गुरुवार, 18 दिसंबर 2025

अगड़े और पिछड़े में क्या अन्तर है?

'अगड़ा' और 'पिछड़ा' एक सापेक्षिक अवधारणा है| अगड़ा और पिछड़ा जीवन के हर क्षेत्र, हर प्रक्रम और हर स्थिति में बना रहेगा| यह अगड़ा और पिछड़ा कोई भी हो सकता है| इस अवधारणा में व्यक्ति, परिवार, समाज, समूह, संस्कृति या राष्ट्र शामिल हो सकता है| आप इस सूची का अपनी स्वेच्छा से ‘और’ विस्तार करने के लिए कुछ और शब्द जोड़ सकते हैं| यहाँ यह प्रश्न महत्वपूर्ण होगा कि कोई 'अगड़ा' क्यों बन जाता है और कोई 'पिछड़ा' क्यों हो जाता है? मैं यहाँ किसी पर दोष –निर्धारण नहीं करने जा रहा हूँ, अपितु मैं सिर्फ कारण –परिणाम तक सीमित रहूँगा|

किसी के 'अगड़े' और 'पिछड़े' होने क्या अन्तर है? यह एक अनिवार्य प्रश्न है, जिसे हर कोई को समझना चाहिए। इस मूल कारण को पहचान कर कोई भी कभी भी अगड़ा बन सकता है। इस अगड़े और पिछड़े होने के अन्तर का एक ही कारण है, जिसे सावधानी से समझना चाहिए| दरअसल एक व्यक्ति, या परिवार, या समाज दो भिन्न समय में या दो भिन्न सन्दर्भ में कभी अगड़ा और कभी पिछड़ा हो जाता है। वैसे सभी मौजूदा जीवित मानव ‘होमो सेपियन्स सेपियन्स’ ही हैं, और सभी एक ही ‘विस्तारित परिवार’ (Extended Family) का सदस्य हैं। इसीलिए आज का सभी जीवित मानव हर बौद्धिक कार्य करने लिए समान रुप से सक्षम एवं योग्य है|

जो ज्ञान -अर्जन में अपने को पूर्ण समझेगा, वह अपने ज्ञान का संवर्धन छोड़ कर दूसरे क्षेर्त्रों में उलझा रहेगा, वह पिछड़ा ही रहेगा। जो अपने को ज्ञान में पूर्ण होना समझ लिया, वैसा व्यक्ति समय के बदलने के अनुरुप समायोजित और संवर्धित नहीं होना चाहता। समस्याओं का समाधान हमारे सोचने के तरीके में बदलाव से शुरू होता है, न कि केवल हमारे कार्यों में। ऐसा ही व्यक्ति विचार में परिमार्जन और संवर्धन छोड़ कर सिर्फ संसाधन जुटाने और संगठन बना कर अगड़े की श्रेणी में आना चाहता है|

जो भी ऐसा समझता है कि उसे अपनी समस्या के कारण की समुचित और पर्याप्त जानकारी है और वह उस समस्या के समाधान की पर्याप्त समझ भी रखता है, तभी वह सीखना समझना रोक देता है| जब उसे लगता है कि उसके महापुरुषों ने उसकी समस्यायों का समाधान का पता कर लिया है, तब वह ज्ञानार्जन में ठहर जाता है| उसका ध्यान इस पर नहीं जाता है कि हर क्षण परिस्थितीयाँ बदलती रहती है और इसीलिए हर समस्या की प्रकृति भी प्रवाहमान रहती है|

प्रसिद्ध वैज्ञानिक और दार्शनिक अल्बर्ट आइन्स्टीन ने कहा था कि समस्या चेतना के जिस स्तर खड़ा है, उसका समाधान चेतना के उसी स्तर पर रह कर नहीं पाया जा सकता है|इसके साथ यह भी कहते हैं कि एक ही तरह की सोच को दोहराने से संभवतः वही परिणाम प्राप्त होंगे। कई समस्याएं आदतों, मान्यताओं और धारणाओं का परिणाम होती हैं। किसी समस्या को हल करने के लिए केवल अधिक प्रयास करना ही काफी नहीं है, बल्कि अलग तरीके से सोचना भी जरूरी है।

प्रसिद्ध क्रान्तिकारी दार्शनिक एन्टोनियो ग्राम्शी ने भी ‘सांस्कृतिक वर्चस्ववाद’ (Cultural Hegemony) में यही समझाते हैं, कि विरोधियों की अवधारणाओं को ही सही मानकर समाधान की उम्मीद करना उनकी दलदलों में डूब जाना होता है| समस्याएं केवल बाहरी चुनौतियां नहीं हैं, बल्कि आंतरिक चिंतन का प्रतिबिंब हैं। केवल गति ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि ठहर कर गहराई में उतरना भी जरूरी है। पुरानी सोच किसी समस्या के अस्तित्व का कारण तो समझा सकती है, लेकिन हमेशा उसे दूर नहीं कर सकती। ऐसे पिछड़े लोग अपने नवाचारी ज्ञानार्जन रोक कर सिर्फ सड़कों पर उतरना जानता है|         

अपने ज्ञान को अपूर्ण समझने की शास्वत प्रकृति, प्रवृत्ति और नजरिया वाले लोग ही 'अगड़े' होते हैं| ज्ञान किसी विषय में सूचनाओं का संगठित एवं व्यवस्थित संग्रह होता है| चेतना को विकसित करने को तत्पर रहने वाला ही ‘अगड़ा’ होता है| ऐसा समझने वाला व्यक्ति, परिवार, समाज, संस्कृति और राष्ट्र सदैव अग्रणी रहेगा। किसी के ‘अगड़ा’ होने का एकमात्र करण यही होता है|

यही पिछड़े और अगड़े में मूल, मौलिक और आधाभूत अन्तर है। लेकिन ऐसा क्यों होता है?

प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक अल्फ्रेड एडलर अपने 'श्रेष्ठतावाद' (Striving for Superiority) में समझाते हैं कि प्रत्येक मानव हीनता की भावना से ग्रस्त होता है और वह श्रेष्ठ बनना या दिखना चाहता है। अल्फ्रेड एडलर का 'श्रेष्ठतावाद' का सिद्धांत बताता है कि हर व्यक्ति बचपन में हीनता (Inferiority) की भावना महसूस करता है और इस भावना पर काबू पाने और व्यक्तिगत विकास हासिल करने के लिए श्रेष्ठता चाहता है। यही भावना मानव व्यवहार की मुख्य प्रेरक शक्ति है। यह प्रयास किसी को स्वस्थ रूप से सामाजिक हित और उपलब्धि की ओर ले जा सकता है, या किसी को अस्वस्थ रूप से अहंकार या प्रभुत्व की ओर ले जा सकता है। मुख्य विषय पर जाने से पहले हमलोग एक प्रसंग पर ठहरते है

कुछ वर्षों पहले की बात है। एक प्रोफेसर ने अपने 'युद्ध विज्ञान' (Military Science) के क्लास में छात्रों से पूछा कि दुनिया में सबसे शक्तिशाली देश कौन है? उत्तर आया - संयुक्त राज्य अमेरिका। जवाब सही था। अगला सवाल था कि दुनिया का सबसे डरपोक देश कौन है? उत्तर की प्रत्याशा में क्लास में सन्नाटा छा गया। फिर प्रोफेसर ने बताया कि दुनिया सबसे डरपोक देश भी संयुक्त राज्य अमेरिका ही है। अकल्पनीय उत्तर था। परन्तु ऐसा कैसे सम्भव है? जो डरपोक होता है, वह अपने सभी संभावित खतरों के प्रति अति सावधान और सतर्क होता है। एक डरपोक ही अपने सभी संभावित कमजोर पक्षों को मजबूत करता है, ताकि उसे कोई किसी भी क्षेत्र में नुकसान नहीं पहुँचा सके| इसके लिए वह अति सावधान एवं सजग रहकर अपने कमजोर पक्षों को पहचानते रहते हैं और समय के अनुसार अपने को संशोधित, परिमार्जित और संवर्धित करते होते हैं|  उसका यही भाव उसे सशक्त बनने को बाध्य करता है|

आज का आधुनिक मानव भी इसी डर की भावना के कारण ही एक पशु से मानव बन सका| कोई चालीस लाख साल पहले हमारे पूर्वज वानर (Ape) थे और पेड़ों पर रहते थे| किसी खाद्य संकट के कारण कुछ कमजोर वानरों को पेड़ों से नीचे धकेल कर गिरा दिया गया और फिर से उन पेड़ों पर नहीं चढ़ने दिया गया| नीचे के झाड़ियों में छिपे खतरों को भापने और उनसे बचने के लिए उन्हें उचक उचक कर देखना होता था| इसी क्रम में वह सीधे खड़े होने का आदी होता गया और सीधा चलने वाला मानव बन सका| जंगल का सबसे कमजोर जीव अपने संभावित खतरों को समझने और उसका समाधान पाने के लिए अपनी चेतना के विकास करने को बाध्य हुआ| इसका परिणाम हमलोग के इस स्वरुप में सामने है|

उपरोक्त दोनों प्रसंगों पर ठहर कर विचार करें| दोनों से यही स्पष्ट होता हाँ कि कोई क्यों ‘वनमानुस’ ही रह गया और कोई क्यों विज्ञानमानुस’ बन गया| क्यों कोई जानवर ही रह गया और कोई क्यों ‘निर्माता मानव’ (Homo Faber), ‘सामाजिक मानव’ (Homo Socius), ‘वैज्ञानिक मानव’ (Homo Scientific) और ‘आध्यात्मिक मानव’ (Homo Spiritual ) बन सका| इन सभी का एक ही कारण है| कोई अपने चेतना के विकास को सदैव तत्पर रहता है और कोई चेतना के विकास में पर्याप्त  संतुष्ट होता है| किसी के अगड़े होने और किसी के पिछड़े रह जाने का यही एक कारण है|

आचार्य प्रवर निरंजन जी

अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान|

 

शनिवार, 13 दिसंबर 2025

ब्राह्मणवाद को समझिए

‘ब्राह्मणवाद’ भारत में बहुचर्चित एक शब्दावली है| आजकल भारत की अधिकांश आबादी अपनी समर्पित बौद्धिकता, समस्त वैचारिकी, पूरा समय एवं महत्वपूर्ण संसाधन लगाकर इसी में दुबकी लगा रहे हैं| लोग ब्राह्मणवाद को कुछ व्यक्तियों या व्यक्ति समूहों के ऐच्छिक प्रयास के परिणामस्वरूप उत्पन्न मानते हैं। इस ब्राह्मणवाद के साथ भारत का सबसे बड़ा त्रादसी यह है कि बहुसंख्यक आबादी ब्राह्मणवाद की स्पष्ट संकल्पना को समझता ही नहीं है|

तो ब्राह्मणवाद क्या है?  ब्राह्मणवाद एक विचारधारा है, एक जीवन पद्धति है, एक संस्कृति है, एक चारित्रिक क्रियाविधि है, जिसमें ब्राह्मण वर्ग को सर्वोपरि माना जाता है। यह ब्राह्मण वर्ग कोई जाति, या वर्ण, या ब्रह्म -ज्ञानी माना जाता है। ब्राह्मणवाद अपने आधार स्तम्भों पर आधारित है, क्रियान्वित है और नियमित है। इस आधार स्तम्भ में ‘जाति’ एवं ‘वर्ण’ की व्यवस्था की मान्यता है, ‘आत्मा’ और ‘पुनर्जन्म’ की संकल्पना एवं सम्बन्धित क्रियाविधि की सत्यता है, ‘कर्मवाद के सिद्धांत’ और ‘ईश्वर’ की वास्तविकता है  एवं  ‘स्वर्ग –नर्क’ और ‘नित्यता के सिद्धांत’ की स्थापना में है। उपरोक्त को अपने जीवन में किसी भी रुप में अपनाना,  स्वीकार करना है, और उसे सत्य मानना ही ब्राह्मणवाद है। ‘ब्राह्मणवाद’ स्पष्ट रुप में ‘सांस्कृतिक सामन्तवाद’ है, जो ‘राजनीतिक सामन्तवाद’ एवं ‘आर्थिक सामन्तवाद’ के साथ साथ भारत में विकसित एवं समृद्ध हुआ है|

जब ब्राह्मणवाद को किसी व्यक्ति या व्यक्ति समूह ने उत्पन्न नहीं किया है, तब प्रश्न यह उठता है कि इस ब्राह्मणवाद को किसने जन्म दिया और विकसित किया? क्या इतिहास की धारा को मोड़ने में, यानि दिशा बदलने में कोई व्यक्ति या व्यक्ति समूह मात्र सक्षम नहीं होता है? कुछ समय पहले ऐसा ही माना जाता था कि इतिहास की धारा को मोड़ने में, यानि दिशा बदलने में कोई व्यक्ति या व्यक्ति समूह ही सक्षम होता था| तब प्रश्न है कि इस ब्राह्मणवाद की उत्पत्ति क्यों हुई?

ब्राह्मणवाद की प्रकृति एवं विशेषताओं पर ध्यान दिया जाए। उपरोक्त अवधारणा में इनके आधार -स्तम्भों के अवलोकन से स्पष्ट है कि यह समाज में स्थापित असमानताओं को प्राकृतिक, सहज, सामान्य, न्यायसम्मत और विवेकपूर्ण साबित करने के प्रक्रम में उत्पन्न हुआ है। यह सब सामन्ती व्यवस्था की अनिवार्य आवश्यकता थी|

वैसे इतिहासकार, जो इतिहास को बदलने में व्यक्ति या व्यक्ति -समूह को प्राथमिकता देते हैं, उन्हें ऐतिहासिक शक्तियों और उनकी क्रियाविधियों की समझ नहीं होती है। ऐसे तथाकथित इतिहासकार किसी व्यक्ति या व्यक्ति - समूह को आरोपित कर सामान्य लोगों के सामान्य मनोवैज्ञानिक भावनाओं के पक्ष में हो जाते हैं और इसीलिए सामान्य लोगों में लोकप्रिय हो जाते हैं। सामान्य लोगों एवं निम्नतर लोगों की दुनिया व्यक्ति विशेष की वर्णन, आलोचना या क्रियाओं तक ही सीमित होता है। इतिहास की ऐसी ही व्याख्याओ के कारण ही इन ऐतिहासिक समस्याओं का समाधान अबतक नहीं मिल पाया है।

कोई जबतक किसी समस्या और उनकी वास्तविक जड़ो को यथास्थिति में और यथा स्वरुप में नहीं समझ पाता है, तबतक उन समस्याओं का समुचित समाधान संभव नहीं होता है। ऐतिहासिक शक्तियाँ ही ऐतिहासिक परिस्थितियाँ नियमित और नियंत्रित करती है, जो इतिहास बनाता और बदलता है। रोमन साम्राज्य के पतन और अरबों के उदय के साथ ही ऐतिहासिक शक्तियाँ और ऐतिहासिक परिस्थितियाँ बदलने लगी। इन दोनों घटनाओं के साथ स्थापित सुदृढ़ राज्यों और साम्राज्यों की सत्ता अस्थिर हो गयी। इससे सर्वव्यापक एवं सर्वमान्य मुद्रा की प्रत्याभूति (गारन्टी) देने वाले सर्वमान्य और सर्वव्यापक सत्ता का अभाव हो गया| इससे प्रचलित अर्थव्यवस्था मुद्रा विहीन होने लगा। इससे विनिमय के साधन - मुद्रा की सर्वव्यापकता एवं सर्वमान्यता समाप्त होने लगी| मुद्रा के अभाव में अर्थव्यवस्था जड़ और गतिहीन होने लगी| इससे नगरों का ह्रास होने लगा। अर्थव्यवस्था ग्रामीण होने लगी और यह कृषि कार्यों की ओर उन्मुख हो गयी| अर्थव्यवस्था में प्राथमिक प्रक्षेत्र का प्रभाव व्यापक होने लगा। अर्थव्यवस्था में द्वितीयक, तृतीयक, चतुर्थक एवं पंचक प्रक्षेत्र सिकुड़ने लगा। अर्थव्यवस्था का पतन होने लगा। यही सामन्ती व्यवस्था का प्रारंभ हुआ|

अर्थव्यवस्था के इस परिवर्तन के साथ ही राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक परिवर्तन होने लगे| इसी के साथ शब्दों के ढाँचा, आकार, संरचना एवं सम्बन्धित संकल्पनाओं में भी संशोधन, परिमार्जन एवं पुनर्परिभाषित होने लगा। सम्बन्धित शब्दों और मुहावरों के सतही, गूढ़ एवं निहित अर्थ नए व्यवस्थाओं के अनुरुप अनुकूलित होकर बदलने लगा। शब्द का ढाँचा, यानि बाहरी रुप लगभग स्थिर रखते हुए संकल्पनात्मक अर्थ बदल गए। प्राचीन काल में प्रचलित ‘बाम्हण’ शब्द अब ‘ब्राह्मण’ हो गया। ‘बाम्हण’ विद्वता पर आधारित विद्वान वर्ग होते थे, जो अर्थव्यवस्था के गतिहीन होने के कारण जन्म आधारित वर्ग में बदलने लगे। शब्द वही रहे, लेकिन उनकी संकल्पना बदल गयी| इसी तरह समाज का ‘सामूहिक अचेतन’ बदलने लगा। यही बदलना ही संस्कृति का बदलना हुआ। यही व्यवस्था का ‘फिजावेयर’ बदलना हुआ। इससे समाज और व्यवस्था के फिजाओं में बदलाव आने लगा। विद्वता अब जन्म आधारित यानि जाति आधारित होता गया| इस तरह ब्राह्मणवाद का उदय हुआ। इसका विस्तृत एवं सम्बन्धित पक्षों की व्ताख्या यहाँ अपेक्षित नहीं है|

अर्थव्यवस्था में इसी परिवर्तन से ‘बुद्धिवाद’ का विलीनीकरण हुआ और इसी विलीनीकरण के समानान्तर एवं समकालिक सामन्तवाद का क्रमिक उत्पत्ति और विकास हुआ। सामन्तवाद राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और सांस्कृतिक होता है| यह ब्राह्मणवाद इसी समानान्तर एवं समकालिक धार्मिक और सांस्कृतिक सामन्तवाद का भारतीय संस्करण है। इसी व्याख्या के अनुरुप ही ऐतिहासिक और पुरातात्विक साक्ष्य उपलब्ध हैं।

इतिहास की वैज्ञानिक व्याख्या ही इतिहास को सत्यता के करीब पहुंचाता है, जो राष्ट्र और मानवता का कल्याण करता है। यह वैज्ञानिक व्याख्या अनिवार्य रुप में चार्ल्स डार्विन का ‘प्राकृतिक उद्विकासवाद’ और हर्बर्ट स्पेंसर के ‘सामाजिक उद्विकासवाद’ के अनुरुप होगा। इतिहासकार के द्वारा रचित इतिहास पर इतिहासकार के व्यक्तित्व का प्रभाव रहता है। और इस प्रभाव की व्याख्या सिग्मण्ड फ्रायड के ‘मनोविश्लेषणवाद’, कार्ल जुंग के ‘सामूहिक अचेतनवाद’ (‘संस्कृतिवाद’), एवं अल्फ्रेड एडलर का ‘श्रेष्ठतावाद’ के प्रकाश में किया जाना समुचित है। यदि ऐतिहासिक क्रियाविधियों को कार्ल मार्क्स के आर्थिक शक्तियों के आधार पर व्याख्यापित नहीं किया जा रहा है, तो वह व्याख्या वैज्ञानिक सत्यता से दूर है। इसी के साथ फर्डिनेंड डी सौसुरे का ‘संरचनावाद’ और जाक डेरिडा का ‘विखण्डनवाद’ इतिहासकार के द्वारा प्रयुक्त शब्दों और वाक्य संरचनाओं को समझने के लिए अनिवार्य है। गैलेलियो के ‘सापेक्षवाद’ के बिना इतिहासकारों के इतिहास की सम्यक समझ संभव नहीं है।

उपरोक्त वैज्ञानिक दर्शनों के अभाव में कोई भी इतिहास सम्यक नहीं है| यह मिथकों के समान चटपटा अवश्य होता है। आजकल ब्राह्मणवाद पर उपलब्ध जानकारी चटपटा अवश्य होता है। ब्राह्मणवाद को व्यक्ति या व्यक्ति - समूह ने स्थापित और संचालित नहीं किया है, बल्कि ऐतिहासिक शक्तियों ने स्थापित और संचालित किया है। इसे समझना आवश्यक है|

यूरोप इन सामन्ती व्यवस्थाओं के विरुद्ध पुनर्जागरण फिजाओ से सांस्कृतिक सामन्तवाद को हटा सका। भारत में यह सांस्कृतिक सामन्तवाद अपने भारतीय संस्करण - ब्राह्मणवाद के रुप में सांस्कृतिक सामन्तवाद की निरन्तरता, प्रभावशीलता और स्थायित्व बनाए हुए है।

यदि आप ब्राह्मणवाद को इस तरह नहीं समझते हैं, तो तथाकथित बौद्धिक आन्दोलनों में तैरते रहने और पार लगा लेने के भ्रम में बने रहने के लिए सभी स्वतंत्र है। इतिहास को सही तरीके से समझने के लिए ऐतिहासिक शक्तियों और उनकी अन्तरक्रियाओ की क्रियाविधियों को अवश्य समझिए।

आचार्य प्रवर निरंजन जी

दार्शनिक, शिक्षक एवं लेखक

अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान, बिहटा, पटना, बिहार|

बुधवार, 10 दिसंबर 2025

ब्रह्माण्ड चैतन्य क्यों नहीं है?

अक्सर यह कहा जाता रहा है कि यह ब्रह्माण्ड चैतन्य है| अर्थात यह ब्रह्माण्ड चेतना युक्त है| कहने का तात्पर्य यह है कि यह ब्रह्माण्ड समझदार और प्रज्ञावान है| हम सभी उसी चैतन्य ब्रह्माण्ड के अंश हैं| इसीलिए हम सभी उसी ब्रह्माण्ड की तरह ही शक्तिशाली और समझदार भी हैं| जब हम समझदार हो सकते हैं, तब यह ब्रह्माण्डीय चेतना तो बहुत अधिक समझदार होगा ही| अब यह प्रश्न उठता है कि यदि यह ब्रह्माण्ड चैतन्य है, तो यह ब्रह्माण्डीय चेतना अपने प्रभाव एवं अनुकम्पा के वितरण में भेदभाव कैसे और क्यों करता है? सभी जीवों में सभी मानव शामिल हैं| ब्रह्माण्डीय चेतना का मानवीयकरण करना वैज्ञानिकता नहीं हो सकता है| ब्रह्माण्डीय चेतना का मानवीयकरण करना ही ‘ईश्वर’ का सृजन करना हुआ| फिर यह भी प्रश्न है कि यह ब्रह्माण्डीय चेतना सभी मानवों में विभेदन क्यों करता है और किस आधार पर करता है? प्रकृति का नियम सदैव सर्वकालिक और सार्वभौमिक होता है| अर्थात प्रकृति को सदैव ही नियम संगत होना चाहिए, अन्यथा वह अवश्य ही अप्राकृतिक है।|

यदि ब्रह्माण्ड चेतना के साथ अस्तित्व में हैं, तो उपरोक्त प्रश्नों का समुचित तार्किक उत्तर मिलना चाहिए| अन्यथा यह मान लेना उचित और सम्यक प्रतीत होगा कि यह ब्रह्माण्ड चेतना युक्त नहीं है| लेकिन इस ब्रह्माण्ड में चेतना तुल्य के कुछ स्पष्ट संकेत या प्रमाण मिलते हैं| तब यह नहीं कहा जा सकता है कि ब्रह्माण्ड चैतन्य नहीं है| अर्थात यह ब्रह्माण्ड चेतनशील है|

तब यह स्पष्ट होता है कि एक ही साथ यह ब्रह्माण्ड चैतन्य भी है और चैतन्य नहीं भी है| यही अवस्था एक सूक्ष्म जीवाणु के साथ होता है, जिसे वायरस (विषाणु/ Virus) कहते है| वायरस जीवित जीवों के साथ चैतन्य होता है और वही वायरस निर्जीव जीवों के साथ चैतन्य नहीं होता है| अर्थात एक ही वायरस कभी जीवित होता है और कभी निर्जीव भी होता है| आप कह सकते हैं कि एक वायरस एक साथ चैतन्य भी है और वही वायरस चैतन्य नहीं भी है| यह ब्रह्माण्डीय चेतना भी एक वायरस की ही तरह एक साथ चैतन्य भी दिखता है और चैतन्य नहीं भी दिखता है|

तब यह सहज प्रश्न उभरता है कि इसकी वैज्ञानिक क्रियाविधि क्या है? इसे समझने के लिए आप एक छोटे से परितंत्र (Ecosystem) का उदाहरण लें| यह परितंत्र एक छोटा का जलाशय (तालाब/ Pond) हो सकता है| इस जलाशय के परितंत्र का ऊर्जा स्रोत सूर्य होगा| जलाशय के परितंत्र में जीवन की उत्पत्ति के लिए आवश्यक सभी मूलभूत तत्व एवं यौगिक अपने मौलिक स्वरुप में मौजूद होते हैं| यही सभी आवश्यक पदार्थ सूर्य की ऊर्जा की उपस्थिति में एवं अन्य अनुरुप परिस्थिति में जीवन की उत्पत्ति करता है| हर जीवित जीव चेतना युक्त होता है| इस परितंत्र में यह जीवन विकसित होता है, पलता एवं बढ़ता होता है| फिर यह जीवन मृत्यु को प्राप्त हो जाता है| मरने के बाद इस जीवन चक्र का ऊर्जा इस तंत्र से बाहर निकल जाता है| फिर इस जीवित जीव के अन्य सभी मूलभूत तत्व एवं यौगिक विघटित होकर अपने स्रोत के भण्डार में उपलब्ध हो जाता है| इनके सभी मूलभूत तत्व एवं यौगिक जीवन –चक्र के अनुसार एक चक्र पूरा करता होता है, लेकिन चेतना अपना चक्र पूरा नहीं करता है| अर्थात चेतना यानि उसका आत्मा का अस्तित्व उसके मृत्यु के साथ समाप्त हो जाता है|

यही स्थिति मानव सहित सभी जीवन के लिए सत्य है| यदि ब्रह्माण्ड भी चेतना युक्त है, तो यह भी इसी व्यवस्था के कारण है| तो फिर उपरी प्रश्न वही खड़ा रह जाता है| तब यह ब्रह्माण्ड व्यक्ति विशेष की विशेषता के अनुसार चैतन्य कैसे होता है और यह ब्रह्माण्ड अन्य के लिए चैतन्य कैसे नहीं होता है? इसे एक दूसरे उदाहरण से समझते हैं|

‘ब्रह्माण्ड’ भी एक ‘ईंधन युक्त निष्क्रिय सत्ता’ है, जो एक ‘अग्नि –लौ’ (Flame) के समान एक विशिष्ट चेतना के अभाव में सक्रिय नहीं रहता  है| विशिष्ट चेतना के संपर्क में यह ‘ईंधन युक्त निष्क्रिय –सत्ता’ भी प्रदीप्त (Ignited) हो उठता है| किसी व्यक्ति की विशिष्ट चेतना की तरह एक छोटा दीप भी अपनी ‘दीप –लौ’ (Lamp –Flame) से उसे प्रज्जवलित कर देता है| अर्थात एक ब्रह्माण्ड क्षमतावान होता है, जो अग्नि की तरह उष्मा, प्रकाश, एवं ऊर्जा से निर्मित सूचना एवं चेतना का असीम भण्डार होता है| परन्तु यह ब्रह्माण्ड चेतना की तरह सक्रिय होने को तत्पर तो होता है, लेकिन यह किसी विशिष्ट एवं समर्थ चेतना के सम्पर्क की प्रतीक्षा में निष्क्रिय पडा होता है| जब भी कोई विशिष्ट एवं समर्थ चेतना का व्यक्ति अपनी ऊर्जा को उच्चतर अवस्था में लाकर ब्रह्माण्ड की अनन्त विस्तार के संपर्क में आता है, तब उस विशिष्ट व्यक्ति की चेतना के लिए यह ब्रह्माण्ड सक्रिय और कार्यरत हो उठता है| यह ब्रह्माण्ड अन्य सामान्य एवं साधारण चेतना के लिए सदैव निष्क्रिय एवं अक्षम पड़ा रहता है| ब्रह्माण्ड की चैतन्यता की यही वैज्ञानिक क्रियाविधि (Mechanism) है|

आप ‘चेतना’ को ‘आत्म’ (Self) कह सकते हैं| ‘चेत’ जाना ही किसी की ‘चेतना’ है| ‘चेत’ जाने की क्रिया को किसी का ‘आत्म’ करता है| इसीलिए ‘चेतना’ को मैं उसका ‘आत्म’ कहता हूँ| यह ‘आत्म’ किसी की ‘आत्मा’ नहीं है| मैं यहाँ ‘आत्म’ (Self) और ‘आत्मा’ (Soul) में अंतर स्पष्ट नहीं करने जा रहा हूँ, क्योंकि यह विषयान्तर होगा| यह ‘आत्म’ उस व्यक्ति के ‘मन’ (Mind) एवं ‘चित्त’ (Spirit) का संयुक्त स्वरुप होता है| यह ‘मन’ व्यक्ति के ‘मस्तिष्क’ (Brain) से अलग होता है| यह ‘मस्तिष्क’ उस व्यक्ति के शरीर, ‘मन’, ‘चित्त’ एवं अनन्त प्रज्ञा के बीच एक मोड्यूलेटर (Modulator) की तरह कार्य करता है|

‘मन’ उस व्यक्ति के विचारों का उत्पादन, संश्लेषण, संयोजन एवं भण्डारण केंद्र की तरह होता है| इसी तरह, ‘चित्त’ उस व्यक्ति की भावनाओं का उत्पादन, संश्लेषण, संयोजन एवं भण्डारण केंद्र की तरह होता है| यह ‘चित्त’ ही व्यक्ति की सम्पूर्णता को अनन्त ब्रह्माण्ड की ‘ईंधन युक्त निष्क्रिय सत्ता’ से सम्बन्धित करता है, यदि वह ‘चित्त’ (Spirit) सक्षम एवं क्षमतावान हो| ‘चित्त’ की सक्षमता उसी समय अनन्त प्रज्ञा को सम्बन्धित करता है, जब वह किसी विशिष्ट चेतना की सक्रियता के संपर्क में आता है| इसी ‘चित्त’ (Spirit) को अनन्त ब्रह्माण्ड की ‘ईंधन युक्त निष्क्रिय सत्ता’ से सम्बन्धित होने की प्रक्रिया को ‘अध्यात्म’ (Spirituality) कहते हैं| भारत में किसी व्यक्ति के ‘आत्म’ को ‘अधि’ (ऊपर) से सम्बन्धित होने की प्रक्रिया ही ‘अध्यात्म’ (अधि + आत्म) कहलाता है| इस प्रक्रिया में किसी व्यक्ति का ‘स्व’/ ‘आत्म’/ ‘मैं’ का सम्बन्ध अनन्त प्रज्ञा, यानि ‘ईंधन युक्त निष्क्रिय सत्ता’ वाले ब्रह्माण्ड की सत्ता से होता है| यही अध्यात्म है|

यहाँ एक और बात का ध्यान रखना है| अनन्त ब्रह्माण्ड की ‘ईंधन युक्त निष्क्रिय सत्ता’ का उत्पादन उसी स्तर की गुणवत्ता और मात्रा का होता है, जिस स्तर की गुणवत्ता और मात्रा उस विशिष्ट व्यक्ति की चेतना में होता है| इसी कारण तथागत बुद्ध, अल्बर्ट आइन्स्टीन और स्टीफन हावकिन्स अपनी चेतना के स्तर की गुणवत्ता और मात्रा के अनुसार ही ब्रह्माण्ड को चैतन्य बना कर मानवता को लाभान्वित करा सके| इसे स्थिरता से और ध्यान से समझा जाय|

अब आप ब्रह्माण्ड की चैतन्यता की वैज्ञानिक क्रियाविधि की व्याख्या को समझ गए होंगे|

आचार्य प्रवर निरंजन जी

अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान, बिहटा, पटना, बिहार|

सोमवार, 24 नवंबर 2025

नीतीश कुमार का विकास - यात्रा

वैसे मुझे इस आलेख का शीर्षक ‘नीतीश कुमार का विकास’ नहीं देना चाहिए था, परन्तु इसी बहाने अविकसित क्षेत्रों के ‘विकास माडल’ पर एक गंभीर विमर्श किया जा सकता है| यहाँ यह भी स्पष्ट हो जाना चाहिए कि मैं कोई राजनीतिक व्यक्ति नहीं हूँ, इसीलिए इस आलेख में किसी राजनीतिक झुकाव पर आपकी निगाहें नहीं होनी चाहिए| मैं भी उसी क्षेत्र का हूँ, जिस छोटे भौगोलिक क्षेत्र (नालन्दा) से माननीय नीतीश कुमार जी हैं| नीतीश कुमार भारत के बिहार प्रान्त के माननीय मुख्य मन्त्री है|

यह वही बिहार है, जो कभी ऐतिहासिक मगध साम्राज्य का ‘कोर’ भौगोलिक क्षेत्र रहा| यह कोर क्षेत्र ऐसा था, जहाँ से व्यवस्थित ‘ज्ञान’ एवं ‘बुद्धि’ का वैश्विक प्रकाश फैलना शुरू हुआ| इन व्यवस्थित ‘ज्ञान’ एवं ‘बुद्धि’ के प्रकाश केन्द्रों को ‘विहार’ (Vihar)  के नाम से जाना जाता था| इन्हीं ‘विहारों’ की अधिकता के कारण ही यह क्षेत्र समय के साथ ‘बिहार’ (Bihar) हो गया| इस क्षेत्र के इसी प्रसिद्धि के बाद कपिलवस्तु के सिद्धार्थ गोतम अपने अग्रेतर एवं उच्चतर ज्ञानार्जन के लिए अपने गृह त्याग के बाद सबसे पहले राजगृह पहुंचे थे| इसी बाद, वे व्यवस्थित ‘ज्ञान’ एवं ‘बुद्धि’ के भारतीय प्रकाश -परम्परा में 28वें बुद्ध बने| वर्तमान के ‘विकास’ और ‘विकास की पीड़ा’ को समझने के लिए पूर्व की स्थिति को भी समझना चाहिए, जैसा कि महान वैज्ञानिक गैलेलियो अपने ‘सापेक्षवाद’ (Relativity) में समझाते हैं|

मध्य युग में सामन्तवाद बिहार सहित भारत में अपने विविध स्वरूपों में रूपांतरित हुआ| इस रूपांतरण में भी बिहार का यह क्षेत्र आर्थिक रुप में समृद्ध रहा| इसी समृद्धि के कारण यहाँ स्थापित यूरोपीय व्यापारिक कम्पनी सम्पूर्ण भारत पर काबिज हो सका| वर्ष 1793 में ब्रिटिश व्यवस्था के भू राजस्व के ‘स्थायी बंदोवस्त’ (Permanent Settlement) के साथ मध्य युगीन विकसित सामन्ती व्यवस्था बिहार में ‘जमींदारी व्यवस्था’ के रूप में और सुदृढ़ हो गयी| इस ‘जमींदारी व्यवस्था’ के अत्यधिक शोषण के कारण बिहार क्षेत्र बर्बाद हो गया| यह बिहार तत्कालीन बंगाल में ओड़िसा और झारखण्ड सहित शामिल था| ब्रिटिश काल के शोषण के बाद ‘भाडा समानीकरण नीति’ और कोयला के लिए ‘मात्रा’ आधारित रायल्टी (जबकि अन्य खनिजों के लिए मूल्य आधारित रायल्टी नीयत था) की नीति ने बिहार को विकास के लिए प्रोत्साहित करने का माहौल बनाने नहीं दिया| यह ‘सोया हुआ बिहार’ माननीय लालू प्रसाद जी के आगमन तक यथावत पड़ा हुआ था| लेकिन हमें यहाँ रुक कर व्यवस्था के विकास प्रणाली को समझ लेना चाहिए|

कोई भी व्यवस्था –तंत्र में तीन स्तर पर कार्यरत रहता है| इन स्तरों को समझने के लिए आधुनिक वैज्ञानिक युग में ‘कम्प्यूटर तंत्र’ के अनुरूप शब्दावली का उपयोग किया जाना उचित होगा| यह स्तर ‘हार्डवेयर’, ‘साफ्टवेयर’ और ‘फिज़ावेयर’ है| व्यवस्था –तंत्र का जो स्तर हमें सामान्य ज्ञानेन्द्रियों से दिखती है, जो भौतिक पदार्थो से निर्मित होता है, और जो कार्यो की अभिव्यक्ति का मुख्य आधार होता है, उसे व्यवस्था का ‘हार्डवेयर’ कहते हैं| इस हार्डवेयर में भवन, सड़क, पुल, विद्युत एवं संचार तंत्र ढाँचा आदि आदि शामिल होता है, जो विकास के लिए भौतिक आधार बनता है| ‘साफ्टवेयर’ की व्यवस्था का यह स्तर हमें सामान्यत: सामान्य ज्ञानेन्द्रियों से नहीं दिखती है और उसे समझने देखने के लिए हमें मानसिक दृष्टि की आवश्यकता होती है| यह स्तर भौतिक पदार्थों से निर्मित नहीं होती है, लेकिन सारे तंत्र को संचालित एवं नियमित करती है| इस साफ्टवेयर में वैधानिक नीतियाँ, नियम, प्रशासन, शिक्षा, चिकित्सा, प्रबन्धन, धर्म आदि शामिल रहता है| सामान्यत: सभी व्यवस्थायें ऐसे ही चलती है|

इस ‘हार्डवेयर’ (Hardware) और ‘साफ्टवेयर’ (Software) के अतिरिक्त एक अदृश्य परन्तु सबसे महत्वपूर्ण ‘फिज़ावेयर’ (Fizaware) होता है| यही ‘हार्डवेयर’ और ‘साफ्टवेयर’ को पैदा करता है और आधार देता है| इसे मानसिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से समझा जाता है| यह ‘फिज़ावेयर’ संस्कृति के क्षेत्र में काम करता है| यह ‘फिज़ावेयर’ ही उस वर्तमान संस्कृति का संवर्धन करता है| ध्यान रहे कि यूरोप में ‘पुनर्जागरण’ किसी हार्डवेयर या साफ्टवेयर के किसी प्रोजेक्ट के कारण नहीं आया, बल्कि वह ‘फिज़ावेयर’ के परिणाम स्वरुप आया| यह ‘फिज़ावेयर’ उस क्षेत्र में, उस सांस्कृतिक समूह में, या उस समाज में एक रचनात्मकता एवं सकारात्मकता का फिज़ा बनाता है| दरअसल यह फिज़ावेयर उस वातावरण में फिज़ा यानि माहौल (situation) बनाना होता है| मुझे इसका कोई अंग्रेजी शब्द नहीं मिला, जो भावार्थ को समुचित एवं पर्याप्त ढंग से अभिव्यक्ति दे सके|

नीत्शे का परिप्रेक्ष्यवाद हमें यह समझाता है कि कोई भी बात बिना परिप्रेक्ष्य के समझना अधूरा होता है| इसीलिए मैंने ऊपर बिहार का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य बताया| लेकिन नीतीश कुमार पर कोई बात बिना लालू प्रसाद के परिप्रेक्ष्य का अधूरा है| बिहार के ऊपर वर्णित परिप्रेक्ष्य में, लालू प्रसाद का पदार्पण हुआ| यह बिहार-तंत्र अभी भी सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक एवं आर्थिक दृष्टि से अत्यंत पिछड़ा हुआ था| लालू प्रसाद जी ने बिहार में ‘सामाजिक फिज़ावेयर’ को काफी मजबूत किया और इसका उपयोग किया| लेकिन ये अन्य फिज़ावेयरों’ की अवधारणा को और उनकी क्रियाविधियों को नहीं समझ पाए| परिणाम यह हुआ कि इनके परिप्रेक्ष्य में नीतीश कुमार का आगमन हुआ|

नीतीश कुमार जी अपने प्रारंभिक काल में बिहार-तंत्र के हार्डवेयर की व्यवस्था पर काफी काम किए और यह कार्य आज भी जारी है| इसके अतिरिक्त इन्होने सामाजिक और शैक्षणिक साफ्टवेयर पर भी काफी कार्य किया है| लेकिन इतना स्पष्ट है कि इनके सलाहकार विशेषज्ञ आर्थिक एवं सांस्कृतिक साफ्टवेयर को और उनकी क्रियाविधि को नहीं समझ पाए हैं| इनके सलाहकार विशेषज्ञ ‘राजनीतिक फिज़ावेयर’ के सम्बन्ध में माहिर तो हैं, लेकिन सांस्कृतिक एवं आर्थिक फिज़ावेयर के सम्बन्ध में एकदम भावशून्य लगते हैं|

प्रसिद्ध आर्थिक विशेषज्ञ अमर्त्य सेन को ‘विकास’ की अवधारणा के लिए नोबल पुरस्कार से सम्मानित किया गया| इन्हीं के अवधारणा को संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP) ने अपनाया| इन्होने इसके लिए ‘सक्षमता उपागम’ (Capability Approach) को अपनाया| इसके अनुसार असल विकास लोगों की सक्षमता में वृद्धि से होती है, यानि क्षमता में वृद्धि करने में है| ‘मानव विकास सूचकांक’ (HDI) में ‘शिक्षा’, ‘स्वास्थ्य’, एवं ‘आय’ को प्रमुखता दिया गया है| यहाँ ‘आय’ लोगों को सक्षम बना कर बढ़ाना है, नहीं कि धन के दान, अनुदान, या तथाकथित कोई आर्थिक सहयोग की अधिकता से ‘आय’ बढ़ाना| इसलिए आज बिहार प्रति व्यक्ति आय में भारत में सबसे निम्नतम स्थान पर है| यह भी उल्लेखनीय होगा कि माननीय अमर्त्य सेन भी अपने सक्षमता –उपागम के साथ संस्कृति के फिज़ावेयर पर ध्यान नहीं दे पाए, और इसिलिए विश्व की 750 करोड़ आबादी अपने व्यक्तित्व के पूर्ण अभिव्यक्ति के लिए अभी तक ‘विकास’ के लिए लालायित है|   

नीति आयोग ने बड़े एवं मंझोले राज्यों की सूची में कुल अठारह राज्य शामिल किए हैं| आज भी बिहार, झारखंड और उत्तर प्रदेश विकास के भिन्न भिन्न सूचकांकों में इन 18 राज्यों में 16वें, 17वें और 18वें स्थान के लिए प्रतियोगिता में हैं| ध्यान रहे कि हार्डवेयर में विकास को ‘तंत्र का वृद्धि’ कहते हैं, लेकिन यह सम्पूर्ण बिहार-तंत्र का विकास नहीं है| इसी तरह, साफ्टवेयर में विकास को भी ‘तंत्र का वृद्धि’ ही कहा जाना चाहिए| इनके काल में प्रत्येक हार्डवेयर और कुछ साफ्टवेयर में काफी बेहतर कार्य हुए हैं, जबकि कई साफ्टवेयर के क्षेत्र में अभी भी विशेष काम किया जाना अपेक्षित है| इसीलिए ये ‘वृद्धियाँ’ (Growths) अभी तक ‘विकास’ (Development) में नहीं बदल सकी है| लेकिन इनके ‘विकास सलाहकारों’ का ध्यान अभी तक सांस्कृतिक एवं आर्थिक क्षेत्र के ‘फिज़ावेयर’ पर नहीं गया| सांस्कृतिक एवं आर्थिक क्षेत्र के ‘फिज़ावेयर’ पर किए गये कार्यों का प्रभाव शताब्दियों और सहत्राब्दियों तक रहता है| ऐसे ही व्यक्ति इतिहास पुरुष बनते हैं|

मैं इनके विकास की अवधारणा का नकारात्मक आलोचना नहीं कर रहा हूँ| मैं भी चाहता हूँ कि इनका नाम इतिहास के सन्दर्भ में सिर्फ ‘लम्बे अवधि के शासन काल’ के लिए दर्ज नहीं हो, बल्कि बिहार को रूपांतरित करने एवं अग्रणी क्षेत्र बनाने वाले के रूप में याद किये जाएँ| इनके विकास सलाहकारों को फिज़ावेयर की अवधारणा, महत्त्व और इसकी क्रिया विधि को समझाना चाहिए|

आचार्य प्रवर निरंजन जी

दार्शनिक, शिक्षक एवं लेखक

अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान,

हर्बल सिटी, एयरफ़ोर्स स्टेशन रोड, देवकुली, बिहटा, पटना, भारत| 

शुक्रवार, 31 अक्टूबर 2025

विजनरी लीडर : सरदार पटेल

सरदार पटेल अर्थात भारत के एक महान व्यक्तित्व सरदार बल्लवभाई पटेल| इन्हें ‘विजनरी लीडर’ (Visionary Leader) भी कहा गया| ‘विजन’ वाला ‘लीडर’, यानि एक ऐसा व्यक्ति जो सब चीजों में लोगों को ‘Lead’ (लीड) करे, यानी सबसे ‘आगे’ रखे| ‘विजन’ (Vision) भी एक ऐसा ही शब्द है, जो अपनी शाब्दिक ‘ढाँचागत संरचना’ में सामान्य ‘दृष्टि’ से अलग और उच्चतर अर्थ देता है| ‘दृष्टि’ (देखना) तो पांच ज्ञानेन्द्रियों में एक का अनुभव होता है, जो सभी सामान्य लोगों के पास होता है| लेकिन ‘विजनरी’ (Visionary) तो वह होता है, जो अपनी पाँचों सामान्य ज्ञानेंद्रियों के अतिरिक्त ‘मानसिक दृष्टि’ और ‘आध्यात्मिक दृष्टि’ रखता हो| ‘मानसिक’ प्रक्रिया ‘मन’ के स्तर पर विचारों के उत्पादन के लिए होता है, जबकि ‘आध्यात्मिक’ प्रक्रिया अपने ‘आत्म’ (मन एवं चित्त) को ‘अधि’ यानि ‘ऊपर अनन्त प्रज्ञा’ से जोड़ कर ‘अंतर्ज्ञान’ (Intuition) पाता है| स्विटजरलैंड के प्रसिद्ध दार्शनिक फर्डीनांड डी सौसुरे अपने ‘संरचनावाद’ में यही समझते हैं कि प्रत्येक शब्दों की अपनी एक विशिष्ट ढाँचा एवं संरचना होती है| इसीलिए सरदार पटेल को ‘दृष्टिवान  नेता’ नहीं कह कर एक ‘विजनरी लीडर’ कहा गया है| इन्हें हिंदी भाषा के ‘दृष्टिवान  नेता’ कहने से वह अर्थ संप्रेषित नहीं होता है, जो अंग्रेजी भाषा के ‘विजनरी लीडर’ से संचारित होता है|

तो सबसे अहम सवाल यह है कि सरदार पटेल ‘विजनरी लीडर’ कैसे हुए? ‘विजनरी’ वह व्यक्ति होता है, जो ‘मानसिक सक्षमताओं’ से उपलब्ध सूचनाओं,  विचारों. अनुभवों, भावनाओं और व्यवहारों का ‘सन्दर्भ’ एवं ‘पृष्ठभूमि’ के परिप्रेक्ष्य में आलोचनात्मक मूल्यांकन कर भविष्य को स्पष्ट देखता हो और उसके अनुसार पूर्व से तैयारी रखता हो| इससे ऐसे निष्कषों, निर्णयों, आयोजनों, एवं नियंत्रणों में वह ‘नवाचारी’ (Innovative) दृष्टिकोण अपनाता है| आध्यात्मिक शक्ति ‘आभास’ यानि ‘अंतर्ज्ञान’ (Intuitive) के रूप में अभी तक अनुपलब्ध रहे जानकारी यानि सूचनाओं को उपलब्ध कराता है| सरदार पटेल को मानसिक दृष्टि एवं आध्यात्मिक दृष्टि में उच्चतर स्तर के होने के कारण ही ‘विजनरी लीडर’ कहा गया है|

सरदार पटेल को इस बात का ज्ञान था और आभास भी था कि अन्य साम्राज्यवादियों की ही तरह ब्रिटिश साम्राज्यवादी भी अपना स्वरुप बदलने वाला है| ‘ऐतिहासिक शक्तियाँ’ ही इतिहास की धारा बदलती है, इन्हें इस बात का ध्यान था| ‘साम्राज्यवाद’ पहले ‘वणिकवाद’ के रूप में आया और उसने अपने साथ ‘उपनिवेशवाद’ भी लाया| फिर साम्राज्यवाद ने ‘वणिकवाद’ का चोला छोड़ कर ‘औद्योगिकवाद’ का स्वरुप धारित कर लिया| ‘उपनिवेशवाद’ के लिए ‘नव साम्राज्यवादियों’ को अतिरिक्त भौगोलिक भूभाग चाहिए था, और उसी के लिए विश्व ने दो दो विश्व युद्ध झेले| साम्राज्यवादियों के लिए यह अवश्यम्भावी हो गया था कि उन्हें अब अपने ‘उपनिवेशवादी’ स्वरुप को छोड़ देना पड़ेगा| लेकिन वे अपनी ‘साम्राज्यवादी हित’ को छोड़ने वाले नहीं थे| द्वितीय विश्व युद्ध का यह अनिवार्य परिणाम था कि सभी ‘उपनिवेशों’ को ‘राजनीतिक स्वतन्त्रता’ मिलनी थी| लेकिन ‘साम्राज्यवादी हित’ का स्वरुप अब ‘वित्तीय साम्राज्यवाद’ का होने वाला था| ऐसी स्थिति में ‘साम्राज्यवादी ब्रिटेन‘ एकीकृत भारत’ को स्वीकारना नहीं चाहता था, इसीलिए ब्रिटेन ने भारत की स्वतन्त्रता घोषित करने के साथ ही अपने सभी संरक्षित 565 भारतीय देशी रियासतों को भी स्वतंत्र घोषित कर दिया| ‘खंडित राष्ट्र’ पर ‘साम्राज्यवादी हित’ साधना साम्राज्यवादी शक्तियों के लिए एक लाभकारी स्थिति देता है| यह सब सरदार पटेल जैसा ही कोई ‘विजनरी नेतृत्व’ ही समझ सकता था|

वैश्विक राष्ट्रवादी आंदोलनों ने यूरोप को अनेकों ‘राष्ट्रीय राज्यों’ (National States) में विभाजित कर दिया, लेकिन ये सभी ‘राष्ट्र- राज्य’ (Nation - state) अब एक ‘यूरोपीय संघ’ बना कर एकल व्यवस्था की ओर अग्रसर हैं| भारत अनेक बड़े देशों जैसे संयुक्त राज्य अमेरिका, तत्कालीन सोवियत संघ और चीन जैसा ‘बहु राष्ट्रीय – राज्य’ बनने जा रहा था| भारत को इन देशों की तरह ‘राज्य –राष्ट्र’ (State – Nation) बनना था, जो उस समय भी और आज भी निर्माणाधीन अवस्था में है| यहाँ यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण होगा कि राष्ट्रीय -राज्य’ (Nation –State) और ‘राज्य –राष्ट्र’ (State –Nation) अलग अलग अवधारणा है, तथा भारत एक ‘राज्य –राष्ट्र’ है| इसीलिए भारतीय संविधान सभा ने भारतीय संविधान की उद्देशिका (Preamble) में ‘राष्ट्र की एकता (और अखंडता)’ सुनिश्चित करने की बात की है| यहाँ ‘देश’ या ‘राज्य’ या ‘प्रान्त’ की एकता सुनिश्चित करने की बात नहीं की गयी| यह ध्यान रखने की बात है| यह सब सरदार पटेल जैसा गृह मंत्री ही समझ सकता था| इसीलिए 565 रियासतों में से 564 रियासतों को भारत में मिलाकर एक अखंड भौगोलिक क्षेत्र के रुप में भारत का निर्माण करने में अपनी बड़ी अहम सूझ बुझ अपनायी| एक रियासत प्रधान मंत्री नेहरु के हस्तक्षेप से बाद भारत में बाद में शामिल हुआ, लेकिन उसमे विवाद अभी भी बना हुआ है| इस अखंड भारत के लिए भारत उस ‘विजनरी लीडर’ का सदैव आभारी रहेगा|

इस भौगोलिक एकीकरण के कई निहितार्थ हैं| इससे भारत अपने सैकड़ों पड़ोसियों से उलझने से बच गया| इतने देशों से राजनयिक सम्बन्ध एवं सैनिक व्यवस्था बनाना एक उबाऊ, तनावग्रस्त और अनावश्यक आर्थिक परेशानी होता| इस भौगोलिक एकीकरण ने आर्थिक समृद्धि के उद्भव एवं विकास के लिए आवश्यक ढाँचा और संरचना को मजबूत आधार दिया| आज का विस्तृत रेल, सड़क, बाँध व जलाशय, संचार एवं बिजली आदि का नेटवर्क के लिए आधारभूत अवसर संभव हुए| आज एक भारत और एक बाजार उसी ढाँचे पर अग्रसर है| यह एक महान ‘विजनरी लीडर’ के प्रयास का परिणाम रहा|

मैंने ऊपर के पैराग्राफ में भारत की ‘राजनीतिक स्वतन्त्रता’ की बात की है| ‘राजनीतिक स्वतन्त्रता’ से ‘राजनीतिक समाज’ (Political Society) को फायदा होता है, लेकिन इस ‘राजनीतिक स्वतन्त्रता’ से ‘नागरिक समाज’ (Civil Society) को कोई विशेष फायदा नहीं होता है| ‘राजनीतिक समाज’ वह समाज होता है, जिसका प्रशासन, पुलिस, सेना, शिक्षा, संस्कृति, मीडिया एवं न्यायपालिका पर नियंत्रण या प्रभाव रहता है| ‘राजनीतिक समाज’ के अलावे अन्य सामान्य जन गण ‘नागरिक समाज’ होता है| ‘नागरिक समाज’ को लाभ ‘राजनीतिक समाज’ को मिलने वाली समृद्धि के रिस जाने (Leakage/ Seepage) से मिलता है| इसे “समृद्धि का रिसना सिद्धांत” (The Seepage Theory of Prosperity) कहते हैं| यह सब बातें बीसवीं शताब्दी के तीसरे एवं चौथे दशक में वैश्विक थी, और सरदार पटेल इसे जानते थे| लेकिन गांधी जी की ह्त्या से सरदार पटेल अपने को सम्हाल नहीं सके और इस क्षेत्र में योजना अधूरी रह गयी|

 भारत जैसे विशाल भौगिलिक क्षेत्र एवं विविध संस्कृतियों को ‘अखंड राष्ट्र’ बनाए रखने के लिए प्रशासनिक ढाँचा पर विशेष ध्यान दिया| प्रशासन एवं पुलिस जैसे स्थानीय मामलों को संविधान की ‘राज्य सूची’ में शामिल करते हुए भी इनके पदाधिकारियों को केन्द्रीय सरकार के अधीन रखा| इसके लिए केन्द्रीय सरकार के अन्य पदाधिकारियों से भिन्न ‘अखिल भारतीय सेवाओं’ का गठन किया, जिसमे ‘भारतीय प्रशासनिक सेवा’ एवं ‘भारतीय पुलिस सेवा’ का संवर्ग शामिल है| शासन एवं व्यवस्था का यह ‘स्टील ढाँचा’ (Steel Frame) आज भी उस महान विजनरी को सादर नमन करता है और सारा राष्ट्र उनका आभारी है|

स्वतंत्रता के समय भारत के तीन सतम्भ थे- गाँधी, पटेल एवं नेहरु| गाँधी की हत्या के बाद पटेल काफी आहत हो गये और वे हृदयाघात के पहले आक्रमण के शिकार हो गये| इस हत्या में ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ का नाम आया| इस ‘संघ’ के संस्थापक और वैचारिक अधिष्ठाता डॉ केशव बलिराम हेडगेवार की मृत्यु आजादी से पहले ही वर्ष 1940 में हो गयी थी और उनके मृत्यु के उपरान्त ही ‘संघ’ विवादित हो गया| परिणाम स्वरुप सरदार पटेल को इस पर कठोर प्रतिबन्ध भी लगाना पडा| शायद यह डॉ  हेडगेवार के विचारों से विचलन का परिणाम था| इस रुप में भी सरदार पटेल ‘विजनरी’ थे|

स्वतंत्र भारत को समय देने के लिए गाँधी और सरदार पटेल नहीं रहे| ये स्वतंत्रता संग्राम के दीवाने अपने ‘विजन’ को अंजाम देने के लिए उपलब्ध नहीं रहे| शायद यदि गाँधी जीवित रहते तो, तो सरदार पटेल भी जीवित रहते और उनके ‘भविष्य के दर्शन’ अपने कार्य रुप में दिखते| जर्मन दार्शनिक फ्रेडरिक नीत्शे के ‘परिप्रेक्ष्यवाद’ के अनुसार उनके व्यक्तित्व का मूल्याकन करना संभव है|

वर्ष 1970 में एक फिल्म बनी, नाम था – “सफ़र”| इस फिल्म में एक गाना है – ‘नदिया चले, चले रे धारा’| आप भी सुनिएगा| इस गाने में अंतिम पंक्ति का सार यह है – ‘समय की धारा इतनी तेज होती है कि, नाव तो नाव, नदी का किनारा भी बह जाता है’| सरदार पटेल जैसे विजनरी उस ‘समय की तेज धारा’ को पहचान लिया था और राष्ट्र हित और तत्कालीन परिप्रेक्ष्य में सरदार पटेल को कुछ मामलों में चुप रहना पडा| वह ‘विजनरी लीडर’ वर्ष 1950 में ही चले गये|  

मैं ऐसे ‘विजनरी लीडर’ को सादर प्रणाम करता हूँ|

आचार्य प्रवर निरंजन जी

दार्शनिक, शिक्षक एवं लेखक

अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान, बिहटा, पटना, बिहार|

रविवार, 26 अक्टूबर 2025

भारत में ‘निर्जीव बौद्धिक’ कौन?

 (The Inanimate Intellectuals of India)

विश्व का सबसे महान एवं सैद्धांतिक क्रान्तिकारी दार्शनिक एन्टोनियो ग्राम्शी (Antonio Francesco Gramsci) इटली का निवासी था। इसने अपने गहन अध्ययन एवं चिन्तन के द्वारा स्थापित मार्क्सवाद के सिद्धांतों में कुछ प्रमुख कमियों को रेखांकित किया और इन कमियों के समाधान के लिए कई प्रमुख नयी अवधारणाओं को दिया| कार्ल मार्क्स के अनुसार हर शोषण का एक अनिवार्य अन्त होता है, जो क्रान्ति के द्वारा होता है। लेकिन विश्व के कई क्षेत्रों में अत्यधिक शोषण के बावजूद भी क्रान्तियाँ नहीं हुई है और नहीं हो रही है, जबकि उन शोषणों की निरन्तरता अभी तक बनी हुई है| क्रान्तिकारी दार्शनिक एन्टोनियो ग्राम्शी यहाँ स्पष्ट करते हैं कि ‘सांस्कृतिक वर्चस्ववाद ही ऐसे किसी शोषण के विरुद्ध क्रान्ति को उत्पन्न और विकसित नहीं होने देता। 

यही और इसी सन्दर्भ में एन्टोनियो ग्राम्शी कुछ महत्वपूर्ण अवधारणाओं के साथ और पूरी क्रियात्मक व्याख्या के साथ उन शोषणों के समापन के लिए उपाय भी देते हैं| इन्हीं समझ के साथ ही लोकतंत्र (और प्रजातंत्र भी), संविधान एवं सम्पूर्ण व्यवस्था भी कारगर होता है| बाकी अन्य सभी समाधान मात्र एक भ्रम है, एक राजनीति है और इसीलिए धोखा मात्र है| इनकी सबसे महत्वपूर्ण अवधारणा सांस्कृतिक वर्चस्ववाद (Cultural Hegemony) की है| इसकी क्रियात्मक व्याख्या इनकी दो अवधारणाओं – राजनीतिक समाज (Political Society) एवं नागरिक समाज  (Civil Society) के साथ ही समझ में आती है| इस शोषण के समापन के लिए इन्होने सजीव बौद्धिक (Organic Intellectual) की अवधारणा दिया है| इसी ‘सजीव बौद्धिक’ का ही एक व्युत्पन्न ‘निर्जीव बौद्धिक’ (Inanimate Intellectual) है|

सबसे पहले सांस्कृतिक वर्चस्ववादको समझा जाय| इस सांस्कृतिक वर्चस्ववाद’ की अवधारणा में यह स्पष्ट किया कि किसी समाज का शासक वर्ग सिर्फ राजनीतिक, या प्रशासनिक, या आर्थिक या बल शक्ति के सहारे ही शासन नहीं करता है, बल्कि यह संस्कृति, शिक्षा, धर्म और मीडिया के द्वारा उनके विचारों, आदर्शों, मूल्यों एवं नैतिकताओं पर नियंत्रण कर करता है| इसमें शासक वर्ग अपने हितों के लिए समाज में मूल्यों, आदर्शों एवं नैतिकताओं को इस रुप में प्रस्तुत करती है, कि यह सब सामान्य जन गण को एक “सामान्य समझ” (Common Sense) एवं ”स्वभाविक” लगता है| समाज के इन्ही मूल्यों, आदर्शों एवं नैतिकताओं को सामान्य जन गण अपना समझता है और उसी के साथ “मस्त” रहता है| यही समाज का ‘सांस्कृतिक वर्चस्ववाद’ का सार है|

‘निर्जीव बौद्धिक’ को ऐसे समझते हैं| यदि प्रकाश है, तो उजाला है। और यदि प्रकाश नहीं है, तो वहाँ अन्धेरा है। इसी तरह, यदि कोई भी बौद्धिक सांस्कृतिक वर्चस्ववाद की समझ रखता है और उसकी सूक्ष्म क्रियाविधि को समझते हुए उसमे ‘भेद्यता’ (Penetrability) रखता है, तो वह व्यक्ति “सजीव बौद्धिक है। अर्थात जब कोई व्यक्ति ‘सांस्कृतिक वर्चस्ववाद की ‘सूक्ष्म क्रियाविधियों’ (Micro Mechanism) की पूरी समझ रखता है और उन समस्त क्रियाविधियों को ‘ध्वस्त” करने की समझ भी रखता है और इसकी इच्छा शक्ति भी रखता है, तो ऐसी प्रेरणा वाले व्यक्ति को ही सजीव बौद्धिक कहते हैं|

लेकिन यदि कोई व्यक्ति इन ‘सांस्कृतिक वर्चस्ववाद को समझता ही नहीं है, और उसी सांस्कृतिक वर्चस्ववाद के प्रेषित अर्थों को सही एवं सत्य मानते हुए उसी के ढाँचे की सीमाओं में ही रहता है, तो वह “निर्जीव बौद्धिक” ही है, भले उसके पास अनेकों उपाधियाँ हो या वह उच्चस्थ पदों को धारित किए हुए हो| ऐसा ‘निर्जीव बौद्धिक’ सिर्फ उपाधियों को बटोरने में और विद्वान् दिखाने में लगा रहा होता है और उसकी समस्त उपाधियाँ भी उसी सांस्कृतिक घेरे की सामग्रियाँ होती है, जिसे ग्राम्सी ‘सांस्कृतिक वर्चस्ववाद’ कहता है| सामान्य जन गण इनकी उपाधियों एवं पदवियों को गिन गिन कर उन्हें ‘अद्भुत नायक समझता रहा होता है। ऐसा ‘निर्जीव बौद्धिक’ किसी भी ‘सांस्कृतिक वर्चस्ववाद को समझ नहीं पाया होता है, और ऐसी स्थितियों में तो उसकी सूक्ष्म क्रियाविधियाँ सर्वथा अज्ञात ही होती है| इसीलिए ‘ऐसे विद्वानों’ से उस ‘सांस्कृतिक वर्चस्ववाद’ की ‘भेद्यता को भेदने का कहीं से कोई संभावना ही नहीं दिखती होती है| इसीलिए ऐसा उपाधि धारी व्यक्ति निर्जीव बौद्धिक हुआ, क्योंकि वह सांस्कृतिक वर्चस्ववाद की कठोर सीमाओं के बाहर सोच भी नहीं रख सकता। ऐसी स्थिति में ऐसे व्यक्तियों की सभी उपाधियाँ और सभी पदवियाँ भी ‘उसी सांस्कृतिक वर्चस्ववाद की चासनी में लिपटी हुई होती है। ऐसे व्यक्तियों के सभी अवधारणाओं में, सिद्धांतो में और क्रियाओं में कोई पैरेडाईम शिफ्ट नहीं होता। ऐसा व्यक्ति किसी भी समाज में कोई मौलिक बदलाव नहीं कर सकता है| ऐसा ‘निर्जीव बौद्धिक’ तत्कालीन विश्व में ज्ञात एवं उपलब्ध कुछ सुधारात्मक समाधान देता दिखता है, लेकिन कोई क्रान्तिकारी बदलाव  नहीं होता है| भारत की दुर्दशा के साथ यही सब है|

यदि कोई समस्या इतिहास और भूगोल में विशिष्ट है और अकेला भी हो, तो उस ‘सांस्कृतिक वर्चस्ववाद’ को ही तथ्यात्मक रुप में सत्य और सही मानने और उसी के आधार पर समाज में कोई भी मौलिक और गहरे समाधान की संभावना नही होती। इसी कारण भारत में भी जाति व्यवस्था’ की समस्या का समाधान अभी तक नहीं निकल पाया। ये राष्ट्रीय नायक राजनीतिक समाज और ‘नागरिक समाज’ की अवधारणा, उसकी सूक्ष्म क्रियाविधि और उसके आवश्यक परिणाम को नहीं देख पाए हैं, इसीलिए उन्हें समझ भी नहीं पाए हैं| ऐसे में समस्त जन गण सहित राष्ट्रीय नायक भी तरह तरह के विलाप करते हुए दिखते हैं| राजनीतिक समाजवह समाज होता है, जिनका प्रशासन, व्यवस्था, पुलिस, सेना, मीडिया, शिक्षा एवं आर्थिक तंत्र पर नियंत्रण होता है| इस ‘राजनीतिक समाज’ के अतिरिक्त अन्य सामान्य जन गण ही ‘नागरिक समाज’ कहलाते हैं| किसी भी देश को ‘राजनीतिक स्वतन्त्रता’ मिलने पर यही ‘राजनीतिक समाज’ ही लाभान्वित होता है और सामान्य ‘नागरिक समाज’ इस ‘राजनीतिक स्वतंत्रता’ से लाभान्वित नहीं होती है| इसमें ‘नागरिक समाज’ उसी देश के ‘राजनीतिक समाज’ के लाभों के ‘रिस जाने’ (Seepage) से लाभान्वित होती रहती है, और इसी को “विकास का रिसना सिद्धांत’ (Seepage Theory of Development) कहते है| ऐसे लाभों को ‘नागरिक समाज’ में “विकास” होता दिखाया जाता रहता है|

कुछ ‘निर्जीव बौद्धिक’ ऐसे भी होते हैं, जिन्हें समाज एवं व्यवस्था के वृद्धि (Growth), ‘विकास’ (Development), और संवर्धन (Improvement) में अन्तर समझ मे नहीं आताऐसे ‘निर्जीव बौद्धिकों’ में ‘तथाकथित बौद्धिकों’ के अतिरिक्त राजनेताओं के साथ साथ ‘उच्चस्थ नौकरशाह भी शामिल हैं| सामान्य जन गण सीमेंट की खपत में वृद्धि को ही विकास समझता है, क्योंकि यह सब देखने के लिए मानसिक दृष्टि की आवश्यकता नहीं होती है| सीमेंट की खपत में ऐसी ही ‘वृद्धि को संपादित कर कई राजनेता अपने को ‘युग पुरुष बनने का स्वप्न देखते रहते हैं। ऋण मुक्त वित्तीय कर्ज, अनुदान, एवं दान आदि देकर किसी की आय में वृद्धि बताना विकास नहीं होता। इससे लोगों की उत्पादन क्षमता में संवर्धन नहीं होता, अर्थात यह सक्षमता उपागम (Capability Approach) नहीं है। सक्षमता उपागम ही संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP) के ‘विकास की स्वीकृत अवधारणा है, जिसे अमर्त्य सेन ने दिया था। इसके लिए 1998 में उन्हें नोबेल पुरस्कार से सम्मानित भी किया गया। चूंकि यह आय में वृद्धि मात्र विकास नहीं है, इसिलिए ऐसा क्षेत्र या राज्य या देश विगत पच्चीस वर्ष पहले जिस वैश्विक या प्रांतीय रैंकिंग में थे, आज भी वही है। 

यदि समाज को बदलना है, राष्ट्र का नवनिर्माण करना है और नया भारत बनाना है, तो इसके लिए सजीव बौद्धिक बनिए और तैयार कीजिये। अन्य कोई विकल्प भ्रम मात्र है|

आचार्य प्रवर निरंजन जी

अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान,

बिहटा, पटना, बिहार, भारत|

अगड़े और पिछड़े में क्या अन्तर है?

'अगड़ा' और 'पिछड़ा' एक सापेक्षिक अवधारणा है| अगड़ा और पिछड़ा जीवन के हर क्षेत्र, हर प्रक्रम और हर स्थिति में बना रहेगा| यह अगड़ा ...