‘ब्राह्मणवाद’
भारत में बहुचर्चित एक शब्दावली है| आजकल भारत की अधिकांश आबादी अपनी समर्पित बौद्धिकता,
समस्त वैचारिकी, पूरा समय एवं महत्वपूर्ण संसाधन लगाकर इसी में दुबकी लगा रहे हैं|
लोग ब्राह्मणवाद को कुछ व्यक्तियों या व्यक्ति समूहों के ऐच्छिक प्रयास के
परिणामस्वरूप उत्पन्न मानते हैं। इस ब्राह्मणवाद के साथ भारत का सबसे बड़ा त्रादसी
यह है कि बहुसंख्यक आबादी ब्राह्मणवाद की स्पष्ट संकल्पना को समझता ही नहीं है|
तो
ब्राह्मणवाद क्या है? ब्राह्मणवाद एक विचारधारा है, एक जीवन पद्धति है, एक संस्कृति है, एक चारित्रिक
क्रियाविधि है, जिसमें ब्राह्मण वर्ग को सर्वोपरि माना जाता
है। यह ब्राह्मण वर्ग कोई जाति, या वर्ण, या ब्रह्म -ज्ञानी माना जाता है। ब्राह्मणवाद अपने आधार स्तम्भों पर
आधारित है, क्रियान्वित है और नियमित है। इस आधार स्तम्भ में
‘जाति’ एवं ‘वर्ण’ की व्यवस्था की मान्यता है, ‘आत्मा’ और ‘पुनर्जन्म’
की संकल्पना एवं सम्बन्धित क्रियाविधि की सत्यता है, ‘कर्मवाद
के सिद्धांत’ और ‘ईश्वर’ की वास्तविकता है
एवं ‘स्वर्ग –नर्क’ और ‘नित्यता के
सिद्धांत’ की स्थापना में है। उपरोक्त को अपने जीवन में किसी भी रुप में अपनाना, स्वीकार करना है, और उसे सत्य मानना ही ब्राह्मणवाद है। ‘ब्राह्मणवाद’ स्पष्ट रुप में ‘सांस्कृतिक
सामन्तवाद’ है, जो ‘राजनीतिक सामन्तवाद’ एवं ‘आर्थिक सामन्तवाद’ के साथ साथ भारत
में विकसित एवं समृद्ध हुआ है|
जब
ब्राह्मणवाद को किसी व्यक्ति या व्यक्ति समूह ने उत्पन्न नहीं किया है, तब प्रश्न
यह उठता है कि इस ब्राह्मणवाद को किसने जन्म दिया और विकसित किया? क्या इतिहास की धारा
को मोड़ने में, यानि दिशा बदलने में कोई व्यक्ति या व्यक्ति समूह मात्र सक्षम नहीं होता
है? कुछ समय पहले ऐसा ही माना जाता था कि इतिहास की धारा को मोड़ने में, यानि दिशा
बदलने में कोई व्यक्ति या व्यक्ति समूह ही सक्षम होता था| तब प्रश्न है कि इस ब्राह्मणवाद
की उत्पत्ति क्यों हुई?
ब्राह्मणवाद
की प्रकृति एवं विशेषताओं पर ध्यान दिया जाए। उपरोक्त अवधारणा में इनके आधार
-स्तम्भों के अवलोकन से स्पष्ट है कि यह समाज में स्थापित असमानताओं को प्राकृतिक,
सहज, सामान्य, न्यायसम्मत
और विवेकपूर्ण साबित करने के प्रक्रम में उत्पन्न हुआ है। यह सब सामन्ती व्यवस्था
की अनिवार्य आवश्यकता थी|
वैसे
इतिहासकार, जो इतिहास को बदलने में व्यक्ति या
व्यक्ति -समूह को प्राथमिकता देते हैं, उन्हें ऐतिहासिक
शक्तियों और उनकी क्रियाविधियों की समझ नहीं होती है। ऐसे तथाकथित इतिहासकार किसी
व्यक्ति या व्यक्ति - समूह को आरोपित कर सामान्य लोगों के सामान्य मनोवैज्ञानिक
भावनाओं के पक्ष में हो जाते हैं और इसीलिए सामान्य लोगों में लोकप्रिय हो जाते
हैं। सामान्य लोगों एवं निम्नतर लोगों की दुनिया व्यक्ति विशेष की वर्णन, आलोचना या क्रियाओं तक ही सीमित होता है। इतिहास की ऐसी ही व्याख्याओ के
कारण ही इन ऐतिहासिक समस्याओं का समाधान अबतक नहीं मिल पाया है।
कोई
जबतक किसी समस्या और उनकी वास्तविक जड़ो को यथास्थिति में और यथा स्वरुप में नहीं
समझ पाता है, तबतक उन समस्याओं का समुचित समाधान
संभव नहीं होता है। ऐतिहासिक शक्तियाँ ही ऐतिहासिक परिस्थितियाँ नियमित और
नियंत्रित करती है, जो इतिहास बनाता और बदलता है। रोमन साम्राज्य के पतन और अरबों
के उदय के साथ ही ऐतिहासिक शक्तियाँ और ऐतिहासिक परिस्थितियाँ बदलने लगी। इन दोनों
घटनाओं के साथ स्थापित सुदृढ़ राज्यों और साम्राज्यों की सत्ता अस्थिर हो गयी। इससे
सर्वव्यापक एवं सर्वमान्य मुद्रा की प्रत्याभूति (गारन्टी) देने वाले सर्वमान्य और
सर्वव्यापक सत्ता का अभाव हो गया| इससे प्रचलित अर्थव्यवस्था मुद्रा विहीन होने
लगा। इससे विनिमय के साधन - मुद्रा की सर्वव्यापकता एवं सर्वमान्यता समाप्त होने
लगी| मुद्रा के अभाव में अर्थव्यवस्था जड़ और गतिहीन होने लगी| इससे नगरों का
ह्रास होने लगा। अर्थव्यवस्था ग्रामीण होने लगी और यह कृषि कार्यों की ओर उन्मुख
हो गयी| अर्थव्यवस्था में प्राथमिक प्रक्षेत्र का प्रभाव व्यापक होने लगा।
अर्थव्यवस्था में द्वितीयक, तृतीयक, चतुर्थक
एवं पंचक प्रक्षेत्र सिकुड़ने लगा। अर्थव्यवस्था का पतन होने लगा। यही सामन्ती व्यवस्था
का प्रारंभ हुआ|
अर्थव्यवस्था
के इस परिवर्तन के साथ ही राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक परिवर्तन होने
लगे| इसी के साथ शब्दों के ढाँचा, आकार, संरचना एवं सम्बन्धित संकल्पनाओं में भी संशोधन,
परिमार्जन एवं पुनर्परिभाषित होने लगा। सम्बन्धित शब्दों और मुहावरों के सतही, गूढ़
एवं निहित अर्थ नए व्यवस्थाओं के अनुरुप अनुकूलित होकर बदलने लगा। शब्द का ढाँचा,
यानि बाहरी रुप लगभग स्थिर रखते हुए संकल्पनात्मक अर्थ बदल गए। प्राचीन काल में
प्रचलित ‘बाम्हण’ शब्द अब ‘ब्राह्मण’ हो गया। ‘बाम्हण’ विद्वता पर आधारित विद्वान
वर्ग होते थे, जो अर्थव्यवस्था के गतिहीन होने के
कारण जन्म आधारित वर्ग में बदलने लगे। शब्द वही रहे, लेकिन उनकी संकल्पना बदल गयी|
इसी तरह समाज का ‘सामूहिक अचेतन’ बदलने लगा। यही बदलना ही संस्कृति का बदलना हुआ।
यही व्यवस्था का ‘फिजावेयर’ बदलना हुआ। इससे समाज और व्यवस्था के फिजाओं में बदलाव
आने लगा। विद्वता अब जन्म आधारित यानि जाति आधारित होता गया| इस तरह ब्राह्मणवाद
का उदय हुआ। इसका विस्तृत एवं सम्बन्धित पक्षों की व्ताख्या यहाँ अपेक्षित नहीं
है|
अर्थव्यवस्था
में इसी परिवर्तन से ‘बुद्धिवाद’ का विलीनीकरण हुआ और इसी विलीनीकरण के समानान्तर
एवं समकालिक सामन्तवाद का क्रमिक उत्पत्ति और विकास हुआ। सामन्तवाद राजनीतिक,
सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और सांस्कृतिक होता है| यह ब्राह्मणवाद इसी समानान्तर
एवं समकालिक धार्मिक और सांस्कृतिक सामन्तवाद का भारतीय संस्करण है। इसी व्याख्या
के अनुरुप ही ऐतिहासिक और पुरातात्विक साक्ष्य उपलब्ध हैं।
इतिहास
की वैज्ञानिक व्याख्या ही इतिहास को सत्यता के करीब पहुंचाता है,
जो राष्ट्र और मानवता का कल्याण करता है। यह वैज्ञानिक व्याख्या
अनिवार्य रुप में चार्ल्स डार्विन का ‘प्राकृतिक उद्विकासवाद’ और हर्बर्ट स्पेंसर
के ‘सामाजिक उद्विकासवाद’ के अनुरुप होगा। इतिहासकार के द्वारा रचित इतिहास पर
इतिहासकार के व्यक्तित्व का प्रभाव रहता है। और इस प्रभाव की व्याख्या सिग्मण्ड
फ्रायड के ‘मनोविश्लेषणवाद’, कार्ल जुंग के ‘सामूहिक
अचेतनवाद’ (‘संस्कृतिवाद’), एवं अल्फ्रेड एडलर का ‘श्रेष्ठतावाद’
के प्रकाश में किया जाना समुचित है। यदि ऐतिहासिक क्रियाविधियों को कार्ल मार्क्स
के आर्थिक शक्तियों के आधार पर व्याख्यापित नहीं किया जा रहा है, तो वह व्याख्या वैज्ञानिक सत्यता से दूर है। इसी के साथ फर्डिनेंड डी
सौसुरे का ‘संरचनावाद’ और जाक डेरिडा का ‘विखण्डनवाद’ इतिहासकार के द्वारा
प्रयुक्त शब्दों और वाक्य संरचनाओं को समझने के लिए अनिवार्य है। गैलेलियो के ‘सापेक्षवाद’
के बिना इतिहासकारों के इतिहास की सम्यक समझ संभव नहीं है।
उपरोक्त
वैज्ञानिक दर्शनों के अभाव में कोई भी इतिहास सम्यक नहीं है| यह मिथकों के समान
चटपटा अवश्य होता है। आजकल ब्राह्मणवाद पर उपलब्ध जानकारी चटपटा अवश्य होता है।
ब्राह्मणवाद को व्यक्ति या व्यक्ति - समूह ने स्थापित और संचालित नहीं किया है,
बल्कि ऐतिहासिक शक्तियों ने स्थापित और संचालित किया है। इसे समझना
आवश्यक है|
यूरोप
इन सामन्ती व्यवस्थाओं के विरुद्ध पुनर्जागरण फिजाओ से सांस्कृतिक सामन्तवाद को
हटा सका। भारत में यह सांस्कृतिक सामन्तवाद अपने भारतीय संस्करण - ब्राह्मणवाद के
रुप में सांस्कृतिक सामन्तवाद की निरन्तरता, प्रभावशीलता
और स्थायित्व बनाए हुए है।
यदि
आप ब्राह्मणवाद को इस तरह नहीं समझते हैं, तो
तथाकथित बौद्धिक आन्दोलनों में तैरते रहने और पार लगा लेने के भ्रम में बने रहने
के लिए सभी स्वतंत्र है। इतिहास को सही तरीके से समझने के लिए ऐतिहासिक शक्तियों
और उनकी अन्तरक्रियाओ की क्रियाविधियों को अवश्य समझिए।
आचार्य प्रवर निरंजन जी
दार्शनिक, शिक्षक एवं लेखक
अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान, बिहटा, पटना, बिहार|