
है तो अन्य प्रशासनिक या कराधान या अन्य ऐसे मामलों में न्यायिक चरित्र का अभाव का
होना बहुत ही सामान्य बात है। इन अर्ध न्यायिक मामलों के न्यायाधिकारी को इस सम्बन्ध में कभी कभी ही कोई प्रशिक्षण दिया जाता है, सामान्यत: कोई प्रशिक्षण नहीं ही दिया जाता है। ऐसे मामलों में सबसे
ज्यादा प्रभावित वर्ग प्रत्यक्ष करदाता या अप्रत्यक्ष करदाता ही होते है क्योंकि इनके मामले एक वर्ष में कई बार भी आ सकते हैं। इसका मुख्य
कारण ऐसे प्राधिकारों की लापरवाही या अज्ञानता और
करदाताओं की अज्ञानता या जागरूकता का अभाव भी है।
प्राकृतिक
न्याय की प्रकृति और विशेषता को प्रत्येक नागरिक, खास कर युवाओं को जानना ही चाहिए। न्यायिक अधिकारों का
न्यायिक प्राधिकारो अर्थात न्यायाधीशों के द्वारा नहीं दिया जाना और जनता में इसके
प्रति जागरुकता का अभाव का होना ; दोनों बाते
जनतंत्र के लिए अच्छी नहीं है। मैं विधायिका के विधायन (Legislation) या न्यायपलिका के न्याय निर्णय (Judgement) पर प्रश्न नहीं कर रहा; परंतु न्यायायिक प्रक्रियाओं पर न्याय देने वालों की लापरवाही और जनता की जागरुकता को
रेखांकित करना ही मेरा उद्देश्य है।
इस विषय पर युवाओं में
विमर्श की शुरुआत का आमंत्रण भी है।
निरंजन सिन्हा
स्वैच्छिक सेवानिवृत राज्य कर संयुक्त आयुक्त, बिहार, पटना।
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