एक सर की अध्यक्षता में "विमर्श बैठक" चल रही थी, कोई 'भाषण बैठक' या 'बहस बैठक' नहीं थी। मुद्दा बहुत अहम् था।
प्रश्न यह था कि कुछ लोगों की हो रही 'आर्थिक
समृद्धि' (Prosperity) या आर्थिक 'संवृद्धि'
(Growth) को ही भारतीय विकास (Development) का पैमाना (Scale) या संकेतक (Indicator) मान लिया जाए? इसलिए विमर्श बैठक का विषय था कि हम भारतीयों को
चाहिए कि इस गतिहीन भारतीय समाज को समुचित और सम्यक दिशा कैसे दिया जाय और
इस गतिहीन भारतीय समाज को गतिशील कैसे बनाया जाय? मैं फिर
कहता हूं कि विषय अतिगंभीर ही नहीं, विवादास्पद भी था,
क्योंकि भारतीय समाज की गतिहीनता पर सर्व मान्यता या सर्व सहमति
नहीं थी।
बैठक में उपस्थित प्रोफेसर साहब ने भारतीय समाज की तथाकथित 'गतिहीनता'
शब्द के प्रयोग पर आपत्ति कर ही दिया। जैसे सामान्य लोग
'पश्चिमीकरण' (Westernization) को 'आधुनिकीकरण' (Modernization) ही समझ लेते हैं, उसी तरह अर्थनीति की स्पष्ट दर्शन के अभाव में बहुत से लोग
'आर्थिक संवृद्धि' (Economic Growth) को ही 'विकास' (Development) मान लेते हैं। वैसे तो
प्रसिद्ध अर्थशास्त्री श्री अमर्त्य सेन 'विकास' को 'स्वतंत्रता' एवं 'सक्षमता' उपागम (Capability) के रूप में परिभाषित करते
हैं, जो उनकी प्रसिद्ध पुस्तक - "Development as
Freedom" में आया था और इसी अवधारणा के लिए उन्हें नोबेल पुरस्कार भी मिला।
हमलोग या कोई भी समाज या उसकी छोटी इकाई आज जिस भी स्थिति में है, वह
अपने वर्तमान सोच- विचार, मानसिकता एवं अभिवृति, परम्परा एवं संस्कार आदि आदि का उत्पाद है, यानि संक्षेप
में कहें तो कोई भी समाज अपनी संस्कृति का उपज होता है। जिस संस्कृति में न्याय, स्वतंत्रता, समता एवं बंधुत्व की मूल और मौलिक भावना या लक्ष्य का ही अभाव हो, या कहें कि जिस संस्कृति में जाति, वर्ण, धर्म, क्षेत्र, भाषा आदि के
आधार आज़ भी इस आधुनिक और वैज्ञानिक युग में भी भेदभाव प्रमुखता के साथ छाया हुआ
है , वह सांस्कृतिक समाज को कैसे गतिशील मान लिया जाए? जिस समाज और
संस्कृति में अवैज्ञानिक, अतार्किक, अविवेकी, अलोकतांत्रिक और अमानवीय ढोंग, पाखंड, अन्धविश्वास एवं अनावश्यक कर्मकांड व्याप्त हो और उसे सक्रियता के साथ
धार्मिक संरक्षण, समर्थन और सहयोग प्राप्त हो, उस समाज को भी यदि गतिहीन नहीं कहा जाय, तो
कैसे समाज एवं संस्कृति को गतिहीन कहा जाय?
समाज और संस्कृति की गतिहीनता को ही 'सांस्कृतिक
जड़ता' (Cultural Inertia) कहा जाना चाहिए। मैं
तो इसे सांस्कृतिक साम्राज्यवादी जडता' (Inertia of
Cultural Imperialism) ही कहता है, यदि हम साम्राज्यवाद की मूल और मौलिक अवधारणा को
समझते और मानते हैं। यदि किसी समाज या संस्कृति में कोई जड़ता (Inertia) है, तो उस जड़ता की
स्थिति को बदलने के लिए भौतिकी के नियमों के अनुसार सजग, सतर्क,
समर्पित अतिरिक्त उर्जा यानि अतिरिक्त प्रयास चाहिए।
अतः यदि सांस्कृतिक जड़ता है, तो समाज को गतिहीन मानने में कोई आपत्ति नहीं होनी
चाहिए। हमारा भारतीय समाज वस्तुत गतिहीन ही नहीं है, अपितु
उसके ही चाल में यानि उसके ही संस्थागत
ढांचे (Institutionalised Framework) में उलझा
हुआ है, जिससे वह निजात पाना चाहता है। दरअसल आप
जिस चीज से निजात पा लेना चाहते हैं, तो आप अपनी सारी गतिविधियों और क्रियाविधियों का
संदर्भ बिन्दु उसी को मान लेते हैं और उसके दुष्चक्र में कब और कितना फंस जाते हैं,
आप समझ ही नहीं पाते हैं। हम भारतीय जो समाधान
तलाशने का प्रयास कर रहे हैं, वे सभी समाधान उनके द्वारा उपलब्ध या प्रस्तुत
विरोधी वैचारिकताओं के संस्थागत एवं संरचनात्मक ढांचे में ही विकल्प तलाश रही है। इसीलिए हम भारतीय उस संदर्भ लकीर से बड़ी और अलग लकीरें खींचने की मानसिक
दृष्टि नहीं रखते हैं। वहीं लकीर हमारी अंतिम ध्येय हो जाता है, और उसके आगे कुछ भी नहीं सोचता। विमर्श
बैठक में उपस्थित बिनोद सर का ऐसा ही मानना था। मेरी भी सर से सहमति थी।
इसीलिए बिनोद सर का मानना था कि हमें इतिहास के किसी
संदर्भ में नहीं उलझकर नया, आधुनिक, वैज्ञानिक और
मानवतावादी प्रगति करनी है, तो वह प्रगति ही स्वयं अपना
इतिहास रच लेगा। इसीलिए हमें शून्य से शुरू करना चाहिए। हमें उनकी
मान्यताओं और व्याख्याओं से अलग मान्यता और व्याख्या करनी होगी, जो
नया, आधुनिक, वैज्ञानिक और मानवतावादी
हो। इसे ही थामस सैम्युल कुहन ने "पैरेडाईम शिफ्ट" कहा
था। सोच और प्रक्रिया में मौलिक बदलाव किए बिना समाज में परिवर्तन या
रुपांतरण नहीं हो सकता है, लेकिन इसका क्रेडिट तो राजनीतिक नेता ले जाते,
और वे बाजार की शक्तियों के प्रभाव से इंकार कर देते हैं। वे आर्थिक
शक्तियों की क्रियाविधि और प्रभाव को, यानि बाजार की शक्तियों के प्रभाव को नकार देना
चाहते हैं।
'बाजार की शक्तियां' (Market Forces) ही वर्तमान को
संचालित, नियंत्रित, नियमित और प्रभावित
करती रहती है। यही 'बाजार की शक्तियां' ही तत्कालीन यानि समकालीन यानि समकालिक शक्तियां कहलाती
है। यही समकालिक शक्तियां ही ऐतिहासिक काल में ऐतिहासिक शक्तियां बन
जाती है, या कहलाती है। और आर्थिक
शक्तियां ही बाजार की शक्तियां होती है। आर्थिक शक्तियों में उत्पादन, वितरण, विनिमय और उपभोग के साधनों और शक्तियों को
शामिल किया जाता है। अतः जब भी सांस्कृतिक रुपांतरण को, यानि
सामाजिक रुपांतरण को सम्यक और सही ढंग से, वैज्ञानिक और
समुचित तरीके से समझना होगा, तो हमें इसी ऐतिहासिक साधनों और
शक्तियों एवं उनके अंतर्संबंधों की क्रियाविधि (Mechanism) के
आधार पर ही समझना होगा।
सामान्यतः लोग घिसे-पिटे परम्परागत सोच, अभिवृति
और संस्कार से बाहर नहीं निकल पाते हैं। यही "सांस्कृतिक जड़ता" है, जिसे समझे बिना कोई भी आगे नहीं बढ़ सकता है। महान वैज्ञानिक
गैलेलीयो ने संभवत 1546 में 'जडत्वीय
संरचनात्मक ढांचा' (Inertial Structural Frame) का अवधारणा दिया था, जिसके बिना जड़ता के संरचनात्मक ढांचा और उसकी क्रियाविधि एवं प्रभाव को
नहीं समझा जा सकता है। मैंने इस अवधारणा का उपयोग
सांस्कृतिक जड़ता को समझने समझाने में सफल उपयोग किया है। कोई भी
उपलब्ध ज्ञान एक पाठ (Lesson) हो सकता है, लेकिन एक
पूर्ण समाधान नहीं हो सकता है। शायद इसीलिए अल्बर्ट
आइंस्टीन ने कहा था कि कभी भी किसी
अज्ञात को किसी भी ज्ञात से नहीं जाना जा सकता है।
भारत के संदर्भ में एक बात और कहना महत्वपूर्ण है। जिन
राजनीतिक दलों की अपनी कोई विशिष्ट विचार धारा नहीं होती है, वे
सिर्फ सत्ता की राजनीति करते हैं और किसी खास क्षेत्र तक ही सीमित रहते हैं। और एक
खास समय के बाद विलुप्त भी हो जाते हैं। ऐसे विचार धारा विहीन
राजनीति दल कभी भी राष्ट्रीय स्तर का दल भी नहीं बन सकता है। इनके नेताओं
को सत्ता, व्यवस्था और सांस्कृतिक क्रियाविधि की कोई समझ भी
नहीं होती है। ऐसे राजनेता बरसों की राजनीति कर सकते हैं, सदियों
की राजनीति की समझ ही नहीं होती है। ऐसे ही राजनेता
"सत्ता बदलाव" को ही "व्यवस्था में बदलाव" समझते हैं, इसीलिए
दशकों की समय के बाद भी समाज की सामाजिक सांस्कृतिक गतिहीनता समाप्त नहीं होती। ऐसे ही
राजनेता तथाकथित विकास और संवृद्धि के तथाकथित मकड़जाल में उलझे हुए रहते हैं।
ऐतिहासिक परम्परा के महान सामाजिक सांस्कृतिक नेता अपने समय काल और
संदर्भ में सही हो सकते हैं, लेकिन आज उनके विचार एवं दर्शन पूर्णतया सही,
समुचित और सम्यक नहीं हो सकते हैं। यदि वे सामाजिक और सांस्कृतिक नेतृत्व पूर्णतया सही, समुचित और सम्यक ही होते, तो आज इस विमर्श बैठक की
जरूरत ही नहीं होती, अर्थात उन्होंने इसका पूर्णतया सही,
समुचित और सम्यक समाधान नहीं ख़ोज पाया था। इन इतिहास
नेतृत्वकर्ताओं के द्वारा दिए गए विचार एक सीख (Lesson) हो
सकती है, लेकिन उसका समाधान कदापि नहीं हो सकता है। इसीलिए हमें
शून्य से ही शुरू करना होगा और किसी दूसरे के संरचनात्मक ढांचे (Structural
Framework) में नहीं उलझना होगा।
बिनोद सर की बातों में मैं अपने विचारों में आगे बढ़ गया और यह सब
याद आने लगा। शायद इसीलिए संयुक्त राज्य अमेरिका की प्रथम महिला ई० रुजवेल्ट ने
कहा है कि छोटे चिंतक व्यक्तियों (Individual) का नाम एवं
उनके ब्यौरा ज्यादा देते हैं, मध्यम दर्जे के चिंतक घटनाओं (Incidents) का विवरण ज्यादा करते हैं, और बड़े चिंतक आदर्शों (Ideas) एवं विचारों की बात ज्यादा करते हैं। इसलिए हमें व्यक्तियों और घटनाओं के
विवरण ब्यौरा पर ज्यादा "विधवा विलाप" नहीं करना चाहिए। यही 3 I (Individual, Incidents, Ideas) महत्वपूर्ण है।
इसी निष्कर्ष के साथ विमर्श बैठक समाप्त हो गयी। आप भी तो एक
चिंतनशील प्राणी है और आपको भी अपने समाज एवं संस्कृति से प्रेम है, इसलिए
आप भी इस विमर्श को बढ़ाइए। यह समाज और संस्कृति फिर से गौरवशाली और अग्रणी
बनेगा।
*आचार्य निरंजन सिन्हा*