मंगलवार, 22 जुलाई 2025

बौद्धिक बेईमानी क्या है?

जब कोई व्यक्ति या समूह या वर्ग जानबूझकर किसी झूठ को अपने तर्क एवं ज्ञान के द्वारा सही साबित करता है, यानि उसका "बौद्धिकीकरण" करता है, तो उसे  ही "बौद्धिक बेईमानी' कहते हैं। बौद्धिकता के संदर्भ में 'जानबूझकर' ऐसे काम को करना, जो नहीं करना चाहिए, यानि स्पष्ट मंशा से समाज विरोधी बौद्धिक उपागम (Approach) करना, यानि दिखाना कुछ और एवं करना उसके विरुद्ध, इसे ही बेईमानी समझा जाता है। "बौद्धिकीकरण" का तात्पर्य किसी अति सामान्य, सरल, सहज एवं साधारण तथ्य, विचार, भावना या व्यवहार को इस तरह समाज के समक्ष प्रस्तुत किया जाना, मानों ये सब सत्य, उत्कृष्ट, उच्च्ततर, असाधारण और अति विशिष्ट हो।

लेकिन "बौद्धिकीकरण " करने में सिर्फ बौद्धिक बेईमान ही नहीं होते, अपितु बहुत से रिटायर्ड लोग या अकादमिक लोग भी होते हैं, जो अपने शेष जीवन के समय काटने के लिए ‘बौद्धिकता का व्यायाम’ करते हुए होते हैं। चूंकि ऐसे लोग अपनी किताबों से अर्जित ज्ञान की बंधी बधाई दुनिया से बाहर देख समझ नहीं सकते, इसीलिए ये लोग बौद्धिक बेईमान नहीं हो पाते। दरअसल ये लोग समाज में कुछ भी नवाचार नहीं कर पाते, इसीलिए समाज में सकारात्मक बदलाव लाने के भ्रम में ही समस्त जीवन गुजार देते हैं।

 मैं यहाँ थोड़ा विषयान्तर हो गया था। समाज का बौद्धिक बेईमान वर्ग बौद्धिकता के उपकरणों के सहारे एक समानान्तर आभासी (मायावी/ Virtual) दुनिया बनाता है, जिसमें उस वर्ग की बौद्धिकता तथाकथित विशिष्टता, सर्वोच्चता, भिन्नता और दिव्यता पर आधारित होता है। इस दिव्यता का आधार जन्म से और पूर्व जन्म के लक्षणों से निर्धारित माना जाता है, जिसे आधुनिक विज्ञान कतई नही मानता है। अधिसंख्य बौद्धिकों की अधिकतम ऊर्जा हमारे अस्तित्व की प्रकृति और नियति को बेहतर बनाने में नहीं लगाया जाता। इनका ध्यान हमारे जीवन के पार की दुनिया में ही लगा रहता है, और यही बौद्धिक बेईमानी है। ऐसा अधिकतर जानबूझकर ही किया जाता है। मानवेत्तर शक्तियों और स्थितियों के विश्लेषण एवं अध्ययन पर समय, उर्जा, वैचारिकी और संसाधन लगाना और ऐसा ही दूसरों को करने के लिए प्रेरित करना, भी "बौद्धिक बेईमानी" है।

यदि कोई वास्तविक बौद्धिक वास्तविक जीवन की समस्याओं के समाधान के लिए वैचारिक रुप में  जूझता होता है, तब बौद्धिक बेईमान ऐसे बौद्धिकों के चिंतन एवं प्रयास को मूर्खतापूर्ण बताकर भ्रम पैदा कर दे रहे हैं। ये बौद्धिक बेईमान सदैव ही सारे विश्व को जीवन मृत्यु के रहस्यों, जन्म जन्मान्तर की प्रक्रियाओं और अलौकिक अस्तित्व के चिंतन में, यानि उस आभासी दुनिया में डुबोए रखना चाहते हैं, जिस आभासी दुनिया में वे दिव्य माने जाते हैं। ये बेईमान जीवन की वास्तविकताओं से संबंधित मुद्दों को नीरस, उबाऊ, रहस्यपूर्ण और कपोल कल्पित बता कर जीवन की वास्तविकताओं को ही नकारता हुआ होता है।

बौद्धिकता का सार (Essence) यानि बौद्धिकता की दुनिया के केन्द्र में अवश्य हीजीवन’, ‘समाज’ और ‘व्यवस्था’ (सत्ता) होता है, अत: इसके बाहर का विमर्श बौद्धिक बेईमानी ही है। जीवन का कोई भी परिणाम अपनी ‘द्वैत’ (Dual) अवस्था का परिणाम होता है, और जीवन का यह द्वैत अवस्था ‘विचार’ और ‘कर्म’ का होता है। अर्थात जीवन का कोई भी परिणाम उसके बौद्धिकता (विचार) और व्यवहारिकता (कर्म) का संयुक्त उत्पाद होता है। इन दोनों में किसी के भी शून्य होने पर परिणाम ‘शून्यता’ में आ जाता है। बौद्धिक बेईमान सामान्य लोगों की बौद्धिकता को शून्य कर देते हैं और इसीलिए कर्म करने के बाद भी उनके जीवन का वास्तविक परिणाम शून्य हो जाता है। हर बौद्धिकता का एक भौतिक सामाजिक आधार होता है। यह भी सही है कि सभी बौद्धिकताओं का जन्म उस समय की ठोस भौतिकतावादी स्थितियों में ही होती है।

‘बौद्धिकता’ व्यवस्था या सत्ता पर नियंत्रण और नियमन की समझ देता है, इसीलिए चतुर लोग या वर्ग  बौद्धिकता पर नियंत्रण के लिए दूसरे वर्गों के साथ ‘बौद्धिक बेईमानी’ करता है। सत्ता या व्यवस्था को सबसे बड़ा खतरा "स्वतंत्र दिमाग" से होता है। सत्ता वर्ग द्वारा निर्मित एवं निर्धारित ‘अवधारणाओं’ (Concepts) से सत्ता वर्ग को कोई खतरा नहीं होता, इसीलिए इन अवधारणाओं के विरोध करते दिखने वाले नेताओं से सत्ता वर्ग विचलित नही होता। दरअसल ये कुछ अवधारणाएं विरोध करने के लिए ही रचित होती है, क्योंकि इसके विरोध से ही सत्ता वर्ग अपनी ऊर्जा लेती है और समाज में स्थान बनाता है। सतही समझ रखने वाले तथाकथित बौद्धिक इनका गला फाड़ विरोध करते हैं। इनके द्वारा रचित अवधारणाओं के भौतिक विरोध से वे और मजबूत होते हैं। अक्सर डिग्रीधारी बौद्धिक भी ‘बौद्धिक शून्यता’ में ही होते हैं।

बौद्धिक बेईमान वर्ग अपनी सर्वोच्चता, विशिष्टता, एवं भिन्नता को स्थापित करने और उसे बनाए रखने के लिए सदैव ‘दिव्यता’ को आधार बनाते हैं। इतिहास को मोड़ना, यानि बदलना इतिहास को अपने पक्ष में करने का प्रयास होता है। इतिहास को मोड़ कर ऐतिहासिकता के आधार पर सर्वोच्चता, विशिष्टता, एवं भिन्नता को स्थापित करने और उसे बनाए रखने के प्रयास किया जाता है। व्यवस्था और सत्ता पर पूर्ण और दीर्घकालिक स्थायी नियंत्रण के लिए राजनीतिक एवं सामाजिक नियंत्रण आवश्यक होता है, और यह ‘सांस्कृतिक एवं वैचारिक नियंत्रण’ से आता है। इसे ही ऐन्टोनियो ग्राम्शी "सांस्कृतिक वर्चस्ववाद" (Cultural Hegemony) कहते हैं।  इसीलिए माओ त्से तुंग ने चीन को आधुनिक एवं विकसित बनाने के लिए " सांस्कृतिक क्रांति" (Cultural Revolution) किया था। लेकिन बौद्धिक बेईमान अपने स्वार्थ के लिए बौद्धिक बेईमानी का उपयोग अपने समाज और राष्ट्र को  बरबाद करने के लिए करते हैं।

बौद्धिकता का संबंध एकांत और निर्जन जीवन के लिए नहीं होता हैबल्कि तत्कालीन युग की समस्याओं के समाधान के लिए वैचारिक समाधान का देने का एक प्रयास होता  है। सभी का एकांत चिंतन समाज के लिए ही होता है, अन्यथा वह बौद्धिक बेईमानी होगी|

वस्तुतः किसी भी बौद्धिकता का विमर्श एवं चिंतन जीवन की समस्यायों के समाधान के लिए ही होगा और व्यवस्था की नाकामियों में सुधार के लिए होगा, अर्थात इन दोनों  से निरपेक्ष नहीं होगा, और यदि कोई भी बौद्धिकता वास्तविक जीवन और व्यवस्था की समस्यायों से परे हैतो वह अवश्य ही बौद्धिक बेईमानी है। आज के वैज्ञानिक युग में 'निर्माणवाद' (Creationism) की अवधारणा ध्वस्त हो गयी है, और 'विकासवाद' (Evolutionism) के सिद्धांत ने उसे प्रतिस्थापित कर दिया है।

बौद्धिक बेईमानों की बौद्धिकता सदैव सामाजिक श्रेष्ठता, उच्चता, प्रभुत्व और विशेषाधिकारों को अनन्त काल तक स्थायी बनाने की होती है और इसे ईश्वरीय न्याय के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। बौद्धिक बेईमान बदलाव से डरता है, समानता के अवसर से भागता है और इसीलिए आभासी दुनिया में सामान्य लोगों को रखना चाहता है।

जबतक प्रकृति और समाज के स्वभावप्रतिरुपऔर क्रियाविधियों को भौतिक (आर्थिक) साधनों और शक्तियों के संबंधों के नजरिये से नहीं देखा और समझा जाएगा, बौद्धिक बेईमानों की गति को कोई रोक भी नहीं सकता।

आचार्य प्रवर निरंजन जी

अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान

रविवार, 20 जुलाई 2025

अमीर बनने का सिद्धांत

अमीरी एक अवस्था है| ‘अमीर’ (Rich) बनना या अमीर बने रहना एक संस्कृति है, जिसे कोई भी विकसित कर सकता है| चूँकि यह एक संस्कृति है, इसीलिए यह किसी समाज में पूर्व से स्थापित होती है, या हो सकती है, या स्थापित नहीं भी हो सकती है| संस्कृति सामूहिक अचेतन होता है, जो स्वचालित स्वरुप में सदैव अचेतन पर कार्य करता हुआ होता है| जिन समाजों में यह पूर्व से स्थापित एवं प्रचलित होती है, वहाँ इसे फिर से विकसित करने की आवश्यकता नहीं होती है| लेकिन यह जिन समाजों में यह पूर्व से स्थापित या विकसित यानि प्रचलित नहीं होती है, वहाँ इसे व्यवस्थित एवं संगठित तरीके से विकसित कर स्थापित करना आवश्यक होता है| भारतीय समाज में इसकी बहुत आवश्यकता है| यह कोई ‘धनी’ (Wealthy) बनने की अवस्था नहीं है, जिसे कोई भी धन संग्रहीत कर बन जाता है| स्पष्ट है कि ‘धनी’ होना कोई ‘अमीर’ बनने की संस्कृति नहीं है|

स्पष्ट शब्दों में और संक्षिप्त में कहूँ तो अमीर बनने का एक स्पष्ट स्थापित सिद्धांत है| सिद्धांत (Theory) सिद्ध (Proved) भी होता है, और अंत (End) भी होता है, यानि इसे फिर से साबित करने की जरुरत भी नहीं है और यही अंतिम (Final) सत्य भी है, एवं इस सम्बन्ध में कोई दूसरा सूत्र भी नहीं है|

इस सिद्धांत में तीन ही सूत्र हैं –

प्रथम, अमीर बनने का लक्ष्य स्पष्ट और निर्धारित हो| किसी को जो भी बनना या बनाना होता है, उसके पास उस लक्ष्य के लिए एक स्पष्ट मानसिक चित्र होना चाहिए, क्योंकि यही मानसिक चित्र लगातार उसके मन मस्तिष्क में बना रहता है और वही मानसिक चित्र वास्तविकता में बदल पाता है| मानसिक चित्र के अधिक ‘विवरणात्मक’ होने से उस चित्र में स्पष्टता ज्यादा रहती है| यही स्थिति अमीर बनने में भी होती है| लेकिन कोई भी मानसिक चित्र किसी के मन मस्तिष्क में तभी लम्बे समय तक बना रह सकता है, जब उस लक्ष्य को पाने का कोई बहुत बड़ा कारण हो, जो उसके लिए स्पष्ट हो, अन्यथा वैसे लक्ष्य तो क्षणभंगुर होते हैं और इसीलिए वे कोई प्रभाव ही नहीं डाल पाते| मतलब किसी को अमीर बनने की इच्छा उसमें उसी समय जागेगी, जब वह अमीर बनने के लिए कोई बड़ा सा कारण खोजेगा, या चाहेगा| यही बड़ा कारण उसके लिए प्रेरक शक्ति बनता है, अन्दर की आग को ईंधन देता रहता है| ऐसा कारण स्पष्टतया उसके जीवन से, पद से, प्रतिष्टा से आदि से जुडा होन चाहिए|

द्वितीय, अमीर बनने का दूसरा महत्वपूर्ण सिद्धांत उसके व्यवहारिक समझ से सम्बन्धित है| किसी भी अमीर के विचार, भावनाएँ, एवं व्यवहार समुचित रहता है| अमीर बनने के लिए खुशनुमा भावनाओं के साथ विचार या व्यवहार के साथ सेवा (Services) या वस्तु (Goods) देना होता है| शिक्षा उसे कहते हैं, जो लोगों को बदलती दुनिया को समझने में और उसके अनुकूल अपने को ढलने ढालने में मदद करे| ऐसी ही शिक्षा किसी को अमीर बनने की भी यह एक आवश्यक शर्त है|

पहले सूचनाओं के संग्रहण को, यानि याद रखने और उसके अनुप्रयोग करने के स्तर को शिक्षा के स्तर का पैमाना माना जाता था| इसे ही ‘सामान्य बुद्धिमता’ कहते हैं| लेकिन कोई अपने सामने वाले की भावनाओं को समझ कर और उनकी भावनाओं के अनुरूप अपनी भावनाओं को व्यवस्थित कर व्यवहार करता है, तो उसे ‘भावनात्मक बुद्धिमता’ कहा जाता है| इसके लिए सहानुभूति (Sympathy) की जगह समानुभूति (Empathy) दिखाया जाता है| यह गुण अमीरी के लिए विकसित करना आवश्यक संस्कार है| यदि कोई अपने समाज की आवश्यकताओं को अपने ध्यान में रखता है, तो उसे अपने समाज का भी समार्थन मिलता है| ऐसा व्यक्ति पहले की अपेक्षा ज्यादा सफल रहता है| ऐसी समझदारी को ‘सामाजिक बुद्धिमता’ कहते हैं| आजकल ज्यादा अमीर बनने वाले अपने समझ में मानवता, प्रकृति एवं भविष्य को भी समाए होते हैं| इसी को ‘बौद्धिक बुद्धिमता’ कहते हैं| मानवता, प्रकृति एवं भविष्य की समझ को समा लेना ही संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP) का ‘धारणीय लक्ष्य’ (Sustainable Goals) कहलाता है| अमीरी का स्तर पाने में इन बुद्धिमत्ताओं के स्तर का भी योगदान होता है|

तृतीय एवं अंतिम सिद्धांत में आवश्यकता (Need), इच्छा (Desire), और मांग (Demand) को समझना अनिवार्य है| जो व्यक्ति इन अवधारणाओं मे अंतर नहीं कर सकता है, वह कभी भी अमीर नहीं बन सकता है| ‘प्रबंधन के केलौग स्कूल’ के फिलिप कोटलर ‘Need’, ‘Want’, ‘Desire’ एवं ‘Demand’ में अंतर समझाते हैं| इन्होने Want और Demand में अंतर किया तो है, लेकिन Want के लिए उपयुक्त हिंदी शब्द मुझे ज्ञात नहीं है| ‘Demand’ के लिए हिंदी में प्रचलित शब्द ‘मांग’ है, तो ‘Want’ के लिए ? किसी की भूख के लिए भोजन उसकी आवश्यकता (Need) है, लेकिन उस भोजन के प्रकार, यथा रोटी, चावल, बेकरी, या अन्य उसका ‘Want’ है| कुछ भी पाने का मन करना उसका ‘इच्छा’ (Desire) हुआ, जो उसके लिए अनिवार्य नहीं भी हो सकता हो| कोई भी ‘मांग’ (Demand) तब बनता है, जब कोई इसके लिए धन खर्च करने तैयार रहता है| किसी के शारीरिक एवं अन्य व्यक्तित्व विकास के लिए अनिवार्य संसाधन की अनिवार्यता ही उसका ‘Need’ है| यह व्यक्ति के अनुसार बदलता रहता है| मतलब किसी को भी अपनी अनिवार्यता और उसकी इच्छाओं में अंतर करना स्पष्ट होना चाहिए, अन्यथा वह अमीर बन ही नहीं सकता है|

जब मैं स्कूली बच्चों को समझाता हूँ, तब उन्हें इस तरह समझाता हूँ कि यदि तुम्हारे पाकेट में कुछ रुपैया हो जिसे तुम्हें कोई ऐसे ही दिया हो, या मिल गया हो, और तुम पूरा बाजार घूम लो, और फिर भी तुमने वह रुपैया खर्च नहीं किया, तब तुम्हारे अमीर बनने की पूरी संभावना है| मतलब किसी को भी अपनी इच्छाओं को दमित करने की क्षमता और समझ होनी चाहिए| तब ही कोई अपने प्राप्त धन को उत्पादक बना सकता है| अर्थात अमीर बनने के लिए ‘धन’ (Wealth/ Money) को ‘पूंजी’ (Capital) बनाना अनिवार्य होता है| ‘धन’ को ‘पूंजी’ में बदलने की समझ एवं तरीकों पर पहले भी कई आलेखों में समझाया गया है, और इसीलिए यह यहाँ सन्दर्भ में नहीं है|

उपरोक्त यही तीन सूत्र अमीर बनने के लिए मूल एवं अनिवार्य है| ऐसे कोई भी इनमे और सूत्र जोड़ सकता है, जो उनके समझ में आता है|

आचार्य प्रवर निरंजन जी

अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान|

गुरुवार, 17 जुलाई 2025

कांवड़ यात्रा का सफरनामा

कांवड़ यात्रा भारतीय पंचाग के सावन के महीने में परकाष्ठा पर होती है। दरअसल यह परकाष्ठा नहीं होती, कांवड़ यात्रा का यही उपयुक्त और निर्धारित समय है, और बाकी अवधि की यात्रा तो यात्रियों के सुविधा मुताबिक होती है। सामाजिक मीडिया में इस पर कई तरह की विद्वतापूर्ण टिप्पणियां - सकारात्मक और नकारात्मक - आती रहती है, कुछ तो विवाद का भी स्वरूप ले लेता है। ऐसी स्थिति में मुझे भी लगता है कि इस पर मुझे भी प्रकाश डालना चाहिए।

किसी भी सामाजिक, यानि सामूहिक मानसिकता ही संस्कृति होती है, जो समाज के अचेतन से ही संचालित, नियमित, निर्देशित, नियंत्रित और प्रभावित होती रहती है। यह समस्त प्रक्रिया अचेतन स्तर पर स्वचालित मोड में होती है, और इसीलिए अदृश्य भी होती है। इसी को मनोवैज्ञानिक कार्ल जुंग का "सामूहिक अचेतन" कहते हैं। चूंकि ये मानसिक अवस्थाएँ है, इसिलिए इसकी उत्पत्ति के मूल कारणों को समझने के लिए भी मानसिक दृष्टि को परिश्रम करना चाहिए। यह सब शारीरिक आंखें नही देख समझ पाती है। कांवड़ यात्रा से संबंधित समस्त भावनाएँ, विचार और व्यवहार ही उनकी संस्कृति की जड़ों से उत्पन्न होती है।

किसी भी समस्या का समुचित समाधान किसी को इसलिए नही मिल पाता है, क्योंकि हम उसे, यानि उस समस्या को उसी यथास्थिति में, यानि उसके जड़ों को उसी स्वरूप, प्रतिरुप, संरचना और विन्यास में नहीं देख समझ पाते हैं। एक चिकित्सक भी अपने रोगियों के समुचित ईलाज के लिए उन रोगों की उत्पत्ति के मूल कारणों को जानने समझने के लिए कई प्रकार के जांच करवाते हैं। हमलोगों को कांवड़ यात्रा से संबंधित यदि कोई समस्या दिखती है, तो इसके भी समुचित समाधान के लिए कई जांच परिणाम को जानना समझना चाहिए।

मैंने इतिहास के ऐसे ही पक्षों को समझने के लिए "इतिहास का गुरुत्वीय ताल" (Gravitational Lensing of History) की अवधारणा दिया। इस अवधारणा के अनुसार किसी भी वर्तमान को समझने के लिए हमें उसी काल में जाकर उन स्थितियों, पर्यावरणीय कारकों, उन संस्कृतियों को जानना समझना होता है, जिनसे यह सब उत्पन्न हुआ। भारत के वृहत् क्षेत्र में दक्षिण पश्चिम मानसून की सक्रियता तीन मासों - सावन, भादों और आश्विन में बना रहता है। स्पष्ट है कि शुरुआती माह सावन का हुआ। भादों के माह में जलाशय भरे होते हैं, नदी नाले ऊफान पर होता है, ग्रामीण भारत की तत्कालीन आवागमन की व्यवस्था अस्त व्यस्त हो जाता रहा, लोग अपने खेतों के निकाई, गुडाई, आदि कार्यो में व्यस्त हो जाते रहे, और शेष समय बरसात की अस्त व्यस्तता में अपने परिवार की उलझनों को सुलझाने में लगा हुआ होता था।

ऐसे ही समय में समाज के दिशा निर्देशक, समाज को समर्पित समाजसेवी, और विद्वान जमात किसी सुरक्षित एवं निश्चित स्थान पर तीन मास के लिए स्थिर हो जाते थे। यह तीन मास को वर्षावास भी कहा जाता है। इस अवधि में वे अध्ययन, मनन मंथन, और विमर्श में बिताते थे। शेष नौ महीने समाज के ये लोग समाज में सक्रिय रहते थे। ऐसे लोगों को देव भी कहा जाता था। देवों के इस स्थल ही देवस्थान कहलाते हैं। ये तीन महीने में इन लोगों के लिए भोजन आदि व्यवस्था होनी चाहिए, जिसे समाज को ध्यान में रखना होता था। इसी व्यवस्था में समाज के सभी समर्थ, सजग और जिम्मेदार लोग आवश्यक रसद लेकर ससमय उन स्थानों पर स्थित लोगो तक पहुँचाते थे। इसी को आज कांवड़ यात्रा कहते हैं।
यह कार्य भादों में संभव नहीं है। सावन की फिजा अलग होती है। पूरवैया ठंडी हवाएँ और फुहार थकने नहीं देती, बागों में झूले झूलने लगते हैं, नदियाँ खतरनाक नहीं होती, और वर्षावास के इसी सुहाने मौसम में आवश्यक रसद पहुंचा दिए जाते थे। यह ग्रामीण सहित समस्त आवाम का एक मनोरंजक टूरिज्म भी है। यह देशांतर भ्रमण का सामूहिक यात्रा भी है।  कांवड़ यात्रा का यही सफरनामा है। आज इसके वर्तमान स्वरूप का यही शुरुआती दौर था।

अब आपको समझना है कि इसमें यदि कोई विकृति दिखाई देता है, उसमें आवश्यक संशोधन और सम्वर्धन कैसे होगा?

आचार्य प्रवर निरंजन जी
अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान

शनिवार, 12 जुलाई 2025

विवाह और सेक्स क्यों एक नहीं है?

मैंने कुछ युवाओं में पाया है कि यदि उनका किसी से यौन सम्बन्ध हो जाता है, तो वे विवाह की भी सोचने लगते हैं| इसमें बहुत कुछ गलत नहीं है, लेकिन सब कुछ सही भी नहीं है| हमें यह समझना चाहिए कि विवाह और यौन सम्बन्ध दो अलग अलग अवधारणा है| इन दोनों में प्रत्यक्ष सम्बन्ध होते हुए भी दोनों एक दूसरे से भिन्न है, और इसीलिए यह विचारणीय भी है|

यौन सम्बन्ध की अवधारणा भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 63 में व्यापक रूप से वर्णित है, जिसमे कई प्रक्रियाओं को इस वर्गीकरण में शामिल किया गया है, लेकिन कुछ को इसका अपवाद भी मान लिया गया है| इसे यहाँ विस्तार से समझना समझाना विषयान्तर होगा| इसी यौन सम्बन्ध के आधार पर विवाह कर लेना समुचित नहीं है| लेकिन यौन सम्बन्ध से उत्पन्न में नए सामाजिक सदस्य के आगमन के कारण विवाह को अनेक संस्कृतियों में नैतिक रूप से अनिवार्य मान लिया जाता है, हालाँकि इससे कई सामाजिक सांस्कृतिक विवाद भी हो जाते हैं| यहाँ राज्य की भूमिका पर अलग से विमर्श किया जा सकता है| यौन सम्बन्ध को समझ लेने के बाद, इसके लिए विवाह को भी समझ लेना महत्वपूर्ण है|

विवाह को समझने से पहले हमें ‘ब्रह्माण्ड की ‘प्रकृति’, ‘प्रवृति’ एवं ‘सहज स्वभाव’ (Drive) को समझ लेना चाहिए| ‘ब्रह्माण्ड एवं प्रकृति के सभी पदार्थ द्वैत (Duality) की अवस्था में मौजूद है| सभी पदार्थ कणिका (Particle) भी हैं, और तरंग (Wave) भी है, दोनों अवस्था एक ही साथ वर्तमान होता है| इसी तरह इतिहास और संस्कृति भी द्वैत अवस्था में होती है| इसमें ‘तथ्य’ (भौतिक पक्ष) भी होते हैं, और इसके ही साथ उसका ‘दर्शन’ (विचार पक्ष) भी होता है| इसमें दोनों को एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता है| इसी तरह प्रत्येक चेतन में ‘वस्तु पक्ष’ भी होता है, और ‘भाव पक्ष’ भी होता है| इसी तरह सभी उच्च स्तरीय चेतनशील प्राणी में एक स्त्री होती है और दूसरा पुरुष होता है| इन्ही दोनों के युग्मों से इस संसार में निरंतरता है| इन दोनों में, यानि इन स्त्रियों एवं पुरुषों में ‘समन्वय’ (Co ordination), ‘सहयोग’ (Co operation) एवं ‘संवाद’ (Communication) से ही इस श्रृष्टि का स्तरीय विकास हुआ है, अन्यथा मानव भी कीड़े मकोड़े ही होते| यही समझ प्रकृति एवं संसार के उद्विकास एवं विकास का मूल एवं मौलिक आधार है| यहीं विवाह की अवधारणा समझ में आती है| यौन सम्बन्ध तो पशुओं सहित अन्य जीव भी कर लेते हैं, लेकिन विवाह नामक संस्था का निर्माण नहीं कर पाते और इसीलिए वे अपना संसार नहीं बना पाते|

विवाह एक सामाजिक संस्था (Instituition, not Institute) है, और इस रूप में यह समाजिक व्यवस्था के आवश्यक ढाँचे एवं संरचना का एक मूल, मौलिक एवं आधारभूत इकाई है| जब कोई व्यक्ति विवाह करता है, तो वह एक सामाजिक सांस्कृतिक संस्था के निर्माण करता है, उसका सामाजिक घोषणा भी करता है| इस सामाजिक सांस्कृतिक ‘घोषणा’ (Declaration) के कई गवाह होते हैं, जिनकी उपस्थिति प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप में होती है| इसीलिए एक विवाह बिना किसी कर्मकांड के संपन्न ही नहीं होता| कर्मकांड पर अनावश्यक विवाद वही लोग ज्यादा करते हैं, जिन्हें कर्मकांड की ही समझ नहीं है|

मैंने यहाँ विवाह के लिए व्यक्ति शब्द का प्रयोग किया है, क्योंकि विपरीत लिंगी के अलावे कई समाजों में समलिंगी विवाह को भी वैधानिक मान लिया जा रहा हैं| जब हम आगे विवाह संस्था का विवेचन करेंगे, तो यह स्पष्ट होगा कि ऐसा समलिंगी विवाह क्यों अप्राकृतिक है, और क्यों यह प्रकृति के मूल, मौलिक एवं आधारभूत स्वभाव, लक्षण एवं प्रवृति के विरुद्ध जाता हुआ होता है? चूँकि बहुत से विद्वान् विवाह की संस्थागत भूमिका नहीं समझते होते है, और यौन सम्बन्ध और विवाह को समानार्थी ही समझ लेते हैं, इसी कारण ऐसे लोग समलिंगी विवाह के समर्थक हो जाते हैं| ऐसे विद्वानों को विवाह की भूमिका यौन संतुष्टि तक ही समझ में आती है|

यौन तुष्टि तो अलग विचार है और शायद इसीलिए दो वयस्कों के आपसी सहमति से बनाया गया यौन सम्बन्ध भारतीय न्याय संहिता की धाराओं में अपराध नहीं है| ‘सहमति’ को स्वतंत्र, स्वैच्छिक, संसूचित एवं स्पष्ट होना चाहिए, लेकिन यह सहमति कई अन्य प्रावधानों के अंतर्गत है| कहने का तात्पर्य यह है कि यौन सम्बन्ध विवाह नामक संस्था के दायरे से भी बाहर हो जाता है, जिसे विवाहेत्तर सम्बन्ध के वर्गीकरण में रखा जाता है| विवाहेत्तर संबंधों के बारे में विधिक प्रावधान एवं नैतिक मान्यताएँ संस्कृतियों के अनुसार, या राज्यों की व्यवस्थाओं के अनुसार बदलता हुआ भी हो सकता है|

चूँकि विवाह एक सामाजिक संस्था है, और प्रत्येक संस्था का एक मूल एवं आधारभूत सार (Essence) होता है, एक दर्शन (Philosophy) होता है, इसीलिए विवाह का भी एक सामाजिक सांस्कृतिक दर्शन होगा, कोई मौलिक एवं आधारभूत उद्द्देश्य यानि कोई सार होगा| हमें विवाह के इसी मूल, मौलिक एवं आधारभूत दर्शन को जानना एवं समझना है| विवाह के साथ ही यह सामाजिक घोषणा होता है, कि ये दोनों व्यक्ति सामाजिक ढाँचे में एक ‘नाभिक परिवार’ के रूप में सामाजिक संरचना का एक मौलिक इकाई हुए है| इस विवाह के साथ ही यह भी व्यक्तिगत घोषणा होता है कि इन विवाहित युग्मों में किसकी कौन व्यक्तिगत भूमिका होगी, यानि इनमे कौन पति एवं कौन पत्नी होंगे| इसके ही साथ इन युग्मों की विस्तारित (Extended) परिवार एवं संयुक्त (Joint) परिवार के प्रति एक दूसरे की अपेक्षाएँ स्पष्ट होती है| ध्यान रहे कि भारत में विस्तारित परिवार प्रचलित है, जिसमे एक ही साथ नाभिक परिवार के अतिरिक्त बड़े बुजुर्ग सहित कई भाई बहने भी अपने नाभिक परिवार के साथ रहतें है| भारत में संयुक्त परिवार  प्रचलित नहीं है, जिसमे एक से अधिक अलग अलग नाभिक परिवार एक ही छत के नीचे रहते हैं और एक ही रसोई का प्रयोग करते हैं| इसी तरह विवाह में नव गठित नाभिक परिवार की सामाजिक एवं सांस्कृतिक भूमिका भी निर्धारित  होती है| इसी के साथ कई सामाजिक सांस्कृतिक सीमाएँ भी निर्धारित हो जाती है, जो पद, प्रस्थिति, सम्मान आदि से भी जुडा होता है| इसी पद, प्रस्थिति, सम्मान आदि के कारण समाज में आत्महत्या या ‘आनर किलिंग’ होते हैं|

इस तरह विवाह में द्वैत सदस्य अपनी यौन संतुष्टि भी करते हैं, बच्चे का प्रजनन भी करते हैं, उसका पालन पोषण करते भी है, और अपनी सामाजिक स्संस्कृतिक उत्तरदायित्वों का निर्वहन भी करते हैं| लेकिन विवाह किसी के यौन संतुष्टि को किसी निश्चित सीमाओं में बाँधता है, या नहीं बाँधता है, यह उसकी राज्य व्यवस्था तय करता है|

जैसा कि ऊपर समलिंगी विवाह के सम्बन्ध में यह स्पष्ट किया गया कि ऐसा विवाह अप्राकृतिक होने के कारण ही अधिकतर संस्कृतियों में वैधानिक रूप में अमान्य है| अप्राकृतिक यौन सम्बन्ध बना लेना, या किसी यौन आकर्षण में यौन सम्बन्ध बना, या किसी परिस्थितिवश यौन संतुष्टि का आधार बना लेना, कदापि विवाह का आधार नहीं बनाया जा सकता, अन्यथा समाज में कोई पशुओं से, पक्षियों से, किसी उपकरणों से भी विवाह करता हुआ पाया जाता| यौन संबंधों को विवाह का एकमात्र आधार मान लेना, या यौन संबंधों की पूर्ति कर लेने को ही विवाह का उद्देश्य मान लेना वैसे विद्वानों के अनिवार्य हो जाता है, जो विवाह के दर्शन को नहीं समझते हैं|

आचार्य प्रवर निरंजन जी

अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान|

शनिवार, 28 जून 2025

नीत्शे ने ईश्वर की हत्या क्यों की?

फ्रेडरिक नीत्शे ने घोषणा की थी कि “उसने ईश्वर की हत्या कर दी है, और ईश्वर अब मर चुका है”| लेकिन प्रश्न यह उठता है कि उसने ‘ईश्वर’ (God) की हत्या क्यों की? उसने अपने विश्वविद्यालीय छात्रों के समक्ष बीच चौराहे पर ईश्वर की हत्या कर उसका अंतिम संस्कार कर रहा था| नीत्शे उन्नीसवीं शताब्दी का एक महान जर्मन दार्शनिक प्रोफ़ेसर था| उनका यह प्रसिद्ध घोषणा रहा कि ‘ईश्वर मर चुका है’ (God is dead)| यह कहा जा सकता है कि इस घोषणा का कोई शाब्दिक मतलब नहीं है, बल्कि यह एक रूपक (Metaphor) मात्र था| फिर भी, उसने ईश्वर को क्यों मारा?

इस प्रसंग को समझने के लिए हमें उस क्षेत्र, समाज, राष्ट्र एवं संस्कृति को उस समय एवं उस पृष्ठभूमि के सन्दर्भ में समझना चाहिए| चूँकि शब्दों के अर्थ, शब्दों के ढांचे एवं संरचना भी अपने सन्दर्भ, पृष्ठभूमि, क्षेत्र एवं काल के अनुसार बदल सकता है, या बदल ही जाता है, इसीलिए किसी भी ‘असामान्य शब्द’ को उसके सन्दर्भ, पृष्ठभूमि, क्षेत्र एवं काल के अनुसार ही समझना चाहिए| उस समय लगभग सभी प्रमुख यूरोपीय देश अपना साम्राज्यवादी विस्तार कर चुका था, और इस दौड़ में पिछड़ गए देशों की सूचि में जर्मनी भी शामिल था| यूरोपीय प्रबुद्धता के जागरण आन्दोलन से लगभग सभी यूरोपीय देश लाभान्वित था, लेकिन इस दौड़ में जर्मनी कहीं नहीं था, जहाँ इसे होना चाहिए था| ऐसी स्थिति में किसी भी प्रबुद्ध नागरिक को अपने समाज, राष्ट्र एवं संस्कृति की चिंता होना स्वाभाविक है, यदि उनमे कुछ भी चेतना का स्तर होगा तो, यानि यदि वह वास्तविक रूप में जीवित होगा तो| फ्रेडरिक नीत्शे जर्मनी के वैसे ही चेतनायुक्त यानि जीवित महान दार्शनिक हुए|

नीत्शे के समकालीन समाज एवं संस्कृति पर धर्म का आडम्बर छाया हुआ था| हर कार्य एवं परिणाम के लिए ईश्वर की ओर और उसके अभिकर्ताओं की ओर ही उन्मुख हुआ जाता था| जैसी ईश्वर की इच्छा होगी, वैसा ही परिणाम होगा, फल मिलेगा| तो फिर किसी भी अलग एवं विशिष्ट परिणाम के लिए चिंतन एवं प्रयास क्यों किया जाय, जब सब कुछ पहले से ही नियोजित एवं निर्धारित है? यह एक बहुत अहम् सवाल सामान्य जनमानस के समक्ष था|

यूरोप में विज्ञान की प्रगति धर्म ग्रंथों में स्थापित तथ्यों, यानि स्थापित सत्यों को एवं प्रतिपादित सर्वकालिक सिद्धांतों को क्रमश: ध्वस्त करता जा रहा था| समाज के प्रबुद्ध वर्गों में ईश्वर की स्थापित अवधारणा भी टूट कर ध्वस्त होती जा रही थी| चार्ल्स डार्विन आदमी के ईश्वरीय कृति मानने के सर्वव्यापक और सर्वस्थापित धार्मिक सिद्धांत को अपने ‘उद्विकासीय सिद्धांत’ (Evolution Theory) से पहले ही ध्वस्त कर चुके थे|

धर्म आस्था का विषय होता है, और इसीलिए ईश्वर से सम्बन्धित कोई प्रश्न कभी भी नहीं किया जा सकता| धर्म में ‘ईश्वर’ को बिना तथ्य, तर्क, कारण के ही मान लेना होता है| लेकिन विज्ञान सदैव संदेह पर खड़ा होता है, और यही संदेह/ संशय ही विज्ञान के विस्तार एवं गहराई को पाने का आधार होता है, और इसी विधि से विज्ञान विकसित होता रहता है|

विज्ञान का प्रकाश तेजी से और अपने तीखे प्रभाव से समाज एवं संस्कृति को गहराई तक व्याप्त कर रहा था| ऐसी स्थिति में विज्ञान के प्रकाश में ईश्वर को पहाड़ों और जमीनों की कंदाराओं एवं दरारों में छिप जाना पड़ा था (और यह आज भी छिपा हुआ है)| लेकिन जब भी विज्ञान अपने विकास- यात्रा की अवस्था में किसी गहन एवं नवाचारी सवालों से जूझने लगता था, तब ही धार्मिक व्यक्ति उस सर्वशक्तिमान, सर्वव्याप्त, सर्वकालिक ईश्वर को उन कंदराओं से बाहर निकाल कर प्रकट करने का प्रयास करता रहता था (और आज भी करता रहता है)| तब वे लोग यह कहते हैं कि विज्ञान की एक सीमा होती है, और उसके बाद ईश्वरीय व्याख्या ही काम आता है| महान वैज्ञानिक आइजक न्यूटन ने भी ग्रहों के गतियों के सम्बन्ध में रह गयी त्रुटि के सम्बन्ध में ऐसे ही ईश्वरीय व्याख्या की घोषणा की थी, क्योंकि वे एक धार्मिक पादरी भी थे| इस त्रुटि को बाद में महान वैज्ञानिक ‘पियरे साइमन लैप्लास’ ने दूर किया था| वैज्ञानिक समाधान पा लेने, या विज्ञान के और विकास के बाद ईश्वर फिर से उन्ही स्थानों में छुप जाता है, और कुछ समय के लिए प्रसंग से बाहर भी हो जाता है|

दरअसल नीत्शे यह समझ गये थे, कि सरल, साधारण एवं अशिक्षित जनता के समक्ष प्राकृतिक शक्तियों की क्रियाविधि को ‘मानवीय स्वरुप’ (Personification) में प्रस्तुतीकरण किया जाना ही ‘ईश्वर’ है| प्राकृतिक शक्तियों के ‘मानवीय स्वरुप’ के रूप में प्रस्तुतीकरण करने से उन प्राकृतिक शक्तियों के मध्यस्थ (Middle-Man) या  अभिकर्ता (Agent) के रूप में कोई विशेष व्यक्ति बन सकता था, और फिर वह शेष बहुसंख्यक को अपनी व्याख्या से अपना धंधा (व्यवसाय) चला सकता था, या चला रहा था| इस तरह वह एजेंट सत्ता की एवं सामान्य जनमानस की यथास्थितिवादी नजरिया, प्रवृति और इच्छा की निरंतरता को बनाए रखता था| नीत्शे सत्ता और धर्म के इस गठजोड़ को देख समझ रहे थे, जो ईश्वर नामक कल्पना पर आधारित एक ‘व्यक्ति स्वरुप’ मात्र था| ईश्वर की कोई उपयोगिता और सार्थकता इस विज्ञान के युग में नहीं रह गयो थी| इस ईश्वर के नाम पर तत्कालीन धर्म जर्मन युवाओं को काहिल, निकम्मा, निठल्ला, अतार्किक और बेकार बना दिया था, और तथाकथित डिग्रीधारी युवा भी एक मूर्ख से ज्यादा कुछ भी नहीं था| इस स्थिति को एक तेज तर्रार युवा, संवेदनशील और प्रबुद्ध प्रोफ़ेसर कैसे बर्दास्त कर सकता था? जर्मन युवाओं को व्यावहारिक रूप से समझाना इनके लिए एक बड़ी चुनौती था|

आदमी एक चेतना युक्त प्राणी है, जिसका उदय तो उदविकासीय सिद्धांत से हुआ, और जैवकीय प्रक्रियायों से उत्पत्ति होती है| यह मानव कोई अचेतन वस्तु नहीं है, जिसका निर्माण किसी की पूर्व संकल्पना एवं पूर्व नियोजन से नहीं हो सकता है| पहले मानव का “अस्तित्व” (Existence) आता है, और फिर मानव अपनी इच्छाओं से, यानि अपनी स्वतंत्रताओं से अपने वर्तमान एवं भविष्य का निर्माण करता है| अर्थात मानव अपना भाग्य निर्धारण के लिए स्वतंत्र है, और किसी भी मानव का अस्तित्व से पहले उसका निर्माण, यानि उसके भविष्य का निर्धारण नहीं होता है| यही अवधारणा अगली शताब्दी में महान जर्मन दार्शनिक ज्या पॉल सार्त्र के “अस्तित्ववाद” (Existentialism) के रूप में आया| उनका मानना था कि धर्म के आडम्बर के विलोपन से जो स्थान रिक्त होगा, उसे विज्ञान, कला, साहित्य, संस्कृति, जीवन मूल्य, नैतिकता आदि द्वारा भरे जाएंगे|

जब ईश्वर लोगों को काहिल, निकम्म, निठल्ला आदि ही बना रहा था, और यदि वह ईश्वर किसी भी स्वरुप में जीवित ही है, तो उसकी हत्या कर देने से मात्र से ही लोग अपने कर्मों पर आश्रित हो जाएंगे| इस हत्या मात्र से ही जर्मनी की सामान्य मानसिकता में जो महत्वपूर्ण बदलाव हुआ, उसी का परिणाम है आज मानव -इतिहास में जर्मनी को उच्चतर स्थान का दर्जा प्राप्त है| आज भी जर्मनी विश्व की चौथी अर्थव्यवस्था है, जबकि इसकी आबादी सम्पूर्ण भारत की आबादी का पांच प्रतिशत भी नहीं है|

नीत्शे दूरदर्शी था, और जर्मनी के इसी बदलाव के लिए ही नीत्शे ने ‘ईश्वर’ की हत्या कर दी थी|        

आचार्य प्रवर निरंजन जी

अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान| 

बुधवार, 18 जून 2025

The Mistakes in the Upbringing of Children

Upbringing is the way parents guide and treat their children to help them understand the changing world and eventually lead it. It is the process of shaping a child's emotions, mindset, and body in alignment with the needs of the evolving world.

Feelings are the experience and expression of emotions. Mindset is the pattern of thinking, attitude, and approach toward problems and their solutions. The body is of utmost importance, as the functioning of the mind, spirit, intuition (from the infinite intelligence), actions, and all life processes depend on the body.

Therefore, in proper upbringing, we must understand the physical and mental development and care,  psychological challenges during different growth stages and the connection between the child and the infinite intelligence.

Breastfeeding is not just about milk; it is also emotional nourishment and psychological support. Similarly, hugging and kissing, as forms of physical touch, are ways of transferring spirit and intuition. Touch is a crucial part of parenting—be serious about it. It transmits energy related to the mind and spirit, creating an emotional and spiritual bond between the child and the caregiver.

Children do not understand and follow the verbal instructions easily. They mainly learn from emotional responses, physical actions, and behavior. They only imitate the patterns of their parents and surroundings. If parents are engaged in video games, mobile screens, or book reading, children will do the same. We are their role models, so we must live the values we want them to adopt.

The decline of the great Roman Empire can be traced to the fact that royal children were raised by slaves. As a result, they adopted the emotional and mental patterns—the mindset—of their caretakers. This is important to note.

We must also be mindful of eating habits, cultural manners and values and physical activity and hygiene.

Humans, as mammals (Homo sapiens sapiens), have evolved into Homo socius (social human), Homo faber (creative human), and Homo scientificus (scientific human) through cooperation, coordination, and communication. Thus, we must train our children to communicate, cooperate, and coordinate meaningfully and humanely.

We often complain about our children's behavior, attitude, and mindset toward family, society, humanity, and nature. We blame the children or society, but rarely reflect on our role as parents. This is the real tragedy.

Children go through many biological, hormonal, psychological, and physical changes while growing. We must understand and wisely handle these changes as responsible parents and citizens.

We should not only instruct them but live as role models. Children learn by watching us. True upbringing means teaching through action, not just words.

Achary Pravar Niranjan Ji

Chairman, Indian Institute for the Improvement of Spirituality and Culture

मंगलवार, 17 जून 2025

It’s Magic — Just Do It

It’s magic, so do it.

It’s magic, but the results come within a year. It doesn’t need your talent, your money, your resources, your friends or relatives, or even your full-time attention.
All it needs is your consistency—your regular effort toward your idea, vision, goal, or dream.

For any magic to happen, consistent work matters most. Nothing else matters more.
Magic is simply the result of unexpected outcomes—like faster progress, simpler methods, smaller investments, bigger achievements, and deeper satisfaction.

So, what is magic in your life?
You get to choose the field where you want the magic to happen. That’s your decision.
Whether it's a new habit, a new skill, a new language, a startup, a game, a lifestyle, or a culture—you choose the field where you want change.

Are you perfect enough? Good enough? Suitable enough? These questions don’t matter. Your talent might be excellent or may seem lacking—that doesn’t matter either.

Only one thing matters: consistency.
If you work consistently for one year on your idea, goal, dream, or vision, then magic will happen.

Here’s a simple example to prove the power of small efforts over time:

0.99³⁶⁵ ≈ 0.03
1.01³⁶⁵ ≈ 37.78

This means:
If you do 1% 
less work every day, by the end of the year, your result is almost nothing.
But if you do just 1% 
more every day, your result becomes nearly 38 times greater.
That’s not just a 38% improvement—it's a 3800% growth.

This is the magic. This is the power of consistency.

There’s no perfect time to start. There’s no perfect idea to work on. Just start. Your idea, your dream, your goal—it is the child of your brain. Protect it. Nurture it. Support it. And just give something—however small—to it every day.
Then, wait for the result after one year.

But be careful about your direction.
Consistency doesn’t care about the 
direction you’re going in. It only counts the effort.
So if your direction is wrong, your consistent efforts won’t lead to the right outcome.
Always stay positive in your attitude, perspective, and actions.
Avoid negativity. Don’t oppose anyone—focus on building, not breaking.

After one year, you will witness the magic.
So just start—
in a positive direction.

Achary Praver Niranjan Ji
Chairman, Indian Institute for Improvement of Spirituality and Culture

बौद्धिक बेईमानी क्या है?

जब कोई व्यक्ति या समूह या वर्ग जानबूझकर किसी झूठ को अपने तर्क एवं ज्ञान के द्वारा सही साबित करता है, यानि उसका "बौद्धिकीकरण" करता ...