रविवार, 30 अक्तूबर 2022

सरदार पटेल का ‘सरदारवाद

'सरदारवाद’ (Sardarismमहान राष्ट्रनायक सरदार वल्लभभाई पटेल का मानवता के प्रति और  भारतीय राष्ट्र के प्रति 'दर्शन का सार' (Essence of the Philosophy) है| यह सरदारवाद उनके जीवन दर्शन की समझ, मानवता और राष्ट्र के प्रति उनकी भावना और व्यवहार, एवं विकसित राष्ट्र के आर्थिक आधार के प्रति गंभीर चिंता का समन्वय है। 

उन्होंने भारत ‘देश’ (Country) को, भारतीय 'राज्य’ (State) को और भारतीय ‘राष्ट्र’ (Nation) को बहुत अच्छी तरह से समझा है| उन्होंने भारत देशको मजबूत करने के लिए उसका भौगोलिक एकीकरणकिया, जैसे बिस्मार्क ने जर्मनी का भौगोलिक एकीकरण किया था| किसी के भी अस्तित्व के लिए उसका भौतिक स्वरूप अनिवार्य होता है, जो एक देश के लिए भौगोलिक स्वरूप होता है। उन्होंने भारत राज्यको मजबूत करने के लिए संप्रभुता’ (Soverinity) की महत्ता समझकर आर्थिक सशक्तिकरणका भौतिक आधार तैयार किया| भारत के राष्ट्रनिर्माण के संदर्भ में इनका नजरिया विघटनकारी तत्वों के प्रति बहुत सख्त था| राष्ट्र ऐतिहासिक एकापन की भावना होती है, जो उस राष्ट्र के लोगों में होती है। उन्होंने भारत में लोकतंत्र’ (Democracy) और गणतंत्र’ (Republic) को सशक्त एवं समृद्ध बनाने के लिए आजादी के बाद शुरूआती कदम उठाया ही था, कि उन्हें इस दुनिया से ही विदा होना पड़ा|

आज भारत में लोकतंत्रका सफ़र प्रजातंत्रकी ओर बढ़ रहा है, जो राष्ट्र के लिए घातक है| ध्यान रहे कि लोकतंत्रमें सभी तंत्रों की निष्ठा आम लोगों’ की सम्प्रभुता के प्रति होती है, और राष्ट्र राज्य की सम्प्रभुता भी भारत के लोगों में ही निहित होती है। भारत के सभी अंगों और तंत्रों की यह भावनात्मक निष्ठा संविधानके माध्यम से अभिव्यक्त होती है, और इसीलिए भारतीय तंत्र लोकतंत्र कहलाता है, जबकि प्रजातंत्रमें सभी तंत्रों की निष्ठा राजाके प्रति होती हैजो समाज के कुछ खास वर्गों द्वारा घिरा होता है, और उन खास वर्गों के हितों की रक्षा को सामान्य प्रजा के हितों पर सदैव वरीयता देता हैप्रजा (Subject) का तंत्र वहीं होता है, जहाँ शासन का प्राधिकार राजा में होता है। अब सरदारवादको विस्तार से समझा जाय|

आज हम लोग भारत के राष्ट्र नियामक सरदार बल्लभभाई पटेल के जीवन के कुछ अनछुए पहलुओं को समझने का प्रयास करेंगे| वे भारत के प्रथम उप प्रधान मंत्री एवं प्रथम गृह मंत्री भी हुए| इनका नाम भारत के स्वतंत्रता संग्राम में खेड़ा आन्दोलन एवं बारडोली सत्याग्रह के प्रमुख नेतृत्वकर्ता के रूप में भी लिया जाता हैरियासत मंत्री के रूप में उन्होंने स्वतंत्रता प्राप्ति तक भारत की कुल 565 रियासतों में से तीन रियासतों को छोड़कर सभी छोटी-बड़ी 562 रियासतों का विलीनीकरण (Assimilation) भारत में कर दिया| यह संभवतः विश्व इतिहास में सबसे अनूठा उदाहरण है, जहां इतने अल्प समय मेंइतने विशाल स्तर के भौगौलिक एवं राजनीतिक एकीकरण को सफलतापूर्वक संभव कर दिया गया। विलय की गयी रियासतों का यह इलाका कुल भारतीय भौगोलिक क्षेत्र के लगभग 40% के बराबर था| स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद तीन बची हुई रियासतों में से हैदराबाद एवं जूनागढ़ रियासत का विलीनीकरण उन्होंने देश के प्रथम गृह मंत्री के रूप में किया| तीसरी रियासत 'जम्मू कश्मीर' के मामले को तत्कालीन प्रधान मंत्री द्वारा अपने हाथ में ले लेने के कारण ही उन संबंधों की दुर्दशा हुई, जिसे  हर भारतीय जानता है, और जो आज भी भारत की एकता, अखंडता एवं आंतरिक सुरक्षा के लिए एक गंभीर समस्या बना हुआ है| गोवा (भारत भूमि पर पुर्तगाली उपनिवेश) जैसे अन्य साम्राज्यवादी उपनिवेशों का भारत में विलीनीकरण का मामला भी इनके दृष्टिकोण में स्पष्ट एवं राष्ट्र अभिमुख था, परन्तु तत्कालीन नेतृत्व की असहमति के कारण इन सबका विलीनीकरण बहुत बाद में सम्भव हो सका| देश की एकता-अखंडता  एवं उसके एकीकरण के प्रति उनके इन्हीं दृढ, सख्त एवं स्पष्ट रुख  के कारण ही उन्हें भारतीय इतिहास में लौह पुरुषके नाम से जाना जाता है|

इस भौगोलिक एकीकरण के कई निहितार्थ हैं, जिसे स्थिरता के साथ समझा जाना चाहिए| इससे भारत अपने कई पड़ोसी देशों से उलझने से बच गया, जिसने कई फ्रन्ट पर सैन्य खर्च को बचा लिया| इस एकीकरण से पांच सौ पड़ोसी देशों से राजनयिक सम्बन्ध बनाना और उसे सम्हालना एक अतिरिक्त उबाऊ प्रयास होता| इस भौगोलिक एकीकरण ने आर्थिक समृद्धि के उद्भव एवं विकास को मजबूत आधार दिया, जो विस्तृत रेल, सड़क, बाँध व जलाशय, संचार, बिजली आदि के आधारभूत संरचना एवं ढांचे के रूप मे कई अन्य अवसर राष्ट्र को दिया| आप इस प्रयास को जर्मनी एवं इटली के एकीकरण और उसके सशक्तिकरण के रूप में समझ सकते हैं|

सरदार पटेल एक बहुत ही तीक्ष्ण एवं कुशाग्र बुद्धि के रणनीतिकार, बैरिस्टर एवं राजनेता थे| यदि स्पष्ट रूप से देखा जाय तो बहुमत इस स्पष्ट मत के पक्ष में है कि इनकी वकालत नेहरु की अपेक्षा ज्यादा चलती थीयानि ये नेहरु की अपेक्षा ज्यादा व्यवहारिक, लोकप्रिय, समझदार, समर्पित, समानुभूति (Empathy) रखने वाले एवं कुशल रणनीतिकार, बैरिस्टर एवं राजनेता थे| ‘सार्वजानिक पद’ (Public Post) इनकी प्राथमिकता में कभी नहीं रहा, बल्कि जनताएवं राष्ट्रही सदैव इनकी प्रथम वरीयता में रहे| इसीलिए इन्होने सदैव ही देश की  ‘जनताएवं राष्ट्रके हित में पदों को कभी महत्व नहीं दिया। इसी कारण जनताएवं राष्ट्रके लिए सर्वथा उपयुक्त होते हुए भी शासन का नेतृत्वदुसरे व्यक्ति के हाथों में दिए जाने में इन्होने कभी आपत्ति नहीं की| नेहरु देश के शासन प्रमुख हो गए, जबकि पटेल सबसे ज्यादा उपयुक्त थे| इसे उस समय की स्थितियों एवं परिस्थितियों को समझ कर ही स्पष्ट रूप में समझा जा सकता है|

यदि हम उपनिवेशवाद (Colonialism) एवं साम्राज्यावाद (Imperialism) की अवधारणा, उनकी क्रिया विधियों एवं उनकी विभिन्न अवस्थाओं को समझ जाते हैं, तो हम महानायक सरदार पटेल की राष्ट्र के प्रति उनकी महत्वपूर्ण भूमिका एवं लक्ष्य को आसानी से समझ  सकते हैंउपनिवेशवाद एवं साम्राज्यावाद दोनों में आर्थिक, सामरिक एवं राजनीतिक हितों, यानि इन स्वार्थों की पूर्ति के लिए दूसरों देशों के क्षेत्रों पर आधिपत्य जमाया जाता हैउपनिवेशवाद में आधिपत्य भौतिक रूप में स्पष्ट एवं दृश्य होता है, क्योंकि उपनिवेशवादी राष्ट्रवहां स्वयं उपस्थित होता है| यानि उपनिवेशवादी राष्ट्रअपने उपनिवेश में उसके शासन व्यवस्था, अर्थ व्यवस्था, पुलिस व्यवस्था एवं सैन्य व्यवस्था को अपने प्रत्यक्ष नियंत्रण में रखता हैजबकि साम्राज्यावाद में ऐसा आवश्यक नहीं है, अर्थात  साम्राज्यवाद की बदलती अवस्था के अनुरूप इसका  स्वरूप एवं प्रकृति बदलता रहता है| इसके लिए यानि साम्राज्यवाद के लिए साम्राज्यवादी देश को उस नियंत्रित देश की शासन व्यवस्था, अर्थ व्यवस्था, पुलिस व्यवस्था एवं सैन्य व्यवस्था को प्रत्यक्ष नियंत्रण में रखने की बाध्यता नहीं होती है

उपनिवेशवाद एवं साम्राज्यवाद दोनों की क्रियाविधि, प्रसार एवं समापन अलग अलग तरीकों से होता रहा| इसीलिए यूरोपीय देशों का अफ्रीका, आस्ट्रेलेशिया (आस्ट्रेलिया एवं अन्य) एवं अमेरिकी महाद्वीप में पहले उपनिवेशवाद स्थापित हुआ और एशिया एवं भूमध्यसागरीय क्षेत्रों में पहले साम्राज्यवाद स्थापित हुआ| भारत में पहले साम्राज्यवाद का प्राथमिक स्वरूप आया, फिर उपनिवेशवाद के साथ- साथ साम्राज्यवाद का दूसरा स्वरूप आया| द्वितीय युद्ध के बाद साम्राज्यवाद के तीसरे स्वरूप के अनिवार्य स्वरूप का अवतार हुआ और इसके साथ उपनिवेशवाद की आवश्यकता नहीं थी| उपनिवेशवाद या तो पूर्णतया उपस्थित रहा, या स्पष्टतया अपने वजूद में ही नहीं रहा, परन्तु इसके परिवर्तित मौलिक स्वरूप का उदाहरण नहीं मिलता है|

साम्राज्यवाद के प्रथम चरण में मैं ‘वणिक साम्राज्यवाद’ (Mercantile Imperialism) को रखता हूँ, जिसमें व्यापारिक सामानों की खरीद एक स्थान से करके, दूसरे स्थान पर उसकी बिक्री की जाती रही, और लाभ प्राप्त किया जाता रहा| इस अवस्था में साम्राज्यवादियों को सिर्फ इसी स्वतन्त्रता की आवश्यकता थी, यानि सिर्फ व्यापार करने की स्वतंत्रता एवं एकाधिकार की ही आवश्यकता रही। जब तक आवश्यक नहीं हो, स्थानीय शासन व्यवस्था में हस्तक्षेप भी नहीं किया जाना इसकी अलग विशिष्टता रही

लेकिन यूरोप में औद्योगिक क्रान्ति की आवश्यकताओं ने साम्राज्यवाद की दूसरी अवस्था को ला दिया, जिसे ‘औद्योगिक साम्राज्यवाद‘ (Industrial Imperialism) कहा गयाइसमें उद्योगों के लिए कच्चा माल (Raw Material) का स्रोत, मशीन चलाने के लिए ईंधन (Fuel) एवं उत्पादित माल की खपत के लिए बाजार की आवश्यकता हो गई| इसने उपनिवेशों  की स्थापना की अतिरिक्त आवश्यकता को जन्म दे दिया| इस तरह उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद दोनों की मौजूदगी एक साथ हो गई

लेकिन साम्राज्यवादी हितों के लिए हुए विश्व युद्धों ने इसके इस संयुक्त स्वरूप को भी नष्ट कर दिया| मतलब यह कि अब उपनिवेशवाद की आवश्यकता नहीं रह गई थी, क्योंकि औद्योगिक साम्राज्यवादभी अब वित्तीय साम्राज्यवाद’ (Financial Imperialism) में बदल गयावित्तीय साम्राज्यवाद में साम्राज्यवादियों की प्राथमिकता सिर्फ अपने वित्तीय निवेश और उनके लाभों की निरंतरता एवं उसकी सुरक्षा तक सीमित रही। साम्राज्यवादियों के इन स्वरूपों को सरदार पटेल की तीक्ष्ण बुद्धिमत्ता समझ रही थी, और इसीलिए उन्होंने साम्राज्यवादियों द्वारा जानबूझकर रियासतों को दी गई स्वतंत्रता की मंशा को भांप लिया था।

सामान्यतः हमलोग बाजार की शक्तियों को यानि आर्थिक शक्तियों के बदलते स्वरूप और क्रिया विधि को नहीं समझना चाहते, परन्तु जीवन के संदर्भ में इस शक्तिशाली क्रिया-विधि एवं स्वरूप को समझना आवश्यक है| यह सब कुछ उपभोग (Consumption), उत्पादन (Production), वितरण (Distribution), एवं विनिमय (Exchange) के साधनों तथा  शक्तियों एवं उनके अंतर्संबंधों के द्वारा संचालित, नियंत्रित, नियमित एवं प्रभावित होता है| यह भी सही है, कि प्रत्येक देशों के स्वतन्त्रता संग्राम ने इन साम्राज्यवादी देशों पर उपनिवेश के त्याग के लिए अतिरिक्त दबाव बनाया, परन्तु इन देशों की स्वतंत्रता में वित्तीय साम्राज्यवाद की प्रमुख एवं महत्वपूर्ण भूमिका की उपेक्षा करना स्पष्टतया नादानीहै| उपनिवेशवाद के समाप्त होने को ही साम्राज्यवाद की समाप्ति समझ लेना किसी का भोलापनहो सकता हैलेकिन यह सब सरदार पटेल समझते थे, और इसी कारण उनको नेतृत्व सौपने में बहानेबाजी  की गई| इस बहानेबाजी में साम्राज्यवादियों ने भी सफल खेल खेला।

कुछ भारतीय राजनेताओं ने व्यक्तिगत पदों को बहुत ज्यादा महत्व दिया, और उनकी तथाकथित नादानी से साम्राज्यवादियों को कतिपय महत्वपूर्ण सफलता मिल ही गयीभारत माता को खंडित कर दिया गया, और उसके दुष्प्रभाव अभी तक  स्वतंत्र भारत में चारो तरफ जारी हैं। फिर भी पटेल ने साम्राज्यवादियों के एक महत्वपूर्ण मनसूबे को ध्वस्त कर ही दिया, जो 562 रियासतों के विलीनीकरण के रूप में सम्पन्न हुआ15 अगस्त 1947 को भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद समाप्त हो गया और तत्कालीन साम्राज्यवाद पूरी तरह से वित्तीय साम्राज्यवादमें बदल गयासरदार पटेल की उत्तरजीविता (Survival) भारतीय राष्ट्र का कुछ दूसरा ही स्वरूप प्रस्तुत करती, जो उनके अल्प अवधि के कार्यकाल में संभव एवं दृष्टिगोचर नहीं हो सका

साम्राज्यवादियों का वित्तीय निवेश (Financial Investment) इस देश में सुरक्षित हो गयाअब तो यह भी आरोप लगाए जाते हैं, कि देश की संप्रभुता अनेक समझौतों, संगठनों एवं शर्तों में दब गयी है। साम्राज्यवाद (सूचना यानि डाटा साम्राज्यवाद) के बदलते स्वरूप में आज देश के शासनाध्यक्ष (Head of the Government) मात्र अपने देश का प्रबंधक (Manager) साबित हो रहे हैं| सरदार पटेल इस भूमिका को बर्दास्त नहीं कर सकते थे, और शायद इसी पूर्वाभास एवं उनकी राजनीतिक विवशता ने उन्हें आन्तरिकरूप से तोड़ दिया या इसी तरह का कोई अन्य कारक उन पर हावी हो गया, जो अनुसंधान का विषय हो सकता है|

सरदार पटेल ने भारत जैसे एक 'परम्परागत देश' (Traditional Country) को, जो अनेक अलग-अलग देशों का एक  वृहत् देश समूहथा, उसे एक सशक्त राष्ट्र (Union of Nations) में बदलने का सफल प्रयास किया| हालाँकि शुरूआती अवस्था में ही सरदार का महाप्रस्थान देश, राष्ट्र एवं मानवता को अपूर्णीय क्षति दे दिया| एक सशक्त देश एवं राष्ट्र की पहली मौलिक एवं प्राथमिक शर्त भौगोलिक एकीकरण होती है, जिसे इन्होंने बखूबी निभाया| हमें ज्ञात होना चाहिए कि एक भौगोलिक अस्तित्व में ही कोई वैज्ञानिक और आध्यात्मिक विकास हो सकता है| एक सशक्त राष्ट्र में आपसी घृणा एवं हिंसा को जड़ से समाप्त” (Root out hate and violence) करने के लिए ही 1948 में  उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) पर प्रतिबन्ध लगा दिया| यही इनकी राष्ट्रके प्रति चिंता एवं अवधारणा को स्पष्ट करता है| वास्तव में किसी भी समझदार, संपन्न एवं सशक्त राष्ट्र में आपसी घृणा एवं हिंसाको कोई स्थान नहीं मिल सकताऐसे ही संकट के समय में हर समझदार नागरिक को सरदार याद आते हैं|

ऐतिहासिक एकत्व की भावना से संगठित समाज ही एक राष्ट्र कहलाता है| उस समय कृषक एवं कृषि ही राष्ट्र के लिए महत्वपूर्ण थे, और सरदार का पूरा ध्यान, विश्वास एवं समानुभूति (Empathy) कृषकों के लिए रहीकृषक ही उस समय देश की मुख्य जनसंख्या थी, यही मुख्य अर्थव्यवस्था थी, यही राष्ट्रीय शक्ति थी, यही समय की समझदारी थी, यही विकास का तकाजा था, यही सम्पन्नता का मूल मंत्र था और यही राष्ट्रवाद था| लेकिन अब इस राष्ट्रवाद की अवधारणा ही बदल दी गई है| अब तो राष्ट्रवाद का खतरनाक दुरूपयोग भी किया जाता है|अब तो यह आरोप लगाया जाता है कि जब जनमत रोटी मांगता है, रोजगार मांगता है, शिक्षा और चिकित्सा मांगता है, तो  उसे राष्ट्रवाद’ (Nationalism) की नशीली दवा पिलाई जाती है, और उसे होश में नहीं रहने दिया जाता है|अब तो राष्ट्रवाद की नव-परिभाषा संकीर्ण सम्प्रदायवाद, वेशभूषा, खानपान एवं नाम के स्वरूपों में सिमट गई है| सरदार शायद कुछ दिन और रहते या सरदार ही राष्ट्र की प्रमुख भूमिका में होते, तो शायद यह राष्ट्र अपने प्राचीन गौरव के साथ ही आज विश्व व्यवस्था (World Order) में पहले स्थान पर होताअपने वर्तमान 'सुपर पड़ोसी (Super neighbour)' चीन (अब दुनिया की एक सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, वैज्ञानिक एवं सैन्य महाशक्ति) के संदर्भ में आज हम इस बात को भली-भांति समझ सकते हैं।

सरदार पटेल के सरदारवादको आज समेकित रूप में समझना आवश्यक है| यह अवधारणाभारत को सशक्त, समृद्ध एवं अग्रणी बना सकता है, यदि इस सरदारवादको सम्यक ढंग से समझकर अनुपालित किया जायसरदार पटेल भारत देश, राज्य और राष्ट्र को सम्पूर्ण विश्व में भारत को ही "सरदार" बना देना चाहते थे। ऐसी ही स्थितियों और परिस्थितियों में महामानव, लौह पुरुष सरदार पटेल सदैव याद आते हैं| मैं उनको बार-बार सादर नमन करता हूँ

निरंजन सिन्हा 

आचार्य प्रवर निरंजन

 

रविवार, 9 अक्तूबर 2022

संस्कृत भाषा का ऐतिहासिक झूठ (Historical Fraud of Sanskrit Language)

(प्रकाशनाधीन पुस्तक – “मूल निवासी का सच”  से कुछ सम्पादित अंश)

यह आलेख इसलिए लिखना पड़ा, क्योंकि कुछ धूर्त भारतीय जानबूझ कर और अधिकतर नादान भारतीय अनजाने में ही प्राचीन भारतीय संस्कृति की प्राचीनता, सनातनता एवं गरिमा के समर्थन के नाम पर भारत की गौरवमयी संस्कृति का ही उपहास कराते हैं| इससे वैश्विक जगत में भारत की छवि धूमिल होती हैं| अब सभी स्थानों एवं प्रसंगों से तार्किकता एवं वैज्ञानिकता की दृष्टि से झूठ खंडित होता जा रहा है| यह एक विश्वव्यापी प्रक्रिया हो गया है। इसी कारण भारतीय इतिहास की पुस्तकों में कभी शामिल “महाकाव्य युग” (Epic Age) यानि ‘रामायण’ एवं ‘महाभारत’ के युग –वृत्तांत को आज इतिहास की पुस्तकों से बाहर कर दिया गया है|संस्कृत भाषा के ऐतिहासिक झूठ’ के बारे में कल विदेशी विद्वान् जो तथ्य, तर्क एवं वैज्ञानिक साक्ष्य प्रस्तुत करेंगे, उससे कल हमारी भावनाएँ आहत होगी| तब प्राचीनतम भारतीय मान्यताओं का ही वैश्विक उपहास होगा| अतः यह नितांत आवश्यक है कि, हम लोग संस्कृत के इस ऐतिहासिक झूठ को समय रहते ही तथ्यों, तर्कों एवं वैज्ञानिक साक्ष्यों के आधार पर संशोधित कर गलतियों को सुधार लें|

संस्कृत सिर्फ भाषा एवं साहित्य ही नहीं है, बल्कि इसमें आर्यों की सम्पूर्ण सभ्यता एवं संस्कृति और उससे जुड़ी हुई सारी कथा - कहानियों का भी आधार शामिल है| इसी भाषा में तथाकथित सम्बन्धित सारे धार्मिक- सामाजिक- सांस्कृतिक आदर्श, मूल्य. प्रतिमान, विचार, संस्कार, परम्परा, व्यवहार, अभिवृत्ति आदि की पुरातनता एवं सनातनता भी समाहित है| अब यदि यह साबित हो जाता है कि संस्कृत भाषा भारत की प्राचीन भाषा नहीं थी, तो संस्कृत आधारित सारी सभ्यता और संस्कृति की पुरातनता एवं उसकी सनातनता पर ही बहुत बड़ा प्रश्न चिह्न खड़ा हो जाता है| फिर, यदि यह साबित हो जाता है कि संस्कृत भाषा एवं उसका साहित्य नौवीं शताब्दी के बाद ही अस्तित्व में आया है, तो संस्कृत भाषा एवं साहित्य की प्राचीनता का स्थापित दावा ही एक ऐतिहासिक झूठ साबित हो जाता है| यदि यह संस्कृत भाषा प्राचीनतम प्राकृत भाषा एवं पालि भाषा और साहित्य से ही संस्कारित होकर यानि सुसंस्कृत होकर बहुत बाद में यानि मध्य काल में विकसित हुई भाषा साबित हो जाती है, तो ‘आर्यों’ की सत्यता और उनकी प्राचीनता से सम्बन्धित सारी कहानी ही खंडित हो जाती है, और इसी के साथ ही ‘मूल निवासी’ की मौलिकता भी खंडित हो जाती है| ध्यान रहे कि ‘आर्य’ एवं ‘मूल निवासी’ एक दुसरे की सापेक्ष अवधारणाएं हैं|

प्राचीन भारत में संस्कृत भाषा सिर्फ़ साहित्य में ही बतायी जाती है, अर्थात सामान्य जनजीवन के क्षेत्र में कोई अन्य प्रसंग नहीं मिलता है| मिथकीय साहित्यों के अनुसार सामान्य जन एवं महिलाओं के अध्ययन के लिए संस्कृत निषेधित थी| सामान्य जन एवं महिलाओं के लिए सिर्फ संस्कृत ही निषेधित नहीं थी, बल्कि पूरी शिक्षा ही प्रतिबंधित थी| तथाकथित आर्यों की एकमात्र भाषा संस्कृत ही थी, जिसे वे बोलते, सुनते एवं समझते थे, परन्तु लिखना नहीं जानते थे| अब हम संस्कृत भाषा एवं साहित्य विषय का अध्ययन विस्तार से साक्ष्यों एवं वैज्ञानिक तर्कों के साथ करेंगे, ताकि संस्कृत भाषा एवं साहित्य की प्राचीनता की ऐतिहासिकता की सच्चाई  आसानी से समझी जा सकें|संस्कृत शब्द की व्युत्पत्ति 'संस्कार' शब्द से हुई है और इसलिए संस्कृत एक संस्कारित भाषा हुई। अब प्रश्न यह उठता है कि संस्कृत किस पूर्व भाषा का संस्कारित स्वरुप है? आगे तथ्य और तर्क के साथ वैज्ञानिक आधार पर यह पाएंगे कि संस्कृत भाषा पूर्व से प्रचलित पालि भाषा का संस्कारित स्वरुप है और पालि भाषा प्राकृत बोली की साहित्यिक अवस्था है।

यदि हम ‘भाषा एवं साहित्य’ के उद्विकास (Evolution) की सामान्य प्राकृतिक रूपरेखा देखें, तो यह स्पष्ट होगा कि भाषा एवं साहित्य का विकासक्रम क्या होता है? कोई भी भाषा एवं साहित्य सबसे पहले किसी समाज की “बोली” (Dialect) होती है, जिसे सामान्य बोलचाल में 'भाषा’ (Language) भी कही जाती है| ‘बोली’ एक क्षेत्र विशेष में सामान्य जन द्वारा अपने संवाद में अभिव्यक्ति के एक माध्यम के रूप में प्रयुक्त होती है| ‘बोलीकी एक खास विशेषता यह होती है कि एक बोली किसी एक खास क्षेत्र की होती है, और उस क्षेत्र के सभी निवासी उसे बोलते और समझते हैं, यदि वे आर्थिक एवं सामाजिक रूप से गुंथे हुए हैं| लेकिन बोली की यह विशेषता संस्कृत के साथ नहीं है| ‘बोली’ का कोई लिखित साहित्य नहीं होता, क्योंकि इसकी कोई लिपि ही नहीं होती| यह 'बोली' ही किसी भी भाषा का क्षेत्रीय एवं प्रारंभिक स्वरूप होती है| ‘बोली’ का उपयोग प्रशासनिक व्यवस्था में नहीं हो सकता है, क्योंकि इसके लिए लिपि और व्याकरण के नियमों का होना आवश्यक है| ‘बोली’ स्थानीय व्यवहार में प्रयुक्त सामाजिक संवाद के माध्यम की अभिव्यक्ति का अल्पविकसित स्वरूप होती है| ‘बोली’ में प्रचलित शब्द जन सामान्य के होते हैं, और यह अपने पर्यावरण से सम्बन्धित होते हैं| ध्यान रहे कि कभी भी और कहीं भी संस्कृत की एक ‘बोली’ होने का कोई तथ्यामक प्रमाण नहीं है| भाषा एवं साहित्य के विकास में कभी भी और कहीं भी किसी के पर्यावरण में उपलब्ध वस्तुओं एवं गतिविधियों के लिए संस्कृत के शब्द नहीं हैं| किसी भी पहाड़, नदी, स्थान, मौसम, वस्तु, गतिविधि का नाम संस्कृत में नहीं है| यानि ‘संस्कृत भाषा’ भाषा एवं साहित्य के सामान्य उद्विकास की प्रथम पीढ़ी ‘बोली’ के स्तर पर कभी नहीं रही| अर्थात संस्कृत कभी भी व्यवहारिक उपयोग की भाषा नही रही| भाषा एवं साहित्य के उद्विकास की दुनिया में शायद ऐसा उदहारण किसी भी भाषा का नही रहा होगा, जो अति प्राचीनता का  दावा तो करती हो, परन्तु जिसकी 'बोली' रूपी मौलिक जड़ों का कोई अता-पता ही न हो| वास्तव में ऐसा इसलिए है, क्योंकि यह संस्कृत ‘बोली’ में ‘प्राकृत’ भाषा पर और ‘साहित्य’ में ‘पालि’ साहित्य पर निर्भर थी|

भाषाविकास की दूसरी प्राकृतिक अवस्था में उस भाषा में ‘साहित्य’ (Literature) की रचना होती है| यह तब संभव होता है, जब इसके लिए उपयुक्त लिपि विकसित हो जाती है, व्याकरण के नियम स्पष्ट एवं सुनिश्चित हो जाते हैं, और उसका क्षेत्र विस्तार भी हो जाता है| जब साहित्य की रचना होती है, तो उस भाषा के ‘व्याकरण’ (Grammar) का निर्माण होता है| यह व्याकरण उस भाषा में संवाद की अभिव्यक्ति को स्पष्ट, नियमित एवं निश्चित अर्थ देता है, जो अर्थ एवं भावार्थ की स्पष्टता को स्थायित्व एवं निरंतरता देता है| ‘बोली’ से ‘साहित्य’ तक के सफ़र के मध्य की संक्रमण अवस्था को कुछ लोग ‘उपभाषा’ भी कहते एवं मानते हैं| इसे "साधारण साहित्य" भी कहा जाता है। किसी भाषा की समृद्ध प्राकृतिक अवस्था उस अवस्था को कहा जाता है, जब उस भाषा में ‘विज्ञान एवं तकनीकी’ साहित्य भी रचे जाते हैं| इसे 'साधारण साहित्य' से उच्चतर साहित्य समझा जाता है और इसे 'विज्ञान एवं तकनीक' का साहित्य भी कहते हैं। भाषा के इस उद्विकास के क्रम को समझने के बाद किसी भी भाषा के विकासक्रम को समझा जा सकता है| इससे किसी भी भाषा की ऐतिहासिकता की प्रमाणिकता जांची एवं समझी जा सकती है|

भाषा-विकास की एक नई कहानी का उदाहरण भारत के झारखण्ड प्रदेश का है। यह कहानी झारखण्ड की एक भाषा “खोरठा” (Khortha) की है, जो अभी हाल तक एक ‘बोली’ मात्र थी, लेकिन अब यह एक ‘साहित्यिक’ अवस्था में स्थापित हो चुकी है| यह भाषा ‘बोली’ में लम्बे समय तक जन सामान्य में प्रचलित रही| फिर इसके लिए ‘लिपि’ निश्चित किया गया, व्याकरण के निश्चित एवं सुस्पष्ट नियम स्थापित किये गये, और इसका क्षेत्र विस्तार भी इसके परंपरागत क्षेत्र से बाहर हो गया| अब यह भाषा एक मानक साहित्य’ में स्थापित हो गया है, और अब यह  ‘विज्ञान एवं तकनीक’ की स्तरीय अभिव्यक्ति की दिशा में भी अग्रसर है|

किसी भी भाषा एवं साहित्य के उद्विकास के क्रम में उसी समय प्रथम अवस्था यानि ‘बोली’ का अभाव दिखता है, जब यह भाषा ‘बोली’ के रूप में किसी अन्य प्रचलित भाषा की ‘बोली’ पर आधारित रही हो| संस्कृत का प्राथमिक साहित्य भी अपने पूर्व के स्थापित अन्य भाषा यानि ‘पालि’ की साहित्यों पर आश्रित रहा यानि पालि साहित्य का अनुवाद किया जाना ही संस्कृत की प्राथमिकता रही| संस्कृत की प्रथम अवस्था यानि बोली के लिए प्राकृत एवं पालि भाषा ही उपलब्ध रहे| प्रारम्भिक संस्कृत के साहित्य भी मूलत: पूर्व के स्थापित पालि साहित्य की अनुवाद या व्याख्या या विवेचना या टीका आदि के रूप में ही रही| इसीलिए संस्कृत के उद्विकास की कोई स्वतंत्र एवं अलग प्राकृतिक प्रक्रिया नहीं है| पूर्व के पालि साहित्यों की संस्कृत में अनुवाद या व्याख्या या विवेचना या टीका आदि कर लेने के बाद धार्मिक सामन्तों के अनुवादकों के लिए पालि साहित्यों की आवश्यकता नहीं रही, और शायद इसी कारण उन साहित्यों को नष्ट होना पड़ा| संस्कृत के प्राकृतिक उद्विकास को इस नजरिये से देखने से और भी बहुत कुछ स्पष्ट होगा|

संस्कृत भाषा में भाषा उद्विकास का यह प्राकृतिक क्रम नहीं दिखता है| परन्तु जब संस्कृत की उत्पत्ति एवं विकास को प्राकृत भाषा एवं पालि भाषा एवं साहित्य से होता हुआ देखा जाता है, तो संस्कृत भाषा का विकास क्रम स्वत: ही स्वभाविक रूप में स्पष्ट हो जाता है| संस्कृत भाषा की उत्पत्ति प्राकृत भाषा एवं पालि भाषा और साहित्य से हुई है| कुछ लोग प्राकृत भाषा एवं पालि भाषा को ही संस्कृत भाषा एवं साहित्य से उत्पन्न बताते हैं, परन्तु इसके समर्थन में कोई तथ्यात्मक एवं तर्कसंगत साक्ष्य नहीं देते हैं| जब आप प्राकृत भाषा एवं पालि भाषा और साहित्य से ही संस्कृत की उत्पत्ति मानते हैं, और इसके पक्ष में साक्ष्य खोजते हैं, तो आपको काफ़ी तार्किक एवं तथ्यात्मक साक्ष्य मिलेगा| संस्कृत भाषा में प्राकृत भाषा एवं पालि भाषा और साहित्य के शब्द शामिल हैं, परन्तु प्राकृत भाषा एवं पालि भाषा और साहित्य में संस्कृत भाषा एवं साहित्य का कोई भी शब्द शामिल नहीं हैं|

'प्राकृत' भाषा का अर्थ होता है – ‘प्राकृतिक अवस्था’ की भाषा| ‘प्राकृत’ शब्द “प्रा’ एवं “कृत” से बना है| ‘प्रा’ का अर्थ हुआ ‘पहले’ एवं ‘कृत’ का अर्थ हुआ ‘रचना’ यानि प्राकृत भाषा का अर्थ हुआ किसी रचना की पूर्व अवस्था की भाषा| इस तरह प्राकृत किसी क्षेत्र की किसी मानक भाषा एवं साहित्य से पूर्व की जन सामान्य भाषा यानि ‘बोली’ हुई| ‘संस्कृत’ भाषा का अर्थ हुआ 'संस्कारयुक्त, सुसंस्कृत', ‘संस्कारित’ या ‘परिमर्जित’ भाषा, अर्थात् ‘संस्कृत’ किसी पहले से प्रचलित भाषा का परिमार्जित (Modified) या संस्कारित (Upgraded) स्वरूप हुई| यह पूर्व की तथाकथित असंस्कारित भाषा प्राकृत भाषा एवं उसकी साहित्यिक भाषा पालि है|

संस्कृत तथाकथित सुसंस्कृत (उच्च स्तरीय, संस्कारयुक्त या परिमर्जित) लोगों की या ऐसी ही अवस्था की भाषा हुई| स्वभाविक है कि पहले कोई भी चीज़  प्राकृतिक होगी और कालांतर में उसका संवर्द्धन एवं परिमार्जन होकर यह सुसंस्कृत बनेगी| यह तर्क किसी भी विवेकशील तार्किक व्यक्ति को स्पष्ट होगा| कभी भी किसी जीवन की यात्रा सुसंस्कृत से आदिम यानि प्राकृतिक अवस्था की ओर नहीं होती है, यानि जटिलता से सरलता की ओर नहीं होती है| 'प्राकृत' सामान्य जन की ‘बोलचाल’ की भाषा थी और ‘पालि’ सामान्य व्यवस्था की साहित्यिक भाषा थी, जबकि 'संस्कृत' भाषा समाज की तथाकथित श्रेष्ठ, उत्कृष्ट, दैवीय एवं विशिष्ट कहे जानेवाले या माने जानेवाले लोगों की भाषा हुई| स्पष्ट है कि प्राकृत भाषा एवं पालि भाषा और साहित्य से ही ‘संस्कृत’ भाषा का उद्विकास हुआ है| इसे देव यानी देवताओं की भी भाषा कहा गया| स्पष्ट है कि यह सामान्य जन से उत्कृष्ट माने जानेवाले लोगों की एक विशिष्ट भाषा बनी और रही| इसकी आवश्यकता असमानता वाले ‘सामन्तवाद’ के काल में सामाजिक विभाजन को सुस्पष्ट करनेवाली भाषा एवं साहित्य के रूप में हुई| संस्कृत को कभी भी सामान्य जन की भाषा बनने की आवश्यकता ही नही हुई, क्योंकि ‘प्राकृत एवं पालि’ भाषा पहले से ही इसी आवश्यकता को पूरा कर रहे थे| संस्कृत को सिर्फ सामंती व्यवस्था के ऊपरी वर्ग यानि ऊपरी वर्ण के लिए ही तैयार होना था| इसीलिए ‘प्राकृत’, ‘पालि’ एवं ‘संस्कृत’ यह तीनों ही, भाषा उद्विकास के प्राकृतिक क्रमानुसार एक ही कड़ी (Chain) के भिन्न भिन्न स्तर हैं| यह प्राकृतिक अवस्था में ‘प्राकृत’ हुई, जो ‘बोली’ है| व्यवस्था एवं विकास की अवस्था में यह ‘पालि’ हुई, जो साहित्यिक एवं वैज्ञानिक की अभिव्यक्ति का माध्यम है| यही ‘पालि’ अपने सुसंस्कृत एवं संस्कारित अवस्था में ‘संस्कृत’ हैइस क्रम में भले ही बाद में पहले की किसी अवस्था यानि किसी कड़ी (Stage/ Chain) को हटा देने यानि मिटा देने का सफल प्रयास किया गया|

भाषाविदों के अनुसार प्राचीन पालि भाषा एवं साहित्य में ‘ऋ’, ‘त्र’, ‘ज्ञ’, ‘श्र’, ‘श’, ‘ष’, ‘औ’, आदि विशिष्ट अक्षरों का प्रयोग नहीं होता था, और अभी भी नहीं होता है| पालि भाषा एवं साहित्य में ‘र’ का संयुक्त अक्षर भी नहीं होता है, जैसे ‘आर्य’ - ‘अरिय’, ‘चक्र’ – ‘चक्क’, ‘धर्म’ – ‘धम्म’, ‘प्रिय’ – ‘पिय’ आदि | यह सब अक्षर संस्कृत भाषा एवं साहित्य की विशिष्टता हैं, जो निश्चिततया बाद में भाषा के क्रमिक विकास यानी संस्कारित विकास की अवस्था में प्रयोग में आये हैं| यह ‘ऋ’, ‘त्र’, ‘ज्ञ’, ‘श्र’, ‘श’, ‘ष’, ‘, आदि संस्कृत भाषा एवं साहित्य का महत्त्वपूर्ण हिस्सा हैं| “र” के संयुक्ताक्षर का प्रयोग प्राकृत भाषा एवं पालि भाषा और साहित्य में नहीं था, परन्तु यह संस्कृत भाषा एवं साहित्य में बहुत ही महत्त्वपूर्ण भूमिका में है| इन अक्षरों के बिना संस्कृत भाषा एवं साहित्य की कल्पना भी नहीं हो सकती, जबकि पालि भाषा एवं साहित्य में यह किसी भी रूप में उपलब्ध नहीं हैं| यदि पालि भाषा एवं साहित्य तथाकथित प्राचीनतम संस्कृत भाषा एवं साहित्य से उत्पन्न हुआ होता, तो पालि भाषा एवं साहित्य में निश्चित ही संस्कृत भाषा के लक्षण उपस्थित होते, जो एकदम नहीं हैं| जबकि इसके विपरीत संस्कृत भाषा में पालि भाषा एवं साहित्य के लक्षण और शब्द पूरी स्पष्टता के साथ शामिल हैं| संस्कृत भाषा एवं साहित्य के शब्द हिन्दी भाषा एवं साहित्य में आए हैं, क्योंकि हिन्दी का उद्विकास संस्कृत के बाद संस्कृत से हुआ और एक ही क्षेत्र में विकसित हुआ |

संस्कृत भाषा एवं साहित्य को सुस्पष्ट करता हुआ कोई शिलालेख, अभिलेख या किसी प्रकार का धातु पर उत्कीर्णित लेख का पुरातात्विक साक्ष्य सन् 900 ई० से पूर्व का उपलब्ध नहीं है| इतना ही नहीं, इससे जुड़ी तथाकथित सभ्यता एवं संस्कृति के भी संकेत एवं अवशेष भी प्राचीन काल में नहीं मिले हैं| चूँकि संस्कृत भाषा एवं साहित्य पूर्व की प्राकृत भाषा एवं पालि भाषा और साहित्य का ही उच्चतर, संवर्धित एवं सुसंस्कृत स्वरूप है, इसीलिए 'प्राकृत' भाषा एवं 'पालि' भाषा और साहित्य का ‘संक्षिप्त’, ‘अलंकृत’, ‘उच्चतर’ और ‘काव्यात्मक’ प्रकृति के किसी भी शिलालेख को संस्कृत भाषा का प्रारम्भिक (Early) यानी आद्य/ आदिम  (Primitive) स्वरूप बता दिया जाता है और उसी अनुरूप अभिलेख मानकर ‘संस्कृत’ भाषा की ‘प्राचीनता’ को व्याख्यापित भी कर दिया जाता है| काठियावाड़ के 'रुद्रदामन' के 150 ई० के जूनागढ़ अभिलेख को संस्कृत भाषा का पहला अभिलेख बताया जाता है| इसे भाषाविद् पालि भाषा का उच्चतर, काव्यात्मक, अलंकृत, संक्षिप्त एवं सुसंस्कृत अवस्था बताते हैं, और इसमें संस्कृत भाषा का कोई आधिकारिक लक्षण या संकेत नहीं देखते हैं| हम इसे आज की साधारण हिन्दी एवं अलंकृत- काव्यात्मक – स्तरीय साहित्यिक हिन्दी में अंतर से समझ सकते है| ऐसा ही अन्तर साधारण पालि और अलंकृत- काव्यात्मक – स्तरीय पालि में है, जिसे आज ‘संस्कृत’ घोषित किया जा रहा हैयह अभिलेख काव्यात्मक भी है| इसे काव्यशैली का सबसे प्रारम्भिक नमूना बताया जाता है| स्पष्ट है कि पालि भाषा एवं साहित्य का काव्यात्मक स्वरूप पालि भाषा के 'गद्य शैली' के स्वरूप से ही ज्यादा जटिलतर और अलंकृत हो गया तथा इसी कारण इसे संस्कृत का 'आद्य स्वरूप' मान लिया गया| ध्यान रहे कि इसकी लिपि देवनागरी नहीं है| किसी भी उद्विकास का काल लंबा होता है और इसीलिए संक्रमण (Transition) अवस्था की व्याख्या दोनों अवस्था में कर ली जाती है|

विसर्ग, हलंत एवं चन्द्रबिन्दु  संस्कृत भाषा एवं साहित्य की एक ख़ास विशेषता हैं, जो अन्य प्राचीन भाषाओ में नहीं हैं| ‘विसर्ग’, ‘हलंत’, एवं ‘चन्द्रबिंदु’ देवनागरी लिपि की ही विशेषता हैं| यही विशेषता संस्कृत भाषा एवं साहित्य का अतिविशिष्ट एवं अतिमहत्वपूर्ण लक्षण है| इसी कारण शुद्ध संस्कृत भाषा एवं साहित्य सिर्फ़ देवनागरी लिपि में ही लिखी जा सकती है| अन्य किसी लिपि में संस्कृत भाषा एवं साहित्य को पूर्ण शुद्धता के साथ नहीं लिखा जा सकता है| अत: देवनागरी लिपि के बिना संस्कृत भाषा एवं साहित्य की स्वाभाविक उत्पत्ति एवं स्वाभाविक विकास नहीं हो सकता है| स्पष्ट है कि जब तक देवनागरी लिपि नहीं थी, संस्कृत भाषा एवं साहित्य भी अपनी आदिम अवस्था में भी नहीं था| आप रुद्रदामन का तथाकथित प्राचीनतम संस्कृत के भारतीय शिलालेख की ‘लिपि’ को देखें या वियतनाम का तथाकथित प्राचीनतम संस्कृत के शिलालेख की ‘लिपि’ को देखें, तो यह स्पष्ट होगा कि इनमें कोई भी ‘देवनागरी’ लिपि में नहीं है| स्पष्ट है, कि यह संस्कृत अपनी विकास की प्राकृतिक अवस्था में नहीं है, और इसीलिए यह संस्कृत का उदाहरण नहीं हो सकता| यह उदाहरण भाषा के रूप में अपनी किसी पूर्ववर्ती अवस्था का भाषा का हो सकता है या उसी का कोई अन्य प्रारूप हो सकता है, जो भाषा में संस्कृत से मिलता होगा और लिपि में देवनागरी नहीं है| इस तरह यह संस्कृत की प्राचीनता को जबरदस्ती स्थापित करने का गर्हित  सामन्ती प्रयास है| इसे ही ‘विचारों का जडत्व’ (Inertia of Thought ) कहते हैं, जो किसी भी तरह संस्कृत की तथाकथित प्राचीनता पर अटक जाता हैइसे ‘इतिहास का जड़त्वीय संरचनात्मक  ढांचा’ (Inertial Structural Frame of History) से भी समझा जा सकता हैं| इस अवधारणा को लेखक निरंजन सिन्हा ने दिया है|

आप भी जानते हैं कि देवनागरी लिपि का प्रचलित अधिकतर साक्ष्य कागज़ पर ही मिला है, जो अवश्य ही कागज़ के आविष्कार के बाद और उसके भारत आगमन के बाद ही अस्तित्व में आया होगा| 'नागरी लिपि' का प्रथम प्रमाण 1011 ई० (शायद सेलखड़ी के पट्टी पर) का मिला है| कागज़ का प्रयोग भारत में दसवीं शताब्दी से पहले नहीं हुआ है| देवनागरी लिपि का प्राचीन काल का कोई साक्ष्य नहीं मिला है| देवनागरी लिपि का पुरातन साक्ष्य ग्यारहवीं शताब्दी के पहले का कोई नहीं है| यह तथ्य एवं तर्क भी संस्कृत भाषा एवं साहित्य की पुरातनता पर बड़ा सवाल खड़ा करता है, और इसकी तथाकथित पुरातनता की कहानी को भी खंडित करता है|

पुरातात्विक प्रमाण स्पष्ट करते हैं कि मध्य काल के पूर्व संस्कृत भाषा उपलब्ध नहीं थी| संस्कृत भाषा एवं साहित्य का उद्भव एवं विकास ही सामंती आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सामन्त काल में सामन्ती ढाँचे के समर्थक लोगो यानि सामन्ती व्यवस्था के द्वारा ही हुआ है| वैसे किसी भी उद्विकास में, चाहे वह किसी भाषा का हो या किसी जीव का हो, वह एक दो दशक में अपना अंतिम स्वरूप नहीं लेता, बल्कि इसमें सदियां लग जाती हैं| इसे भली-भांति समझने की जरूरत है| यदि इतिहास की व्याख्या वैज्ञानिक एवं तार्किक आधार पर यानि आर्थिक व्यवस्था की ‘उत्पादन’, ‘वितरण’, ‘विनिमय’ एवं ‘संचार’ की शक्तियों एवं उनके अन्तर्सम्बन्धों के आधार पर किया जाय, तो इतिहास के हर पहलू को समझना बहुत आसान होगा।

संस्कृत 'साहित्य-शास्त्र' की प्राचीनता के सम्बन्ध में एक तर्क यह दिया जाता है कि यह ऋग्वैदिक काल के पूर्व से ही प्राचीन भाषा रही| यह ऋग्वैदिक काल से ही मौखिक रूप में यानी रट्टा (Rote Learning) लगाकर एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक हस्तांतरित होती रही, और इसे इस तरीके से ही सदियों तक सुरक्षित एवं संरक्षित रखा गया| कहा जाता है कि जब ब्राह्मणों ने लिखना जाना और कागज अस्तित्व में आया, तो उसे किताब के रूप में उपलब्ध किया जा सका | कहा जाता है कि वे पहले लिखना नहीं जानते थे, अन्यथा वे भी शिलालेखों पर लिखते| बताया जाता है कि ब्राह्मण बुद्धिमान् और विद्वान् भी थे| वे संस्कृत भाषा बोलना, सुनना एवं समझना भी अच्छी तरह जानते थे | इतिहास में काफ़ी साक्ष्य हैं, कि समकालीन लोग और इनके पूर्व के लोग तो बोलना, पढ़ना, लिखना और समझना जानते थे| पूर्व काल की सिन्धु घाटी सभ्यता के लोग तथा तथाकथित बाद के 'बौद्धिक काल' के लोग इसके स्पष्ट उदाहरण हैं| बौद्धिक काल में कई शिलालेख लिखे गए और अन्य साहित्यों की रचना भी की गई, जो बाद में ‘नष्ट’ कर दिया गया| तब संस्कृत भाषा एवं साहित्य की तथाकथित प्राचीनता के विरुद्ध एक बड़ा और महत्त्वपूर्ण तर्क यह है, कि जब समकालीन लोग लिखना जानते थे, और ब्राह्मण बुद्धिमान्, ज्ञानी, और समझदार भी रहे, तो इतने लम्बे काल में भी संस्कृत लिखना क्यों नहीं सीख पाए ? इसका एकमात्र सुस्पष्ट जवाब यही है, कि उन कालों में आर्य, ब्राह्मण एवं संस्कृत का अस्तित्व ही नहीं था| इसीलिए उस प्राचीन काल की संस्कृत भाषा एवं साहित्य का कोई लिखित साक्ष्य नहीं मिलता है, जबकि इसके पहले के वर्णित या अवर्णित पुरातात्विक साक्ष्य सभी जगह बिखरे पड़े हैं|

संस्कृत के विरुद्ध एक और तर्क महत्त्वपूर्ण है, कि 'बौद्धिक संस्कृति' के बहुत सारे साहित्य के साक्ष्य समकालीन विदेशी क्षेत्रों और प्रसंगों में भी मिले हैं| बुद्धि यानी बुद्ध की संस्कृति को ही बौद्धिक संस्कृति कहा जाता है| ध्यान रहे कि ‘बुद्ध’ एक संस्थागत ‘उपाधि’ थी, कोई व्यक्ति विशेष का व्यक्तिगत नाम नहीं है| विदेशी क्षेत्रों में, जहाँ भारतीय शासकों का सैन्य प्रभुत्व नहीं था या नहीं हो सकता था, बौद्धिक साहित्य नष्ट किये जाने से बचे रह गए| इन विदेशी क्षेत्रों में तथाकथित महत्वपूर्ण एवं अतिप्राचीन भारतीय भाषा - संस्कृत का कोई साहित्य-शास्त्र नहीं मिला| ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि संस्कृत भाषा एवं उसका साहित्य उस समय अस्तित्व में ही नहीं आया था| यदि ये अस्तित्व में रहता, तो उस काल में कहीं भी किसी भी सन्दर्भ में अवश्य उल्लेख में आ जाता| इतना ही नहीं, संस्कृत को ऋग्वैदिक काल के आरम्भ से ही प्रचलित बताया जाता है, और यह भी बताया जाता है कि वे आर्य विदेशों से भारत आये थे| स्पष्ट है कि संस्कृत भाषा उनके मूल प्रदेश की प्रचलित भाषा रही होगी, परन्तु संस्कृत भाषा विश्व के अन्य किसी भी क्षेत्र में नहीं पायी जाती है, या उसका कोई भी प्राचीन अवशेष किसी भी रूप में उस तथाकथित ‘मूल वैदिक विदेशी क्षेत्र’ के स्रोत स्थल में उपलब्ध नहीं है, जहाँ से वे भारत आये हैं|

सामन्त काल में भारत के तत्कालीन सभी विश्वविद्यालयों, अध्ययन संस्थानों, पुस्तकालयों, आदि को जलाकर या अन्य तरीकों से नष्ट कर दिया गया| उनमें संरक्षित भारत का लगभग सभी 'बौद्धिक साहित्य' नष्ट हो गया| आज उपलब्ध बौद्धिक साहित्यों का पुनर्निमाण समकालीन विदेशी साहित्यों से प्राप्त कर किया गया है| यहां विशेष रूप से गौर करने वाली बात यह है कि, इस नष्टीकरण की प्रक्रिया में भारतीय बौद्धिक साहित्य तो नष्ट हो गया, परन्तु उस तथाकथित प्राचीन समय के संस्कृत भाषा के साहित्य-शास्त्र, यदि उस समय मौजूद थे, तो वे नष्ट नहीं हुए, क्यों? या तो जलाने वालों ने संस्कृत भाषा के साहित्य-शास्त्रों को आग से अलगकर बचा लिया था, या ये संस्कृत भाषा के साहित्य-शास्त्र उस समय थे ही नहीं, कि वे आग में जलते या  नष्ट होते| यहां एक ही तर्कसंगत निष्कर्ष निकल सकता है, कि ये संस्कृत भाषा के साहित्य-शास्त्र उस समय तक रचित ही नहीं हुए थे, मतलब यह कि वे अस्तित्व में ही नहीं आये थे| ध्यान रहे कि जलाने के आरोपियों यानि आक्रान्ताओं को संस्कृत भाषा एवं साहित्य से लगाव का कोई सार्थक कारण नहीं दिखता है, कि वे संस्कृत साहित्य को बचाकर आग लगाते| तथाकथित आक्रमणकारियों को इन भारतीय भाषा एवं साहित्यों में अंतर करने, यानि एक को बचाने तथा दूसरे को नष्ट करने में कोई विशेष रुचि नहीं हो सकती थी, यदि जलानेवाले लोग विदेशी आक्रान्ता थे तो|

अतः स्पष्ट है कि संस्कृत भाषा एवं साहित्य का आदिकालीन होना सिर्फ़ एक 'काल्पनिक उड़ान’ की ही बात है| इसकी पुरातनता का कोई पुरातात्विक साक्ष्य उपलब्ध नहीं है| इसका कोई भी प्राथमिक प्रामाणिक साक्ष्य नहीं मिला है| पालि भाषा की पाण्डुलिपियाँ मध्य एशिया में भी मिली है, परन्तु संस्कृत की पाण्डुलिपियाँ भारत से बाहर कहीं नहीं मिली हैं| आर्य मध्य एशिया से भारत आये और संस्कृत के साथ ही आए, लेकिन संस्कृत का कोई साक्ष्य मध्य एशिया में नहीं मिला है| मध्य एशिया में 'पालि' की पाण्डुलिपियाँ भेड़ के चमड़े और लकड़ियों के पाटों पर लिखी हुई मिली है| यदि आर्यो की मध्य एशिया से आने की कहानी सही होती, तो आर्यो से जुड़ी उनकी भाषा संस्कृत भी मध्य एशिया में होती और उनके कोई न कोई साक्ष्य वहाँ अवश्य ही मिलते| वास्तव में मध्य एशिया में संस्कृत के साक्ष्य इसीलिए नहीं मिले, क्योंकि संस्कृत की उत्पत्ति ही भारत में मध्य काल में हुई है| इसका तथाकथित आर्यो से कोई लेना-देना नहीं है| यह भारत की सामंती आवश्यकताओं के कारण सामन्त काल में उत्पन्न हुई भाषा है।

अदालतों में तार्किक एवं तथ्यात्मक साक्ष्यों की ही मान्यता होती है, मोटे-मोटे काल्पनिक साहित्यों एवं भावनात्मक बातों की मान्यता या आस्था नहीं होती| संस्कृत भाषा एवं साहित्य के प्रथम व्याकरण के रचियता पाणिनी के समय-काल पर इतिहासकार एकमत नहीं हैं, और इसे सामन्तवाद के पूर्व काल में स्थापित नहीं किया जा सकता| यदि पाणिनी की तथाकथित प्राचीनता के समर्थन में तार्किक, वैज्ञानिक एवं पुरातात्विक साक्ष्य मांगेगे, तो निश्चितया कोई भी ऐसा साक्ष्य उपलब्ध नहीं कराया जायगा| लोगों को सामान्य ज्ञान (पठन-पाठन) की भाषा से दूर करने और अपने को विशिष्ट एवं भिन्न जताने के लिए ही जटिल एवं संस्कारित भाषा के रूप में संस्कृत भाषा एवं साहित्य को विकसित किया गया| वैसे सामान्य लोगों को शिक्षा का अधिकार नहीं था| इसे 'देव भाषा' भी कहा गया, क्योंकि यह विशिष्ट लोगों की भाषा बनी|

वेद की सबसे प्राचीनतम पांडुलिपि 1365 ई० की मिली है| सबसे पुराना 'अर्थशास्त्र' जो संस्कृत में है और जिसे कौटिल्य द्वारा रचित बताया जाता है, यह अर्थशास्त्र सन् 1909 ईस्वी का है| इसे किसी तत्कालीन लेखक ने कौटिल्य यानी चाणक्य के नाम से लिखा था | इसे ‘इतिहास के गुरुत्वीय ताल’ (Gravitational Lensing of History) की अवधारणा से सही ढंग से समझा जा सकता है, यह अवधारणा भी लेखक निरंजन सिन्हा की ही है। इस पुस्तक – “अर्थशास्त्र” के अनुसार चाणक्य मौर्य दरबार का मंत्री था, जो संस्कृत भाषा ही बोलता एवं समझता था| मौर्य काल के कई भारतीय एवं विदेशी भाषाओं में लेख मिले हैं, परन्तु संस्कृत भाषा में कोई लेख नहीं मिला| उस समय जब कोई अन्य लोग संस्कृत भाषा बोलते और समझते ही नहीं थे, तो कोई चाणक्य की बातें कैसे समझ पाता था? उस काल के किसी सन्दर्भ में संस्कृत भाषा या चाणक्य की कहीं भी कोई प्रमाणिक चर्चा नहीं है| सम्राट् अशोक ने ब्राह्मी (धम्म), खरोष्टि, अरामाई, एवं यूनानी लिपि में अपने अभिलेख लिखवाया, लेकिन संस्कृत भाषा या उसकी लिपि में कोई अभिलेख नहीं लिखवाया| ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि संस्कृत भाषा एवं साहित्य किसी भी स्वरूप में उस समय अस्तित्व में ही नहीं थी| ध्यान रहे कि शुद्ध संस्कृत सिर्फ़ देवनागरी लिपि में ही लिखी जा सकती है| अरामाई एवं यूनानी भाषा में  अशोक के राज्यादेश का एक  द्विभाषीय अभिलेख उपलब्ध है| मौर्य राजाओं के दरबार में कई भाषाओं के द्विभाषिए थे, बस सिर्फ़ संस्कृत भाषा के नहीं थे| स्पष्ट है कि उस समय 'संस्कृत भाषा' थी ही नहीं | यदि चाणक्य मंत्री था, और महत्त्वपूर्ण भी, तो अशोक के लेख संस्कृत भाषा में अवश्य मिलते| इस तरह अब चाणक्य भी काल्पनिक साबित हो गया है|

सभी 'आर्य संस्कृति के ग्रन्थ' जो कागज़ की पांडुलिपि पर नागरी लिपि एवं संस्कृत भाषा में हैं, वे सभी दसवीं से चौदहवीं शताब्दी के बीच के ही हो सकते हैं, इस काल के पूर्व के वे कदापि नहीं हो सकते| कवि  तुलसीदास ने अपनी हिन्दी में संस्कृत भाषा, शब्द एवं व्याकरण का प्रयोग किया है| परन्तु तुलसीदास के पहले के कबीर ने संस्कृत का प्रयोग नहीं किया, और संधि- समास का भी प्रयोग उन्होंने नहीं किया है| तुलसीदास 'सोलहवीं -सत्रहवीं सदी' के थे, जबकि कबीर दास 'पंद्रहवीं सदी' के थे| कालिदास के नाटकों में ऊँची 'प्रस्थिति' (High Status/ऊपरी वर्ग) के लोग संस्कृत भाषा बोलते तथा समझते थे, और नीची प्रस्थिति (नीचले वर्ग एवं अवर्ण) के लोग एवं सभी स्त्रियाँ प्राकृत भाषा बोलते तथा समझते थे, अर्थात् उस समाज में एक ही परिवार में माँ एवं पुत्री (स्त्री) सिर्फ़ प्राकृत भाषा बोलती और समझती थी, और पुत्र एवं पिता सिर्फ़ संस्कृत भाषा ही बोलता और समझता था| ऐसा समाज या तो पूरी तरह काल्पनिक था या फिर ऐसा साहित्य ही पूरी तरह से एक कपोल-कल्पित कथा मात्र है| आर्यों की कहानियों के प्रमुख शिल्पकारों में वाल्मीकि और व्यास नामक व्यक्तिओं की ऐतिहासिकता का कोई साक्ष्य एवं प्रमाण नहीं मिला है| इससे यह स्पष्ट है कि इन "काल्पनिक रचनाकारों" का सृजन बाद के कालों में किसी गुमनाम रचनाकारों ने इसे पूर्ववर्ती गौरवमयी काल का बताने के लिए किया| एक अनुमान है कि इन कार्यों को जैमिनी और कुमारिल भट्ट ने नौवीं-दसवीं शताब्दी में किया| संस्कृत भाषा की प्राचीनतम 'कागज़ी' पाण्डुलिपि 'शतपथ ब्राह्मण' की है, जो कश्मीर से मिला है,और जिसे 1089 ई० का बताया जाता है|

ये सब अकाट्य तथ्य, साक्ष्य एवं तर्क यह स्पष्ट करते हैं कि आर्यों की एकमात्र भाषा संस्कृत भाषा एवं उसके साहित्य की उत्पत्ति नौवीं सदी से पहले नहीं हुई थी| इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि ‘आर्य आगमन’ एवं ‘संस्कृत भाषा एवं साहित्य’ पर आधारित सारा इतिहास, संस्कृति, साहित्य, और परम्परा भी 'नौवीं शताब्दी' से पुरातन नहीं है | इस तरह संस्कृत भाषा एवं साहित्य की प्राचीनता का तर्कसंगत एवं साक्ष्यात्मक खंडन हो जाने से तथाकथित ‘आर्यों की कहानी’ एवं तथाकथित ‘मूल निवासी' की कहानी बकवास साबित होती है| इस तरह तथाकथित वैदिक एवं अन्य सम्बन्धित तथ्यों की ऐतिहासिकता ही समाप्त हो जाती है| ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि इन आर्यों की पूरी संस्कृति ही संस्कृत भाषा एवं साहित्य पर आधारित है|

निरंजन सिन्हा

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सत्ता ‘वैज्ञानिक भौतिकवाद’ से क्यों डरता है?

‘ सत्ता ’ में शामिल लोग ही असली ‘ शासक ’ ‘ वर्ग ’ कहलाते हैं , होते हैं।   तो सबसे प्रमुख प्रश्न यह है कि   ‘ सत्ता ’   क्या है और   ‘ शासक ...