मंगलवार, 7 जनवरी 2025

राष्ट्र का विखंडन और संस्कृति

कोई भी राष्ट्र विखंडित होता है, या विखंडन की ओर अग्रसर है, तो क्यों? संस्कृति इतनी सामर्थ्यवान होती है कि किसी भी देश को एकजुट रख कर एक सशक्त राष्ट्र बना दे सकती, या किसी देश को खंडित कर कई खंडों में विभाजित भी कर दे सकती है| भारत को ही यदि आधुनिक युग में देखा जाय, तो यह देश भारत और पकिस्तान में खंडित हुआ| यहाँ राष्ट्र निर्माण का मूलाधार धर्म आधारित संस्कृति को ही माना गया| लेकिन यह पकिस्तान भी संस्कृति के दूसरे ही आधार पर फिर से खंडित होकर ‘बंगलादेश’ बना| हालाँकि विभाजित होने वाले अपना सांस्कृतिक आधार खोज ही लेते हैं| कोई संस्कृति का मूल आधार ‘भाषा’, कोई ‘धर्म’ या ‘पंथ’ या कोई क्षेत्र ही मान लेता है, लेकिन अधिकतर लोग ‘प्राकृतिक न्याय’ को संस्कृति का आधार नहीं मान पाते हैं| ‘प्राकृतिक न्याय’ का सामान्य अर्थ ‘मानवतावादी’ होना होता है|

यदि वैश्विक राजनीति को संस्कृति के नजरिए से देखा जाए, तो अनेक वैश्विक राजनीतिक विचित्रताएं उभर आती है। कई वैश्विक संघर्षों का होना या किसी ऐतिहासिक राष्ट्र का विखंडित हो जाना, यह सब संस्कृतियों की समझदारी और उसके प्रबंधन की सफलता या असफलता का खेल है। किसी ने रोमन साम्राज्य की, किसी ने आटोमन साम्राज्य की स्थापना की, तो प्राचीन काल में किसी ने भारतीय साम्राज्य की भी स्थापना की थी, यह सभी संस्कृतियों का ही प्रबंधन रहा| आज फिर ‘बाजार की शक्तियाँ’ एक ‘वैश्विक संस्कृति’ का सृजन करने लगी है| ‘भूगोल’ पर ही ‘आर्थिक शक्तियों’ की क्रिया से ‘संस्कृतियों’ का सृजन होता है| फिर यह भी आश्चर्यजनक है कि इतने महत्वपूर्ण एवं शक्तिशाली सामाजिक सांस्कृतिक साफ्टवेयर यानि संस्कृति का इन संदर्भों में सम्यक अध्ययन नहीं किया गया है, या नहीं किया जा रहा है।

यदि किसी भी व्यक्ति या समाज  की उपलब्धि में उसके व्यक्तित्व का अध्ययन किया जाए, तो संस्कृति की ही महत्वपूर्ण भूमिका उभर कर स्पष्ट हो जाती है। यह संस्कृति ही व्यक्ति एवं समाज की अभिवृति, मानसिकता और दिशा –दशा निर्धारित एवं नियमित करती रहती है| कोई भी व्यक्ति अपने विचारों के सृजन में, भावनाओं की अभिव्यक्ति में, और व्यवहार यानि क्रिया करने में स्वत: स्फूर्त रुप में संस्कृति से ही संचालित होता है। कोई भी व्यक्ति अपने प्राप्त सूचनाओं को अपनी सांस्कृतिक समझ में उसे संसाधित (Process) कर ही उसके अनुरूप कार्य करता है। मतलब कि इसमें पहला चरण सूचनाओं का आगमन है, दूसरा चरण उन सूचनाओं का अपने समझ के अनुसार संसाधित करना या होना है और अंतिम चरण में उन संसाधित सूचनाओं के अनुसार ही कार्यान्वयन किया जाना होता है। इसीलिए किसी भी कर्ता के द्वारा कुछ भी किया जाना ही पर्याप्त नहीं होता है, बल्कि  कर्ता के विषयों (व्यक्ति या जनता) की संस्कृति को सम्यक रुप में समझना और उसके अनुरूप ही कार्य किया जाना भी अपेक्षित होता है। यहाँ व्यक्ति की समझ से आशय उसकी संस्कृति से ही है|

जोसेफ स्टालिन समझाते हैं कि “ऐतिहासिक रुप से एक साथ रहने से उत्पन्न एकापन की भावना ही राष्ट्र है”, अर्थात ऐतिहासिक रुप से एक साथ रहने समझने की साझेदारी से ही राष्ट्रीयता की भावना जन्मती है और मजबूत भी होती है। ध्यान रहे कि संस्कृति का भी यही आधार है, अर्थात राष्ट्र और संस्कृति का आधार एक ही है| स्पष्ट है कि एक सशक्त राष्ट्र के निर्माण में सिर्फ संस्कृति की ही भूमिका महत्वपूर्ण है। यदि यह भावना खंडित कर दिया गया, तो कोई शक्ति देश को तो बचा ले सकती है, लेकिन एक राष्ट्र को नहीं बचा सकता है। यह ‘तथाकथित राष्ट्रीयता की भावना’ अपना उचित मौका देख कर कभी भी विस्फोट कर जाता है|

यदि सोवियत संघ के सर्वोच्च सत्ता  के विचारक -मंडल पूर्व के सोवियत राजनीतिज्ञ जोसेफ स्टालिन की राष्ट्र संबंधित भावना और अवधारणा को बेहतर ढंग से समझते होते, तो सांस्कृतिक आधार पर सोवियत संघ का राष्ट्रीय विखंडन नहीं होता। ये विचारक -मंडल कभी भी उच्चतर संस्कृतियों में व्याप्त सामान्य तत्वों की पहचान करने और उसे मजबूत करने पर गंभीर नहीं रहे। वे शुरु से ही सांस्कृतिक एकीकरण पर सजग, सतर्क और समर्पित प्रयास नहीं किया। और इसी कारण एक सशक्त राष्ट्र का खंड खंड विभाजन हो गया। आज भी विश्व के कई तथाकथित विकासशील और अविकसित देशों में ऐसा ही संकट गहराता जा रहा है। इन राष्टों में विचारक -मंडल राष्ट्र की अवधारणा संस्कृति के सापेक्ष समझते ही है और इनके द्वारा अपनी जाति और धर्म को ही राष्ट्र समझने की भयानक भूल कर दी जा रही है। इन विचारक -मंडल  के सदस्य गण अपनी जाति/ कबीले और धर्म आधारित "सामाजिक पूँजी" (Social Capital) को और  मजबूत करने के लक्ष्य में अपने राष्ट्र को ही बर्बाद कर रहे हैं। ऐसे देश एक राष्ट्र बनने को छटपटा रहा है। ऐसे देशों में विचारक -मंडल अपनी अपनी जाति/ कबीले और पंथ/ धर्म के ही प्रति समर्पित है। यह समस्या उन सभी  देशों में है, जहॉ की संस्कृति अपने ऐतिहासिक विरासत के परिणामस्वरूप आज विशिष्ट स्वरुप में मौजूद है। इसी कारण भारतीय संविधान की ‘उद्देशिका’ (Preamble) में भी ‘राष्ट्र’ (Nation) की एकता एवं अखंडता की बात की गयी है, किसी ‘देश’ (Country), या ‘प्रान्त’ (Province), या ‘राज्य’ (State) की एकता एवं अखंडता की बात नहीं की गयी है। इसका एकमात्र कारण संस्कृति का राष्ट्र  से जुडा होना है। 

वैसे सभी संस्कृतियों को उनके भौगोलिक, ऐतिहासिक और वैज्ञानिक मानसिक विरासत के अनुरूप होने के कारण तुलनीय नहीं माना जाना चाहिए, लेकिन यह तो स्पष्ट है कि सभी संस्कृतियों को 'न्यायवादी' होना ही चाहिए, अन्यथा उन संस्कृतियों को एक साथ नहीं रहना चाहिए। 'न्यायवादी' का अर्थ हुआ कि वह संस्कृति अपने सभी सदस्यों को स्वतंत्रता, समता व समानता और बंधुत्व की भावना के साथ साथ मानवीय गरिमा सुनिश्चित करता हुआ होता है। इस तरह हर संस्कृति को आधुनिक और वैज्ञानिक होना ही चाहिए। यहॉ संस्कृति क्या है, बड़ा ही बहुत महत्वपूर्ण है। संस्कृति किसी भी समाज की मानसिक निधि है, जो ऐतिहासिक काल में विकसित होता है और यह सामाजिक सदस्य के रुप में सभी को प्राप्त होता है। इस तरह संस्कृति समाज को स्वत: स्फूर्त  संचालित और नियमित करने वाले साफ्टवेयर की तरह होता है। अतः ऐसे महत्वपूर्ण साफ्टवेयर को संशोधित और परिमार्जित करने की ज़रूरत होती है।

यदि हम अपने राष्ट्र को आगे ले जाना चाहते हैं और सशक्त, समृद्ध एवं विकसित बनाना चाहते हैं, तो हमें सजगता, सतर्कता और समर्पण से राष्ट्र का अध्ययन संस्कृति के संदर्भ में अवश्य करना चाहिए। ऐसा ही अपील विश्व के सभी जनगण से है।

आचार्य प्रवर निरंजन जी

अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान|

शनिवार, 4 जनवरी 2025

विकास, अमर्त्य सेन एवं संस्कृति

‘विकास’ और ‘संस्कृति’ एक दूसरे से इतना गुंथा हुआ है, कि ‘संस्कृति के संवर्धन’ के बिना कोई भी विकास अपनी सम्पूर्णता को कभी नहीं प्राप्त कर सकता है| फिर भी यह आश्चर्यजनक है कि ‘विकास’ के सन्दर्भ में शायद ही ‘संस्कृति’ का अध्ययन किया गया हो? शायद इस सन्दर्भ में महान अर्थशास्त्री प्रो० अमर्त्य सेन भी चूक गए लगते हैं| यहाँ हमें ‘विकास’, ‘संस्कृति’, ‘संस्कृति का संवर्धन’ और ‘प्रो० अमर्त्य सेन की विकास अवधारणा’ का विश्लेष्णात्मक एवं समीक्षात्मक मूल्याङ्कन करना चाहिए|

मैं यहाँ सामान्य विकास की बात करूँगा, किसी विशेषीकृत विकास जैसे शारीरिक विकास, आर्थिक विकास, भौतिक विकास आदि की बात नहीं करूँगा| वैसे विकास के सामान्य अर्थ में किसी भी वस्तु या विषय में उसके वर्तमान अवस्था, या दशा, या दिशा, या व्यवस्था, या क्रियाविधि के सापेक्ष में वृद्धि, प्रगति, सम्यक सकारात्मक परिवर्तन या योग (जोड़) से लिया जाता है| यह एक बेहतर होने की अवस्था में रुपांतरित होने की गत्यात्मकता की तरह समझा जाता है| यह विकास किसी के विचारों, या क्रियाविधि, या व्यवस्था के सन्दर्भ में मानवता एवं प्रकृति को लक्षित कर भविष्य को भी समाहित करता हुआ एक प्रक्रिया होता है| यह सामान्य लोगो के जीवन स्तर में बेहतरी उपलब्ध कराने का एक उपागम (Approach) माना जा सकता है| इसीलिए यह धारणीय (Sustainable) भी होगा और संवर्धित (Improved) जीवन सुविधाओं को उपलब्ध करता हुआ भी होगा| इस तरह यह एक गतिशील और बहु आयामी संकल्पना होता है, जो मानव जीवन, समाज, संस्कार, संस्कृति, अर्थव्यवस्था या पर्यावरण के विभिन्न आयामों में सकारात्मक एवं रचनात्मक सुधार लाता हुआ रहता है| यह विकास अपनी प्रक्रिया में वर्तमान आबादी की आवश्यकताओं के साथ साथ भविष्य की पीढ़ियों की भी आवश्यकताओं का ध्यान रखती होती है|

तय है कि यह विकास अपनी सम्पूर्णता में सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक एवं राजनीतिक ढाँचा, संरचना, गठन, विन्यास में मौलिक बदलाव उत्पन्न करता हुआ एक स्थायी प्रगतिशीलता का आधारभूत ‘पारिस्थितिकी’ (Ecosystem) बनाता है| विकास के सम्यक पक्षों पर एक विहंगम दृष्टि डालने से ऐसा लगता है कि विकास का प्रत्यक्ष सम्बन्ध प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि या प्रति व्यक्ति की खरीद क्षमता में वृद्धि से है, लेकिन यह पूरी तरह से भ्रामक है| बहुत सी सरकारें समाज के विशेष एवं विशेष वर्गों के कल्याण के नाम पर  विभिन्न योजनाओं के रुप में कई प्रकार के दान, अनुदान, सहयोग दे कर उनकी ‘आय’ बढाते हुए विकास का दावा करता हुआ दिखता है| यह सब ‘वोट बैंक’ के लिए उचित हो सकता है, लेकिन जनता की क्षमताओं के निर्माण के लिए घातक ही होता है|

विकास किसी एक ख़ास दिशा में मात्र वृद्धि नहीं है, बल्कि यह सर्वदेशीय एवं सम्यक वृद्धि होती है, या हो सकती है| इसीलिए विकास को मात्र सीमेंट की खपत में वृद्धि से, यानि मात्र आधारभूत संरचनात्मक ढाँचे के बनावट में वृद्धि से नहीं समझा जा सकता है| यह विकास सामाजिक सांस्कृतिक संबंधों में संरचनात्मक बदलाव के बिना संभव ही नहीं है| इसीलिए सामाजिक सांस्कृतिक संरचनात्मक बदलाव के बिना किसी भी विकास का दावा विकास के नाम महज एक ‘तमाशा’ ही है| आपने भी देखा होगा कि बहुत से केन्द्रीय, क्षेत्रीय एवं स्थानीय सरकारें भी सिर्फ सड़के, पूल, भवन, आदि आदि का निर्माण कर वास्तविक विकास करने का दावा करता दिखता है, जबकि उनमे विकास की सम्यक दृष्टि का अभाव झलकता है|

प्रो० अमर्त्य सेन की ‘विकास अवधारणा’ में किसी को “अपने जीवन के विभिन्न पक्षों के संबंधों में निर्णय लेने की स्वतन्त्रता में वृद्धि” से माना है| प्रो० अमर्त्य सेन की इसी ‘विकास अवधारणा’ के लिए उन्हें 1998 में अर्थशास्त्र का नोबल पुरस्कार भी मिला है| इसी कारण विकास के मानकीकरण में ‘स्वास्थ्य’, ‘बौद्धिकता’ यानि ज्ञान स्तर, एवं ‘जीवन स्तर’ को शामिल किया जाता है| इनका ‘मानव विकास सूचकांक’ (HDI – Human Development Index) तो वैश्विक संगठन ‘संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम’ (UNDP) ने भी अपनाया है| प्रो० अमर्त्य सेन ने इसीलिए विकास को ‘सक्षमता उपागम’ (Capability Approach) के रुप में देखा है| इसी कारण विकास के कारक में वैज्ञानिक ज्ञान एवं तकनीकी कौशल अवश्य ही शामिल रहता है, और इसके लिए ‘विज्ञान आधारित शिक्षा’ की आवश्यकता होती है| इस ‘विकास’ में ‘आस्थाओं’ पर आधारित ज्ञान या शिक्षा की भूमिका तो नकारात्मक ही नहीं होती, अपितु विध्वंसक ही होती है|

अर्थात विकास के लिए सामान्य जनों में ऐसी ही सकारात्मक एवं रचनात्मक मानसिकता या अभिवृति बनानी होती है| इस तरह विकास व्यक्ति को 'उच्च विभव की क्षमता' तथा 'आत्म- विश्वास' पैदा करने के साथ साथ 'जीवन को गरिमामयी' बनाने के साथ साथ 'जीवन की आकांक्षाओं को साकार' करने वाला भी बनाता है| इस तरह यह किसी भी आवश्यकता (Need) से और किसी भी प्रकार के शोषण के भय से मुक्ति दिलाती है| इस रुप में यह व्यक्ति एवं समाज को स्वतन्त्रता, समता (एवं समानता), एवं बंधुत्व पर आधारित “न्याय” सुनिश्चित कराता है, जिससे वह व्यक्ति और समाज अपने को गरिमामयी महसूस करता हो|  

अब यदि प्रो० अमर्त्य सेन की ‘विकास अवधारणा’ के नजरिये से तथाकथित विकासशील एवं अविकसित देशों की सरकारों और वहां की बौद्धिकों की विचारधारा को देखा समझा जाय, तो बहुत अफ़सोस होता है| इनके किसी भी उपागम में सामाजिक सांस्कृतिक संरचना एवं विन्यास को बदलता हुआ कोई भी सजग, सतर्क एवं समर्पित प्रयास नहीं दिखता है| कभी भी ऐसा नहीं लगता है कि सरकार या व्यवस्था ने कभी भी जन मानस की अभिवृति (Attitude) यानि मानसिकता (Mentality) को संवर्धन की दिशा में बदलना चाहा हो| सरकारों का ध्यान सिर्फ आय में वृद्धि की रही है, जो उन्हें एक सस्ती लोकप्रियता तो दिलाती है, लेकिन उन व्यक्तियों की उत्पादकता बढ़ाने की ओर गंभीर नहीं दिखती है| दरअसल किसी बौद्धिक समूह ने भी स्पष्ट रुप में ऐसा रेखांकन नहीं किया है| यही मानसिकता, यानि अभिवृति, यानि स्थायी सोच –विचार ही तो संस्कृति है, जो कोई भी एक सामाजिक सदस्य होने के कारण समाज में सीखता है|

संस्कृति मानवीय व्यवहारों, मूल्यों, विश्वासों, विचारों, अभिवृतियों इत्यादि का एक जटिल आव्यूह (Matrix) है, जो एक व्यक्ति सामाजिक सदस्य के रूप में समाज से स्वत: ग्रहण करता है| यह सामाजिक सांस्कृतिक तंत्र का एक साफ्टवेयर की तरह होता है, जो अदृश्य रह कर भी मानव जीवन को नियमित एवं नियंत्रित करता रहता है| संस्कृति का सकारात्मक एवं रचनात्मक भूमिका की दिशा में आगे बढना ही ‘संस्कृति का संवर्धन’ (Improvement of Culture) कहलाता है|  ध्यान रहे कि मैंने संस्कृति में किसी बदालव की यानि किसी मौलिक उलटफेर की बात नहीं किया है| जब यह संस्कृति मानव जीवन में इतना महत्वपूर्ण भूमिका में होता है, तब स्पष्ट है कि यह मानव के विकास में भी महत्वपूर्ण भूमिका में रहेगा| फिर भी विकास के सन्दर्भ में संस्कृति का विश्लेषण एवं समीक्षात्मक मूल्यांकन नहीं किया जाना रहस्यमयी लगता है| पता नहीं क्यों प्रो० सेन ने संस्कृति को विकास से प्रत्यक्षतः नहीं जोडा? 

वैसे ‘सत्ता’ सदैव ‘रूपान्तरण’ विरोधी होती है, यानि ‘यथा स्थितिवादी’ होती है| वैसे ऐसा लगता है कि ‘सत्ता’ कोई व्यक्ति समूह नहीं है, लेकिन यह तो ‘व्यक्तियों का समूह’ ही होता है, और उसके निहित स्वार्थ भी होता है| किसी भी समाज के सांस्कृतिक गठन में कोई समूह प्रभावशाली रहता है, और उसी पर राष्ट्र निर्माण एवं विकास की सारी जबावदेही रहती है| अधिकतर तथाकथित विकासशील एवं अविकसित देशों में तथाकथित बौद्धिक लोगों को अपनी समूह, जाति, पंथ एवं धर्म में ही इतना समर्पण होता है, कि वे अपने इसी ‘विश्वास’ को अपना ‘राष्ट्र’ समझ लेते हैं| शायद इन्हें ‘राष्ट्र’ की समझ ही नहीं है, या ये अपने दोहरे चरित्र से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं| ये तथाकथित सत्तासीन बौद्धिक लोग अपने ही समूह, जाति, पंथ एवं धर्म को अपना ‘सामाजिक पूंजी’ (Social Capital) समझते हैं, और उसी को मजबूत करने में सक्रिय हैं और समर्पित हैं|

ऐसे में किसी भी देश की गौरवपूर्ण सांस्कृतिक विरासत का पुनरोद्धार कैसे होगा?

यह एक गंभीर और विचारणीय प्रश्न है| आप भी विचार कीजिए|

आचार्य प्रवर निरंजन जी

अध्यक्ष,

भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान|

मंगलवार, 31 दिसंबर 2024

‘भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान’ क्यों?

(Institute for Improvement of Indian Spirituality and Culture

आज मैं ‘भारतीय अध्यात्म’ और ‘संस्कृति’ के संवर्धन के लिए स्थापित एक संस्थान पर प्रकाश डालने जा रहा हूँ| यह ‘भारतीय अध्यात्म’ और ‘संस्कृति’ का ‘संवर्धन क्यों? यह ‘अध्यात्म’ और ‘संस्कृति’ क्या होता है और इसकी प्रभावोत्पादकता क्या है? यह ‘अध्यात्म’ किसी व्यक्ति के “आत्म” (Self, मन, चेतना) से सम्बन्धित होता है, या किसी के “आत्मा” से? इसी तरह ‘भारतीय अध्यात्म’ और ‘संस्कृति’ के ‘वृद्धि’ (Growth) या ‘विकास’ (Development) की बात नहीं कर, मैं ‘अध्यात्म’ और ‘संस्कृति के ‘संवर्धन’ (Improvement) की बात क्यों कर रहा हूँ? तो इन सबों की अनिवार्यता क्यों है?

आज यदि वैश्विक ‘राज्यों’ (States, not Provinces) या ‘राष्ट्रीय राज्यों’ (Nation –States) का वर्गीकरण उनके आर्थिक विकास और उनकी सांस्कृतिक अवस्थाओं एवं आध्यात्मिक दशाओं के साथ किया जाय, तो इनके वर्गीकरण में विभाजन की एक स्पष्ट लकीर उभर जाती है| जिन वैश्विक ‘राज्यों’ या ‘राष्ट्रीय राज्यों’ ने अपने ‘सांस्कृतिक अवस्थाओं’ एवं ‘आध्यात्मिक दशाओं’ को आधुनिक वैज्ञानिकता के आधार पर विश्लेषण एवं समीक्षात्मक मूल्याङ्कन कर अपने को सजग, सतर्क तथा समर्पित प्रयास कर अपनी दिशा और दशा को बदलना चाहा है, वे ‘राष्ट्रीय राज्य’ आज वैश्विक जगत के परिदृश्य में विकास के पैमाने पर अग्रणी बने हुए हैं| ‘आर्थिक रूप से अविकसित’ संस्कृतियों के ढाँचा (Framework), संरचना (Structure), विन्यास (Orientation) में “आस्था” (Devotion) ही ‘आस्था’ भरा पड़ा होता है, और “वैज्ञानिकता” (Scientism) को कोई भी सम्मानजनक स्थान या अवसर नहीं मिला होता है| विकसित राज्यों की संस्कृति में ‘आस्था’ के विपरीत ‘वैज्ञानिकता’ ही ‘वैज्ञानिकता’ भरी पड़ी होती है| मैंने यहाँ सिर्फ ‘आर्थिक रूप से अविकसित’ संस्कृतियाँ’ इसलिए लिखा है, क्योंकि “विकासशील” शब्द एक भ्रामक अवस्था है, जो उनको ‘रिझाने’ के लिए प्रयुक्त किया जाता है, जिन राज्यों की क्षमता वैश्विक बाजार में सिर्फ ‘खाने और पचाने (Use n Consume)’ में बहुत बड़ी होती है| और इसीलिए ऐसे राज्यों के लिए “विकासशील” शब्द का प्रयोग कर दिया जाता है|

एशिया के इस (भारतीय) उपमहाद्वीप का नाम “आभा” (Aura) से “रत” (Full) अर्थात “ओज” (Light) से ‘परिपूर्ण’ का शाब्दिक अर्थ है, और इसीलिए प्राचीन काल में विश्व को प्रकाशित करने वाले इस भू भाग का नाम “आभारत” पड़ा| समय के साथ “आभारत” का ‘आ’ शब्द तो विलुप्त हो गया है, और सिर्फ “भारत” ही रह गया है| आज भारत के लोगों की ज्ञान एवं क्षमता का स्तर एवं गुणवत्ता यह है कि भारत की सम्पूर्ण आबादी का महज पाँच प्रतिशत आबादी वाला देश जर्मनी भी अर्थव्यवस्था में भारत से आगे स्थान रखता है| यदि आंकड़ों का सम्यक विश्लेषण किया जाय, तो भारत का सर्वोच्च दो प्रतिशत आबादी भी एक सामान्य जर्मन आबादी के ज्ञान एवं क्षमता के स्तर एवं गुणवत्ता का नहीं है, अन्यथा आज भारत अर्थव्यवस्था में जर्मनी से ऊपर ही रहता| और यह ज्ञान एवं क्षमता का स्तर एवं गुणवत्ता में कमी का कारण सिर्फ और सिर्फ संस्कृति’ और ‘आध्यात्मिकता’ में ही है| भारत को यदि फिर से प्राचीन गौरव एवं गरिमा प्राप्त करना है, तो यही संस्थान उसे उस भूमिका में फिर से ला सकेगी|

‘अध्यात्म’ किसी व्यक्ति के ‘आत्म’ (Self) का ‘अधि’ (ऊपर) से यानि ‘अनन्त प्रज्ञा’ (Infinite Intelligence) से जुड़ने की प्रक्रिया एवं अवस्था होती है| इस प्रक्रिया में एक व्यक्ति अपना ज्ञान ‘अनन्त प्रज्ञा’ से प्राप्त करता है, और इसे ही अंतर्ज्ञान (Intuition) कहते हैं| हर ‘नवाचारी’ (Innovative) ज्ञान इसी विधि से प्राप्त किया जाता है| यदि आप कुछ आध्यात्मिक व्यक्ति का नाम मुझसे जानना चाहते हैं, तो मैं उनमे ‘गोतम बुद्ध’, अल्बर्ट आइंस्टीन और स्टीफन हाकिन्स का नाम उदाहरण स्वरुप लेता हूँ| ‘आत्म’ यानि ‘चेतना’ (मन – Mind) तो वैज्ञानिक शब्द है, लेकिन इसी से मिलता –जुलता शब्द ’आत्मा’ का विज्ञान में कोई स्थान नहीं है| इसी तरह अध्यात्म’ शब्द के अन्य तात्पर्य का विश्लेषण एवं समीक्षा आप स्वयं कर सकते हैं| इसी आध्यात्मिकता के अभाव के कारण सामान्य लोगों और इसीलिए ऐसे समाज का हर प्रतिनिधि “दोहरा चरित्र” जीता हैं, अर्थात उनके विचारों, व्यवहारों एवं कार्यों में कोई संगतता (Consistency) नहीं होती है, और इसीलिए ऐसे समाज का ‘उच्चतर विभव’ (Higher Potential) तक विकास नहीं हो पाता है| इन गुणों एवं स्वभावों को आप ‘नैतिकता’ में शामिल कर सकते हैं| यहाँ हमलोग भारतीय सन्दर्भ में ‘आध्यात्मिकता’  का अध्ययन करेंगे, और इसीलिए ‘भारतीय अध्यात्म’ शब्द का प्रयोग किया है|

मैंने किसी भी व्यवस्था के ‘पिछड़ेपन में सबसे प्रमुख कारक उसके सांस्कृतिक मूल्यों (Values), प्रतिमानों (Norms) एवं मानकों (Standards) में समझा है| संस्कृति’ किसी भी समाज का वह ‘मानसिक निधि’ (Mental Treasure) है, जिसे कोई भी उस समाज के सदस्य के रूप में साथ रहने से पाता है, और यह उस समाज की व्यवस्था (Machinery) यानि तंत्र (System) को एक ‘साफ्टवेयर’ की तरह अदृश्य रहकर स्वत: संचालित करती रहती है| किसी भी संस्कृति का ढाँचा, संरचना, विन्यास या स्वरुप में ‘वैज्ञानिकता’ या ‘आस्था’ के अंश से ही उसकी गुणवत्ता का पता चलता है| किसी भी ‘संस्कृति’ का निर्माण उस समाज के ‘इतिहास – बोध’ (Perception of History) से ही आता है| ‘बाजार की शक्तियाँ’ (Market Forces) सामाजिक संस्थाओं (Institutions) को भी प्रभावित, नियमित एवं संचालित करता रहता है, और इस तरह यह विवाह, परिवार, समाज, जाति, धर्म, नैतिकता, अदि के साथ साथ ‘संस्कृति’ और ‘अध्यात्म’ को भी प्रभावित करता रहता है| ‘बाजार की शक्तियाँ’ ही ऐतिहासिक काल खंड में ‘ऐतिहासिक शक्तियाँ’ कहलाती है, और इस रूप में सभी समाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक संस्थाओं को सशोधित एवं परिमार्जित करती रहती है| बाजार की इन्ही शक्तियों ने प्राचीन बौद्धिक संस्कृतियों को मध्य काल में  सामन्ती संस्कृतियों में बदल दिया था, जिसके समीक्षात्मक मूल्याङ्कन की अनिवार्यता है|

इसलिए मैं संस्कृतियों के या में ‘वृद्धि’ या ‘विकास’ की बात नहीं कर, इसके ‘संवर्धन’ की बात की है| किसी भी विषय में ‘वृद्धि’ या ‘विकास’ उसकी स्थिति या दशा बदलने का प्रयास तो करती है, लेकिन उसकी मूल एवं मौलिक ‘दिशा’ बदलने का प्रयास नहीं करता है| ‘वृद्धि’ एक रेखीय गमन है, तो ‘विकास’ सर्व देशीय गमन या वृद्धि है, जबकि किसी का ‘संवर्धन’ सदैव सकारात्मक एवं रचनात्मक दिशा एवं दशा में होता है| इस तरह ‘संवर्धन’ में किसी विषय की स्थिति, दशा, एवं दिशा में, अर्थात सम्यक रूप में इसका सकारात्मक एवं रचनात्मक रूपांतरण होता है, अर्थात नव जीवन प्राप्त करता है, सिर्फ कोई संशोधन नहीं होता है|

इस तरह आपको भी यह स्पष्ट हो गया होगा कि इस संस्थान का एक मात्र उद्देश्य “एक विश्व, एक मानवता” की स्थापना करना है, और यह सब भारत के ‘मार्ग- दर्शन’ (Philosophy for Ways) में ही संभव है| इसके ही साथ भारतीय उपमहाद्वीप की गौरवपूर्ण ऐतिहासिक विरासत को अपना मौलिक स्थान दिलाना भी है|

यह सब कुछ आपकी सहभागिता के साथ ही सम्भव है|

आचार्य प्रवर निरंजन जी   

अध्यक्ष

‘भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान’|

रविवार, 29 दिसंबर 2024

एक कहानी कैसे मिथक या इतिहास बनता है?

घरों में जब छोटे बच्चे रोते हैं, मचलते हैं, विखलते हैं, यानि जब बेचैन होकर परिवार को परेशान करते रहते हैं, तो उन्हें भालू के आ जाने की “कहानी” (Story –कथा, किस्सा) सुना कर चुप करा देते हैं| कहानी यह होती है कि शाम या रात के अँधेरे में एक जंगली भयानक पशु - भालू आता है और रोते हुए बच्चे को पकड़ कर ले जाता है| इस छोटी से कहानी को उसके परिवार वाले बड़े ही भावपूर्ण ढंग से प्रस्तुत करते है, और वह बच्चा उसे ‘वास्तविकता’ मान कर चुप होकर सो भी जाता है| इसी तरह, दिन के समय एक ‘ढोलवाला’  आता है और रोते हुए बच्चे को पकड़ कर अपने ‘ढोल’ (Drum) में छुपा कर ले जाता है| ऐसी कहानियाँ इन ‘बाल- बुद्धि’ पर काफी कारगर होती है, परन्तु इसकी प्रस्तुति ‘वास्तविक’ बताने के लिए इसको भावपूर्ण बनाना होता है| ऐसे कहानी की प्रस्तुति को भावपूर्ण बनाने में परिवार के अन्य सारे सदस्य उसी भाव भंगिमा आ कर वैसा ही समां बनाने में सहयोग करते हैं|

इसी तरह, अधिकतर ‘वयस्कों’ (मात्र उम्र से) की “बाल-बुद्धि” की बेचैनी, बेकरारी एवं तड़प को शान्त कराने के लिए भी. यानि उन्हें डराने और लोभ दिलाने के लिए उन्हें कहानियाँ सुनानी होती है| लेकिन ये वयस्क अपने को समझदार भी समझते हैं और दुनियादारी का कुछ अनुभव भी प्राप्त किए होते हैं, इसीलिए इन कहानियों को विश्वसनीय बनाने के लिए ‘ऐतिहासिकता’ के अहसास का आधार देना होता है| इन कहानियों को धार्मिक या ऐतिहासिक बता कर उन्हें विश्वास दिलाया जाता है| तब ये कहानियाँ “मिथक” (Myth) के रूप में समाज के सामने आती है| यहाँ अधिकतर ‘वयस्कों’ की संख्या उस समाज के ज्ञान –विश्लेषण एवं मूल्याङ्कन क्षमता के स्तर पर निर्भर करता है, यानि उस समाज के सांस्कृतिक वैज्ञानिक चेतना के स्तर पर निर्भर करता है, और वयस्कों की यह संख्या इसी क्षमता एवं स्तर के सापेक्ष होता है| ऐसे ‘बाल –बुद्धि’ वाले लोग अविकसित एवं विकासशील देशों में बहुसंख्यक होते हैं|

जब इन कहानियों को ऐतिहासिकता की कसौटी पर कसा जाता है, और जब यह इस कसौटी पर यह खरा उतरता है, तब ही वे “कहानियाँ” किसी काल खंड के इतिहास का हिस्सा बनने का दावा करता है और “इतिहास” कहलाता है| ‘ऐतिहासिकता की कसौटी’ के लिए उन बातों को तथ्य आधारित, साक्ष्य आधारित एवं तर्क आधारित होना चाहिए और यह तीनों ही वैज्ञानिकता के प्रमाणों से पुष्ट होना चाहिए| इसी वैज्ञानिकता के कारण जो घर, पुल, नहर, सड़क, कुआँ आदि मानव निर्मित मान कर किसी इतिहास का अभिन्न हिस्सा मान लिया जाता रहा, आज उसे किसी प्राकृतिक या किसी अन्य जैवीय प्राणी के उत्पादन का  प्रतिफल माना जा रहा है| और इसी कारण वह पूरा विषय ही ‘इतिहास’ की श्रेणी से बाहर हो जाता हैं| इसी कारण, कल तक जो ‘इतिहास’ हुआ करता था, आज महज एक ‘मिथक’ बन कर गया है, भले आपकी या किसी “आस्थाएँ” कुछ भी मानती हो| कोई भी विषय इतिहास है या मिथक है, उसी जानने का एक साधारण तरीका है, कि यदि वह विषय इतिहास की पाठ्य पुस्तक में है, तो वह इतिहास है, अन्यथा वहाँ का प्राधिकार भी उसे इतिहास नहीं मानता है, और वह महज एक मिथक है| ध्यान रहे कि मैं किन्ही के ‘आस्था’ या ‘मान्यताओं’ का विश्लेषण नहीं कर रहा हूँ|

जब हम उपरोक्त तीनों यथा ‘कहानी’, ‘मिथक’ एवं ‘इतिहास’ का समुचित ‘विश्लेषणात्मक’ एवं ‘समीक्षात्मक मूल्याङ्कन’ करते हैं, तो इन तीनों में कुछ समान तत्वों के रहने के कारण ये तीनों ही में कुछ समानता भी रहती है, बहुत कुछ असामनता भी रहती है, और इसीलिए सामान्य जनों में इनके सम्बन्ध में बहुत कुछ भ्रम भी रहता है|  ‘समीक्षात्मक मूल्याङ्कन’ से तात्पर्य यह होता है कि ऐसा ‘मूल्याङ्कन’ जिसमे कई भिन्न भिन्न आयामों से उन ‘निष्कर्षों’ पर सवाल खड़े किए जाएँ, ताकि एक “सामान्यीकृत निष्कर्ष’ या “सिद्धांत” (Theory) बनाया जा सके| तय है कि इस ‘विश्लेषणात्मक’ एवं ‘समीक्षात्मक मूल्याङ्कन’ के सभी आधार अद्यतन वैज्ञानिक होंगे, जो तथ्यात्मक होने के साथ साथ प्रमाणिक भी होंगे| इस वैज्ञानिक आधार के बिना कोई भी विषय महज एक ‘बकवास’ साबित होता है|

यहाँ यह भी ध्यान रहे कि किसी भी “प्रमाण” को मात्र किसी पुस्तक या किसी पौराणिक या किसी प्राचीन पुस्तक का ही ‘भाग’ (part) का दावा कर लेने या हिस्सा (sharing) हो जाने से ही वह “प्रामाणिक” नहीं माना जा सकता है, या मान लेना चाहिए| आज उन पुस्तकों को या उनके हिस्सों को “इतिहास” मान लेने पर कई आयामों से सवाल खड़े किए जा रहे हैं| इन किस्सों में ऐसे समाज एवं परिवार की चर्चा है कि एक ही परिवार में पुरुष जिस भाषा को जानता था, और उसी परिवार की स्त्रियाँ उसी भाषा को नहीं जानती थी, यानि उनके बीच संवाद करने के लिए कोई भी अन्य सामान्य भाषा नहीं थी, तो यह सवाल उठता है वह उस परिवार में पति –पत्नी, पिता –पुत्री, माता –पुत्र, एवं भाई –बहन के बीच संवाद कैसे होता रहा? इस तरह ‘परिवार’ नामक संस्था का निर्माण कैसे हो पा रहा था और यह संस्था कैसे अपना प्रकार्य करता रहा? स्पष्ट है कि ऐसा साहित्य, या कहानी हो सकता है, या मिथक हो सकता है, लेकिन उस साहित्य का सामाजिक, सांस्कृतिक, एवं आर्थिक विवरण किसी भी इतिहास का हिस्सा नहीं ही सकता है| यह एक उदाहरण है, लेकिन ऐसे उदाहरण भरे पड़े हुए हैं, जो इतिहास होने का दावा करता है|

एक कहानी (किस्सा), मिथक, एवं इतिहास, इन तीनों में एक समान ही तत्व होते हैं, भले ही उनकी गुणवत्ता एवं मात्रा में विचलन रहा होता है| किसी भी किस्सा में, या मिथक में, या इतिहास में कोई एक “विषय” (Subject) होता है, जो किसी भी एक खास ‘कालखंड’ का होता है, या माना जाता है| इसी तरह उस विषय का ‘प्रस्तुतकर्ता’ भी एक कहानीकार या इतिहासकार के रूप में कोई व्यक्ति होता है, जो स्पष्टतया वर्तमान काल का होता है| यह ‘विषय’ तथ्य आधारित ‘इतिहास’ हो सकता है, या कल्पना आधारित एक ‘कहानी’ या ‘मिथक’ हो सकता है| किस्सा में यह ‘विषय’ वास्तविक या काल्पनिक हो सकता है| ‘मिथक’ में यह ‘विषय’ स्पष्टतया काल्पनिक यानि मनगढ़ंत ही होता है, और ऐसा ही साबित भी होता है| जब वह ‘विषय’ तथ्य आधारित एवं प्रमाणिक होता है, तब वह ‘विषय’ इतिहास हो जाता है|

स्पष्ट है कि ‘बाल –बुद्धि’ वाले कहानियों को और मिथकों को भी ‘तथ्य’ यानि ‘सत्य’ मान लेते हैं, और तब वह विषय ही इतिहास मान लिया जाता है| कुछ संस्कृतियों में कुछ समय पहले तक ‘मिथकों’ को ही ‘इतिहास’ माना जाता था, लेकिन आज ऐसी कई विषय इतिहास की पुस्तकों से बाहर हो गयी है| इन विकासशील अर्थव्यवस्था की संस्कृतियों में आज भी कई विषय इतिहास’ की पुस्तकों में नहीं हैं, फिर भी ‘सत्य’ एवं ‘तथ्य’ माना जाता है| इसके अलावा, इन विकासशील अर्थव्यवस्था की संस्कृतियों में आज भी कई विषय ऐसे हैं, जो वैज्ञानिक तर्क की कसौटी पर खरा नहीं उतरते हैं, और उनके समर्थन में कोई भी “प्राथमिक प्रमाणिक साक्ष्य” उपलब्द नहीं है| इन संस्कृतियों में ऐसे विषय आज भी इतिहास की पुस्तकों में उपस्थिति पाए हुए हैं, जिनकी चर्चा किसी भी अन्य समकालीन वैश्विक साहित्य में नहीं है, जिनका कोई पुरातात्विक साक्ष्य खोजे नहीं मिलता, सिर्फ और सिर्फ कागजी साक्ष्य मिलता है, जो सभी के सभी मध्ययुगीन काल के होते हैं|

स्वयं “इतिहास” भी दो तत्वों से मिलकर बनता है| पहला तत्व, ऐतिहासिक तथ्य हैं, जो किसी ऐतिहासिक काल का होता है. और दूसरा तत्व, ‘इतिहासकार’ होता है, जो वर्तमान काल का होता है| ऐतिहासिक तथ्य भी वही बोलता है, जो वह इतिहासकार उससे बोलवाना चाहता है| यही बात कहानी एवं मिथक के बारे में भी सही है| अर्थात किसी भी विषय को कहानी बनना, या मिथक बनना, या इतिहास बनना उस प्रस्तुतकर्ता पर निर्भर करता है| लेकिन उसे सही मान लेना पाठक की बौद्धिकता पर निर्भर करता है| यह सब कुछ पाठक के समीक्षात्मक विश्लेषण एवं मूल्याङ्कन क्षमता एवं स्तर पर निर्भर करता है| यह समीक्षात्मक विश्लेषण एवं मूल्याङ्कन का विषय वह प्रस्तुतकर्ता का व्यक्तित्व भी होना चाहिए| यदि पाठक उस लेखक या प्रस्तुतकर्ता का समीक्षात्मक विश्लेषण एवं मूल्याङ्कन नहीं कर पा रहा है, तो प्रसिद्ध इतिहासकार प्रो० एडवर्ड हैलेट कार किसी के इतिहास समझने क्षमता के सम्बन्ध में कड़ा सवाल करते हैं| आप प्रो० एडवर्ड हैलेट कार की प्रसिद्ध पुस्तक “इतिहास क्या है” को भी देख सकते हैं|

शायद आप कहानी, मिथक एवं इतिहास के संबंधों को समझ हए होंगे|

आचार्य प्रवर निरंजन 

शनिवार, 28 दिसंबर 2024

क्या किसी प्राचीन संस्कृति का पुनर्स्थापन संभव है?

यदि किसी को ऐसा लगता है कि कोई भी संस्कृति स्थिर रहती है और स्थायी प्रकृति बनाए रखती है, तो वह स्पष्टतया गलत होते हैं| कुछ लोग किसी प्राचीन या प्राचीनतम संस्कृति के गौरव एवं गुणवत्ता का काफी गुणगान करते हैं, वे ऐसा अवश्य करें, और मैं उन्हें गलत भी नहीं बता रहा हूँ| लेकिन कोई उसी संस्कृति को उसी स्वरुप एवं संरचना में आज फिर से पुनर्स्थापित करना चाहता है, तो स्पष्ट है कि उसे संस्कृति एवं उसके क्रियाविधियों की कोई ख़ास समझ नहीं है| ये प्राचीनतम या प्राचीन संस्कृति गौरवपूर्ण एवं गुणवत्ता से भरपूर थे, या हो सकते हैं, लेकिन ऐसा उस सन्दर्भ में, उस पृष्टभूमि में, और उस काल खंड के सापेक्ष में ही संभव होगा| क्या आज के बदले हुए सन्दर्भ में, पृष्टभूमि में, और वर्तमान काल खंड में वही संस्कृति सम्यक, उपयुक्त एवं समुचित होगी? ध्यान रहे कि आर्थिक शक्तियाँ निरन्तर गतिशील रहती है और समाज एवं संस्कृति सहित सब कुछ को नए तरीके से सदैव रूपान्तरित करती रहती है| इस विषय पर एक गहन विचार किया जाना चाहिए|

मानव समाज एवं संस्कृति के सन्दर्भ में, क्या आज के बदलते वैज्ञानिक युग में कोई भी एक निष्पक्ष एवं परम ‘वैज्ञानिक सत्य’ हो सकता है? किसी भी पक्ष का कोई भी एक अन्तिम सत्य नहीं होता है, बल्कि अनेक होता है, और प्रत्येक सत्य अपने आप में अपूर्ण भी होता है| सापेक्षवाद भी यही कहता है| एक ही विषय, या घटना, या प्रक्रिया के कई आयाम होते हैं, और इनकी समुचित व्याख्या एवं इनकी स्थिति का निर्धारण इन्ही आयामों के सापेक्ष किया जा सकता है, या किया जाना चाहिए| इन आयामों में प्रकृति, आत्म (अवलोकनकर्ता का मन), काल, सन्दर्भ, पृष्ठभूमि, परिस्थिति, आर्थिक शक्तियाँ, बाजार की शक्तियाँ आदि आदि हो सकते हैं, और संस्कृति को इन आयामों के सापेक्ष ही देखने समझने की आवश्यकता होती है| इन आयामों के या इन आयामों के संयुक्त प्रभाव में समाज एवं संस्कृति को अपना स्वरुप, संरचना, ढाँचा, आंतरिक विन्यास, क्रियाविधि, गतिशीलता, एवं प्रभावशीलता बदलना पड़ता है| इसी क्रियाविधि से समाज एवं संस्कृति अपने बदलते हुए प्रकृति, आत्म (Self), काल, सन्दर्भ, पृष्ठभूमि, परिस्थिति, आर्थिक शक्तियाँ, बाजार की शक्तियाँ आदि के अनुकूल या अनुरूप प्रतिक्षण अपना समायोजन करता रहता है, अनुकूलन करता रहता है, और अपने अनुकूलित यानि परिमार्जित स्वरुप में निरन्तरता बनाए रखता है|

आज समाज और संस्कृति को नियमित एवं नियंत्रित करने में बाजार की शक्तियाँ ही प्रमुख आर्थिक शक्तियाँ हैं| यही शक्तियां ही उस कालखंड में समाज और संस्कृति के सापेक्षिक आयामों यथा अवलोकनकर्ता के आत्म/ मन (Observor’s Self/ Mind), पारिस्थितिकी, सन्दर्भ, पृष्ठभूमि, परिस्थिति को नियमित, नियंत्रित, प्रभावित, संशोधित, एवं परिवर्तित करती रहती है| और इसीलिए इन आयामों के बदलने से समाज और संस्कृति भी बदलती रहती है| आज बाजार एक शक्तिशाली संस्था के रूप में सामाजिक एवं सांस्कृतिक आयामों को नए स्वरुप (Form), संरचना (Structure), ढाँचा (Framework), आंतरिक विन्यास (Internal Matrix), क्रियाविधि (Mechanics), गतिशीलता (Dynamics), एवं प्रभावशीलता में परिभाषित कर रही है| यह वह सब कुछ बदल दे रहा है, जिसकी कल्पना कुछ समय पहले तक नहीं की जा सकती थी| आज कोई भी समाज और संस्कृति बाजार की इन शक्तियाँ के प्रभाव परिणाम से अछूता नहीं है, और नहीं रह सकता है|

इसी कारण आप यह कह सकते हैं कि जिन शक्तियों का ‘बाजार की शक्तियों’ पर प्रभावकारी नियंत्रण होता है, वही शक्तियाँ ही सामान्य जनों के मानसिकताओं, यानि विचारों, यानि अभिवृतियों की व्यवस्था पर भी नियंत्रण रखता है| अर्थात वही बाजार की शक्तियाँ ही सामान्य जनों के मानसिकताओं, यानि विचारों, यानि अभिवृतियों के उत्पादन पर भी, यानि “बौद्धिक वैचारिक उत्पादन” पर भी नियंत्रण रखता है| स्पष्ट है कि ‘बाजार की शक्तियाँ’ अवश्य ही किसी भी समाज और संस्कृति को बदल सकती है, और बदल भी रही है, और आप कुछ भी अन्यथा नहीं कर सकते हैं| 

तो आज कोई भी पुरानी संस्कृतियों के पुनर्स्थापन के लिए  बेवजह अपना माथा क्यों पीट रहा है? आज पूरी दुनिया एक वैश्विक गाँव में बदल गया है और ‘वैश्विक आर्थिक शक्तियाँ’ ही ‘बाजार की शक्तियों’ को भी नियंत्रित कर रही है| आज कोई भी एक सत्ता (Authority) यानि स्थानीय शक्ति वैश्विक ‘बाजार की शक्तियाँ’ को नियंत्रित एवं नियमित नहीं कर सकता| और इसी कारण वह संस्कृति के गतिशील चक्र को भी नियंत्रित नहीं कर सकता है, यानि कोई भी ऐसा कर पाने का भ्रम भी नहीं पाले| 

इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि बाजार की शक्तियाँ ही विचारों एवं उनके सह उत्पादों के उत्पादन, वितरण, विनिमय एवं उपभोग को भी नियंत्रित करता हुआ होता है, आप इसे मानें या नहीं मानें| अर्थात बाजार की शक्तियाँ ही लोगों की सोच, अभिवृति, मानसिकता एवं उन्मुखता (Orientation) को, यानि वैचारिकी को आकार (Shape) दे रहा है| मैं इसे यहाँ इसलिए स्पष्ट कर दे रहा हूँ, क्योंकि यदि आपको किसी समाज एवं संस्कृति के पुनर्स्थापन के सम्बन्ध में जो करना है, कीजिए, लेकिन सारी स्थिति को अच्छी तरह समझ कर कीजिए| इसीलिए बाजार की शक्तियाँ को पहचानिए, समझिये, और तब आगे रणनीति तय करने को सोचिए|

‘समाज’ और ‘संस्कृति’ के ‘व्यवस्थित उद्गम’ कोई दस हजार साल पहले माना जा सकता है| ‘समाज’ और ‘संस्कृति’ के ‘व्यवस्थित उद्गम’ मानव की पत्थरों पर से निर्भरता समाप्त होने और कृषि कार्य प्रारम्भ होने से ही शुरू हुआ| इसके ही साथ ‘बुद्धि की संस्कृति’ यानि ‘बौद्धिक संस्कृति’ का आगमन हुआ| यह आर्थिक शक्तियों का ही परिणाम एवं प्रभाव रहा| हर युग में ‘आर्थिक शक्तियों’ ने इन्हें परिमार्जित कर नए रूपों में ढाल दिया है, जैसे मध्य युग में सामन्तवादी समाज एवं संस्कृति, आधुनिक युग में पूँजीवादी एवं समाजवादी समाज एवं संस्कृति| वर्तमान युग में ‘डाटावाद’ समाज एवं संस्कृति को प्रभावित कर रहा है| इन सभी युगों का उदय एवं विकास भी ‘आर्थिक शक्तियों’ ने ही, यानि “बाजार की शक्तियों” ने ही किया है और ये अभी भी कार्यरत हैं|

‘समाज’ और ‘संस्कृति’ क्या है? ‘समाज’ लोगों के समूह का एक संस्था है, जो आपसी सम्बन्धों के नेटवर्क से गुंथा हुआ होता है| तो क्या कोई संस्कृति मूर्ति एवं स्थापत्य है, गीत एवं संगीत है, नृत्य एवं चित्रकला है, लोकभाषा एवं लोकाचार है, या धार्मिक आस्था एवं लोक परम्परा है? नहीं, यह सब ‘संस्कृति’ की “विशिष्ट अभिव्यक्तियों” के कुछ उदाहरण मात्र है, यह स्वयं संस्कृति नहीं है| यह संस्कृति कुछ खास चिन्हों, जैसे भाषा, धर्म –पंथ, जाति या प्रजाति या विशिष्ट आर्थिक संबंधों में अभिव्यक्त होता है| वास्तव में, संस्कृति एक खास पद्धति से जीवन जीने का कौशल है, उपक्रम है, और इस तरह संस्कृति उस समाज का एक निश्चित ‘मानसिक निधि’ है, जो समय के साथ विकसित होता रहता है| संस्कृति एक विशिष्ट जीवन शैली है, जिसे कोई भी व्यक्ति उस समाज के सदस्य होने एवं उसमे समय व्यतीत करने से सीखता है| संस्कृति अपने समाज के लिए कुछ ख़ास मूल्य, प्रतिमान, रीति, मानक इत्यादि निर्धारित करता है, और जिसका अनुपालन सभी से किये जाने की अपेक्षा रखता है| इस तरह संस्कृति समाज को ‘स्वयं – नियंत्रण मोड’ में संचालित एवं नियमत करने वाला एक ‘साफ्टवेयर’ है|

चूँकि संस्कृति मानवीय भावनाओं को स्वत: संचालित करती रहती है, इसीलिए सांस्कृतिक पहचानें बहुत ही उग्र एवं प्रबल होती है| ये भावनाएँ लोगों में उसके प्रति भावावेश पैदा कर उसे एकत्रित भी करती है, आन्दोलित भी करती है और इसीलिए संस्कृति का राजनीतिक उपयोग एवं दुरूपयोग भी बहुत होता है| किसी का भी उपयोग एवं दुरूपयोग होना, एक स्थिति सापेक्ष माना जाता है|

संस्कृति चूँकि एक मानसिक निधि है, और इसीलिए यह लोगों के मन में निवास करता है| चूँकि संस्कृति कोई भौतिक अस्तित्व में नहीं होती है, इसीलिए यह किसी सभ्यता की तरह मरती- मिटती नहीं है, बल्कि यह ‘समाज की निरन्तरता’ के साथ ही अपनी निरन्तरता बनाये रखती है| ‘माया’ सभ्यता के लोग समाप्त हो गये, इसीलिए उनकी संस्कृति भी विलुप्त हो गयी, लेकिन सभ्यता के अवशेष आज भी मौजूद हैं| भारत में सांस्कृतिक निरन्तरता बनी हुई है, भले यह तत्कालीन आर्थिक शक्तियों के प्रभाव में अपना स्वरुप बदल दी है, और यह अपने अनुकूलित किये गये स्वरुप में जीवित बनी हुई है| संस्कृतियों का विलोपन नहीं होता है, बल्कि इनके स्वरुप में रूपांतरण या परिवर्तन होता है| इसी तरह कोई भी किसी प्राचीन संस्कृति को उसी स्वरुप में आज पुनर्स्थापित नहीं किया जा सकता, क्योंकि उससे सम्बन्धित सन्दर्भ, पृष्टभूमि, कारक, काल, प्रकृति, बाजार आदि सब कुछ बदल गया है|

आप भी ठहर कर विचार कीजिए| अपनी भावनाओं को किसी के बहाव में मत उड़ने दीजिए| और संस्कृति के तथाकथित पुनर्स्थापन के खेल को समझिये| आप तो बौद्धिक हैं, और इसीलिए विमर्श में शामिल होइए|

आचार्य प्रवर निरंजन   

गुरुवार, 26 दिसंबर 2024

समस्त मानवता का कल्याण कैसे हो?

यदि आप सबका यानि समस्त मानवता का कल्याण करना चाहते है, तो वह कैसे किया जा सकता है? यानि यह भी एक अहम् सवाल है कि यदि कल्याण पाने वालों की संख्या हजारोंमें हैं, या करोड़ों में हैं, या अरबोंमें शामिल हैं, तो इसे कैसे किया जा सकता है? स्पष्ट है कि लाभार्थी की संख्या के अनुसार कार्यान्वयन का तरीकाभी बदल जाता है| कल्याण करने वाला व्यक्ति, या संस्थान, या व्यवस्था, या समूह, या सरकार हो सकता है, लेकिन यह एक अहम् सवाल है कि तरीका क्या हो? यह भी सही है कि इस कल्याण की अवधारणा भी समय, स्थिति, पृष्ठभूमि, एवं सन्दर्भ के सापेक्ष बदलता हुआ होगा, परन्तु ऐसे कल्याण के लिए क्या करना समुचित, पर्याप्त एवं उत्तम माना जाना चाहिए? हमलोग इसी सवाल के विश्लेषण, मूल्याङ्कन एवं समीक्षात्मक निर्णय को लेकर आगे चलते हैं

बिना किसी भूमिका के, मैं यह कहना चाहता हूँ किस्पष्ट सवाल यह है कि मैं अरबों की संख्या में मौजूद सभी लोगों का कल्याण  करना चाहता हूँ, तो मुझे कैसे आगे बढ़ना चाहिएयह सवाल आपसे ही है|

कोई भी व्यक्ति, या संस्थान, या व्यवस्था, या सरकार आर्थिक सहयोग का कल्याण” (Welfare of Economic Cooperation) कुछ सीमित’ (Limited) लोगों तक ही पहुंचा सकती हैइसी तरह, कोई भी व्यक्ति, या संस्थान, या व्यवस्था ज्ञान आधारित सहयोग का कल्याण” (Welfare of Knowledge based Cooperation) कुछ असीमित’ (Unlimited) लोगों तक ही पहुंचा सकती है| लेकिन यदि कोई अपने कल्याण की पहुँच विश्व की समस्त मानवता तक पहुँचाना चाहता है. तो उसे अवश्य ही जीवन दर्शन” (Philosophy of Life), यानि संस्कृतिके उपागम का ही सहारा लेना होगा| और यही जीवन दर्शनसमस्त मानवता को प्रभावित एवं नियमित करता होगा| तो हमें क्या करना चाहिए?

यह तो स्पष्ट है कि यदि कोई किसी का कल्याण करना चाहता है, और वह आर्थिक सहयोग ही देना चाहता है, तो वह सहयोग कुछ हजार व्यक्तियों तक का ही का कल्याण कर सकता है| इस विधि से उससे अधिक का कल्याण करना व्यवहारिक रूप में संभव नहीं दिखता है| यदि वह कल्याण करने वाला कोई सरकार या अन्य संस्थान है, यानि उसके पास सामान्य जनता से संग्रहित किया गया अत्यधिक धनहै, तो वह सरकार या अन्य संस्थान करोड़ों एवं अरबों लोगों पर कुछ भी मात्रा में धन लुटा सकता है|

तो क्या आर्थिक दान या सहयोग किया जाना समुचित, पर्याप्त एवं उत्तम माना जाना चाहिए? इसी कड़ी में, एक सवाल यह है कि क्या धार्मिक प्रतिष्ठानों में या धार्मिक प्रतिष्ठानों के बाहर भक्तों द्वारा याचको को दिए जाने वाले दान या सहयोग समुचित, पर्याप्त एवं उत्तम माना जाना चाहिए? या जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में या विभिन्न कदमों पर दिए जाने वाले आर्थिक सहयोग या भीखदेना समुचित है? लेकिन इससे से ऐसे याचकों की संख्या भी नहीं घटती, या इनकी हालात भी नहीं बदलते और इनका मांगनाएक धंधा ही बन जाता हैतब आर्थिक सहयोगकी अपेक्षा रखना एक लोक संस्कृतिही बन जाती है| यह सहयोग सभी को सामान्य आँखों से भी दृष्टिगोचर हो जाता है, और यह तत्काल राहतपूर्ण होता है| यह देनेवाले को भी कल्याण करने का आत्मतुष्टि का भाव भी देता हैलेकिन क्या आर्थिक सहयोगकी सदैव ही अपेक्षा रखना समाज में कोढ़पनको बढ़ावा देना नहीं है? ऐसे कार्यों में आजकल लोकप्रिय सरकारे भी समाज में भीखमंगीका कोढ़ बढ़ाने में प्रमुख आरोपी साबित हो रहे हैं| ‘आर्थिक सहयोगदेकर या प्रत्यक्ष राशि देकर किसी के आय में वृद्धिकर सकता है, लेकिन उसका समुचित या किसी भी प्रकार का विकास नहीं कर सकता है?

प्रख्यात अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने सक्षमता उपगम” (Capability Approach) को ही विकास का आधार माना है, क्योंकि आर्थिक दान देकर किसी की आय तो बढ़ायी जा सकती है, लेकिन इससे किसी का विकास नहीं हो सकता| इसीलिए संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP) द्वारा अपनाए गये मानव विकास सूचकांक’ (HDI) के अवयवों में सिर्फ आय की बढ़ोत्तरी शामिल नहीं हैइसमें भी सबसे प्रमुख व्यक्ति का जीवन दर्शन’ (संस्कृति) ही है, जो उसके जीवित रहने की प्रत्याशा’, ‘शिक्षाएवं आय सृजनसे परिलक्षित होता है|

कल्याण करने का एक अन्य प्रमुख उपागम ज्ञान का प्रसारकरना है, जिसके द्वारा कोई कल्याणकारी व्यक्ति या एजेंसी अपने कल्याणकी पहुँच कुछ असीमितसंख्या तक, यानि कुछ करोड़ों तक पहुंचा सकता है| इसी ज्ञान के प्रसारउपागम में ज्ञान आधारित नवाचारी तकनीक भी शामिल कर लिए जाते हैं| बहुत से तकनिकी उत्पादों ने मानव के जीवन यापन को बहुत से क्षेत्रों में सरल एवं आसान कर दिया है|

लेकिन यह नवाचारी ज्ञान एवं नवाचारी तकनीक भी समस्त मानव का कल्याण करने में अभी तक समर्थ नहीं हो सका है| इसका सबसे प्रमुख कारण यह है कि कोई भी व्यक्ति उपयोगी एवं हितकर ज्ञानऔर तकनीकदे तो सकता है, लेकिन इसका सदुपयोग या दुरूपयोग करना तो उस लाभार्थी के मानसिकता एवं निर्णय पर निर्भर करता है| इसीलिए कहा गया है कि अभिवृति (Attitude) यानि मानसिकताही जीवन में सब कुछ है|” इसी को दुरुस्त करने के लिए ही जीवन दर्शनकी वैज्ञानिक व्याख्या की आवश्यकता होती है| और इसी जीवन दर्शनको सामान्य एवं साधारण शब्दों में संस्कृतिभी कहते हैं| इन सभी दर्शनोंको सकारात्मक, रचनात्मक, हितकारी, विकासात्मक एवं उपयोगी होना चाहिए|

इस विश्व में मानव जीवन दर्शन को प्रभावित करने एवं नियमित करने वाले कई दर्शन “पंथ” के रूप में प्रचलित है, लेकिन इनमे अधिकांश प्राचीन मानव जीवन दर्शन का आधुनिक उपयोग मानव को बांटने में, दबाने में और उत्पीडित करने में किया जा रहा है| ये सभी मानव जीवन दर्शनयानि उन संस्कृतियों के मूलाधार अपने उत्पत्ति एवं कार्यन्वयन के समय तो समुचित, उपयुक्त, उपयोगी एवं उत्तम थे| उस समय की विभिन्न वैश्विक संस्कृतियाँ अपनी अपनी भौगोलिक सीमाओं के अन्दर बाधित थे, और उन्ही भौगोलिक परिस्थितियों एवं शक्तियों से नियमित, नियंत्रित, निर्देशित एवं संचालित थे| आज भौगिलोक बाधाएँ सीमित एवं नियंत्रित हो गयी है, तकनिकी प्रसार से परिवहन एवं सूचना संचरण सरल, आसान, साधारण एवं सुविधाजनक हो गया हैअब उन विभिन्न वैश्विक संस्कृतियाँ अपने बदलते सन्दर्भों के सापेक्ष अपनी आवश्यकताओं की मौलिकता खो दी है, लेकिन इन प्राचीन मानव जीवन दर्शन के वर्तमान मठाधीशों को इस वैज्ञानिक आधुनिक युग में संकटका आभास हो रहा हैऐसे मठाधीश यथास्थितिवाद बनाए रखने के लिए वह सब कुछ कर रहे हैं, या करना चाह रहे हैं, जो समस्त मानवता के कल्याण के विरुद्ध जाता दिखता है|

इसी सन्दर्भ मेंमेरी भी दो पुस्तक जल्द आने वाली है, जो इस मानव जीवन दर्शन को वैज्ञानिक एवं आधुनिक आयाम देते हुए सब कुछ की व्याख्या स्पष्ट कर देगा| इस एक पुस्तक नाम  – मानव जाति का सफ़र पेशा, जाति एवं कास्ट तक” है

प्राचीन मानव जीवन दर्शन ही संस्कृतिकहलाती है, और अपनी गतिशीलता के कारण यही संस्कृति आधुनिक परिस्थितियों का अनुकूलन कर आधुनिक संस्कृतिभी बनती है| यह प्राचीन मानव जीवन दर्शन उस समाज के इतिहास बोध से उत्पन्न एवं विकसित होता है, जिसे इतिहास के वैज्ञानिक दृष्टिकोण ही दुरुस्त कर सकता है| इसी सन्दर्भ में मेरी दूसरी पुस्तक – इतिहास का विज्ञान” (The Science of History) भी जल्द ही आ रहा है|

इस आलेख पर गंभीरता से विचार लिए जाने का सादर अनुरोध है| इसके ही साथ यह भी अनुरोध है कि आप अपने बहुमूल्य सुझावों से भी अवगत करावें| मेरा ईमेल ब्लॉग पर उपलब्ध है|

आचार्य प्रवर निरंजन  

मंगलवार, 17 दिसंबर 2024

संस्कृति, सामन्तवाद और पुरोहित

पुरोहित प्रशिक्षण एवं शोध मिशन   (भाग – 26)

‘पुरोहित’ एवं ‘पुरोहिताई’ को लेकर उत्कृष्ट समझे जाने वाले बुद्धिजीवियों में बहुत कुछ भ्रमात्मक अवधारणाएँ जमी हुई हैं, और उन्हीं के भ्रम निवारण हेतु यह संक्षिप्त आलेख है| लेकिन इन पुरोहित की भूमिका एवं उनके महत्त्व को सम्यक ढंग से समझने के लिए हमें संस्कृति एवं सामन्तवाद को समझना होगा, और इनके अन्तरसम्बन्धों के क्रियाविधि को भी समझाना चाहिए| तब हम ‘पुरोहित की गत्यामकता’ (Dynamism of Priest) के भ्रम को समझ पाएंगे|

“संस्कृति” सामाजिक विकास, संवर्धन एवं मानव कल्याण सम्बन्धी व्यवस्था को बनाये रखने का एक सामाजिक -सांस्कृतिक प्रक्रम है, जिसके द्वारा समाज अपनी समझ से “सामाजिक -सांस्कृतिक मूल्य एवं प्रतिमान” (Socio- Cultural Values n Norms) के मानक निर्धारित करता है, और सभी सदस्यों के द्वारा इसके अनुपालन किए जाने की अपेक्षा होती है| इन ‘सामाजिक सांस्कृतिक मूल्य एवं प्रतिमान’ के मानकों (Standards) के अनुरूप व्यवहार एवं कार्य करने वाले ही ‘सुसंस्कृत व्यक्ति’ कहलाते हैं, सभ्य कहलाते हैं| इन्हीं मानको के अनुरूप सभी सामाजिक –सांस्कृतिक संस्थाओं का निर्माण होता है, पुनर्गठन होता है, संचालन होता है एवं नियमन होता है| इस तरह समाज के हितवर्धन के लिए सामाजिक –सांस्कृतिक संस्थाओं के उपयुक्त नियमन के लिए ही “पुरोहित” की भूमिका आती है|

तय है कि इन ‘सामाजिक –सांस्कृतिक संस्थाओं’ (Socio – Cultural Institutions) की प्रासंगिकता के बने रहने के लिए इन्हें बदलती हुई शक्तियों के अनुरूप अनुकूलित होकर बदलते रहना पड़ता है, और इसीलिए संस्कृति को गतिमान रहना होता है| प्राचीन काल में “बुद्धिवाद” का उदय एवं विकास हुआ| इसीलिए ऐसे काल में एक पुरोहित की भूमिका ‘सकारात्मक’ एवं ‘रचनात्मक’ रही, और इस तरह एक पुरोहित का नाम ‘पुर’ का हित करने वाला के रुप में सार्थक साबित हुआ|  

लेकिन मध्य काल के सामन्तवाद में ऐतिहासिक शक्तियों के प्रभाव में सामाजिक –सांस्कृतिक संस्थाओं में संरचनात्मक एवं प्रकार्यात्मक परिवर्तन हुआ, तो ‘पुरोहितों’ की भूमिका ही पूरी तरह बदल गयी दिखने लगी| सरलतम रुप में, ‘समानता’ के ‘अन्त’ को ही सामन्तवाद (= समानता + अन्त) कहते हैं| जिन ऐतिहासिक शक्तियों ने ‘बुद्धिवाद’ के काल का समापन किया, उन्हीं शक्तियों के “पुरोहिताई की संरचना, प्रकृति एवं व्यवहार” को भी बदल डाला|

‘योग्यता’ आधारित ‘पद’ एवं ‘कार्य’ की समानता के अवसर का अन्त हो गया, और

‘जन्म’ आधारित ‘पद’ एवं ‘कार्य’ के अवसर सुनिश्चित कर दिया गया|

यह सब ‘भौतिक शक्तियों’ के प्रभाव थे, जिन्हें इतिहास के काल में ‘ऐतिहासिक शक्तियाँ’ कहा हाता है| इस सामन्तवाद के काल में ‘पुरोहिताई’ का भी कार्य स्वरुप बदल गया| आज के वर्तमान ‘विज्ञानवाद’ के युग में, ‘जन्म’ आधारित ‘पद’ एवं ‘कार्य’ के अवसर ‘मानवतावाद’ एवं ‘विज्ञानवाद’ का विरोधी घोषित कर दिया गया|

इस तरह ‘सामन्ती काल का पुरोहिताई’ का कार्य अपने ‘सांस्कृतिक जड़ता’ के कारण वर्तमान सन्दर्भ में नकारात्मक एवं विध्वंसात्मक भूमिका में दिखने लगा| यह मध्ययुगीन परम्परा के वर्तमान काल में निरंतरता के कारण दिखती है| यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि ‘पुरोहिताई का कार्य’ नकारात्मक एवं विध्वंसात्मक हुआ, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं निकाला जाना चाहिए कि ‘पुरोहित’ का पद ही नकारात्मक एवं विध्वंसात्मक हो गया|

चूँकि पुरोहित का पद ही समाज के हितवर्धन में सामाजिक –सांस्कृतिक संस्थाओं के उपयुक्त नियमन के लिए हैं, इसीलिए एक पुरोहित का पद सभी आदिम संस्कृतियों में, सभी धार्मिक एवं सांप्रदायिक व्यवस्थाओं में, तथा सभी वैधानिक संरचनाओं में उपलब्ध रहता है|

आप एक पुरोहित के कार्य विधि, कार्य पद्धति, कार्य संरचना, एवं कार्य संपादन की सामग्री पर आपत्ति कर सकते हैं, विवाद कर सकते हैं, लेकिन आप पुरोहित के पद एवं भूमिका पर आपत्ति नहीं कर सकते हैं|

इसे समझिये और पुरोहित बनिए|

आचार्य प्रवर निरंजन 

राष्ट्र का विखंडन और संस्कृति

कोई भी राष्ट्र विखंडित होता है, या विखंडन की ओर अग्रसर है, तो क्यों? संस्कृति इतनी सामर्थ्यवान होती है कि किसी भी देश को एकजुट रख कर एक सशक्...