शुक्रवार, 29 जनवरी 2021

बुद्धिजीवियों की सत्यनिष्ठा पर प्रश्न

मैं बुद्धिजीवियों की निष्ठा पर सवाल उठाना चाहता हूं। हमारी व्यवस्था में सुधार की आवश्यकता है क्योंकि इतनी बड़ी संख्या बल के बावजूद हम आठ - दस करोड़ की संख्या बल वाले देश से तुलना करने का प्रयास कर खुशफहमी पालते हैं। 

हमें कुछ सामंतवादी सोच के कुछ लोगों को छोड़ किसी भी भारतीय नागरिक या समूह की भारत के प्रति सत्यनिष्ठा और शुभकामनाएं पर कोई संदेह नहीं है और करना भी नहीं चाहिए। हां, सोच और लक्ष्य प्राप्ति के प्रकार एवं तरीके में अंतर पड़ सकता है। हां, यदि सोच और लक्ष्य प्राप्ति के प्रकार एवं तरीके में अंतर पड़ सकता है, तो हम बुद्धिजीवियों की भी जबावदेही बनती है; हमलोग क्या कर रहे हैं और कैसी सोच रखते हैं?

आज के बुद्धिजीवी व्यवस्था के त्रुटियों पर विरोध करने में अपनी बुद्धिमत्ता का महत्तम उपयोग करते हैं और करना भी चाहिए। पर इसके कार्यान्वयन के समय अपनी निष्ठा बदल देते हैं। कार्यान्वयन के समय यानि मतदान के दिन हम व्यवस्था में गुणवत्ता का आधार जाति, समुदाय और धर्म को बनाते हैं एवं उसे ही सही बताते हैं। ऐसे तथाकथित बुद्धिजीवियों की संख्या बहुत है। ऐसे बुद्धजीवी चिल्लाते भी खूब है, फिर भी अपना मत यानि अपना वोट यथास्थिति को ही बनाए रखने में मदद देते हैं। व्यवस्था परिवर्तन के लिए व्यवस्थापक को समझाना भी पड़ता है और कभी कभी बदलना भी पड़ता है। बदलने के लिए मतदान के दिन सजग और सचेत रहना पड़ता है।

हमारे अधिकतर बुद्धजीवी विरोध और बदलाव में सूक्ष्म अन्तर नहीं करते। यही समस्या का जड़ है। व्यवस्था की बुराइयों का विरोध जरुरी है और ऐसे विरोधियों का संख्या भी अधिक है, पर ये विरोध  जाति, समुदाय और धर्म के आधार पर बांट दिए जाते हैं। ये विरोध खंडित हो नहीं जाता, बल्कि उनके नेताओं द्वारा साजिश के अन्तर्गत खंडित करवा दिए जाते हैं। आम बुद्धिजीवी अपनी जाति, समुदाय और धर्म में ही अपनी समझदारी देखते हैं और बिके हुए नेताओं का स्वार्थ नहीं समझ पाते।

यदि व्यवस्था में सुधार आवश्यक है तो बदलाव के लिए एकजुट होना होता है और वह दिन मतदान का दिन होता है। आपका मत (वोट) या तो व्यवस्था के पक्ष में पड़े या उस व्यवस्था को बदलने वाला के पक्ष में; तीसरे पक्ष को वोट देना आपकी सत्यनिष्ठा पर प्रश्न चिन्ह लगा देता है। ऐसे में आपका विरोध एक बहुत बड़ा नाटक हो जाता है जिसमें आप ठगे जाते हैं और आपके नेता आनंदित होते हैं। उन्हें उनके प्रयास का लाभांश मिलता है जिसे आप समझना नहीं चाहते या समझकर आप भी लाभांश की उम्मीदों पर आस लगाएं रहते हैं। यही बुद्धिजीवियों की सत्यनिष्ठा, ईमानदारी और राष्ट्रभक्ति पर सवाल खड़े करते हैं। विचार कीजियेगा कि मेरा कथन कितना गलत, कितना सही है।

आप कम से कम विरोध करने का नाटक बंद कर दीजिए। सिर्फ चिल्लाना और वोट को खंडित कर देना कहां की राष्ट्र भक्ति है? इतिहास इसे भी लिखेगा और आप किस वर्ग में शामिल किए जाएंगे; विचार कीजियेगा।

निरंजन सिन्हा

स्वैच्छिक सेवानिवृत्त राज्य कर संयुक्त आयुक्त,

 बिहार, पटना।

व्यवस्था विश्लेषक एवं चिन्तक।

गुरुवार, 7 जनवरी 2021

आधुनिक भारत के निर्माण में इतिहास की भूमिका

(Role of History in making Modern India)

आज भारत को आधुनिकसशक्तविकसितसम्पन्नऔर खुशहाल राष्ट्र बनना है। भारत 32 लाख 87 हजार वर्ग किलोमीटर में फैला विश्व का  सातवाँ बडा देश है जिसकी आबादी 135 करोड के पास प्रक्षेपित है जो विश्व की सबसे बडी आबादी वाले चीन के लगभग बराबर है। भारत का स्थान वैश्विक सूचि के  मानव विकास सूचकांक (HDI-Human Development Index) पर अंक 0.640 के साथ  130वें स्थान पर है। भारत 2.6 ट्रिलियन डालर की अर्थव्यवस्था के साथ विश्व में सातवें स्थान पर है और वर्ष 2024 तक 5.0 ट्रिलियन डालर की अर्थव्यवस्था तक पँहुचने का लक्ष्य रखा गया है। वर्त्तमान में भारत की 2.6 ट्रिलियन डालर की अर्थव्यवस्था की तुलना में चीन की 13.5 ट्रिलियन डालर की अर्थव्यवस्थाअमेरिका की 23.0 ट्रिलियन डालर की अर्थव्यवस्थाजर्मनी और जापान की 5.0 ट्रिलियन डालर की अर्थव्यवस्था के लगभग हैं। एक अनुमान के अनुसार प्रतिव्यक्ति आय जहाँ भारत में 1.40 लाख रुपए हैवहीं चीन में 6.90 लाख रुपएअमेरिका में 40.90 लाख रुपएऔर ब्राजील में 7.10 लाख रुपए के पास है। प्रतिव्यक्ति सकल घरेलू उत्पादन में भारत का विश्व में स्थान 140वाँ है।  आधुनिक भारत का अर्थ हुआ वैज्ञानिक मानसिकता का एक विकसित अवस्था का राष्ट्र, जो न्याय, स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व पर आधारित हो।    

भारत कभी विश्व गुरु रहा। भारत में इतना बडा जनशक्तिविशाल भौगोलिक क्षेत्रउपजाऊ भूमिपर्याप्त वर्षापातउत्पादन क्षेत्र,  उष्ण कटिबंधीय जलवायुसदानीरा नदियाँढंग का समुचित समुद्री किनारागौरवमयी ऐतिहासिक परम्परामेहनती एवं बुद्धिमान लोगविविधताओं से परिपूर्ण संसाधनइत्यादि इत्यादि और अनेक विशिष्टताएँ हैं और इसके बाद भी विकास के विभिन्न आयामों में भारत अपेक्षाकृत बहुत पीछे हैस्पष्ट है कि विकास के मूल को समझना आवश्यक है  विकास के लिए समुचित मानव संसाधन की आवश्यकता है। एक सामान्य मानव को समुचित मानव संसाधन में रुपान्तरित करने लिए उसकी मानसिकतामनोवृति और अभिवृति में सकारात्मक गुणात्मक परिवर्त्तन करने होते हैं। यह रुपान्तरण संस्कृति से निर्धारित होता है जो उसके इतिहास बोध से आता है। और यही बताने का प्रयास यहाँ किया गया है जो अभी तक उपेक्षित रहा है। भारत को आधुनिक बनने के लिए भारत को एक सशक्तविकसितसमृद्ध राष्ट्र बनना होगा। इसके लिए हमें संक्षेप में राष्ट्रविकाससंसाधनसंस्कृतिइतिहास को समझना होगा।

  राष्ट्र क्या है?

राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया को समझने से पहले राष्ट्र की अवधारणा को समझना आवश्यक  हैं। राष्ट्र की अवधारणा सम्यक ढ़ग से समझने के लिए एक ही व्यक्ति ई० एचकार की परिभाषा  काफी है जिसे प्रोअक्षय रमनलाल (आर0) देसाई ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘‘भारतीय राष्ट्रवाद की समाजिक पृष्टभूमि’’ में उल्लेख किया हैं। एक राष्ट्र लोगो का एक स्थिर समुदाय है जिनका निर्माण एक सर्वमान्य संस्कृति में समाहित सर्वमान्य भाषा , क्षेत्रइतिहासनृवंशता या मनोवैज्ञानिक बनाबट से हुआ है। र्ईएचकार ने राष्ट्र के अपने परिभाषा  में राष्ट्र को कुछ गुणों के आधार पर एक गैर -राष्ट्र समुदाय से अलग किया हैजिसमें सबसे प्रमुख एक होने की भावना हैजो राष्ट्र की मानसिक तस्वीर से जुड़ी हो। जोसेफ स्टालिन ने ‘मार्क्सवाद एवं राष्ट्रीय प्रश्न में बताते हैं कि राष्ट्र एक जाति या प्रजाति का समूह नहीं है अपितु लोगों का ऐतिहासिक समूह हैजो स्थायी होता है। यह एक ऐतिहासिक प्रक्रिया का परिणाम है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी एक साथ रहने का एकात्मक प्रभाव हैजिसका आधार  एक सामान्य भाषाभौगोलिक क्षेत्रआर्थिक जीवन एवं मनोवैज्ञानिक बनाबट के द्वारा निर्मित एक सामान्य संस्कृति है। अतयहाँ भी स्पष्ट  है कि राष्ट्र के निर्माण में एक सामान्य संस्कृति के माध्यम से इतिहास की ही भूमिका रहती है।

            विकास क्या होता है?

विकास क्या होता है और इसमें संस्कृति के माध्यम इतिहास कैसे आता हैविकास किसी भी व्यवस्थातंत्रप्रणाली आदि को अधिक विस्तृतसुदृढबेहतर बनाने की प्रक्रिया या अवस्था है। यह किसी भौतिकआर्थिकसामाजिकपर्यावरणीय या जनांनकीय क्षेत्र में वृद्धिप्रगतिएवं सकारात्मक परिवर्त्तन है। विकास का उद्देश्य उस देश या क्षेत्र में पर्यावरण पर विपरीत प्रभाव डाले बिना आवासित जनसंख्या का जीवन स्तर एवं गुणवत्ता में सुधारउनकी आय में विस्तार और रोजगार की सुविधाएं उपलब्ध कराना शामिल है। विकास अवलोकन योग्य एवं उपयोगी होभले ही उसका तत्काल नहीं पता चले परन्तु परिवर्त्तन गुणात्मक एवं स्थायी होजो सदैव सकारात्मक परिवर्त्तन का समर्थन करता रहे। समुचित न्याय और क्षतिपूर्ति के सिद्धांत के साथ ही समुचित विकास हो सकता हैइसके बिना विकास विकलांग होता है अर्थात अपनी क्षमता से अति न्यून उत्पादक होता है।

 विद्वान अमर्त्य सेन ने विकास की अवधारणा में सक्षमता उपगमन (Capability approach) रखा। इस अवधारणा में लोगों को कार्य की स्वतंत्रता के साथ उनके उच्चतर अवस्था का दक्षता प्राप्त कर लेने की सांस्कृतिक अवस्था शामिल है। यह तकनीक या उपगमन (approach) विकास के मूल्यांकन का आधार बना जिसके द्वारा मानव विकास सूचकांक (HDI- Human Development Index) निर्धारित किया जाता है। इसे (HDI) संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP – UN Development Program) ने 1990 में विकसित किया। विकास का पक्ष मात्र आर्थिक  नहीं हैअपितु 'विकासबहु आयामी प्रक्रिया है जिसके अन्तर्गत तमाम आर्थिकसांस्कृतिक एवं सामाजिक व्यवस्था का पुनर्गठन एवं पुनर्निधारण (reorganisation and reorientation) होना है। विकासात्मक प्रक्रिया में मानवीय जीवन मे गुणात्मक सुधार लाना प्राथमिकता रहती है। 

विश्व बैंक ने विकास को सरल तरीके से परिभाषित  किया है जिसमें कहा गया कि विकास में ऐसा सामाजिकसांस्कृतिक परिवर्त्तन  लाना है,  जो लोगों को उनकी मानवीय क्षमताओं को प्राप्त करने की व्यवस्था करती है। यह सामाजिकसांस्कृतिक संरचनात्मक रुपान्तरण की प्रक्रिया है। इसे थामस ने ऐतिहासिक परिवर्त्तन की प्रक्रिया कहा है।

  विकास (Development) एवं संवृद्धि (Growth) दो अलग अवधारणा है। संवृद्धि एकदेशीय वर्धन (unidirectional growth) है जबकि विकास बहुआयामी वर्धन (multi dimensional growth) है। संवृद्धि तुलनात्मक रुप में लघु अवधारणा है जबकि विकास संवृद्धि के तुलना में वृहत अवधारणा है। संवृद्धि किसी अर्थव्यवस्था में होने वाली वास्तविक आय में वृद्धि से है। सामान्यतइसका निर्धारण सकल घरेलू उत्पाद एवं प्रति व्यक्ति आय से होता है। विकास  आर्थिक संवृद्धि से व्यापक अवधारणा है। विकास  किसी देश के सामाजिकसांस्कृतिकआर्थिक व्यवस्था में गुणात्मक एवं मात्रात्मक परिवर्त्तन से संबंघित होता है। यह अवस्था शिक्षा , स्वास्थ्यरोजगारन्यायसमानतास्वतंत्रताभातृत्व एवं शान्ति से आता है। बिना विकास के भी संवृद्धि होता हैजैसे प्राकृतिक तेलों  के उत्पादन से अरब देशो में आर्थिक संवृद्धि  गयी है जबकि विकास के अनुकूल आधारभूत संरचनाओं एवं माहौल का निर्माण नहीं हुआ है। ऐसे हीबिना आर्थिक संवृद्धि के भी विकास होता है जैसे वियतनाम एवं बांगला देश में आधारभूत संरचनाओं के निर्माण एवं विकास के माहौल के कारण विकास हो रहा हैपर आर्थिक संवृद्धि पूर्णतया उभरा नहीं है, यानि यह दृष्टिगोचर नहीं है। संवृद्धि उत्पादन एवं आय में बढोतरी से संबंघित हैजबकि विकास समाज के सर्वागींण बढोतरी एवं सुविधाओं से है। संवृद्धि में किसी विशेष इकाई का विकास होता हैकिसी खास इकाई में बढोतरी होता हैजबकि विकास समेकित स्वरुप में होता है।

सबसे महत्वपूर्ण संसाधनमानव

 संसाधन एक प्राकृतिक विशेषता या प्रक्रिया हैजो मानव जीवन के गुणवत्ता में वृद्धि करता है। संसाधन वह स्रोत या आपूर्ति है जिससे कोर्ई लाभ उत्पादित हो और जिसकी कोर्ई उपयोगिता हो। संसाधनों का वर्गीकरण वास्तविक एवं संभाव्य संसाधन के रुप में भी होता हैजो विकास एवं उपयोगिता के आधार पर होता है। कोर्ई भी वस्तु समय एवं तकनीकी विकास के साथ संसाधन बन सकता है। ज्ञान और बुद्धिमता अपने आप में ही संसाधन है। इस तरह मानव संसाधन को उनके योग्यताकौशलउर्जाबुद्धिमतादक्षताएवं ज्ञान के आधार पर परिभाषित  किया जा सकता है। हम कह सकते हैं कि संसाधन एक व्यक्तिगत बुद्धिमता है या बाहरी आपूर्ति है जिसका उपयोग विकास में सहायता या समर्थन के लिए किया जाता है। हम यह भी कह सकते हैं कि संसाधन प्रत्यक्षतया अप्रत्यक्षतधनसेवा या राहत का निर्माण करता है।

 स्पष्ट  है कि मानव ही सबसे बडा संसाधन हैजो किसी भी चीज को संसाधन में बदल देता है। इसी कारण परम्परागत संसाधनों के अभाव वाला देश भी अपने संस्कृति के कारण उनके मानवीय संसाधन अपने देशों  को अग्रणी देश  बनाया हुआ हैजिसमें जापानसिंगापुरदक्षिण कोरिया सहित कई देश  सूची में शामिल है। मानव का संस्कार अर्थात् संस्कृति ही प्रमुख हैक्योंकि इसमें उसकी बुद्धिमताज्ञानचरित्रदेश भक्तिमानवीयता आदि शामिल है। संस्कृति का निर्माण इतिहास बोध से होता हैजो इतिहास लेखन से आता है और यह मानसिकता निर्माण करता है।

इस मानसिकता में अपेक्षित सुधार किए बिना कोर्ई आर्थिक सम्बलसमर्थन एवं आधारभूत ढाँचा काम नही करता हैक्योंकि विकास करना भी मानव को है, विकास का साधन भी मानव ही है और विकास पाना भी मानव को है। यदि पात्र एवं कार्यकारी तंत्र ही अयोग्य हैंतो सब चीज बेकार है और किसी भी समाज के लिए यही सबसे दुर्भाग्यपूर्ण है। भारत की स्थिति यही हैजिसे समझना आवश्यक है।

संस्कृति क्या है?

संस्कृति किसी जनसमूह की किसी खास समय पर उनके जीवन जीने का तरीका है और इसमें उस जनसमूह की सामान्य परम्परा एवं विश्वास समाहित है।” किसी समाज या किसी व्यक्ति की संस्कृति उनके विचारपरम्परारीति रिवाजसामाजिक व्यवहार का समेकन है। “किसी देश की संस्कृति उसकी सम्पूर्ण मानसिक निधि को सूचित करती है। यह किसी समाज में गहराई तक व्याप्त गुणों की समग्रता हैजो उस समाज के सोचनेविचारनेकार्य करने से बना है।

किसी मानव या समाज की संस्कृति विभिन्न स्थानों पर रहते हुए  विशेष प्रकार के सामाजिक वातावरणसंस्थाओंप्रथाओंव्यवस्थाओंधर्मदर्शनलिपिभाषा  तथा कलाओं के द्वारा अभिव्यक्त होता है। इससे उसके प्रगतिशीलता के स्तर एवं संभावना का पता लगता है। मानव एक प्रगतिशील प्राणी होने के कारण अपनी बुद्धि के प्रयोग से अपने चारों ओर की प्राकृतिक पारिस्थितिकी (ecology) को सुधारता रहता है और उन्नत  करता रहता है। ऐसी प्रत्येक जीवन पद्धतिरीति - रिवाजरहन - सहनआचार - विचारअनुसंधानएवं आविष्कार से अपना जीवन स्तर सुधारता रहता है और सभ्य बनता रहता है। सभ्यता संस्कृति का अंग है। सभ्यता (civilisation) से मानव के भौतिक क्षेत्र की प्रगति सूचित होती हैजबकि संस्कृति (culture) सभ्यता को भी अपने में समेटे मानसिक आध्यात्मिक स्तर की प्रगति को बताती है।

संस्कृति जीवन जीने की विधि है। संस्कृति मानव जनित एक मानसिक पर्यावरण है, जिसमें सभी अभौतिक उत्पाद एक पीढी से दूसरी पीढी को प्रदान करते हैं। संस्कृति किसी समाज के वे सूक्ष्म संस्कार हैंजिनके माध्यम से लोग परस्पर सम्प्रेषण करते हैंविचार करते हैंऔर जीवन के विषय में अपनी अभिवृत्तियों और ज्ञान को दिशा देते हैं। इसकी अभिव्यक्ति इनके साहित्यप्रगतिस्तरव्यवहारकार्यआनन्द आदि के तरीकों से दृश्य  होती है। संस्कृति का संबंध व्यक्ति और समाज में निहित संस्कारों से है और उसका निवास उसके मानस में होता है। हम कह सकते हैं कि संस्कृति मानवीय समाजों में पाए जाने वाले सामाजिक व्यवहार और सामाजिक प्रतिमान है। यह पीढी दर पीढी सीखी जाती है। यह सामाजिक तंत्र चलाने वाला महत्वपूर्ण साफ्टवेयर है।

इतिहास क्या है?

सामान्यतइतिहास पुरातन का लिखित ब्यौरा हैजिसका अध्ययन किसी संस्कृति को समझने के लिए किया जाता है। सामाजिक रुपांतरण का क्रमबद्ध ब्यौरा को इतिहास कहते हैं। राष्ट्रीय एकता और विकास के लिए विचारधारात्मक सांस्कृतिक ढाँचा इतिहास ही तैयार करता है, वशर्ते इतिहास सम्यक और वैज्ञानिक हो। भारत जैसे विशाल देश  जिसमें कई यूरोपीय देशों की आबादी समाहित हैअपने विविध नस्लधर्मपंथभाषा , क्षेत्र आदि में विभक्त हैको एक सशक्तविकसितसम्पन्नएवं खुशहाल राष्ट्र में रुपान्तरित करने की चुनौती है। कुछ लोग धार्मिक जागरण एवं एकता के नाम पर धार्मिक सामंतवाद को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का नाम देते हैं भारत में राष्ट्रवाद का सृजन एवं विकास  सम्यक और वैज्ञानिक इतिहास से ही होगा। जार्ज आरवेल ने कहा थाकिसी समाज को नष्ट  करने का सबसे कारगर तरीका हैउसके इतिहास बोध को दूषित और खारिज कर दिया जाय। यही चीज सामन्तवाद के काल में सामंतवाद समर्थक शक्तियों ने किया। इन सामंती शक्तियों ने इतिहास पुनर्लेखन तो किया हीपुरातन इतिहास को नष्ट करने के लिए तत्कालीन अध्ययन केन्द्रों एवं पुस्तकालयों को नष्ट  कर डाला (और नाम कुछ विदेशी आक्रान्ताओं पर लगा डाला), शिक्षा की माध्यम भाषा को सर्वजनीन नहीं रहने दियाऔर शिक्षा को सर्वजनीन से एक वर्ग विशेष तक ही सीमित कर डाला।

संस्कृति निर्माण में इतिहास की भूमिका समझना होगा राजनीतिक व्यवस्था समाज को कुछ दशकों या शतकों तक ही प्रभावित करती हैपरन्तु सांस्कृतिक व्यवस्था समाज को शतकों और सहस्त्राब्दियों तक संचालित करती रहती है इसलिए संस्कृति के मूल स्वरुप को पाने के लिए या संस्कृति के रचनात्मक एवं विकासात्मक नवनिर्माण के लिए इतिहास की व्याख्या तार्किक एवं वैज्ञानिक आधार पर करनी होगी। जार्ज आरवेल के शब्दों में ‘‘जो इतिहास को नियंत्रण में रखता हैवह भविष्य  को नियंत्रण में रखता है।’’  इसिलिए कुछ यथास्थितवादी  शक्तियाँ सामंतवादी काल में बनाए गए भ्रम को यथास्थिति में बनाए रखना एवं उसे और ज्यादा मजबूत करना चाहते हैताकि उनका सांस्कृतिक वर्चस्व बना रहे। वे मिथकों और गल्पों को आख्यानों के आधार पर काल्पनिक इतिहास को सिकन्दर और तथागत बुद्ध से भी पहले तक ले जाते हैं यानि सभ्यता के प्रारम्भ के साथ जोड़ते हैं।

कोर्ई भी समाज या राष्ट्र बाह्य खतरा तो आसानी से देख लेता हैपरन्तु आन्तरिक खतरा अत्यन्त गंभीर होता है। भारत  हजारोंहजार साल के ऐतिहासिक विकास के क्रम में अपनी भौगोलिक विस्तार एवं विविधताओं के साथ बहुभाषायीबहुपंथीय और रीतिरिवाज को ग्रहण कर लिया हैउसमें आपसी सामंजस्य बैठाने का प्रगतिवादी रास्ता निर्धारित करना है। विश्व की कई  देशों  की संस्कृतियाँ इस सामंजस्य को बैठाने की उदाहरण बने हुए है जैसे संयुक्त राज्य अमेरिकाचीनयूरोपीय संघ आदि। यही रास्ता भारत को सशक्त राष्ट्र बनाएगा और सम्यक विकास का आधार देगा।इ

इतिहास लेखन अब विवरणामक पद्धति से समालोचनात्मक एवं निष्कर्षात्मक पद्धति में बदल चुका है। पहले लोग प्राचीन भारत का इतिहास कथा कहानियों के आधार पर ही लिख डालते थे और जन मानस को मान्य भी हो जाता था। अब ऐतिहासिक तथ्यों एवं साक्ष्यों का विश्लेषण  तर्कशास्त्रया विज्ञान के कार्य - कारण (cause and effectके आधार पर किया जाना सर्वमान्य आधुनिक एवं वैज्ञानिक विधि है। हमारी मानसिकता एवं हमारा नजरिया हमारी संस्कृति से निर्धारित एवं प्रभावित होता है। किसी भी संस्कृति का निर्माण  एवं उत्पत्ति वहाँ के लोगों के इतिहास बोध से होता है।

भारत के प्राचीन इतिहास के अध्ययन एवं लेखन में उपलब्ध साहित्यिक साधन प्रभावी रहा है। भारतीय प्राचीन साहित्य का मौखिक एवं स्मृति स्वरुप के कारण ही इनके समर्थन में अन्य वैज्ञानिक साक्ष्यों यथा पुरातात्विक विज्ञानभाषा  विज्ञानधातु विज्ञानजीव विज्ञान आदि का महत्व अधिक हो गया है। इन समस्याओं के निराकरण के लिए इतिहास के क्षेत्र में अन्य विधाओं एवं विज्ञानों की आवश्यकता हो गयी। डीडीकौशाम्बी ने तो इतिहास (सिक्कों के आकारगुणवत्तामिलावटचित्रणमात्राअध्ययन में गणित एवं सांख्यिकी का उपयोग कर इतिहास अध्ययन को वैज्ञानिक बना दिया। भारतीय इतिहास को इन साक्ष्यों के साथ मिथकों से उपर उठाना होगा। प्रोरामशरण शर्मा अपनी पुस्तक ‘‘भारत का प्राचीन इतिहास’’ (आँक्सफार्ड  यूनिवर्सिटी प्रेसमें लिखते हैं कि डीडीकौशाम्बी ने भारतीय इतिहास को एक नई दिशा दी। उन्होंने प्राचीन भारतीय समाजअर्थव्यवस्था और संस्कृति को उत्पादन की शक्तियों और संबंधों के विकास के अभिन्न अंग के रुप में प्रस्तुत किया। विगत के वर्षों  में प्राचीन भारत पर काम करने वालों की विधियों एवं प्रकृति में आमूलचूल परिवर्त्तन हुए हैं। वे मुख्यतसामाजिकआर्थिक और सांस्कृतिक प्रक्रियाओं पर ज्यादा महत्व देते हैं और उसे राजनीतिक विकास से जोडकर देखते हैं। उन्होंने मानवीय परम्परागत स्वभावों की व्याख्या पुरातत्व विज्ञान और मानव विज्ञान के आधारों पर करने की प्रवृति डाली। कुछ लोग इतिहास की धार्मिक व्याख्या के नाम पर अतार्किक हो गए हैं तथा धार्मिक सामंतवाद के समर्थक हो गए हैं जो राष्ट्र के निर्माण और विकास में बाधक बना हुआ है।

भारत में सामंतवाद क्या आज भी जीवित है?

भारतीय सामंतवाद को समझें बिना इस राष्ट्र का कल्याण नहीं है। ‘‘भारतीय सामंतवाद की अवधारणा’’ की सर्वप्रथम व्याख्या डीडीकौशाम्बी ने अपनी पुस्तक - ‘‘On the Development of Feudalism in India” (1954) में प्रस्तुत किया था जिसे प्रोरामशरण शर्मा ने पुरातात्विक साक्ष्यों के साथ तार्किक एवं वैज्ञानिक तरीके से विस्तृत रुप में अपनी पुस्तक ‘‘भारतीय सामन्तवाद’’ (1965) में स्थापित किया। 

सामन्तवाद को सरल तरीके में समानता का अन्त (समानता + अन्तसमझ सकते हैं। सामन्तवाद इतिहास की एक अवस्था है जिसकी उत्पत्ति एवं विकास उत्पादन की शक्तियों के आधार पर हुई। यह एक आर्थिकसामाजिकधार्मिक संरचना है जिसके द्वारा समाज एवं राज्य को संचालित किया जाता रहा। इस व्यवस्था को “शासक द्वारा अबाध गति से शासितों के शोषण का दर्शन” भी कह सकते हैं। 

सामन्तवाद ने अपने हितों के अनुरूप  धर्म का विरुपण (distortion, deformation) कर धर्म का दुरुपयोग किया। ‘‘धर्मधार्मिक विचारविश्वासएवं संबंधित संस्थाएँ सामन्तवाद की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता ’’ है। इसी कारण यूरोप में इसके खिलाफ लम्बी लडाई लड कर ही औद्योगिकपूँजीवादी समाज एक धर्मनिरपेक्ष एवं विकसित समाजव्यवस्थाऔर राष्ट्र राज्य का  निर्माण कर सका। एलिजाबेथ एटकिंसन राश ब्राउन ने इस संबंध में एक महत्वपूर्ण पुस्तक -The Tyranny of a Construct (1974) लिखी। भारत में धार्मिक सामंतवादी दर्शन के अबतक नष्ट  नहीं हो पाने से ही अबतक भारत पिछडा हुआ हैजिसे यथा​स्थितिवादी जानेअनजाने अपने हित के लिए और भारत के राष्ट्रराज्य के विरुद्ध बनाए हुए है। भारत में धार्मिक सामंतवादी दर्शन की उत्पत्तिविकास एवं वर्त्तमान अवस्था की सम्यक व्याख्या किसी दुसरे आलेख में अलग से किया जाएगा।

भारत में वर्तमान धार्मिकदर्शन को धर्म और अध्यात्म का सामंती स्वरुप कह सकते है। पुरातन एवं  तत्कालीन प्रचलित भारतीय परम्पराओं एवं अवधारणाओं की विषय वस्तु का उपयोग कर ही नए धार्मिक दर्शन को स्थापित किया गया। यह सामंतवाद की परिस्थितिजन्य उपज थीपर आज सामंतवाद की आवश्यकता नही है। भारत अभी भी सामन्तवादी धार्मिक व्यवस्था में उलझा हुआ है और इसी कारण भारत का अपेक्षित विकास नही हो पा रहा है।  आज भारत को एक मानवतावादी विकसित राष्ट्र  बनना हैतो इसे अपने सामाजिक एवं धार्मिक स्वरुपों का मौलिक मंथन करना होगा। न्यायसमानतास्वतंत्रताएवं बन्धुत्व का सिद्धान्त ही भारत एवं विश्व में सुखशान्तिएवं समृद्धि स्थापित करेगा। इसके लिए आधुनिक समय में संचालित सामंती सामाजिक -धार्मिक व्यवस्था का अन्त करना आवश्यक हो गया है। भारत की प्राचीनपुरातनएवं  समानता वाली बौद्धिकता की संस्कृति के स्थापन की आवश्यकता है, जो मानवतावादी होतार्किक होवैज्ञानिक होआधुनिक होतथ्यात्मक होविकासवादी हो।   

आज यह सामंती व्यवस्था अमानवीयअवैज्ञानिकअसंवैधानिकऔर विकास विरोधी के रुप में निर्विवाद रुप में स्थापित हो गया। भारत में समस्त विकास के लिए इस व्यवस्था को ध्वस्त करने की अनिवार्यता है। बौद्धिकता एवं मानवतावाद के जीवन दर्शन पर आधारित सामाजिकआध्यामिक व्यवस्था ही युवाओं का और सर्वजन का कल्याण करेगा।

 यदि आज भारत को एक आधुनिक राष्ट्र बनना है अर्थात् भारत को एक सम्पन्नसशक्तविकसित समाज और राष्ट्र बनाना है तो देश  की आबादी को महत्वपूर्ण मानव संसाधन में बदलना होगा। इसके लिए हमें विकसित देशों  की संस्कृति को समझना होगा। हमारी ही भारत की मूल संस्कृति आज विकसित देशो की मूलाधार बनी हु़ई है। यह मूल भारतीय संस्कृति आज से पाँच  हजार साल पहले भारत में जन्मीबढीऔर पल्लवित हुईजिसे सिन्धु नदी घाटी सभ्यता के प्रारम्भ से जोड़ा जा सकता है और इन परंपराओं को आज भी अपने में समेटे हुए है। इसका विरुपण सामंतवाद के काल में सामंतवाद की आवश्यकताओं के अनुरुप नौवीं शताब्दी के बाद ते़जी से हुआ और जन्म पर आधारित वर्ग आज भी सामंतवाद को लपेटे हुए है। इस धार्मिक सामंतवादी स्वरुप को ध्वस्त किए बिना भारत विश्व का अग्रणी राष्ट्र नहीं बन सकता है। में अपनी पुरातन मूल  वैज्ञानिक संस्कृति पानी ही होगीयदि हमें भारत को एक सुखीसम्पन्न और शान्तिमय समाज और राष्ट्र बनाना है। इसके लिए इतिहास का तथ्यपरक एवं वैज्ञानिक साक्ष्यों के आधार पर ही संशोधन करना होगा, ताकि सम्यक बौद्धिक एवं वैज्ञानिक  संस्कृति का अवलोकन हो सके और लोगों में सकारात्मक एवं रचनात्मक मानसिकता बन सके। इस तरह स्पष्ट  है कि आधुनिक भारत के निर्माण में इतिहास की भूमिका स्पष्ट  एवं निर्विवाद रुप में महत्वपूर्ण है।

आचार्य निरंजन सिन्हा 

 

सत्ता ‘वैज्ञानिक भौतिकवाद’ से क्यों डरता है?

‘ सत्ता ’ में शामिल लोग ही असली ‘ शासक ’ ‘ वर्ग ’ कहलाते हैं , होते हैं।   तो सबसे प्रमुख प्रश्न यह है कि   ‘ सत्ता ’   क्या है और   ‘ शासक ...