रविवार, 26 अक्टूबर 2025

भारत में ‘निर्जीव बौद्धिक’ कौन?

 (The Inanimate Intellectuals of India)

विश्व का सबसे महान एवं सैद्धांतिक क्रान्तिकारी दार्शनिक एन्टोनियो ग्राम्शी (Antonio Francesco Gramsci) इटली का निवासी था। इसने अपने गहन अध्ययन एवं चिन्तन के द्वारा स्थापित मार्क्सवाद के सिद्धांतों में कुछ प्रमुख कमियों को रेखांकित किया और इन कमियों के समाधान के लिए कई प्रमुख नयी अवधारणाओं को दिया| कार्ल मार्क्स के अनुसार हर शोषण का एक अनिवार्य अन्त होता है, जो क्रान्ति के द्वारा होता है। लेकिन विश्व के कई क्षेत्रों में अत्यधिक शोषण के बावजूद भी क्रान्तियाँ नहीं हुई है और नहीं हो रही है, जबकि उन शोषणों की निरन्तरता अभी तक बनी हुई है| क्रान्तिकारी दार्शनिक एन्टोनियो ग्राम्शी यहाँ स्पष्ट करते हैं कि ‘सांस्कृतिक वर्चस्ववाद ही ऐसे किसी शोषण के विरुद्ध क्रान्ति को उत्पन्न और विकसित नहीं होने देता। 

यही और इसी सन्दर्भ में एन्टोनियो ग्राम्शी कुछ महत्वपूर्ण अवधारणाओं के साथ और पूरी क्रियात्मक व्याख्या के साथ उन शोषणों के समापन के लिए उपाय भी देते हैं| इन्हीं समझ के साथ ही लोकतंत्र (और प्रजातंत्र भी), संविधान एवं सम्पूर्ण व्यवस्था भी कारगर होता है| बाकी अन्य सभी समाधान मात्र एक भ्रम है, एक राजनीति है और इसीलिए धोखा मात्र है| इनकी सबसे महत्वपूर्ण अवधारणा सांस्कृतिक वर्चस्ववाद (Cultural Hegemony) की है| इसकी क्रियात्मक व्याख्या इनकी दो अवधारणाओं – राजनीतिक समाज (Political Society) एवं नागरिक समाज  (Civil Society) के साथ ही समझ में आती है| इस शोषण के समापन के लिए इन्होने सजीव बौद्धिक (Organic Intellectual) की अवधारणा दिया है| इसी ‘सजीव बौद्धिक’ का ही एक व्युत्पन्न ‘निर्जीव बौद्धिक’ (Inanimate Intellectual) है|

सबसे पहले सांस्कृतिक वर्चस्ववादको समझा जाय| इस सांस्कृतिक वर्चस्ववाद’ की अवधारणा में यह स्पष्ट किया कि किसी समाज का शासक वर्ग सिर्फ राजनीतिक, या प्रशासनिक, या आर्थिक या बल शक्ति के सहारे ही शासन नहीं करता है, बल्कि यह संस्कृति, शिक्षा, धर्म और मीडिया के द्वारा उनके विचारों, आदर्शों, मूल्यों एवं नैतिकताओं पर नियंत्रण कर करता है| इसमें शासक वर्ग अपने हितों के लिए समाज में मूल्यों, आदर्शों एवं नैतिकताओं को इस रुप में प्रस्तुत करती है, कि यह सब सामान्य जन गण को एक “सामान्य समझ” (Common Sense) एवं ”स्वभाविक” लगता है| समाज के इन्ही मूल्यों, आदर्शों एवं नैतिकताओं को सामान्य जन गण अपना समझता है और उसी के साथ “मस्त” रहता है| यही समाज का ‘सांस्कृतिक वर्चस्ववाद’ का सार है|

‘निर्जीव बौद्धिक’ को ऐसे समझते हैं| यदि प्रकाश है, तो उजाला है। और यदि प्रकाश नहीं है, तो वहाँ अन्धेरा है। इसी तरह, यदि कोई भी बौद्धिक सांस्कृतिक वर्चस्ववाद की समझ रखता है और उसकी सूक्ष्म क्रियाविधि को समझते हुए उसमे ‘भेद्यता’ (Penetrability) रखता है, तो वह व्यक्ति “सजीव बौद्धिक है। अर्थात जब कोई व्यक्ति ‘सांस्कृतिक वर्चस्ववाद की ‘सूक्ष्म क्रियाविधियों’ (Micro Mechanism) की पूरी समझ रखता है और उन समस्त क्रियाविधियों को ‘ध्वस्त” करने की समझ भी रखता है और इसकी इच्छा शक्ति भी रखता है, तो ऐसी प्रेरणा वाले व्यक्ति को ही सजीव बौद्धिक कहते हैं|

लेकिन यदि कोई व्यक्ति इन ‘सांस्कृतिक वर्चस्ववाद को समझता ही नहीं है, और उसी सांस्कृतिक वर्चस्ववाद के प्रेषित अर्थों को सही एवं सत्य मानते हुए उसी के ढाँचे की सीमाओं में ही रहता है, तो वह “निर्जीव बौद्धिक” ही है, भले उसके पास अनेकों उपाधियाँ हो या वह उच्चस्थ पदों को धारित किए हुए हो| ऐसा ‘निर्जीव बौद्धिक’ सिर्फ उपाधियों को बटोरने में और विद्वान् दिखाने में लगा रहा होता है और उसकी समस्त उपाधियाँ भी उसी सांस्कृतिक घेरे की सामग्रियाँ होती है, जिसे ग्राम्सी ‘सांस्कृतिक वर्चस्ववाद’ कहता है| सामान्य जन गण इनकी उपाधियों एवं पदवियों को गिन गिन कर उन्हें ‘अद्भुत नायक समझता रहा होता है। ऐसा ‘निर्जीव बौद्धिक’ किसी भी ‘सांस्कृतिक वर्चस्ववाद को समझ नहीं पाया होता है, और ऐसी स्थितियों में तो उसकी सूक्ष्म क्रियाविधियाँ सर्वथा अज्ञात ही होती है| इसीलिए ‘ऐसे विद्वानों’ से उस ‘सांस्कृतिक वर्चस्ववाद’ की ‘भेद्यता को भेदने का कहीं से कोई संभावना ही नहीं दिखती होती है| इसीलिए ऐसा उपाधि धारी व्यक्ति निर्जीव बौद्धिक हुआ, क्योंकि वह सांस्कृतिक वर्चस्ववाद की कठोर सीमाओं के बाहर सोच भी नहीं रख सकता। ऐसी स्थिति में ऐसे व्यक्तियों की सभी उपाधियाँ और सभी पदवियाँ भी ‘उसी सांस्कृतिक वर्चस्ववाद की चासनी में लिपटी हुई होती है। ऐसे व्यक्तियों के सभी अवधारणाओं में, सिद्धांतो में और क्रियाओं में कोई पैरेडाईम शिफ्ट नहीं होता। ऐसा व्यक्ति किसी भी समाज में कोई मौलिक बदलाव नहीं कर सकता है| ऐसा ‘निर्जीव बौद्धिक’ तत्कालीन विश्व में ज्ञात एवं उपलब्ध कुछ सुधारात्मक समाधान देता दिखता है, लेकिन कोई क्रान्तिकारी बदलाव  नहीं होता है| भारत की दुर्दशा के साथ यही सब है|

यदि कोई समस्या इतिहास और भूगोल में विशिष्ट है और अकेला भी हो, तो उस ‘सांस्कृतिक वर्चस्ववाद’ को ही तथ्यात्मक रुप में सत्य और सही मानने और उसी के आधार पर समाज में कोई भी मौलिक और गहरे समाधान की संभावना नही होती। इसी कारण भारत में भी जाति व्यवस्था’ की समस्या का समाधान अभी तक नहीं निकल पाया। ये राष्ट्रीय नायक राजनीतिक समाज और ‘नागरिक समाज’ की अवधारणा, उसकी सूक्ष्म क्रियाविधि और उसके आवश्यक परिणाम को नहीं देख पाए हैं, इसीलिए उन्हें समझ भी नहीं पाए हैं| ऐसे में समस्त जन गण सहित राष्ट्रीय नायक भी तरह तरह के विलाप करते हुए दिखते हैं| राजनीतिक समाजवह समाज होता है, जिनका प्रशासन, व्यवस्था, पुलिस, सेना, मीडिया, शिक्षा एवं आर्थिक तंत्र पर नियंत्रण होता है| इस ‘राजनीतिक समाज’ के अतिरिक्त अन्य सामान्य जन गण ही ‘नागरिक समाज’ कहलाते हैं| किसी भी देश को ‘राजनीतिक स्वतन्त्रता’ मिलने पर यही ‘राजनीतिक समाज’ ही लाभान्वित होता है और सामान्य ‘नागरिक समाज’ इस ‘राजनीतिक स्वतंत्रता’ से लाभान्वित नहीं होती है| इसमें ‘नागरिक समाज’ उसी देश के ‘राजनीतिक समाज’ के लाभों के ‘रिस जाने’ (Seepage) से लाभान्वित होती रहती है, और इसी को “विकास का रिसना सिद्धांत’ (Seepage Theory of Development) कहते है| ऐसे लाभों को ‘नागरिक समाज’ में “विकास” होता दिखाया जाता रहता है|

कुछ ‘निर्जीव बौद्धिक’ ऐसे भी होते हैं, जिन्हें समाज एवं व्यवस्था के वृद्धि (Growth), ‘विकास’ (Development), और संवर्धन (Improvement) में अन्तर समझ मे नहीं आताऐसे ‘निर्जीव बौद्धिकों’ में ‘तथाकथित बौद्धिकों’ के अतिरिक्त राजनेताओं के साथ साथ ‘उच्चस्थ नौकरशाह भी शामिल हैं| सामान्य जन गण सीमेंट की खपत में वृद्धि को ही विकास समझता है, क्योंकि यह सब देखने के लिए मानसिक दृष्टि की आवश्यकता नहीं होती है| सीमेंट की खपत में ऐसी ही ‘वृद्धि को संपादित कर कई राजनेता अपने को ‘युग पुरुष बनने का स्वप्न देखते रहते हैं। ऋण मुक्त वित्तीय कर्ज, अनुदान, एवं दान आदि देकर किसी की आय में वृद्धि बताना विकास नहीं होता। इससे लोगों की उत्पादन क्षमता में संवर्धन नहीं होता, अर्थात यह सक्षमता उपागम (Capability Approach) नहीं है। सक्षमता उपागम ही संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP) के ‘विकास की स्वीकृत अवधारणा है, जिसे अमर्त्य सेन ने दिया था। इसके लिए 1998 में उन्हें नोबेल पुरस्कार से सम्मानित भी किया गया। चूंकि यह आय में वृद्धि मात्र विकास नहीं है, इसिलिए ऐसा क्षेत्र या राज्य या देश विगत पच्चीस वर्ष पहले जिस वैश्विक या प्रांतीय रैंकिंग में थे, आज भी वही है। 

यदि समाज को बदलना है, राष्ट्र का नवनिर्माण करना है और नया भारत बनाना है, तो इसके लिए सजीव बौद्धिक बनिए और तैयार कीजिये। अन्य कोई विकल्प भ्रम मात्र है|

आचार्य प्रवर निरंजन जी

अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान,

बिहटा, पटना, बिहार, भारत|

4 टिप्‍पणियां:

  1. परम आदरणीय आचार्य जी, आप ने बहुत अच्छा समझाया है!
    हम लोग भी सजीव बौद्धिक बनने की राह में अग्रसर हैं 💐🙏

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  2. बहुत ही यथार्थ और सारगर्भित।

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  3. Desh ko kuch Neta (SAJIV BIDHIJIVI) ne "Manshik Gulam" bana rakha hai. Ham sab Sahi ya Galat dekhe hue bhi Birodh nahi karten hain, Kewal apna swarth sadhna hi lakshya bana baithen hain

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