सोमवार, 13 जून 2022

वर्चस्ववादी कौन? (Who are Supermacist?)

हर कोई वर्चस्ववादी होना चाहता है, चाहे वह व्यक्ति हो, परिवार हो, समुदाय हो, समाज हो या रष्ट्र या देश हो| परन्तु इसमें बाधा ‘न्याय’, ‘समानता’, ‘स्वतन्त्रता’, एवं ‘बंधुत्व’ के तत्व ही डालता है| लेकिन ये सभी तत्व किसी भी विकसित, प्रगतिवादी, समृद्धशाली, सशक्त, शांतिमय एवं सुखमय समाज एवं राष्ट्र के लिए प्राथमिक अनिवार्य शर्त भी है| इन सबों का निचोड़ यही हुआ कि वर्चस्ववादी होना मानवतावादी नहीं हो सकता| इस आधुनिक युग में वर्चस्ववादी होना समाज और राष्ट्र के लिए समझदारी भरा कदम नहीं कहा जा सकता, क्योंकि ये सब आधुनिक, विकसित, प्रगतिवादी, समृद्धशाली, सशक्त, शांतिमय एवं सुखमय समाज एवं राष्ट्र के आधारभूत शर्तों - ‘न्याय’, ‘समानता’, ‘स्वतन्त्रता’, एवं ‘बंधुत्व’ के विरुद्ध जाता है|

आप भारत के जातिवाद, वर्णवाद, पंथवाद या धर्मवाद, ब्राह्मणवाद, पिछड़ावाद, दलितवाद, मनुवाद, मूल निवासीवाद को थोडा बहुत या इसे बहुत अच्छी तरह समझते हैं, और इसीलिए मैं इसे दुहराना भी नहीं चाहता हूँ| लेकिन इसके कुछ विचित्रताओं एवं विरोधाभासों पर प्रकाश डालना जरुरी है, अन्यथा सामान्यत: इन महत्वपूर्ण बातों पर ध्यान ही नहीं जाएगा|

सबसे पहले हमें “ब्राह्मणवाद” और “पिछड़ावाद” एवं "दलितवाद" के सम्बन्ध में एक बड़ा विचित्र विरोधाभास को समझना चाहिए| भारत में जिसे ब्राह्मणवादी समझा जाता है, वह दरअसल ब्राह्मणवादी है ही नहीं| उसे तो अपने मूल स्वभाव में यानि मूल प्रकृति में सामंतवादी तो कहा जा सकता है, या यह भी नहीं कहा जा सकता है, लेकिन उसे ब्राह्मणवादी तो कदापि नहीं कहा जा सकता| भारत में जो ब्राह्मणवाद का जबरदस्त विरोध करता हुआ दीखता है, या करता है, दरअसल वही जबरदस्त “ब्राह्मणवादी” है| यदि यह सब वास्तव में सत्य है, तो आप भी मानेंगे कि यह एक जबरदस्त विरोधाभास है|

इसके लिए सबसे पहले “ब्राह्मणवाद” और “सामन्तवाद” को समझा जाय| एक ‘ब्राह्मणवादी’ उस ‘वाद’ का समर्थक होता है, जो ‘जाति व्यवस्था’ की ऐतिहासिकता और ‘जातीय सर्वोच्चता के सिद्धांत’ से सहमत होता है और 'ईश्वर', 'आत्मा', 'पुनर्जन्म', 'स्वर्ग- नरक' आदि में भी विश्वास रखता है| इसीलिए ऐसे व्यक्ति एवं समुदाय अपने जाति के गौरव का इतिहास ढूढ़ते है, बनाते हैं, और लिखते हैं| उन्हें अपनी जाति की ऐतिहासिकता में अटूट विश्वास है| जातीय सर्वोच्चता एक सापेक्षिक अवधारणा है, जिसका अर्थ यह भी हुआ कि इसके अपेक्षा किसी और समुदाय का इतिहास गौरवशाली नहीं है अर्थात ये तुलनात्मक रूप में ज्यादा गौरवशाली है| जातियों का पदानुक्रम (Hierarchy) मानना ब्राह्मणवाद का एक मौलिक तत्व है| आप देखेंगे कि “पिछड़ावाद” एवं "दलितवाद" के समर्थक अपने को ऐतिहासिक ‘क्षत्रिय’ (Kshatriy) साबित करने में लगे हुए हैं| इसका स्पष्ट अर्थ यह भी है कि ये अपने को प्रथम वर्ण एवं जाति – ब्राह्मण से निम्न (नीच/ Lower) मानते हैं यानि जातियों का पदानुक्रम स्वीकार करते हैं| यह ब्राह्मणवादी मानसिकता नहीं है, तो क्या है?

“ब्राह्मणवाद” के अन्य मौलिक तत्वों में “ईश्वर”, “आत्मा”, “पुनर्जन्म” एवं "स्वर्ग- नरक" का सिद्धांत है| पिछड़ावाद एवं दलितवाद के समर्थक उपरोक्त सभी और उनसे सम्बंधित सभी अवधारणाओं को सही (Correct) और सत्य (True) मानते है, और उसी मान्यता के अनुसार अपने सोच, व्यवहार एवं आदत का अनुपालन करते है| ईश्वर के सम्बन्ध में "CERN" ने स्थापित एवं सत्यापित कर दिया कि ईश्वर नहीं है| और फिर भी कोई उसी को सत्य एवं सही मान रहा हैं| यह ब्राह्मणवाद नहीं है, तो क्या है? यह सामंतवादी मानसिकता तो कदापि नहीं ही है|

एक सामंतवादी अर्थात “समानता का अन्त करने का वाद या सिद्धांत” अपने व्यक्तिगत एवं अपने सामूहिक हितों को देखता है, समझता है, उसका पूरा ध्यान रख कर ही निर्णय लेता है| वह अपने सामन्ती हितों के अनुरूप अपने वैवाहिक सम्बन्ध अपने जाति, वर्ण, धर्म, एवं राष्ट्रीयता के बाहर भी बनाता है, जबकि एक ब्राह्मणवादी (ब्राह्मणवाद का समर्थक) व्यक्ति या समुदाय अपने जाति या वर्ण या धर्म या राष्ट्रीयता को तो छोडिए, अपने उपजाति और अपने स्थानीय क्षेत्र से भी बाहर नहीं जा सकता| पिछड़ेवाद एवं दलितवाद के समर्थकों को ध्यान से देखिए| ऐसा करना यानि अपने जाति, धर्म या राष्ट्रीयता के बाहर वैवाहिक सम्बन्ध बनाना अपने धर्म, संस्कार और परम्परा के विरुद्ध मानता है|

इसी तरह एक सामन्ती व्यक्ति या समुदाय भी यह जानता है और यह मानता है, कि आज के वैज्ञानिक युग में “ईश्वर”, “आत्मा“, “पुनर्जन्म” और "स्वर्ग- नरक" की अवधारणा वैज्ञानिक आधार पर खंडित हो चुका है| लेकिन यह आधार यानि यह अवधारणा अधिकतर अज्ञानियों के कारण कुछ या विशेष लोगों को एक रोजगार यानि आय का एक सुनिश्चित एवं अनन्त धारा बनता है, तो किसी और को क्यों आपत्ति होना चाहिए? अब आप किसे ब्राह्मणवादी कहना चाहते हैं और किसे सामन्तवादी कहना चाहते हैं: यह पूर्णतया आप पर निर्भर है|

“जातिवाद एवं वर्णवाद” का सबसे बड़ा और विचित्र विरोधाभास यह है कि जो भारत उपनिवेश काल में ‘न्याय’, ‘समानता’, ‘स्वतन्त्रता’, एवं ‘बंधुत्व’ के सिद्धांतों की दुहाई देकर साम्राज्यवादियों की ‘वर्चस्वता के सिद्धांत’ का तीव्र विरोध कर रहा है, वही भारत स्वतन्त्रता के बाद ‘न्याय’, ‘समानता’, ‘स्वतन्त्रता’, एवं ‘बंधुत्व’ के सिद्धांतों का ही विरोध कर ‘जातिवाद एवं वर्णवाद’ का जबरदस्त समर्थन कर रहा है|

जातिवाद एवं वर्णवाद का एक दुसरा महत्वपूर्ण विरोधाभास यह है कि ‘जातिवाद एवं वर्णवाद’ के आधार पर जीवन के अन्य कई क्षेत्रों में “आरक्षण” का विरोध किया जाता है, और वही विरोध करने वाले लोग अपने जातीय श्रेष्टता के आधार पर सदियों पुरानी जन्म आधारित “आरक्षण” को बनाए भी रखना चाहते है| ध्यान रहें कि यहाँ ‘सदियों पुरानी’ लिखा गया है, क्योंकि यह साक्ष्यों के साथ प्रमाणित है कि “जातिवाद एवं वर्णवाद” भारत में एक हजार साल भी पुरानी नहीं है| जन्म यानि जाति के आधार पर ही धार्मिक एवं सांस्कृतिक कार्य करने का अघोषित आरक्षण, एक साधारण उदहारण है| और उदहारण आप भी जान रहे हैं, अत: दुहराना आवश्यक नहीं है| यह वर्चस्ववाद और जातिवाद का विचित्र गठजोड़ है|

“मूल निवासीवाद और विदेशीवाद” की अवधारणा को जीनीय अध्ययन (Genetic Study) का आधार भी दिया गया है| इसमें उटाह विश्वविद्यालय (संयुक्त राज्य अमेरिका) के प्रोफ़ेसर माइकल बामशाद सबसे प्रमुख हैं| यह रिपोर्ट वर्ष 2001 में एक वैज्ञानिक पत्रिका – “जीनोम रिसर्च" (Genome Research) में प्रकाशित हुआ था| इस रिपोर्ट को बिना पढ़े एवं बिना समझे ही लोगों ने इस रिपोर्ट को पूर्व प्रचलित मान्यता का वैज्ञानिक आधार मान लिया और इसे प्रचारित करने लगे| इस मूल रिपोर्ट का मैनें भी अवलोकन किया एवं मनन- मंथन भी किया| ऐसा स्पष्ट प्रतीत होता है कि मानों यह अनुसन्धान भारत में पूर्व प्रचलित मान्यताओं को समर्थन देने के लिए ही किया गया है| इतने बड़े वैज्ञानिक, और इतनी उच्च स्तरीय तकनीक के बावजूद इनका प्रतिवेदन (Report) इसलिए गलत हो गया, क्योंकि वे “भारतीय जाति व्यवस्था” को अच्छी तरह नहीं समझ सके| ये लोग “जीनीय पूल” (Genetic Pool), “जीनीय प्रवाह” (Genetic Flow), और “जीनीय बहाव” (Genetic Drift) को भारतीय जाति व्यवस्था के सन्दर्भ में नहीं देख सके, और इसीलिए इनका सारा प्रतिवेदन भ्रामक हो गया| यदि आप इसे नहीं समझ रहे हैं, तो इन तीनों अवधारणाओं को भारतीय जाति व्यवस्था के सन्दर्भ में समझिये और अपना भ्रम दूर कीजिए| अत: इस आधार पर वर्चस्ववाद स्थापित करने का विचार गलत एवं अवैज्ञानिक है|

यह “वर्चस्ववादी सिद्धांत” (Supermacist Theory) सभी समाजों एवं राष्ट्रों में कुछ न कुछ व्याप्त है, और इसीलिए हम इसकी अवधारणा, इसकी प्रक्रिया एवं इसके परिणाम का विश्लेषण करते हैं कि यह सब हमें क्यों समझना चाहिए| यह वर्चस्ववादी सिद्धांत अमानवीय, विकास विरोधी, और अवैज्ञानिक है, और इसका आधार बेतुका, अतार्किक, अवैज्ञानिक एवं हास्यास्पद है| यदि बात आधुनिक समय की करें, तो साम्राज्यवादियों ने अपने उपनिवेशों के लोगों को सभ्य एवं सुसंस्कृत बनाने का अभियान चलाया| इसका आधार उन्होंने ईश्वर द्वारा प्रदत्त अधिकार बताया और इसे ईश्वरीय इच्छा भी कहा| लेकिन इस आधार पर वर्चस्व बढाने एवं वर्चस्व जमाने के साम्राज्यवादी अभियान को जबरदस्त धक्का उस समय लगा, जब डार्विन के “उद्विकास का सिद्धांत” ने “ईश्वर” के ‘रचनाकार’ होने के अस्तित्व को ही नकार दिया| इनके इस सिद्धांत का आधुनिकता की स्थापना में बहुत ही मुख्य भूमिका रहा है| डार्विन के “उद्विकास का सिद्धांत” (Theory of Evolution) के अनुसार मानव सहित सभी जीवों की उत्पत्ति उद्विकास के कारण हुई है, और इसमें किसी भी ईश्वरीय रचनाकार की भूमिका नहीं है|

आज डार्विन के “उद्विकास का सिद्धांत” को सत्य मान कर पश्चिम के लगभग सभी देश एवं अन्य कुछ और देश विकसित हो गए हैं, परन्तु अन्य पुरानी संस्कृतियों के समाज अभी “ईश्वरीय कृतित्व के सिद्धांत” में चिपके हुए हैं| इसका एक और एक मात्र कारण उनके समाज में कुछ चतुर समुदाय के द्वारा “वर्चस्ववादी सिद्धांत” (Supermacist Theory) को और मजबूत करना है| इन्हें इसे स्थापित करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि यह पहले से ही स्थापित है, इसे सिर्फ उखाड़ने नहीं देना चाहते, क्योंकि इसमें उस समुदाय का आर्थिक हित आधारित होता है|

भारत में “वर्चस्ववादी सिद्धांत” का आधार जाति है, वर्ण है, धर्म है| इसे जातिवाद, वर्णवाद, पंथवाद या धर्मवाद, ब्राह्मणवाद, पिछड़ावाद, दलितवाद, मनुवाद, मूल निवासीवाद भी कहा जाता है| इन्ही तत्वों के ‘क्रमपरिवर्तन’ एवं ‘संयोजन’ (Permutations – Combinations) के विचित्र संयोग भी वर्चस्ववाद के कई प्रतिरूप (Pattern) बनाते हैं| पिछड़ावाद के संयोजन के एक उदहारण देखिए| भारत एक कृषि प्रधान देश है, जहां खेती और पशुपालन प्रमुख है| गाँव से दूर की खेती (अनाज का) हो या गाँव के निकट की खेती (सब्जी, वागवानी, नगदी का) करने वाली जातियों को पशुपालको की जातियों से संयोजित करने के लिए भगवान “कृष्ण” का सहारा लिया जा रहा है| भगवान कृष्ण के बड़े भाई “बलराम” (बल एवं राम का संयोजन) “हलधर” (हल धारित करने वाले या खेत जोतने वाले) के नाम एवं कार्य से लोकप्रिय हैं| कहने का तात्पर्य यह बताया जा रहा है कि ऐतिहासिक रूप में बड़े भाई खेती करते थे, और उनके ही छोटे भाई “वंशीधर” पशुओं को सम्हालते थे और इसी आधार पर उपरोक्त तीनों (खेतिहर, सब्जी उत्पादक एवं पशुपालक) एक ही परिवार के सदस्य रहे| इस “त्रिवेणी संघ” से मैं सहमत या असहमत होने नहीं कह रहा, मैंने सिर्फ एक उदाहरण दिया, जिसे कोई भी और बना सकता है| ऐसा संयोजन धर्म, वर्ण, क्षेत्र आदि के आधार पर भी परीक्षित किए जा रहे हैं| और सभी का उद्देश्य “वर्चस्ववाद” ही स्थापित करना है|

भारत में “जाति” की व्यवस्था यानि इसका तंत्र विश्व की एक अतिविशिष्ट, अनूठा एवं एक अलग व्यवस्था है, जिसके समतुल्य विश्व में कोई और व्यवस्था यानि तंत्र नहीं है| कुछ समाजशास्त्री “जाति” के अंग्रेजी अनुवाद “कास्ट (Caste)” में किए जाने को ही गलत मानते हैं एवं इसे एक ‘बौद्धिक षड़यंत्र’ का हिस्सा भी मानते हैं| वस्तुत: "कास्ट (Caste)” एक पुर्तगाली भाषा का शब्द है, जो जन्म आधारित होते हुए भी जन्म के बाद बदल सकता है, जबकि किसी की जाति पुरे जीवन में कभी बदल नहीं सकता| इसी कारण ये विद्वान् समाजशास्त्री “जाति” का अंग्रेजी “Jati” (जाति) ही रखते हैं, जैसे भारतीय साड़ी एवं धोती का अंग्रेजी भी “Sari (साडी)” और “Dhoti (धोती)” ही होता है| उपयुक्त शब्दों के बदल देने मात्र से उन शब्दों के भावार्थ बदल जाता है, और पश्चिम के विद्वान् इसकी गहरी अमानवीय साजिशों को सही ढंग से समझ नहीं पाते हैं एवं भ्रमित हो जाते हैं| इसी भ्रमित करने की मंशा को रेखांकित करने के लिए ही इसे “बौद्धिक षड़यंत्र” भी कहा जाता है, जो सर्वथा उपयुक्त भी है|

भारत का दुर्भाग्य यह है कि इस जातिवादी, वर्णवादी, धर्मवादी और क्षेत्रवादी मानसिकता वाले लोग  उपरोक्त इन्हीं  आधारों पर अपना वर्चस्ववाद स्थापित करना चाहते हैं, लेकिन “भारतवाद” या "मानववाद" का वर्चस्ववाद को कोई स्थापित नहीं चाहता|

निरंजन सिन्हा

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रविवार, 12 जून 2022

क्रान्ति कैसे होती है?

क्रान्ति कैसे होती है, इसे समझने से पहले यह समझना होगा कि क्रान्ति क्या है? एक छोटे अवधि में बहुत बड़ा सकारात्मक परिवर्तन ही “क्रान्ति” (Revolution) कहलाती है| इसके द्वारा पुरानी अवधारणा, पुरानी व्यवस्था, पुराना तंत्र, पुरानी सोच आदि सब कुछ एक झटके में बदल जाता है| सामान्यत: लोग क्रान्ति का अर्थ एक राजनीतिक क्रान्ति से लेते हैं, जिसमे अवैधानिक हिंसक तरीके से राजनीतिक सत्ता बदल दिया जाता है| यह एक क्रान्ति का बहुत ही क्षुद्र अर्थात बहुत संकीर्ण अर्थ हुआ| एक क्रान्ति जीवन के किसी भी क्षेत्र में, किसी प्रक्रिया (Process/ Method) में, किसी विचारधारा (Ideology) में, किसी उत्पादन (Production) व्यवस्था में, किसी तंत्र (System) में, किसी नजरिया (Attitude) में, किसी जीवन पद्धति (Life Style) आदि में हो सकता है| मतलब यह है कि किसी भी क्षेत्र में बहुत ही कम समय में कोई बहुत बड़ा बदलाव होना ही उस क्षेत्र में क्रान्ति है|

क्रान्ति कई कई क्षेत्रों में हो सकती है| इसके उदाहरणों में सांस्कृतिक क्रान्ति, सामाजिक क्रान्ति, वैज्ञानिक क्रान्ति, आत्म क्रान्ति (Self Revolution), कृषि क्रान्ति, दुग्ध  क्रान्ति, सफ़ेद क्रान्ति, नीली क्रान्ति, हरित क्रान्ति, शैक्षणिक क्रान्ति, राजनीतिक क्रान्ति, आदि आदि| कोई भी क्रान्ति हो, उसके मौलिक अवधारणा (Concept) में, या उसके संरचना (Structure) में यानि उसके मौलिक बनावट में, या उसके उत्पादन या वितरण या विनिमय पद्धति (Method) में, या उसके प्रक्रिया (Process) में, या उसके परिप्रेक्ष्य (Perspective) यानि सन्दर्भ (Reference) में बहुत बड़ा बदलाव (Paradigm Shift) कर ही क्रान्ति लायी जा सकती है| उपरोक्त सभी क्रांतियों में यही आधारभूत तत्व होते हैं| सामान्यत: पहले से ही स्थापित पैरेडाईम का विस्तार होता रहता है, कई दृष्टिकोणों से इसका विश्लेषण होता रहता है एवं इसका ही संश्लेषण कर कई विविध प्रतिरूप एवं संयोजन कर विविध उपयोग किया जाता रहता है|

प्रोफ़ेसर थामस सैम्युल कुहन ने 1962 में एक पुस्तक – The Structure of Scientific Revolution” लिखी| इसमें इन्होने पहली बार एक शब्द युग्म पैरेड़ाईम शिफ्ट (Paradigm Shift)” का प्रयोग किया, जो बाद में काफी प्रचलित हो गया| मूल रूप में ‘पैरेड़ाईम शिफ्ट’ में विचारों, अवधारणाओं, संरचनाओं, प्रक्रियाओं आदि में बहुत अलग एवं बहुत बड़ा बदलाव को इंगित करता है| इसके बिना कोई क्रान्ति हो ही नहीं जा सकती, सिर्फ विकास (Development) एवं वृद्धि (Growth) हो सकता है|

हालाँकि इनका सन्दर्भ वैज्ञानिक क्रान्ति के सन्दर्भ में था, लेकिन इसके मूल स्वभाव को यदि समझा जाय, तो यह पैरेड़ाईम शिफ्ट” सभी क्रांतियों का सबसे मूल (Prime), मौलिक (Basic), आधारभूत (Fundamental), आवश्यक (Compulsory) तत्व (Element) है, और इसके बिना किसी भी क्रान्ति की कल्पना संभव नहीं है, चाहे वह वैज्ञानिक क्रान्ति हो, सामाजिक क्रान्ति हो, सांस्कृतिक क्रान्ति हो, आर्थिक क्रान्ति हो, या राजनीतिक क्रान्ति ही हो| यह किसी भी क्रान्ति के लिए सबसे महत्वपूर्ण शर्त है| और इसीलिए किसी भी क्रान्ति का जब सावधान (Cautious), सूक्ष्म (Micro), तीक्षण (Sharp/ Penetrating), शुद्ध (Accurate) सरल (Simple) एवं साधारण (Ordinary) विश्लेषण (Analysis) की जायगी, तो यही पैरेड़ाईम शिफ्ट” तत्व सबके मूल (Prime) में रहेगा, और मौलिक (Basic), एवं आधारभूत (Fundamental) होगा| यदि ऐसे तत्व यानि “पैरेड़ाईम शिफ्ट” (Paradigm Shift) किसी प्रक्रिया (Process/ Method), किसी विचारधारा (Ideology), किसी उत्पादन (Production), किसी तंत्र (System), किसी नजरिया (Attitude), किसी जीवन पद्धति (Life Style) में नहीं है, तो वह क्रान्ति नहीं है; महज एक नाटक है, नौटंकी है, झूठ है, ठगी है, धोखा है, और विश्वासघात है|

हम जरा ठहर कर “सामान्यीकरण का सिद्धांत” (Theory of Generalization) का समझते हैं, जो बहुत ही महत्वपूर्ण है, और इसीलिए आवश्यक भी है| वैसे सामान्यीकरण के सिद्धांत के सामान्य लाभ लिए जाते हैं, परन्तु इसका एक नकारात्मक एवं दोषपूर्ण प्रयोग भी किया जाता है| इसीलिए “सामान्यीकरण का सिद्धांत” एक भयानक (Horrible/ Terrible), मूर्खतापूर्ण (Idiotic/ Silly), विध्वंसकारी (Destructive) एवं खतरनाक (Hazardous) सिद्धांत है, जो समाज का, जीवन का, राष्ट्र का, एवं मानवता का समय, संसाधन, ऊर्जा, धन, ज्ञान, उत्साह (Enthusiasm/ उमंग) एवं जवानी (Springtime of Life) का नाश भी करता है| इसे थोडा और विस्तार से समझते हैं| कोई भी क्रान्तिकारी सफल व्यक्ति अवश्य ही अपने विचारों में, अवधारणाओं में, प्रक्रियाओं में, परिप्रेक्षयों में पैरेड़ाईम शिफ्ट किया है, और इसीलिए वह व्यक्ति अपने चिंतन में तार्किक होगा, अपने उपागम (Approach) में विश्लेषणात्मक होगा, निर्णय में विवेकशील होगा, और आधारभूत रूप में वैज्ञानिक मानसिकता का होगा| ऐसे व्यक्ति भी ऊँचे पद एवं प्रतिष्ठा के होते हैं| परन्तु कुछ परम्परागत यानी पिछड़े हुए समाजो एवं राष्ट्रों में, जहां रट्टा योग्यता (Rote Qualification) को ज्यादा मान्यता दिया जाता है, या उसी को ही सिर्फ मान्यता दिया जाता है, वहां पद और प्रतिष्ठा ज्यादा इन्हीं रट्टूओं को दे दिया जाता है| ऐसे समाज या राष्ट्र में “सामान्यीकरण के सिद्धांत” के अनुसार इन्हें यानि इन रट्टूओं को ही या इन रट्टूओं को भी ‘तार्किक’, ‘विश्लेषण क्षमतावान’. ‘विवेकशील’. एवं ‘वैज्ञानिक मानसिकता’ का मान लिया जाता है, जबकि इन रट्टू लोगों में कोई तार्किकता नहीं होती, कोई विश्लेषण क्षमता नहीं होता, विवेकशीलता भी शून्य होती है, और वैज्ञानिक मानसिकता के अभाव में ये पाखंडी, रुढ़िवादी एवं अन्धविश्वासी होते हैं|

सन्दर्भवश यह बताते चले कि ‘आत्म क्रान्ति’ (Self Revolution) किसी व्यक्ति के स्वयं में बहुत बड़ा बदलाव करने के सम्बन्ध में है| इसके लिए किसी को भी अपने नजरिया या मानसिकता में एक पैरेड़ाईम शिफ्ट करना होता है| इसे “मानसिक क्रान्ति” भी कह सकते है, परन्तु यह आत्म क्रान्ति का पूर्ण विकल्प नहीं हो सकता है| सामान्यत: लोग अपनी समस्याओं, उलझनों, एवं परेशानियों का कारण अपने से बाहरी दुनिया में देखते है, समझते हैं और बाहरी दुनिया में ही समाधान भी खोजते हैं| लेकिन मानसिकता में एक पैरेड़ाईम शिफ्ट में यह करना होता है कि हमें बाहरी दुनिया को देखने, समझने एवं उसमे समाधान खोजने की अपेक्षा हमें अपने अन्दर देखना, समझना एवं समाधान खोजना होता है| इसी को “विपस्सना” भी कहते हैं| अत: सभी समस्याओं का समाधान अपने स्वयं के अन्दर मिल जाता है| हम अपने को बदलकर यानि सामान्य बुद्धिमत्ता के अलावे भावनात्मक बुद्धिमत्ता, सामाजिक बुद्धिमत्ता, एवं बौद्धिक बुद्धिमता लाकर ही विश्व को भी बदल सकते है| यह सभी क्रांतियों का मूल (Prime) तत्व हैं, इस पर ज़रा ठहर के मनन करना होगा|

‘सामान्यीकरण के सिद्धांत’ के अनुसार ये अपनी बातों में तो क्रान्तिकारी दिख तो सकते हैं, परन्तु ये काफी घिसे पिटे हुए सोच एवं समझ वाले लोग होते हैं| ये अपने को क्रान्तिकारी समझते भी हैं, परन्तु इनकी सोच, मानसिकता, अवधारणा – सभी शताब्दियों पुरानी होती है| घिसे पिटे सोच, मानसिकता, अवधारणा पर चलने वाले समाज और राष्ट्र की एक साधारण पहचान यह है कि इन समाजों या राष्ट्रों में सामान्यत: रहने वाले लोगों को “नोबल पुरस्कार” नहीं ही मिलता है, यदि मिलता भी है तो वह अपवाद हो सकता है, या राष्ट्रीय समग्र आबादी के सन्दर्भ में नगण्य हो सकता है| लेकिन इसका यह अर्थ यह नहीं है कि यह पुरस्कार विवादित नहीं है| “वैश्विक सामान्यीकरण के सिद्धांत” (Theory of Global Generalization) के अनुसार यानि वैश्विक स्तर के पद एवं प्रतिष्ठा का सामान्यीकरण क्षेत्रीय स्तर के संस्कृति या सामाजिक शर्तों के अनुरूप कर दिया दिया जाता है, तब इन रट्टूओं को भी वैश्विक स्तर के महान लोगों की श्रेणी में डाल दिया जाता है| यानि अपने क्षेत्रीय यानि स्थानीय प्रफेस्सरों को भी हार्वर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसरों के समतुल्य तार्किक, विवेकशील एवं ज्ञानवान मान लेते हैं, जबकि वास्तव में ऐसा नहीं है| ऐसा नहीं है कि इन ‘सामान्यीकरण के सिद्धांतों’ के झांसे में सिर्फ अनपढ़ एवं गवार लोग ही आते हैं, अपितु पद एवं प्रतिष्ठा वाले तथाकथित बड़े लोग भी खूब रहते हैं| इसमें एक स्पष्टीकरण यह है कि इसमें उस राष्ट्र के बड़े प्रशासनिक पदाधिकारी, विश्वविद्यालयों के प्रोफेसरों, कंपनियों के संचालक एवं निदेशक, सहित समस्त समाज के अन्य अधीनस्थ भी शामिल किए जा सकते हैं| इसका यह अर्थ कदापि नहीं निकाला जाना चाहिए कि इसके अपवाद सामान्य नहीं होते अर्थात इसके अपवाद भी खूब होते हैं| यह एक अति सामान्य सामाजिक विश्लेषण है, जो विश्व के सभी पिछड़े हुए समाजो के लिए सही है|  

अब एक नजर सामाजिक क्रान्ति करने चले शूरवीरों का भी कर लिया जाय| इसका एक छोटा विश्लेषण सामान्य तर्क एवं विवेक पर कर लिया जाय| इन तथाकथित क्रान्तिकारी शूरवीरों में विश्वविद्यालयों के प्रोफेसरों, एवं समाज के बड़े बौद्धिक नेताओं की बेशुमार संख्या है, जो किसी विशेष समुदाय को गाली देते है, पुरे मनोयोग से चीखते- चिल्लाते हुए तथाकथित बासी (Stale/ Musty) ज्ञान परोसते हैं, सामाजिक एवं राष्ट्रीय भावनाओं में श्रोताओं को बहा ले जाते हैं| 'बासी' इसलिए कि दशकों सदियों पुराने अवधारणाओं को नए शोधों, नई वैज्ञानिकता, और नए सन्दर्भ में परिमार्जित नहीं किया जाता है| ये सामाजिक क्रान्ति के अधिकतर नाटकबाज और नौटंकीबाज नेता होते हैं, लेकिन ऐसा क्यों कहा जा रहा है? ऐसा इसलिए कि इनकी तथाकथित क्रान्ति के मौलिक अवधारणा एवं विचार अभी भी सौ साल से अधिक पुराना है| यदि ये अवधारणा और विचार पर्याप्त क्रान्तिकारी होते, तो यह अब तक क्रान्तिकारी परिवर्तन कर दिया होता| इसमें नए शोधों को कोई स्थान नहीं है, अवधारणा और विचार में कोई पैरेड़ाईम शिफ्ट नहीं है, और समाज के मनोविज्ञान यानि मानवीय मनोवैज्ञानिक समझ को कोई स्थान नहीं है| इन सभी में कोई मौलिक बदलाव किए बिना क्रान्ति की उम्मीद करना बेतुका है|

इसी कारण ये चीखने चिल्लाने वाले नेता व्यवस्था यानि तंत्र (System) को बदल नहीं पाते हैं, सिर्फ तंत्र यानि व्यवस्था के व्यक्ति को बदल पाते है और उसी तंत्र का एक हिस्सा बन जाते हैं| तंत्र या व्यवस्था वही रहता है, सिर्फ चेहरे बदल जाते हैं| जब इनका सोच और अवधारणा वही शताब्दियों पुरानी, बेकार और बासी होगी, निश्चित है कि कोई क्रान्ति नहीं होगी| ये सिर्फ क्रान्ति का अहसास दिलाते हैं, और सामान्य जनता इसी आस में अपना जीवन पार कर लेता है|

इसलिए ये बहके हुए, भटके हुए, बिके हुए या भटकाए हुए क्रान्तिकारी लोग है, तथाकथित क्रान्ति योद्धा है, जिनका तथाकथित क्रान्ति महज एक नाटक है, नौटंकी है, झूठ है, ठगी है, धोखा है, और समाज के साथ विश्वासघात है| यह सब क्रान्ति के नाम पर समाज और राष्ट्र के लिए एक भयानक, मूर्खतापूर्ण, विध्वंसकारी, एवं खतरनाक कदम है, जो समाज का, जीवन का, राष्ट्र का, एवं मानवता का समय, संसाधन, ऊर्जा, धन, ज्ञान, उत्साह एवं जवानी (Springtime of Life) का नाश करता है|

आप भी इस पर सम्यक विचार करें|

निरंजन सिन्हा

www,niranjansinha,com

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सत्ता ‘वैज्ञानिक भौतिकवाद’ से क्यों डरता है?

‘ सत्ता ’ में शामिल लोग ही असली ‘ शासक ’ ‘ वर्ग ’ कहलाते हैं , होते हैं।   तो सबसे प्रमुख प्रश्न यह है कि   ‘ सत्ता ’   क्या है और   ‘ शासक ...