Role of History in making a Modern India
भारत के एक ‘आधुनिक’ ‘राष्ट्र’ बनने
के बाद ही भारत सशक्त, विकसित, समृद्ध
और अग्रणी हो सकता है| लेकिन आधुनिकता क्या पश्चिम का अनुकरण मात्र है, या उससे बहुत भिन्न है?
दरअसल आधुनिकता एक ऐसी स्थिति है, जो
तार्किकता, वैज्ञानिकता, वस्तुनिष्ठता,
विवेकशीलता, प्रगतिशीलता और मानवता के संयोजन
एवं समन्वयन से आती है। पश्चिमीकरण सरलतम स्वरूप में पश्चिम का मात्र अनुकरण है,
जिसमें भोड़ापन भी शामिल हैं। खैर, पश्चिमीकरण
यहाँ संदर्भ नहीं है।
तो संदर्भ भारत को आधुनिक बनाने की है। इसके लिए भारत के समस्त मानव को एक
महत्वपूर्ण एवं उत्पादक संसाधन बनाना होगा। एक सामान्य मानव को समुचित
मानव संसाधन में रूपांतरित करने के लिए उसकी मानसिकता, मनोवृति (Attitude) और अभिवृति (Aptitude) में सकारात्मक एवं गुणात्मक
परिवर्तन करने होते हैं| यह रूपान्तरण उसकी
संस्कृति में ही संशोधन या संवर्धन करने से ही संभव है| यह सब उसके ‘इतिहास के बोध’ (Perception of History) से ही आता है, अर्थात वह अपने इतिहास को कैसे और किस स्वरूप को सही एवं सत्य मानता है| और यहां यही आधुनिकता एवं वैज्ञानिकता के
निर्माण में संस्कृति एवं इतिहास को बताने समझाने का प्रयास किया गया है, जो अभी तक उपेक्षित रहा है|
यह उपेक्षा जानबूझ कर किया गया, या किसी साजिश
के अंतर्गत किया गया, या ऐसे ही चूक हो गयी है; यह सब आपको ही समझना है|
इसे
समझने के लिए हमें संक्षेप में राष्ट्र, विकास, संसाधन, संस्कृति,
एवं इतिहास की अवधारणा को समझना होगा और इनकी प्रक्रिया (Process) या क्रियाविधि (Mechanics) को भी समझना होगा| इसे समझने से पहले भारत के वर्तमान स्थिति का एक सरल अवलोकन कर लिया जाय।
भारत संभावनाओं (Possibilities) एवं अवसरों (Opportunities)
का एक विशाल देश है, जिसका इतिहास भी अद्भुत
रहा है| भारत 32 लाख 87 हजार वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र के साथ विश्व का सातवाँ बड़ा
देश है, जिसकी कुल संभावित आबादी कोई 150 करोड़ के लगभग है|
इस तरह भारत विश्व में सबसे बड़ी मानव संसधन का देश हो गया है,
लेकिन समेकित गुणवत्ता में काफी नीचे है| मानव विकास सूचकांक (HDI – Human Development Index) पर भारत 0.640 अंक के साथ विश्व में 130 वें स्थान है| अर्थव्यवस्था में भारत अपनी आबादी के चार या पांच प्रतिशत आबादी के कुछ
विकसित देशों (ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी,
इटली) से ही टक्कर लेने की होड़ में जूझ रहा है|
वर्तमान
में भारत अपनी अर्थव्यवस्था के आकार में चीन की अर्थव्यवस्था का सातवाँ भाग है, और जापान (इसकी आबादी भारत के
बिहार राज्य से भी कम है) की अर्थव्यवस्था का लगभग आधा हिस्सा है| एक अनुमान के अनुसार भारत की प्रति व्यक्ति आय चीन के प्रति व्यक्ति आय का
पांचवां या छठा भाग ही है| प्रति व्यक्ति सकल घरेलु
उत्पादन में भी भारत का स्थान विश्व में 140 वाँ ही है| आत्म
संतुष्टि के लिए कोई भी मनमानी व्याख्या किया जा सकता है, जो
भले ही विद्वतापूर्ण दिखे, परन्तु वह अपनी मौलिक में एवं
वास्तविकता में छिछली और छिछोरी ही होती है|
भारत
कभी विश्व गुरु भी रहा है| अर्थात भारत में विश्व गुरु बनने की ऐतिहासिक एवं भौगोलिक संभावना रही है
है और ऐसा होना फिर से संभव है| भारत में इतनी बड़ी जनशक्ति,
विशाल भौगोलिक क्षेत्र, उपजाऊ भूमि, पर्याप्त वर्षापात, उत्पादन की अनुकूलता, उष्ण कटिबंधीय जलवायु, सदानीरा नदियाँ, ढंग का समुचित समुद्री किनारा, गौरवमयी ऐतिहासिक
परम्परा, मेहनती एवं बुद्धिमान लोग, विविधताओं
से परिपूर्ण संसाधन, इत्यादि इत्यादि और अनेक अन्य विशिष्टाएँ
हैं| इसके बाद भी भारत विकास के कई आयामों में अपेक्षाकृत
बहुत पीछे है| स्पष्ट है कि भारत के विकास के मूल एवं मौलिक
कारणों तथा अन्य प्रभावी कारकों को जानना समझना होगा| चूँकि विकास मानव का होना
है और मानव के द्वारा ही होना है,
इसलिए मानव को ही एक महत्वपूर्ण संसाधन में बदलना होगा|
राष्ट्र क्या है? राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया को
समझने से पहले राष्ट्र की अवधारणा को समझ लेना आवश्यक हो जाता है| राष्ट्र की अवधारणा को अच्छी
तरह समझने के लिए एक ही व्यक्ति एडवर्ड हैलेट (ई० एच०) कार की परिभाषा काफी है, जिसे प्रो० अक्षय रमणलाल (ए०
आर०) देसाईं ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “भारतीय राष्ट्रवाद की
सामाजिक पृष्ठभूमि” में उल्लेख किया है| एक राष्ट्र लोगों का स्थिर समुदाय है, जिनका निर्माण
एक सर्वमान्य संस्कृति में समाहित सर्व मान्य भाषा, क्षेत्र,
इतिहास, नृवंशता, या
मनोवैज्ञानिक बनावट से हुआ है| ई० एच० कार ने राष्ट्र की
अपनी परिभाषा में राष्ट्र को कुछ गुणों के आधार पर एक गैर राष्ट्र समुदाय से अलग
किया है, जिसमे सबसे प्रमुख एक होने की भावना है और यह
राष्ट्र की एक मानसिक तस्वीर से जुड़ी होती है| जोसेफ स्टालिन ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक – “मार्क्सवाद एवं
राष्ट्रीय प्रश्न” में बताते हैं कि राष्ट्र एक जाति या
प्रजाति का एक समूह नहीं है,
अपितु लोगों का एक ऐतिहासिक स्थायी समूह है| यह एक ऐतिहासिक प्रक्रिया का परिणाम है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी एक साथ रहने
का एकात्मक प्रभाव है| इस एकात्मकता का आधार एक सामान्य भाषा,
भौगोलिक क्षेत्र, आर्थिक जीवन, एवं मनोवैज्ञानिक बनावट के द्वारा निर्मित एक सामान्य संस्कृति होती है|
अत:यहाँ भी स्पष्ट है कि राष्ट्र के निर्माण में एक सामान्य
संस्कृति के माध्यम से इतिहास की ही भूमिका रहती है|
विकास क्या होता है? किसी भी विकास में
संस्कृति के माध्यम से इतिहास कैसे आ जाता है? विकास किसी भी
व्यवस्था, तंत्र, प्रणाली आदि को अधिक
उत्पादक, समृद्ध, विस्तृत, सुदृढ़, बेहतर एवं व्यापक बनाने की प्रक्रिया (Process),
या अवस्था (Stage) या क्रियाविधि (Mechanicism)
है| विकास किसी भी भौतिक, आर्थिक, सामाजिक, पर्यावर्णीय,
या जनानकीय क्षेत्र में समेकित ‘सर्वदेशीय वृद्धि’ (Growth) है, प्रगति (Progress) है एवं सकारात्मक रूपांतरण (Transformation)
है| ध्यान रहे कि एक देशीय बढ़त (Increment)
वृद्धि (Growth) कहलाती है, जबकि सर्देशीय बढ़त विकास (Development) कहलाती है|
विकास
का उद्देश्य उस देश या क्षेत्र में पर्यावरण में कोई विपरीत प्रभाव डाले बिना आवासित
जनसंख्या का जीवन स्तर एवं गुणवत्ता में सुधार, उनकी आय में विस्तार, और शिक्षा, रोजगार एवं स्वास्थ्य की बेहतर सुविधा
उपलब्ध करना शामिल है| विकास अवलोकन योग्य एवं उपयोगी होता
है, भले उसका तत्काल पता नहीं चलता है| विकास सदैव स्थायी गुणात्मक परिवर्तन लाता है| समुचित न्याय और क्षतिपूति
के सिद्धांत के साथ ही किसी भी व्यक्त, समाज या क्षेत्र का समुचित विकास हो सकता
है| इसके बिना विकास विकलांग
होता है, अर्थात वह
विकास अपनी क्षमता से अति न्यून होता है और असंतुलित
एवं एकांगी होता है|
प्रसिद्ध
अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने विकास की अवधारणा में सक्षमता उपागमन (Capability
Approach) को स्थान दिया| इस सक्षमता उपागमन अवधारणा में लोगों को “कार्य
स्वतंत्रता” (Freedom of Work) की उच्चतर अवस्था की दक्षता
प्राप्त कर लेने की सांस्कृतिक अवस्था शामिल हो जाती है| सांस्कृतिक अवस्था उस समाज
का मौलिक एवं स्वाभाविक प्रकृति या प्रवृति को कहा जाता है| यह
तकनीक या उपागम (Approach) विकास के मूल्याङ्कन का आधार बना,
जिसके द्वारा “मानव विकास सूचकांक”
(HDI – Human Development Index) निर्धारित किया जाता है|
इस HDI को संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP
– UN Development Program) ने 1990 में विकसित किया| विकास का पक्ष मात्र
आर्थिक ही नहीं होता,
अपितु यह एक बहु आयामी प्रक्रिया है, जिसमे
तमाम आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक व्यवस्था का पुनर्गठन (Re
Structuring) एवं पुनर्निर्धारण (Re Orientation) होता है| विकासात्मक प्रक्रिया में मानवीय जीवन में गुणात्मक सुधर लाना ही
प्राथमिकता होती है, और इसके बिना सब गतिविधियाँ महज एक
तमाशा होता है|
विश्व बैंक ने विकास को बहुत ही सरल
तरीके से समझाया है, जिसमें “विकास को ऐसा सामाजिक सांस्कृतिक परिवर्तन माना है, जो लोगों की संभावित क्षमताओं
को प्राप्त करने की व्यवस्था है”| इस
तरह विकास
एक सामाजिक सांस्कृतिक संरचनात्मक रूपांतरण की प्रक्रिया है|
विकास
किसी देश की सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक व्यवस्था में गुणात्मक एवं
मात्रात्मक स्थायी परिवर्तन से सम्बन्धित है| यह अवस्था सभी को
शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, न्याय, स्वतन्त्रता, समता,
भातृत्व एवं शांति उपलब्ध करने से आता है| बिना
विकास के भी वृद्धि या संवृद्धि होता है,जैसे प्राकृतिक
तेलों के उत्पादन से अरब देशों में आर्थिक संवृद्धि आ गयी है, जबकि विकास के अनुकूल आधारभूत संरचनाओं एवं माहौल का अपेक्षित निर्माण
नहीं हुआ है| ऐसे ही बिना आर्थिक संवृद्धि का भी विकास होता
होता है| वियतनाम एवं बांगला देश में आधारभूत संरचनाओं के
निर्माण एवं सकारात्मक माहौल के कारण प्रशंसनीय विकास हो रहा है, परन्तु आर्थिक संवृद्धि अपेक्षित ढंग से दृष्टिगोचर नहीं है| संवृद्धि (Growth) उत्पादन की मात्र एवं आय में बढ़ोत्तरी से सम्बन्धित
होता है, जबकि विकास (Development) समाज के सर्वांगीण बढ़ोतरी
एवं सुविधाओं से सम्बन्धित होता है|
मानव संसाधन सबसे महत्वपूर्ण क्यों है? ‘संसाधन एक प्राकृतिक विशेषता या प्रक्रिया है, जो मानव की गुणवत्ता में
वृद्धि करता है|’ संसाधनों का वर्गीकरण वास्तविक एवं संभाव्य संसाधन के रूप में भी होता है,
जिसका आधार विकास एवं उपयोगिता है| कोई वस्तु
या मानव समय एवं तकनीक विकास एवं गुणवत्ता परिवर्तन के साथ संसधन बन सकता है| ज्ञान (Knowledge) और बुद्धिमता (Wisdom) ही अपने आप में संसाधन है| इस तरह मानव संसाधन को
उसकी योग्यता, कौशल, ऊर्जा, बुद्धिमता, दक्षता, एवं ज्ञान
के आधार पर परिभाषित किया जा सकता है| हम कह सकते हैं कि मानव संसाधन एक व्यक्तिगत बुद्धिमत्ता है, या बाहरी
आपूर्ति है, जिसका उपयोग विकास में सहायता या समर्थन के लिए
किया जाता है| इस तरह संसाधन प्रत्यक्षत: या
अप्रत्यक्षत: धन, सेवा या राहत का निर्माण करता है|
स्पष्ट
है कि मानव
ही सबसे बड़ा संसाधन है,
जो किसी भी चीज को संसाधन में बदल देता है| इसी के बदौलत परंपरागत
संसधानों के अभाव वाला देश, यथा जापान, स्वीडेन, स्विट्ज़रलैंड,
सिंगापूर, कोरिया, ताइवान
आदि, अपनी संस्कृति के कारण ही अपने देशों को अग्रणी बनाये
हुए है| मानव का संस्कार अर्थात संस्कृति ही वह महत्वपूर्ण
संसाधन है, जो विकास की मानसिकता को दिशा एवं दशा तय करती है|
इस विकास
की मानसिकता यानि संस्कृति में वैज्ञानिक सुधार किए बिना कोई भी आर्थिक संबल (Backing), समर्थन (Support)
एवं आधारभूत ढांचा (Basic Infrastructure) काम
नहीं करता है| विकास भी मानव का ही होना
है और विकास का साधन भी मानव ही है,
इसलिए मानव की संस्कृति में अपेक्षित सुधार किए बिना विकास के नाम
पर महज तमाशा होता है| यदि पात्र, कार्यकारी तंत्र और संचालित करने वाला तंत्र ही अयोग्य है, यानि जिसकी संस्कृति ही यदि जड़ है, तो सब उपागम यानि
उपया या प्रयास बेकार है| भारत के सन्दर्भ में इसे गहनता से
समझना अनिवार्य है|
संस्कृति क्या है? “संस्कृति किसी ख़ास जनसमूह की
किसी ख़ास समय पर उनके जीवन जीने का सामान्य तरीका है और इसमें उस जनसमूह की
सामान्य परम्परा एवं विश्वास समाहित रहता है|” इस तरह किसी समाज या
व्यक्ति की संस्कृति उनके विचार, परम्परा, रीति रिवाज, व्यवहार, मानसिकता
और आदर्श का समेकन है| किसी देश या समाज की संस्कृति उसकी
सम्पूर्ण मानसिक निधि को सूचित करती है| स्पष्ट है कि संस्कृति किसी समाज में
गहराई तक व्याप्त गुणों यानि मानसिकता की समग्रता है, जो उस समाज के सोचने,
विचारने, एवं कार्य करने से बना है| संस्कृति जीवन जीने की सामान्य एवं सहज विधि है| यह संस्कृति मानव जनित एक मानसिक पर्यावरण है, जिसमे
सभी अभौतिक उत्पाद एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को प्रदान करता है| संस्कृति किसी समाज के वे सूक्ष्म संस्कार हैं, जिनके
माध्यम से लोग परस्पर सम्प्रेषण करते हैं, और जीवन के विषय
में अपनी मनोवृतियों और बुद्धिमता को दिशा देते हैं| यह सब
उनके साहित्य, व्यवहार, कार्य, आनंद, कला एवं विज्ञान आदि से अभिव्यक्त होती है|
इस तरह संस्कृति का सम्बन्ध व्यक्ति एवं समाज में निहित
संस्कारों से है, और उसका निवास उनके मानस (Mind) में होता है|
किसी
समाज की संस्कृति विभिन्न क्षेत्रों में रहते हुए विशेष प्रकार के सामाजिक वातावरण, संस्थाओं, प्रथाओं, व्यवस्थाओं, धर्म,
दर्शन, लिपि, भाषा,
एवं कलाओं के द्वारा अभिव्यक्त होता है| इसी
अभिव्यक्ति के द्वारा ही उस समाज की प्रगतिशीलता की स्तर एवं संभावनाओं के भविष्य
का पता चल पाता है| मानव एक ‘सर्जक
प्राणी’ (Homo Faber) के नाते अपनी बुद्धि से अपनी
पारिस्थितिकी को सुधारते एवं संवर्धित करता रहता है और सभ्य बनता रहता है| सभ्यता संस्कृति का एक भाग होता है| सभ्यता (Civilization)
मानव के भौतिक क्षेत्र की प्रगति को सूचित करती है, जबकि संस्कृति (Culture) सभ्यता को भी अपने में
समाहित किए हुए मानसिक आध्यत्मिक प्रगति को बताती है| सभ्यता यदि समाज का
हार्डवेयर है,
तो संस्कृति उस समाज का साफ्टवेयर है, जो समाज
को अदृश्य रहकर संचालित एवं नियमित करती रहती है| यदि किसी तंत्र का साफ्टवेयर
दूषित हो गया है, तो उसको सुधारना अनिवार्य हो जाता है|
यह संस्कृति का साफ्टवेयर उस समाज के इतिहास के बोध से ही निर्मित
होता है|
इतिहास क्या है? सामान्यत: इतिहास पुरातन का
लिखित ब्यौरा है, जिसका अध्ययन किसी संस्कृति को समझने के
लिए किया जाता है| इस तरह इतिहास सामाजिक रूपांतरण
का क्रमबद्ध ब्यौरा है| इतिहास ही किसी समाज के राष्ट्रीय एकता और विकास के लिए
ऐतिहासिक,
सांस्कृतिक एवं विचारधारात्मक ढांचा तैयार करता है, वशर्ते वह इतिहास वैज्ञानिक एवं विवेकपूर्ण हो| भारत जैसे विशाल देश, जिसमे कई यूरोपीय देशों की आबादी समाहित हो जाती है, अपने विविध ऐतिहासिक नस्ल, धर्म, पंथ, भाषा, परम्परा एवं
विभिन्न भौगोलिक अनुकूलित क्षेत्रों में विभक्त है| ऐसे
विविधता भरे देश को एक सशक्त, संपन्न, विकसित,
खुशहाल एवं अग्रणी बनाने की चुनौती है| कुछ लोग या समूह ‘धार्मिक जागरण’ एवं ‘सांस्कृतिक एकता’ के नाम
पर “धार्मिक सामन्तवाद” को “सांस्कृतिक राष्ट्रवाद” का नाम देकर “राष्ट्रीय एकता” को ही खंडित कर रहे हैं| भारत में राष्ट्रवाद का
निर्माण एवं समुचित विकास इतिहास की वैज्ञानिक एवं विवेकपूर्ण व्याख्या से ही हो
सकता है|
जार्ज आरवेल ने कहा है कि “किसी समाज को नष्ट करने सबसे
कारगर तरीका उसके वैज्ञानिक इतिहास बोध को दूषित कर देना एवं ख़ारिज कर देना है”| भारतीय इतिहास के साथ सामन्तवाद
के काल में सामन्तवाद के समर्थक शक्तियों ने यही किया है| इन
सामन्ती शक्तियों ने पूर्व के रचित इतिहास को ही नयी सामन्ती आवश्यकताओं के अनुरूप
सम्पादित किया और शेष इतिहास एवं साहित्य को ही नष्ट कर दिया| संस्कृति के निर्माण में इतिहास की भूमिका को समझना पडेगा| कोई भी राजनीतिक व्यवस्था
समाज को कुछ दशकों तक प्रभावित करती है, जबकि सांस्कृतिक व्यवस्था समाज को शतकों या
सह्त्रब्दियों तक संचालित एवं नियमित करती है|
जार्ज आरवेल के शब्दों में – “जो इतिहास पर नियत्रण रखता है, वह वर्तमान और भविष्य
पर नियंत्रण रखता है”| इसलिए कुछ यथास्थितिवादी शक्तियाँ सामन्ती काल में सामन्ती आवश्यकताओं के
अनुरूप रचित इतिहास के भ्रम को ही यथास्थिति में बनाए रखते हुए और मजबूत करना
चाहती है, ताकि उनका सांस्कृतिक वर्चस्व बना रहे| ये मिथकों और कथानकों की सहायता से बिना किसी पुरातात्विक साक्ष्यों के ही
अपनी कहानियों को “तथाकथित इतिहास” के
रूप में सभ्यता के प्रारंभ तक खिंच ले जाने में सफल हो गये हैं| इसे समझना होगा|
कोई
भी समाज या राष्ट्र बाह्य खतरा को तो आसानी से समझ पा सकता है, लेकिन आंतरिक खतरा अत्यंत
गंभीर होता है, जो आपसी क्रोध, इर्ष्या,
विद्वेष की भावना में अदृश्य हो जाता है| भारत
अपने हजारों साल के ऐतिहासिक विकास के क्रम में अपनी भौगोलिक विस्तार एवं
विविधताओं के साथ बहुभाषायी, बहुपन्थीय और बहुविध रीति रिवाज
को आकार दिया है, और इसके लिए आपसी सामंजस्य को बैठने के
प्रगतिवादी रास्ता निर्धारित करना है| यह सब इतिहास के
वैज्ञानिक लेखन के माध्यम से हो सकता है| इतिहास लेखन अब
विवरणात्मक पद्धति से समालोचनात्मक एवं निष्कर्षात्मक पद्धति में बदल चुका है|
पहले लोग प्राचीन भारतीय इतिहास कथा कहानियों के आधार पर ही लिख
देते थे, और जनमानस को यह स्वीकार्य भी हो जाता था| इतिहास लेखन अब ऐतिहासिक तथ्यों एवं साक्ष्यों के साथ वैज्ञानिक तर्कों के
आधार पर किया जाने लगा| हमारी
मानसिकता एवं हमारा नजरिया हमारी संस्कृति से निर्धारित और नियमित होता है, जो हमारे ‘इतिहास के बोध’ (Perception of History) से उत्पन्न एवं निश्चित होता है|
भारत
के प्राचीन इतिहास के अध्ययन एवं लेखन में उपलब्ध साहित्यिक साधन ही सबसे ज्यादा
प्रभावी रहा है| प्राचीन भारतीय इतिहास
लेखन के स्रोत का आधार चूँकि मौखिक एवं स्मृति स्वरुप का ही रहा, और इसीलिए इन मौखिक एवं
स्मृति के पुष्टि एवं प्रमाणिकता के लिए अन्य वैज्ञानिक साक्ष्यों यथा पुरातात्विक
विज्ञान, भाषा विज्ञान, धातु विज्ञान,
जीव विज्ञान आदि का महत्व और अधिक हो गया| दामोदर धर्मानन्द कोसाम्बी ने तो इतिहास अध्ययन में गणित एवं सांख्यिकी का
उपयोग एवं प्रयोग कर इतिहास लेखन को वैज्ञानिक बना दिया| प्रो० रामशरण शर्मा ने इतिहास अध्ययन को उत्पादन की शक्तियों और
उनके सम्बंधों के आधार पर प्रस्तुत करने पर जोर दिया| अब इतिहास लेखन को उत्पादन, वितरण, विनिमय एवं उपभोग के साधन एवं शक्तियों तथा उनके अंतर्संबंधों के आधार पर
ही किये जाने को वैज्ञानिक पद्धति माना जाने लगा|
भारत में नए इतिहास लेखन की आवश्यकता क्यों है? चूँकि भारत में सामन्तवाद आज भी अपने
सांस्कृतिक एवं सामाजिक स्वरूप मे जीवित है, प्रचलित है और व्याप्त है, इसीलिए संस्कृति को वैज्ञानिक एवं आधुनिक बनाने के लिए नए इतिहास लेखन की
अनिवार्यता है| “भारतीय सामंतवाद की अवधारणा” की सर्वप्रथम
व्याख्या दामोदर धर्मानन्द कोसाम्बी ने अपनी पुस्तक – “On the Development
of Feudalism in India” (1954) में प्रस्तुत किया था| इसे प्रो० रामशरण शर्मा ने पुरातात्विक साक्ष्यों के साथ तार्किकता एवं
वैज्ञानिकता के साथ अपनी पुस्तक – “भारतीय सामन्तवाद”
(1965) में विस्तार से स्थापित किया|
सामन्तवाद को सरल तरीके से “समानता का अन्त” (समानता + अन्त) कह सकते हैं| सामन्तवाद इतिहास की एक ऐसी अवस्था है, जिसकी उत्पत्ति एवं विकास
उत्पादन, वितरण एवं विनिमय की संयुक्त शक्तियों के आधार हुई| सामन्तवाद एक आर्थिक – सामाजिक – धार्मिक एवं राजनीतिक सर्न्राचना एवं
व्यवस्था हैं, जिसके द्वारा समाज एवं राज्य को संचालित किया
जाता रहा| सामन्तवाद
की अवस्था को “शासक द्वारा अबाध गति से शासितों के शोषण का दर्शन” भी
कहा गया| सामन्तवाद ने अपने हितों के अनुरूप सामान्य लोकाचार और आचार- विचार का
विरूपण (Distortion/ Deformation) कर संस्कृति के रूप में
दुरूपयोग किया| यह
कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि सभी वर्तमान प्रचलित धर्मों का वर्तमान स्वरुप इसी
काल में इन्हीं सामन्ती आवश्यकताओं के अनुरूप आकार लिया|
“धर्म, धार्मिक विचार- विश्वास, एवं धार्मिक संस्थाएँ सामन्तवाद की सबसे प्रमुख विशेषता बनी”| इसी कारण यूरोप में इन नवोदित
स्वरुप के विरुद्ध एक लम्बी लड़ाई लड़ कर ही ओद्योगिक पूंजीवादी समाज एक धर्म
निरपेक्ष एवं विकसित समाज एवं राष्ट्र राज्य का निर्माण कर सका| एलिजाबेथ एटकिंसन राश
ब्राउन ने
इस सम्बन्ध में एक महत्वपूर्ण पुस्तक –
The Tyranny of a Cnstruct (1974) लिखी|
इसमें सामन्तवाद की क्रियाविधि की समुचित व्याख्या की गयी है|
भारत में सामन्तवादी दर्शन अपने धार्मिक सांस्कृतिक आवरण में
संरक्षित एवं सुरक्षित है| भारत के पिछड़ जाने का यही मूल,
मौलिक एवं एकमात्र प्राथमिक कारण है| यही भारत का एक कठोर
परन्तु यथार्थ कटु सत्य है,
जिसे कोई भी यथास्थितिवादी सुनना एवं समझना ही नहीं चाहते हैं|
यह नयी व्यवस्था सामन्ती शक्तियों की आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक आवश्यकताओं के अनुरूप अनिवार्य थी| इस नयी व्यवस्था में अंधविश्वास, ढोंग, पाखण्ड,
कर्मकांड इत्यादि भारतीय संस्कृति का अभिन्न हिस्सा बन गयी और यह सब
भारतीय गौरवमयी संस्कृति का अभिन्न हिस्सा बन गयी है| यह अंधविश्वास, ढोंग, पाखण्ड, कर्मकांड
इत्यादि अब सांस्कृतिक संस्थागत स्वरुप ले लिया है और यह भारतीय धर्म का अभिन्न
भाग हो गया है| इसी अंधविश्वास, ढोंग,
पाखण्ड, कर्मकांड इत्यादि को प्राचीनता
एवं सनातनता का विरासत बना दिया गया है| इसे अब धार्मिक एवं
सांस्कृतिक आवरण मिल जाने समाज के बौद्धिक वर्ग, समृद्ध वर्ग एवं शासक वर्ग का
भी समर्थन मिल गया है|
भारत में वर्तमान सांस्कृतिक दर्शन धर्म एवं अध्यात्म का
सामन्ती स्वरूप है| पुरातन एवं तत्कालीन प्रचलित
भारतीय परम्पराओं एवं अवधारणाओं की विषय वास्तु का उपयोग कर ही यानि संपादित कर वर्तमान
सांस्कृतिक दर्शन को स्थापित किया गया| यह सब उस समय के सामन्तवाद
की परिस्थितिजन्य आवश्यकता थी, परन्तु आज के आधुनिक एवं
वैज्ञानिक युग में सामन्तवादी ढांचे की आवश्यकता नहीं है| भारत को यदि एक मानवतावादी
विकसित राष्ट्र बनना है,
तो इस सांस्कृतिक ढांचे के स्वरुप एवं आवश्यकता का मंथन करना होगा| न्याय,
स्वतन्त्रता, समानता, एवं
बंधुत्व का सिद्धांत एवं व्यवहार ही भारत एवं विश्व में सुख, शांति, समृद्धि एवं विकास की स्थापना कर सकेगा| अत : अमानवीय,
अवैज्ञानिक, असंवैधानिक एवं विकास विरोधी
सामन्ती संस्कृति को मानवीय, वैज्ञानिक बनाना ही होगा| भारत को फिर से अग्रणी राष्ट्र
बनाने के लिए इस सामन्ती सांस्कृतिक व्यवस्था को ध्वस्त करना ही होगा|
यदि आज भारत को एक आधुनिक राष्ट्र बनना है, तो भारतीय आबादी को एक महत्वपूर्ण संसाधन में बदलना ही होगा|
इसके लिए विकसित देशों की संस्कृति का वैज्ञानिक पक्ष समझना होगा|
इसके
लिए हमें इतिहास एवं संस्कृति का आलोचनात्मक विश्लेषण एवं मूल्याङ्कन करना होगा| विचारों एवं उपायों में
पैरेड़ाईम शिफ्ट करना ही होगा| साधारण शब्दों में कहा जाय, तो इतिहास एवं संस्कृति को
वैज्ञानिक आधार देकर ही भारतीय समाज का साफ्टवेयर को बदला जा सकता है, बाकी सब
दिखावटी तमाशा है|
थोडा ठहर कर और गहराइयों में उतर कर विमर्श
में भाग लीजिए,
भारत फिर से विश्व गुरु बन जायगा|
आचार्य प्रवर निरंजन
भारतीय
संस्कृति का ध्वजवाहक
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