सोमवार, 15 सितंबर 2025

भारत में राष्ट्र कहाँ हैं ...... ?

कुछ देशों में ‘राष्ट्र’ (Nation) किसी धर्म/ पन्थ में खोज लिया जाता है, तो कुछ देशों में राष्ट्र का आधार भाषा हो जाता है, कहीं भौगोलिक क्षेत्र भी आधार बन जाता है, आदि आदि ..। इसीलिए कुछ विद्वान राष्ट्र की अवधारणा (Concept) में, उसकी परिभाषा में और उसके आधार में इन्हीं तत्वों की जांच पडताल करता  हैं। लेकिन इन आधारों पर बहुत से बडे़ एवं प्रमुख देशों की राष्ट्रों की अवधारणा में समस्या आ जाती है। संयुक्त राज्य अमेरिका, भारत, जनवादी गणराज्य चीन, रूसी संघ, कनाडा, स्विट्ज़रलैंड, आदि अनेक देश इन अवधारणाओं में राष्ट्र की शर्तों में नहीं आता, लेकिन ये सभी सशक्त एवं समृद्ध राष्ट्र हैं| परन्तु इन आधारों पर भारत में राष्ट्र कहाँ है, यह एक बड़ा और गंभीर सवाल है?

‘राष्ट्र’ की अवधारणा को समझने के लिए एक ही अवधारणा काफी है, जिसे भूतपूर्व सोवियत संघ (वर्तमान रुसी संघ) के जोसेफ स्टालिन ने 1913 में अपनी लेख/ पुस्तक "Marxism and the National Question' में दिया । उनके अनुसार  "राष्ट्र एक ऐतिहासिक रूप से गठित, स्थायी मानव समुदाय है’। स्पष्ट है कि राष्ट्र लम्बे काल तक एक साथ रहने से उत्पन्न ‘ऐतिहासिक एकापन’ (Historical Oneness) की भावना है। इस तरह एक राष्ट्र भौतिक स्वरुप की कोई ठोस वस्तु नहीं है, अपितु यह एक ‘काल्पनिक वास्तविकता’ (Imaginary Reality) है, जो काल्पनिक होते हुए भी एक वास्तविकता होती है। ‘राष्ट्र’ को एक ‘संस्था’ (Institution, not an Institute) समझा जा सकता है| एक संस्था के रुप सभी सम्बन्धित लोग इनसे भावनात्मक लगाव रखते हैं| इसीलिए एक राष्ट्र काल्पनिक होते हुए भी असंख्य लोगों को बहुत मजबूती से अपने साथ को जोड़ लेता है और वास्तविक की तरह अपने परिणामों में प्रभावशाली होता है|

यह सही है कि एक राष्ट्र के लिए एक ‘साझा भाषा’ (Common language), एक ‘साझा भौगोलिक क्षेत्र’ (Common territory, एक ‘साझा आर्थिक जीवन’ (Common economic life) एवं एक ‘साझा सांस्कृतिक मनोवृत्ति’ (Common psychological make-up) जैसे तत्व महत्वपूर्ण हैं| ये सब एक राष्ट्र को सहज और सरल ढंग से मजबूत बनाता है, लेकिन ये सभी तत्व एकसाथ इनके लिए अनिवार्य नहीं हैं। इजराइल 1948 से पहले एक देश (Country) और एक राज्य (State, not Province) नहीं था, लेकिन एक ‘राष्ट्र’ के रुप में अपनी भावनात्मकता की वास्तविकता में बहुत सशक्त रही| इजरायल 1948 में एक देश भी बना और एक राष्ट्रीय राज्य भी बना। यह भी सही है कि ‘बाजार की शक्तियाँ’ यानि ‘आर्थिक शक्तियाँ’ ही इतिहास बदलता रहता है और इसीलिए इन्हें ‘ऐतिहासिक शक्तियाँ’ भी कहा जाता है। आज यही ‘बाजार की शक्तियाँ’ ही पूरे विश्व को एक नए किस्म के ‘राष्ट्र’ में बदल रहा है| स्पष्ट है कि एक राष्ट्र ‘एकापन’ (Oneness) की एक मानसिकता है, एक संस्कृति है, एक भावना है, एक अध्यात्म है।

जोसेफ स्टालिन द्वारा अवधारित राष्ट्र की अवधारणा (Concept)  ही यदि वैज्ञानिक, सही, पर्याप्त और समुचित है, तो भारतीय लोगो के लिए राष्ट्र (राष्ट्रीयता) की भावना उनकी जाति, धर्म, पन्थ, भाषा, क्षेत्र, आदि से गुंथी हुई है। यह अनुचित और गलत है| सामान्य भारतीय लोग अपनी भावनात्मक, आध्यात्मिक एवं ऐतिहासिक जुडाव अपनी जाति, सम्प्रदाय, पंथ, धर्म, भाषा, क्षेत्रीयता, एवं स्थानीय परम्परा से ज्यादा रखते हैं। सामान्य भारतीय इन्हें ही राष्ट्र समझते हैं और मानते हैं| इन सामान्य भारतीयों में हमारे बड़े बड़े राजनेता गण, उच्चस्थ नौकरशाही, विश्विद्यालयों के प्रोफ़ेसर, परम्परागत मीडिया एवं अन्य बुद्धिजीवी गण भी शामिल हैं| सामान्य भारतीयों में राष्ट्र (राष्ट्रीयता) की भावना को उभारने एवं उसे सशक्त करने के लिए कागजी प्रावधानों के अतिरिक्त वास्तविक रुप में सजग, सतर्क, सशक्त एवं सहज प्रयास व्यवस्था द्वारा किया जाना समझ में नहीं आता है| इसीलिए भारतीय संविधान सभा ने भारतीय संविधान की ‘उद्देशिका’ (Preamble) में ‘राष्ट्र की एकता एवं अखंडता’ की बात की है। इसमें देश, राज्य एवं प्रान्त की एकता एवं अखंडता की बात नहीं की गयी है।

भारत 1947 के पहले भी एक देश था और इसके बाद भी एक देश है। भारत 1947 के पहले भी एक राज्य नहीं था और उसके बाद ही एक सम्प्रभुता सम्पन्न राज्य बन सका| ऐसा इसलिए हुआ कि क्योंकि भारत में एक निश्चित भौगोलिक क्षेत्र, एक स्थिर निवासित आबादी और व्यवस्था के लिए एक (ब्रिटिश) सरकार तो था, लेकिन सम्प्रभुता नहीं होने से राज्य नहीं था। भारत के ब्रिटिश काल में राष्ट्र की भावना उभरने लगी और तब भारत एक राष्ट्र बनने की ओर अग्रसर हुआ। इसीलिए भारतीय संविधान सभा को संविधान में अपने ‘उद्देश्य’ को ‘उद्देशिका’ में स्पष्ट करना पड़ा| लेकिन इसकी सफलता की मात्रा का मूल्यांकन आप कर सकते हैं।

भारत में ‘राष्ट्र की संस्कृति’ (Nation- Culture) ही नहीं है| प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक कार्ल जुंग की अवधारणा में, भारत का ‘सामूहिक अवचेतन’ (Collective Un Consciousness) में राष्ट्र है नहीं| यदि प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक और अर्थशास्त्र के नोबल पुरस्कार विजेता डेनियल कुहनमैंन (Thinking Fast and Slow के लेखक) के शब्दावली में भारतीय लोगों के ‘सिस्टम एक’ (System One) में राष्ट्र की अवधारणा नहीं है|

अब आप ही बताइए कि भारत में राष्ट्र को कहाँ खोजूं? 

आचार्य प्रवर निरंजन जी

दार्शनिक, शिक्षक एवं लेखक

अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान, बिहटा, पटना, बिहार|

रविवार, 14 सितंबर 2025

'हमारे लोग' में कौन कौन शामिल हैं

विभिन्न फोरमो पर यह बात अक्सर उठती रहती है कि ‘हमारी सांस्कृतिक विरासत’, ‘हमारी समस्याएँ’, ‘हमारे लोग’, ‘हमारे दुश्मन’, ‘हमारा इतिहास’, ‘हमलोग’  ... आदि आदि। एक बार बिहार के राजगीर में एक संगोष्टी सत्र में ‘उद्धाटन वक्ता’ के रुप में मुझे भी 'हमारी सांस्कृतिक विरासत' पर बोलना था। यहाँ मुझे तीन शब्द मिले - 'हमारी', 'सांस्कृतिक', एवं 'विरासत'। मेरे अनुसार मुझे लगा कि आगे बढने से पहले मुझे इन तीनों शब्दों से संरचित अवधारणाओं को स्पष्ट करना चाहिए। मैं यहाँ आपको सिर्फ ‘हमारी’ (WE) शब्द पर स्थिर करना चाहूँगा| मैं यहाँ शेष दोनों शब्दों 'सांस्कृतिक' एवं 'विरासत' को अभी छोड़ रहा हूँ| लोग किसी भी विषय पर बडी़ बड़ी और लम्बी लम्बी बातें तो कर लेते हैं, लेकिन उन्हें उन अवधारणाओं की स्पष्टता भी होनी चाहिए।

जब हम भाषा विज्ञान में शब्दों, वाक्यों और वाक्यांशों को अच्छी तरह से समझना चाहते हैं, तो हमें भाषा विज्ञान के कुछ महत्वपूर्ण अवधारणाओं और उपकरणों (टूल्सों) को समझना होगा। इनमें दो - 'संरचनावाद' (Structuralism) और 'विखंडनवाद' (Deconstructionism) सबसे प्रमुख हैं।

स्विट्जरलैंड के भाषा विज्ञानी एवं दार्शनिक फर्डीनान्ड डी सौसुरे अपने ‘संरचनावाद’ में समझाते हैं कि प्रत्येक शब्दों, वाक्यों और वाक्यांशों की अपनी विशिष्ट एवं भिन्न भिन्न संरचना होती है, और इसीलिए एक ही शब्द, वाक्य और वाक्यांश के बदलते संदर्भ, परिस्थिति और समय में उनका अर्थ बदल जाता है। एक ही शब्द, वाक्य और वाक्यांश के सतही अर्थ भी होते हैं, और उसी के निहित अर्थ भिन्न हो जाते हैं। अर्थात एक ही शब्द, वाक्य और वाक्यांश के अर्थ उसके बदलते संदर्भ, परिस्थिति और समय में उपलब्ध ढाँचा के अनुसार बदलता रहता है।

‘अर्थ’ (Meaning) समझने एवं समझाने की अगली कड़ी में फ्रांसीसी दार्शनिक जाक देरिदा अपने ‘विखंडनवाद’ में समझाते हैं कि एक लेखक या वक्ता के शब्द, वाक्य और वाक्यांश के अर्थ लेखक या वक्ता के तो अपने होते हैं, परन्तु उन शब्दों, वाक्यों और वाक्यांशों के अर्थ पाठकों या श्रोताओं के अपने अपने होते हैं। मतलब यह हुआ कि लेखको और वक्ताओं के शब्दों, वाक्यों और वाक्यांशों के अर्थ एवं भाव इनके मानसिक स्तर, समझ और उनकी ‘सांस्कृतिक जड़ता’ (Cultural Inertia) से निर्धारित होती है, लेकिन उसके अर्थ और भाव (Essence) उसके पाठकों एवं श्रोताओं के मानसिक स्तर, समझ और उनकी ‘सांस्कृतिक जड़ता’ से निर्धारित होने के कारण भिन्न भिन्न हो जाता है। हमलोग अभी ‘हम’, यानि ‘हमारे’ या ‘हमारी’ शब्द के सन्दर्भ में बात कर रहे हैं|

मैं अपने उस मंच से जब “'हमारी' सांस्कृतिक विरासत” की बात कह रहा था, तो श्रोता गण उस ‘हमारी’ का अर्थ अलग अलग समझ रहे थे| कोई 'हमारी' में अपनी जाति, कोई अपने ‘जाति समूह’ कोई अपने सम्प्रदाय, पंथ या धर्म, कोई अपने क्षेत्र, कोई अपने भाषा, कोई अपनी प्रजाति, कोई अपनी राष्ट्रीयता, कोई अपने देश के सन्दर्भ में ‘लोगों’ को शामिल कर या समझ रहा था। हमारे आपके जैसे लोग तो उस “हमारे” में अन्य लोगों के अतिरिक्त सन्दर्भ के सापेक्ष समस्त ‘मानवता’, ‘प्रकृति’ और ‘भविष्य’ को भी शामिल कर लेता है। आपने देखा कि एक ही शब्द, वाक्य और वाक्यांश के अर्थ लेखक या वक्ता के तो अपने होते हैं, लेकिन उन्हीं के अर्थ एवं भाव पाठकों एवं श्रोताओं के अपने समझ के अनुसार अलग अलग ढाँचे एवं संरचना के संदर्भ में भिन्न भिन्न हो जाता है।

भारतीय संविधान का प्रथम शब्द ही ‘हमारे‘ (WE) की अवधारणा को स्पष्ट करता है| यह भारतीय संविधान की ‘उद्देशिका’ (Preamble) के प्रथम शब्द "हम, भारत के लोग" (WE, the PEOPLE of India) में निहित है| ध्यान रहे कि इस ‘हमलोग’ में भारत के समस्त लोग शामिल हैं| लेकिन इस ‘लोग’ के स्थान पर ‘नागरिक’ (Citizen) या ‘व्यक्ति’ (Person) शब्द प्रयुक्त नहीं है| ‘नागरिक’ कहने से ‘अ नागरिक’ (Non Citizen) छूट जाते हैं, और ‘व्यक्ति’ कहने में ‘कृत्रिम’ व्यक्ति (कम्पनी/ संस्थान आदि) भी शामिल हो जाते हैं, जो अनुचित है| ये सभी लोग भारत देश की भौगोलिक सीमाओं के अन्तर्गत निवासित लोग हैं| लेकिन इनमे विश्व की शेष आबादी, यानि विश्व की 83 % आबादी इस ‘हमारे’ से बाहर रह जाती है|

लेकिन मैं तो ‘मेरे (अपने) लोग’ में और भी बहुत कुछ शामिल करता हूँ| यदि हमलोग ‘संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम’ (UNDP) के सभी 17 ‘धारणीय लक्ष्य’ (Sustainable Goals) पर ध्यान केन्द्रित करते हैं, तो और बहुत कुछ स्पष्ट होता है| तब हमारे चिन्तन एवं हमारी समझ का ‘बहु आयामीय’ (Multi Dimensional) विस्तार हो जाता है| इससे उस ‘हमारे’ में सम्पूर्ण ‘मानवता’ (Humnity) और ‘प्रकृति’ (Nature) भी समाहित हो जाता है, ताकि मानवता का भविष्य और संवर्धित एवं सुरक्षित हो सके| बुद्ध के ‘हमारे’ (We) में मानवता, प्रकृति एवं भविष्य भी शामिल रहा हैं|  इसीलिए मेरे शब्द “हमारे” में ये सभी शामिल हैं|

और आपके ‘हमलोग’ शब्द की अवधारणा में कौन कौन शामिल हैं? बताइयेग|

आचार्य प्रवर निरंजन जी

दार्शनिक, शिक्षक एवं लेखक

अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान, बिहटा, पटना, बिहार|

 

गुरुवार, 4 सितंबर 2025

महाभारत को अर्जुन ने कैसे जीता?

शिक्षक दिवस पर   ....... 

भारत में ‘महाभारत’ नाम का एक भयंकर युद्ध हुआ था| ऐसा युद्ध पहले नहीं हुआ था| नाम से भी स्पष्ट है कि इस युद्ध में भारत शामिल था, यानि तत्कालीन सम्पूर्ण भारत ने हिस्सा लिया था| ‘तथाकथित’ बुद्धिजीवियों से अनुरोध है कि वे इसकी ऐतिहासिकता की सत्यता पर अभी नहीं जाएँ| माना कि यह मिथक ही रहा हो, लेकिन मैं सिर्फ इसके मूल सन्देश पर ही जमा रहना चाहता हूँ, जो मुझे समझ में आया| यानि मैं आपको फिलहाल इसके मिथकीय होने या ऐतिहासिक होने के द्वन्द में लाना नहीं चाहता| मैं यहाँ आपको यह बताना चाहता हूँ कि कोई भी युद्ध कैसे जीत जाता है?

‘महाभारत’ है, तो इसके मूल में युद्ध है| पांडवों ने इस युद्ध को जीत लिया| इस युद्ध का महान योद्धा ‘अर्जुन’ ने पांडवों को जीत दिलायी| तो सवाल यह है कि महान अर्जुन इस युद्ध को कैसे जीत सका? उसने इस युद्ध को जीतने के लिए क्या किया, या क्या क्या किया? वह अपने किस हथियार के प्रयोग उपयोग कर उस महाभारत युद्ध को जीत सका? या अर्जुन की किस रणनीति ने उसे महाभारत का सफल नायक बनने दिया? यह तो स्पष्ट है कि अर्जुन अपने जीवन का सबसे भयंकर, कठिन एवं दुरुह युद्ध को अपने अल्प संसाधनों के साथ जीत लिया| लेकिन यह सब कैसे संभव हो सका? यदि आपको भी अपने जीवन का कोई भयंकर, कठिनतम और दुरुह युद्ध जीतना हो, तो आप कौन सा हथियार चलाएंगे, या कौन से रणनीति पर चलेंगे, जो आपको विजयी बनायेंगे? यह विश्लेषण एवं समझ आपके जीवन को बदल दे सकता है| वह कौन सी समझ होती है, जो एक झटके में ही सब कुछ उलट देता है?

यदि सभी चीजें, स्थितियाँ और परिस्थितियाँ भी एक ही समान हो, तो भी सिर्फ ‘नजरिया’ (Attitude), यानि ‘दृष्टिकोण’ (Perspective) बदल जाने मात्र से सारा खेल ही उलट जाता है| लेकिन सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि यह ‘नजरिया’ यानि ‘दृष्टिकोण’ क्या होता है, जो सारे खेल को पलट देता है? इसे हार्वर्ड विश्विद्यालय के भौतिकी एवं दर्शन के प्रसिद्ध प्रोफेसर थामस सम्युल कुहन ने अपनी पुस्तक ’’’The Structure of Scientific Revolution’ में ‘नजरिया’ यानि ‘दृष्टिकोण’ में बदलाव को ही ‘पैरेड़ाईम शिफ्ट’ (प्रतिमान बदलाव) (Paradigm Shift) कहा है| लेकिन यह ‘नजरिया’ यानि ‘दृष्टिकोण’ बनता एवं बदलता कैसे है, और यह बदलाव कहाँ से एवं कैसे आता है? यानि यह ‘नजरिया’ यानि ‘दृष्टिकोण’ विकसित एवं संवर्धित (Improve) कैसे किया जाता है? यानि इसे विकसित एवं संवर्धित करने के लिए क्या किया जाना चाहिए? इस ‘नजरिया’ यानि ‘दृष्टिकोण’ को ‘दर्शन’ का ज्ञान एवं समझ ही बनाता एवं बदलता है, और यह बदलाव भी ‘दर्शन’ का ज्ञान एवं समझ से ही आता है|

थामस कुहन के इस पैरेड़ाईम शिफ्ट के सिद्धांत के अनुसार, अर्जुन को युद्ध जीतने के लिए बदलते हुए चीजॉ, स्थितियों और परिस्थितियों को सदैव समझना देखना था, और उस बदलाव के अनुकूल रणनीति में तत्काल ही पैरेड़ाईम शिफ्ट करना होता था| यदि यह किसी के जीवन की कोई सामान्य या असामान्य समस्या होती, तो भी इन समस्यायों के समाधान के लिए इसे एक बार देखना समझना होता और एक बार नजरिये में अवश्य ही पैरेड़ाईम शिफ्ट करना होता| जीवन के किसी भी समस्या के समाधान के लिए उन समस्यायों को यथास्थिति में देखना समझाना होता है| भारत में इस विधा को ‘दर्शन’ (Philosophy) कहते हैं, जिसका अर्थ होता है – देखना| अर्थात सम्यक रूप में उन समस्यायों को देखना एवं समझाना ताकि उन समस्यायों का समुचित समाधान पाया जा सके|

कोई भी समस्या मात्र इसलिए समस्या होती है, क्योंकि उसका अबतक कोई समाधान नहीं मिल रहा होता है| और कोई भी समाधान इसलिए नहीं मिल रहा होता है, क्योंकि उस समस्या को और उसके कारको एवं कारणों को यथास्थिति में, यानि वह समस्या वास्तव में जैसा है, उसे उसी अवस्था में पूरी समग्रता एवं व्यापकता में नहीं देखा समझा नहीं जा रहा है| किसी भी स्थिति, परिस्थिति, संरचना एवं ढाँचा को यथास्थिति में समग्रता और व्यापकता से देखना समझना ही ‘दर्शन’ है|

यदि आप सम्पूर्ण महाभारत को समझेंगे, और महाभारत के युद्ध को जीतने का कोई एक ही मूल, मौलिक एवं महत्वपूर्ण कारण या कारक खोजेंगे, तो आप स्पष्ट होंगे कि अर्जुन की पूरी सफलता उसके मात्र एक ही निर्णय में समाहित है| अर्जुन ने अपने युग के एक महान दार्शनिक श्रीकृष्ण को अपने पक्ष में कर लिया और महाभारत का भयंकर एवं विनाशकारी युद्ध को जीत लिया| यदि आप कोई अन्य महत्वपूर्ण कारक खोजेंगे, तो शायद आपको इतना महत्वपूर्ण एवं मुख्य कोई अन्य कारक या कारण नहीं मिलेगा| दार्शनिक वह होता है जो समसयाओ का समाधान ढूंढने में सहायक होता है। यहाँ यह समझना बहुत महत्वपूर्ण होगा, इस दर्शन की समझ या ज्ञान कैसे प्राप्त किया अता है? और यह कैसे कार्य करता है? यह दर्शन ही जीवन की सभी समस्यायों का समाधान सुझाता या बताता है|

इसके लिए हमें दर्शन का अध्ययन करना चाहिए। दर्शन भी दो प्रकार का होता है| एक, अपने लिए, यानि जीवन की वास्तविकताओं को समझने के लिए, और दूसरा, दूसरों को ठगने के लिए, ऐसा भी कुछ लोगों का मानना है। जिस दर्शन का विषय वस्तु जीवन की वास्तविकताओं को देखने समझने का ज्ञान देना है, उस दर्शन के अनुयायियों ने जीवन की वास्तविकताओं में अन्य से बहुत आगे निकल गए है| दूसरों को ठगने वाला दर्शन जीवन की वास्तविकताओं को काल्पनिक बता देता है और इस जीवन के पार की काल्पनिक दुनिया को ही ‘वास्तविक’ बता देता है| मतलब, यह दूसरा दर्शन इस शरीर की आवश्यकताओं को ही नकार देता है और इस शरीर के अन्त यानि नष्ट हो जाने के बाद की मनगढ़ंत कहानियों में उलझा देता है| हालाँकि दर्शन के इस दूसरे पक्ष को, यानि शरीर के अन्त के बाद के जीवन को विज्ञान एकदम नहीं मानता|

वैसे मुझे इस दूसरे दर्शन को ही सही मानने पर भी मेरी कोई आपत्ति नहीं है, क्योंकि किसी भी व्यक्ति का समझ उनके चेतना के स्तर के अनुसार ही होता है| किसी भी समझ का आधार किसी का अज्ञानता भी हो सकता है और उसके ज्ञानता के विभिन्न स्तरों के अनुरूप भी हो सकता है| अकसर चतुर लोग दर्शन के दोनों ही स्वरुपों को एक साथ उपयोग एवं प्रयोग करते हैं – अपने लिए प्रथम दर्शन एवं दूसरों को ज्ञान देने के लिए दूसरा दर्शन, जो इस जीवन के पार का होता है|

अब आपको तय करना है कि आपको अपने इस वास्तविक जीवन की समस्यायों का समाधान चाहिए? या इस शरीर के मर जाने पर बतायी गयी काल्पनिक समस्यायों का समाधान चाहिए? अर्जुन ने महाभारत युद्ध को जीतने लिए अपने पक्ष में उस काल के सबसे बड़े दार्शनिक श्रीकृष्ण को चुना| 

निम्न स्तर के लोग सिर्फ अपनी पाँचों ज्ञानेनेद्रियों के मदद से ही सूचनाएँ प्राप्त करते हैं, और उस पर क्रिया या प्रतिक्रया दे सकते हैं| चेतना के विकास के विभिन्न चरणों यानि स्तरों के अनुसार कोई उन पाँचों ज्ञानेन्द्रियों के अतिरिक्त अपने मानसिक (Mental) स्तर से, कोई चैतसिक (Emotional) स्तर से और कोई अध्यात्मिक (Spiritual) स्तर से सूचनाओं को प्राप्त करता है| यह भी स्पष्ट होना चाहिए कि उपरी स्तर के लोग निम्नतर सभी स्तरों के सूचनाओं को समाहित करता होता है| अर्जुन के सहयोगी दार्शनिक श्रीकृष्ण उपरोक्त वर्णित सभी स्तरों को अपने में समाहित किए हुए थे, इसीलिए श्रीकृष्ण अद्वितीय दार्शनिक हुए|

एक दार्शनिक का दर्शन दुनिया के सभी संयुक्त सेनाओं एवं हथियारों पर अकेले भारी पड़ता है| आपको यदि जीवन का जंग जीतना है, तो दर्शन को समझिए, दर्शन को पढ़िए, दर्शन का मनन मंथन कीजिए, और उसे व्यवस्थित भी कीजिए| अब आप अपने जीवन जंग को जीत चुके हैं| आप भी अर्जुन जैसा ही समझदार बनिए|

आचार्य प्रवर निरंजन जी

दार्शनिक, शिक्षक एवं लेखक

अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान, बिहटा, पटना, बिहार| 

बुधवार, 3 सितंबर 2025

समाज का आदर्श 'शिवाजी'

शिवाजी के व्यक्तित्व का मूल्यांकन करना आज भी एक प्रेरणादायक उद्धरण है। मैं यहाँ शिवाजी के व्यक्तित्व मूल्याङ्कन के लिए एक सच्चे प्रसंग की प्रस्तुति कर रहा हूँ। यह घटना शिवाजी के ऐतिहासिक प्रत्यक्ष प्रभाव क्षेत्र की है। एक बार महाराष्ट्र के एक प्रमुख नगर में धार्मिक दंगा हो गया। विधि व्यवस्था को सामान्य करने के लिए प्रशासन को उस नगर में कर्फ्यू लगाना पड़ा। इस प्रशासनिक प्रयास के साथ बहुत जल्द ही उस नगर का जनजीवन फिर से सामान्य हो गया। पुन: सभी कार्यालय, शिक्षण संस्थान, व्यवसायिक प्रतिष्ठान एवं साधारण जन जीवन सामान्य हो गया| विश्व विद्यालय के भी कार्यालय सामान्य एवं दैनिक कार्यो के लिए संचालित होने लगे।

सामान्य अवस्था आने के बाद मुस्लिम सम्प्रदाय की एक लडकी विश्व विद्यालय में परीक्षा संबंधित कार्य के लिए आवेदन प्रपत्र जमा करने गयी हुई थी। उसी समय उस नगर में फिर से दंगा भड़क गया। प्रशासन ने उपचारात्मक प्रयास में एक बार फिर से तत्काल उस नगर में कर्फ्यू लगा दिया। उस विश्व विद्यालय की अवस्थिति नगर के एक बाहरी किनारे पर थी और उस लड़की का घर उस नगर के दूसरे किनारे पर था। चूंकि उस लडकी का घर उस विश्व विद्यालय से बहुत दूर था, इसलिए उस कर्फ्यू में उस लडकी का तत्काल अपने घर लौट पाना संभव नहीं था।

विश्व विद्यालीय क्षेत्र चूंकि नगर के बाहरी क्षेत्र में था, इसलिए वह क्षेत्र बहुत घना बसा हुआ नहीं था। वह लडकी शाम तक निकटस्थ झाडियों में छिपी रही। शाम का अधेरा घिर आया। लम्बी रात में सुरक्षा के साथ साथ भूख प्यास भी सताने लगी। कर्फ्यू के सन्नाटे अब उसे डराने लग गयी थी। घरों की खिड़कियाँ एवं दरवाजे बंद थे, क्योंकि कर्फ्यू में खिड़कियों और दरवाजों को खोले रखने की अनुमति नहीं होती है। डरी, घबरायी और सहमी हुई उस लडकी को आगे कुछ सूझ नहीं रहा था। वह बचते बचाते निकटस्थ आवासीय मकानों के पास पहुँच गयी| वह विद्यार्थियों के लिए किराये पर उपलब्ध सामान्य निजी मकान थे, जिन्हें सामान्यत: लौज कहते हैं|

उन्हीं लौजों के एक बन्द खिड़की से कुछ आवाज आ रही थी। उसने हिम्मत करके एक बन्द खिडकी के एक सुराख से अन्दर कमरे में झांकी। वह कुछ विद्यार्थियों का आवासीय लौज था। उस कमरे के एक सरसरी मुआयने में उसने पाया कि उस कमरे में महान हृदय सम्राट शिवाजी की एक शानदार फ्रेम्ड फोटो लगी हुई थी। वह लडकी तुरन्त समझ गयी कि उस कमरे में रहने वाले छात्रों की टोली शिवाजी के आदर्शो पर चलने वाले लोगों की है। अब वह संतुष्ट हो गयी कि वह सही जगह पहुँच गयी है। जिन लोगों का जीवन आदर्श शिवाजी हों, वे लोग असाधारण राष्ट्रीय भावना के लोग होते हैं, ऐसी उस लडकी धारणा थी। उस लडकी ने उसके दरवाजे को एक बड़ी आशा के साथ खटखटायी।

दरवाजा खुला। उन विद्यार्थियों ने उस लडकी को तुरन्त दरवाजे के अन्दर ले लिया गया, क्योंकि बाहर कर्फ्यू में रात्रि का सन्नाटा था और दरवाजे खोलने की अनुमति नहीं थी। अन्दर आते ही लडकी ने राहत की सांस ली। उस दिनों इंटरनेट का उपयोग सामान्य नहीं हुआ था और मोबाईल के संचार में खर्च ज्यादा होने से यह भी सामान्य मध्यम वर्ग के लिए महंगा था| उन दिनों मोबाईल में आउटगोईंग काल के साथ ही इनकमिंग काल पर भी समय के सेकंड के अनुसार रुपए लगता था। उस लड़की को वहाँ कर्फ्यू के समाप्त होने तक लगातार रुकना पड़ा। तीन दिनों का समय कट गया। कर्फ्यू समाप्त होने के साथ उस लडकी को रिक्शा पर बैठाकर उसके घर ले जाया गया।

बेटी को सुरक्षित और संरक्षित देख कर उसका परिवार और समाज भाव विह्वल था। उसने अपनी पूरी कहानी परिवार को सुनायीं, जो मीडिया के माध्यम हमलोगों तक आया।

जिस व्यक्तित्व का चित्र मात्र किसी के लिए जीवनदायिनी हो सकता है, तब उनके वास्तविक साम्राज्य के समय  शासन के विभिन्न आयामों को भी देखा, समझा और अनुभव किया जा सकता हैं। वह किसी के लिए मात्र एक चित्र हो सकता है, लेकिन वह चित्र मात्र अपने विचारों, आदर्शों एवं ऐतिहासिक विरासत के सन्देश को अविरल प्रवाहित करता होता है। शिवाजी का चित्र मात्र ही समाज में एक विश्वास, आदर्श और मानवीय मूल्यों के प्रति आस्था जगाता होता है| उस व्यक्तित्व ने अपना जीवन उस महान आदर्शो के साथ जिया है, जिस यथार्थता को वहाँ के सभी समाज ने भी नजदीकी से अनुभव किया एवं समझा है। ऐसा व्यक्तित्व तो सभी महान समाजों के लिए आदर्श और अनुकरणीय होता है। शिवाजी का वह चित्र उनके सम्पूर्ण जीवन चरित्र की ‘संरचनात्मक’तत्वों के ढाँचे’ (Frame work of Structural elements) की अभिव्यक्ति है, जिसे प्रसिद्ध भाषाविद फर्डीनांड डी सौसुरे ने “संरचनावाद”  (Constructionism) में समझाया है| एक शब्द, एक वाक्य, एक चित्र, एक मूर्ति एवं एक प्रतीक भी अपने संरचनात्मक ढाँचे की अभिव्यक्ति होता है, जो एक ही साथ बहुत कुछ कहता होता है|

किसी भी समाज एवं राष्ट्र की मानसिकता, यानि उसके नजरिए (Attitude) निर्धारण एवं निर्माण ऐसे ही होता है| यही मानसिकता यानि नजरिया ही उसके संस्कृति (Culture) का निर्माण और संस्कृति में परिवर्तन करता रहता है। शिवाजी के शासन काल की अनुभूतियों के वर्णन एवं विवरण ही किसी समाज में मिथक और इतिहास के रूप में मौजूद रहता है| यही मिथक और इतिहास कालांतर में संस्कृति को आकार (Shape) देता है, ढालता है। आम समाज के “सामूहिक अवचेतन” (Collective Un consciousness) में शिवाजी के विचार एवं कार्य स्थापित है। इस “सामूहिक अवचेतन” की अवधारणा को प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक कार्ल जुंग ने दिया| अर्थशास्त्र के नोबेल पुरस्कार विजेता प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक डेनियल कुह्नमैन ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक "थिंकिंग फास्ट एंड स्लो" में इसे ही “सिस्टम एक” (System One) कहा है, जो स्वचालित रूप में तेजी से काम करता है। उस लडकी में उस समाज की “सामूहिक अवचेतन” में स्थापित धारणा ने उसे ऐसा करने को दिशा निर्देशित किया और स्वीकृति दी| समाज के इसी “सामूहिक अवचेतन” को उस समाज की संस्कृति कहा जाता है, जिसे कोई उस समाज में रह कर अवचेतन में सीखता है| उस लड़की ने शिवाजी का चित्र को देख कर अपने “सिस्टम एक” के साथ शिवाजी के सम्बन्ध में ‘स्वचालित रूप’ में तुरंत निर्णय लिया। इस सबके पीछे उस समाज की संस्कृति रही, जिसे कोई भी उस समाज में रह कर स्वत: सीखता रहता है|

प्राचीन काल एवं मध्य काल में यह राज्य क्षेत्र विभिन्न नामो से जाना गया। सिर्फ एक समय यह क्षेत्र ‘राष्ट्र’ के नाम ‘राष्ट्रकूट’ से जाना गया, लेकिन पहली बार शिवाजी के नजरिए ने इस क्षेत्र को एक महान राष्ट्र बनाने की संकल्पना – ‘महाराष्ट्र’ के साथ आयी| भारत की प्राचीनतम भाषा पालि एवं प्राकृत में इस क्षेत्र को ‘महरट्ठ’ कहा जाता था। संस्कृत भाषा एक सुसंस्कृत, यानि सु संस्कारित भाषा है, जो ‘संस्कृत’ शब्द से स्वत: ही स्पष्ट होता है| यह संस्कृत पालि की संस्कारित भाषा है| शिवाजी ने अपने साम्राज्य काल में इस प्रभाव क्षेत्र को ‘महाराष्ट्र’, यानि ‘महान’ ‘राष्ट्र’ कहा। आप समझ सकते हैं कि शिवाजी की भावना अपने राज्य क्षेत्र को एक महान राष्ट्र के रुप में स्थापित करना था। उनके पचास साल की कम आयु में ही चले जाने के कारण उनका राज्य क्षेत्र उत्तर के उतुंग हिमालय और दक्षिण में हिन्द महासागर तक नहीं जा सका, जो एक महान और दूरदर्शी महाराज शिवाजी का सपना रहा। उनका महान राष्ट्र का भौगोलिक क्षेत्र वर्तमान महाराष्ट्र के प्रान्तीय क्षेत्र तक ही सिमट कर रह गया।

यहाँ यह ध्यान रहे कि एक ‘राष्ट्र’ अपनी संरचनात्मक गुणवत्ता, प्रकृति, अर्थ एवं स्वरुप में एक ‘देश’, ‘राज्य’ एवं ‘प्रान्त’ से पूर्णतया भिन्न होता है| यह भी ध्यान रहे कि भारतीय संविधान की उद्देशिका (Preamble) में ‘राष्ट्र’ (Nation) की एकता एवं अखंडता की बात की गयी है, किसी ‘देश’ (Country), ‘राज्य’ (State) या ‘प्रान्त’ (Province) की एकता और अखंडता की बात नहीं की गयी है| ‘राष्ट्र “ऐतिहासिक एकापन” (Historical Oneness) की स्थायी भावना है|’ यह अवधारणा जोसेफ स्टालिन की है| जिस राष्ट्रीयता की भावना के महत्त्व को भारतीय संविधान सभा ने बीसवीं सदी में समझा, उसे शिवाजी ने तीन शताब्दी पहले ही स्थापित करना चाहा था| उनका महान राष्ट्र आज विश्व गुरु होता है, जिसमे सभी को न्याय, समता, स्वतंत्रता, बंधुता, समृद्धि, शांति एवं सुखमय जीवन का परिवेश मिलता होता| इस रूप में भी शिवाजी महान थे|

उनके ‘हिन्दवी राज्य’ की अवधारणा को लोग और इतिहासकार ढंग से समझ नहीं पाए हैं। इसे ‘हिन्दुओं के राज्य’ के रुप में व्याख्यापित किया जा रहा है, जबकि उस काल तक ‘हिन्दू’ सिर्फ एक भौगोलिक शब्दावली थी, और किसी भी रुप में धार्मिक नहीं था| मध्य काल में ‘हिन्द’ की अवधारणा एक भौगोलिक वास्तविकता तक और ‘हिन्दू’ की अवधारणा सिर्फ एक सामाजिक वास्तविकता तक ही सीमित रहा और उसका प्रतिनिधित्व करता रहा। हिन्दुओं के सामान्य वर्ग पर एक धार्मिक कर – जजिया’ लिया जाता था, लेकिन एक अन्य सामाजिक वर्ग पर यह नहीं लिया जाता था| स्पष्ट है कि ‘हिन्दू’ शब्द उस समय तक धार्मिक नहीं था| सन 1893 के शिकागो के विश्व धर्म सम्मेलन में किसी भी ‘हिन्दू धर्म’ का प्रतिनिधित्व नहीं हुआ था। उसमें भारत से सिर्फ ‘ब्राह्मण धर्म’ ही शामिल हो पाया था, देखें अन्य प्राधिकृत स्रोत। स्वामी विवेकानंद जी को ‘शूद्र वर्ण’ के सदस्य होने के कारण वहाँ भारत की ओर से कोई प्रतिनिधित्व नहीं मिला। उन्हें श्रीलंका के बौद्ध धर्म के रुप में प्रतिनिधित्व मिला, जिसने भारतीय धर्म, यानि भारतीय संस्कृति की वैश्विक डंका बजायी थी। फिर से स्पष्ट रहे कि उस समय तक ‘हिन्दू’ शब्द धार्मिक अर्थ या अवधारणा ग्रहण नहीं किया था। हिन्दू शब्द का सफ़र भौगोलिक से शुरु होकर सामाजिक होते हुए बीसवीं शताब्दी में धार्मिक तक तय किया| इस सफर की कहानी एक अन्य आलेख में उपलब्ध है| अत: ‘हिन्दवी’ शब्द कदापि हिन्दू धर्म से सम्बन्धित नहीं है| ‘हिन्दवी’ शब्द का धार्मिक उपयोग एवं प्रयोग कुछ स्वार्थी, कुछ नादान और कुछ चतुर लोग करते हैं, कोई भी राष्ट्र भक्त एवं मानवता के पुजारी नहीं करता है|

अतः ‘हिन्दवी राज्य’ ‘हिन्दू राष्ट्र’ नहीं था, बल्कि यह ‘हिन्द’ के लोगों का अपना (स्व) राज्य’ था। सामान्य लोगों और इतिहासकारों में यह अवधारणात्मक त्रुटि इस कारण आती है, क्योंकि सामान्य लोग और इतिहासकार भी ‘इतिहास के गुरुत्वीय ताल’ (Gravitational Lensing of History) को नहीं समझते हैं।

इसी तरह शिवाजी के सम्बन्ध में कई ऐतिहासिक भ्रांतियाँ है, जिसे मैं आगे कभी स्पष्ट करूँगा|

आचार्य प्रवर निरंजन जी

दार्शनिक, शिक्षक एवं लेखक

अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान, बिहटा, पटना, बिहार|

शुक्रवार, 15 अगस्त 2025

शाहदत देना समझदारी नहीं है

इस आलेख का शीर्षक थोडा अटपटा हो गया है, लेकिन ऐसा नहीं होना चाहिए था| खैर, शहादत एक बहुत ही सम्मानजनक अवधारणा है| आखिर इसमें किसी के जीवन का अन्त हो जाता है| चूँकि विज्ञान पुनर्जन्म नहीं मानता है, इसलिए उसके एकलौते जीवन का समापन हो जाना एक बहुत ही असाधारण घटना होती है| ऐसी अवस्था में किसी की शहादत बहुत ही सम्मानीय अवस्था होनी ही चाहिए|

किसी भी समाज या संस्कृति में 'शहादत दे देना' या 'शहादत का हो जाना' बहुत ही सम्मानीय स्थिति होती है, लेकिन उस समाज या उस संस्कृति के कुछ लोगों की प्रवृति और प्रकृति इसके विपरीत होती है| ऐसा क्यों होता है? यह सवाल मुझे बहुत परेशान करता रहता है| शायद आपको भी परेशान कर दे, लेकिन मेरा उद्देश्य किसी को भी परेशान करना नहीं है| सवाल यह है कि जब शहादत इतना सम्मानजनक होता है, तो उस समाज और उस संस्कृति के अग्रणी लोग, समृद्ध लोग, उच्च स्तरीय बौद्धिक लोग, उच्च स्तर के अधिकारी गण, राजनीतिक नेता एवं दिव्य लोग इस शहादत में बहुत पीछे क्यों रह जाते है? शायद मैंने कुछ गलत कह दिया है| ये लोग शहादत के कतार में पीछे ही नहीं होते, ये लोग शहादत की कतार में कहीं भी दूर दूर तक नहीं होते|

एक फिल्म का एक प्रसंग है| दो देशों में युद्ध हो रहा था| अवश्य ही उसमे राष्ट्रीयता की भावना उभार पर होगा| उस युद्ध में दो भाई भी शामिल थे| चूँकि दोनों भाई थे, इसलिए भी उनमे बहुत जुड़ाव था| उनमे एक को युद्ध के मोर्चे पर शहादत प्राप्त हो गया| जब दूसरे भाई को यह सब मालूम हुआ, तो यह बदला लेने के लिए उग्र और आक्रोशित हो गया| वह युवा अपने ‘जोश’ के उच्चतम उभार में था, लेकिन उसने अपना ‘होश’ खो दिया था| जब वह अपने आक्रोश और अपनी उग्रता को सम्हाल नहीं पा रहा था, तो उसके कमांडर ने उस उतावले को एक करारा तमाचा जड़ दिया| वह घबरा कर बैठ गया कि शहादत देना उनको अच्छा क्यों नहीं लग रहा?

वह सोचने लगा कि उसे भी शहादत मिलती और इस प्रक्रिया में वह अपने भाई का बदला भी तो ले लेता| उसके कमान्डर ने उससे कहा, 'तुम्हारी शहादत हमारा लक्ष्य नहीं है'| तुम पर इस राष्ट्र ने बहुत समय, संसाधन, उर्जा और वैचारिकी का निवेश किया है| यह सिर्फ तुम्हारे शहादत को पाने के लिए नहीं, बल्कि इस युद्ध को जीतने के लिए किया गया है| यह पशुओं की प्रवृति होती है कि वह सिर्फ 'रिफलेक्स तंत्र' द्वारा ही प्रतिक्रिया देता है, वह कोई और मानसिक प्रक्रिया नहीं करता है| तुम भी बिना सोचे समझे बेचैन हो गये हो| शायद उसका कमान्डर उसे ‘शहादत देने’ और ‘शहादत पाने’ में अन्तर समझा रहे थे| लेकिन मुझे यह अन्तर समझ में नहीं आया|

प्रसिद्ध लेखक मुंशी प्रेमचंद ने लिखा है, ‘अन्याय को मिटाओ, लेकिन अपने आप को मिटा कर नहीं’| इतना असाधारण वाक्य किसी असाधारण लेखक ने क्यों लिखा? क्या वे यह चाहते थे कि लोग शहादत नहीं दें, या कोई और गूढ़ बात कह रहे थे; जिसे मैं समझ नहीं पा रहा हूँ| ऊपर के प्रसंग में कमान्डर भी कुछ ऐसा ही कहना चाह रहा था| शायद ये लोग विचारों की अदम्य शक्ति को रेखांकित करना कहते थे| शायद ये लोग शारीरिक शक्ति की सीमा को समझते थे| ये वैचारिक शक्ति, यानि मानसिक शक्ति के संवर्धन और सामर्थ्य को समझाना चाहते हो| गूढ़ एवं गहरा विचार ही किसी भी रणनीति का सार (Essence) होता है| इसी सार को ही बौद्धिक भाषा में ‘दर्शन’ भी कहते हैं|

विक्टर ह्यूगों ने भी कहा है कि “जब उपयुक्त समय आता है, तब विचारों की शक्ति तत्कालीन विश्व की सभी सेनाओं की संयुक्त शक्ति से भी ज्यादा भारी होता है|” तब यह भी कहा जा सकता है कि विचारों का कभी भी कोई उपयुक्त समय आता है, या नहीं भी आता है, लेकिन यदि जब विचारों को उपयुक्त बना लिया जाय, तो वह ‘उपयुक्त विचार’ दुनिया समस्त सेनाओं को भी हरा देगा| बात यह हो या नहीं हो, यह तो स्पष्ट है कि विचारों में अदम्य शक्ति होती है| जब विचारों में अदम्य शक्ति होती है, तब शारीरिक शहादत देने के पीछे कौन लोग भाग रहे हैं?

तब शारीरिक शहादत या तो दुर्घटनाओं में हो जाती है, या उनकी प्राथमिकताओं में आ जाती है. जिनको विचारों की शक्ति पर भरोसा नहीं होता है| बौद्धिक लोग विचारों की शक्ति पर विश्वास करते हैं| ज्यादा बौद्धिक लोगों को ही दार्शनिक कहते हैं, क्योंकि वे दार्शनिक लोग बौद्धिकता के सिद्धांतों का प्रतिपादन करते हैं| दार्शनिक शताब्दियों या सहत्राब्दियों की स्थापित मान्यताओं, मूल्यों, और संस्कृतियों को उलट देते हैं| कम चिन्तनशील लोग शहादतों की तैयारी करते हैं| ज्यादा चिन्तनशील लोग जीतने की तैयारी करते हैं| आपने भी देखा होगा कि सामान्य किस्म के लोग शहादतों के आंकड़ों पर ज्यादा बौद्धिकता प्रदर्शित करते हैं|

अन्त में, एक ‘महा’ ‘राष्ट्र’ नायक, जिसने इस भारत में राष्ट्रीयता की भावना का वास्तविक एवं जमीनी शुरुआती आधार दिया, महान शिवाजी की चर्चा के बिना यह आलेख अधूरा ही रहेगा| अपने सीमित एवं अल्प संसाधनों के साथ विशाल मुग़ल साम्राज्य के विरुद्ध एक महान राष्ट्र का नींव डालकर एक आदर्श स्थापित कर दिया| वह क्षेत्र तो आज भी ‘महाराष्ट्र’ के नाम से जाना जाता है| ध्यान रहे कि मैंने किसी देश (Country) की बात नहीं की, क्योंकि एक देश राजनीतिक सीमाओं से ही बँधा होता है| लेकिन एक राष्ट्र (Nation) उस भौगोलिक क्षेत्र से जुड़ाव रखने वाले लोगों से बना होता है| इसी ऐतिहासिक एकापन की भावना को जोसेफ स्टालिन राष्ट्र कहते हैं| तब यह क्षेत्र मात्र एक ‘राष्ट्र’ ही नहीं बना, बल्कि ‘महाराष्ट्र’ बन गया| भारत आज भी एक मजबूत 'राष्ट्र' नहीं बन पाया है, और इसीलिए भारतीय संविधान की उद्देशिका में ‘राष्ट्र’ की ‘एकता एवं अखंडता’ की बात की गयी है, किसी ‘देश’, ‘राज्य’ (State) या ‘प्रान्त’ (Province) की एकता एवं अखंडता की बात नहीं है|

यहाँ बात ‘शहादत’ की चल रही है| महान शिवाजी युद्धों में सामने से भिड़ने से बचते थे| वे शहादत देने में विश्वास नहीं करते थे, अपितु वे जीत लेने में विश्वास करते थे| वे अकसर आक्रमण के लिए चुपके से आते थे, और फिर घनघोर जंगलों और पहाड़ों में विलीन भी हो जाते थे| जीत कर एक समृद्ध एवं शक्तिशाली राष्ट्र का निर्माण करने में कामयाब भी रहे|

तो हमको आपको यह विमर्श करना है कि शहादत देने की योजना बनाना है, या जीत लेने की 'दर्शन' को तैयार कर उसे क्रियान्वित करना है|

आचार्य प्रवर निरंजन जी, 

दार्शनिक, शिक्षक एवं लेखक

अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं  संस्कृति संवर्धन संस्थान|

बुधवार, 6 अगस्त 2025

आप पुरोहित और संस्कारक क्यों बनें?

(प्रकाशनाधीन पुस्तक - "जब बुद्ध मुस्कुरा उठे", का एक अंश)

इस विद्वान् मंडली की सारगर्भित सुनने के बाद मुझे लगा कि हम भारतीय जन गण को चाहिए कि हमलोग भारतीय संस्कृति पर छाये हुए धुंध के बादल को हटायें| इससे भारतीय संस्कृति के साथ हुई गलतफहमियों को सुधारा जा सकता है| लेकिन किसी व्यवस्था या तंत्र को सुधारने के लिए, या संशोधित करने के लिए उस व्यवस्था यानि उस तंत्र का एक अभिन्न हिस्सा बनना होगा| इसके बाद ही हम इस व्यवस्था या तंत्र को समझ सकते हैं, उस पर नियंत्रण स्थापित कर सकते हैं| अर्थात उस वाहन रुपी तंत्र में सवार होकर उसके ‘ड्राइविंग सीट’ पर बैठना ही होगा, तब ही कोई उस तंत्र यानि उस वाहन को मनचाहे गंतव्य तक ले जा सकता है| इसके लिए शिक्षाविदों, सामजिक सेवियों के साथ साथ सांस्कृतिक सेवियों को भी आगे आना चाहिए| सांस्कृतिक सेवियों में ‘पुरोहित’ एवं ‘संस्कारक’ शामिल हैं| समाज के सांस्कृतिक क्षेत्र में इन लोगों को ऐतिहासिक एवं श्रद्धा के साथ सम्मान प्राप्त है|

भारतीय परम्परा में ‘पुरोहित’ एक सम्मानित व्यक्ति की अवधारणा रही है, जो अपने ज्ञान, विचार एवं व्यवहार से उन ‘पुरों’ का हित देखता रहा है| ‘पुर’ शब्द आवासित क्षेत्रों के लिए एक द्योतक शब्द है, जैसे शोलापुर, कानपुर, खड़गपुर, जयपुर, जबलपुर, भागलपुर, दिसपुर, आदि आदि कई शहर एवं गाँव हैं| और इन आवासीय क्षेत्रों के ‘हित’ देखने समझने वाले ही पुरोहित हुए| कालांतर में यह पाखंड एवं कर्मकांड के साथ उलझ गया है| इसी तरह संवेदनशील ‘सामाजिक संस्मरणों’ को ही आकार देने को ‘संस्कार’ कहते हैं, जो समाज में मूल्य, प्रतिमान, आदर्श आदि स्थापित करता है| और ऐसे संस्कारों को समाज में स्थापित, नियमित, नियंत्रित, संरक्षित एवं संवर्धिक करने वाले व्यक्तियों को ही ‘संस्कारक’ कहते हैं| यह अलग बात है कि इन संस्करकों की भूमिका समाज, आर्थिक सम्बन्ध, एवं संस्कृति के बदलने से बदलती रही| यह ‘संस्कार’ समय के साथ उस समाज का सदस्य होने के कारण अचेतन रूप में ग्रहण करता रहता है| ‘संस्कारों का समुच्चय’ ही ‘संस्कृति’ है| समाज के ऐसे सम्मानित सदस्यों की भूमिका समाज में सदैव ही प्रतिष्टित रही है, और आगे भी रहेगी| हमलोगों को पुरोहिती और संस्कार को प्राचीन भारतीय संस्कृति के मौलिक दर्शन के आलोक में पुनर्व्याख्यायित करना चाहिएपुनर्स्थापित करना चाहिए, ताकि भारतीय सांस्कृतिक गौरव को पुनर्सम्मानित किया जा सके। इसके लिए सभी नागरिकों को सचेत होकर आगे आना चाहिए|

भारतीय संविधान के मूल अधिकार में, यानि संविधान के भाग तीन के अनुच्छेदों में इन पुरिहितो एवं संस्करकों  के अधिकार के बारे में वर्णन है| यह ये सभी अधिकार संविधान के ही मूल अधिकार में शामिल है| ये सभी अनुच्छेद 13, अनुच्छेद 29 एवं अनुच्छेद 32 में निहित हैं| ‘पुरोहित’ एवं ‘संस्कारक’ शाब्दिक अवधारणा गौरवमयी भारतीय संस्कृति की महान विरासत है|

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 29 (1) में प्रत्येक भारतीय नागरिकों को अपनी भाषा, लिपि एवं संस्कृति के संरक्षण का अधिकार प्राप्त है| अनुच्छेद – 29 (1) के अनुसार “भारत के राज्यक्षेत्र या उसके किसी भी भाग में निवास करने वाले नागरिको के किसी भी वर्ग को, जिसकी अपनी विशिष्ट भाषा, लिपि या संस्कृति हो, उसे संरक्षित रखने का अधिकार होगा|” यदि इसे और स्पष्ट किया जाय, तो यह स्पष्ट है कि यह अधिकार भारत में निवास करने वाले ‘नागरिकों के सभी वर्ग’ को यह अधिकार प्राप्त है| ‘नागरिको का वर्ग’ उनकी जाति, धर्म, क्षेत्र, पंथ आदि के अनुसार संगठित या गठित माना जा सकता है| यह अधिकार उस नागरिक वर्ग को उसके विशिष्ट भाषा, लिपि और संस्कृति के सम्बन्ध में है| ध्यान रहे कि भाषा और लिपि की कोई स्पष्ट एवं विशिष्ट व्याख्या है, जिसकी कई व्याख्याएँ नहीं की जा सकती है| लेकिन संस्कृति एक ऐसी अवधारणा है जिसका कोई एक एकलौता, स्पष्ट एवं विशिष्ट व्याख्या नहीं किया जा सकता है| कहने का तात्पर्य यह है कि कोई भी अपने तथाकथित वर्ग के लिए ‘संस्कृति’ को अवधारित कर सकता है, और उसके अनुरूप अपने मूल अधिकारों की बात कर सकता है|

ध्यान रहे कि संविधान के भाग तीन में ही अनुच्छेद 13 (2) के अनुसार “राज्य कोई ऐसा कानून (Law) नहीं बनाएगा जो इस भाग द्वारा प्रदत्त अधिकारों को छीनता हो या न्यून करता हो और इस खण्ड के उल्लंघन में बनाया गया कोई कानून उल्लंघन की सीमा तक शून्य होगा|” संविधान के इस भाग का अर्थ हुआ संविधान का भाग तीन है, जिसे मूल अधिकार का भाग कहा जाता है| इस भाग में संविधान का अनुच्छेद 12 से अनुच्छेद 35 तक शामिल है| अर्थात संस्कृति के अतिरिक्त अन्य कई अधिकार इस भाग में शामिल एवं संरक्षित हैं| यहाँ संविधान में यह स्पष्ट भी किया गया है कि ‘कानून’ (Law) शब्द में भारत के क्षेत्र में कानून के प्रभाव रखने वाले सभी बल (The Force of Law) शामिल है, अर्थात कानून के बल में सभी अध्यादेश, आदेश, उप कानून, नियम, विनियमन, अधिसूचना, प्रथा (Custom), या परम्परा (Usage) शामिल किए गये हैं|

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 32 (1) के अनुसार “इस भाग द्वारा प्रदत्त अधिकारों के प्रवर्तन (Enforcement) के लिए समुचित कार्यवाही द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में जाने का अधिकार सुनिश्चित किया गया है|” इस भाग में प्रदत्त अधिकारों के प्रत्य्वर्तन के अलावे किसी भी अन्य अधिकारों या शिकायतों के मामलों में कोई भी सीधे सर्वोच्च नयायालय में नहीं जा सकता है, लेकिन इन मूल अधिकारों के प्रवर्तन कराने के मामलों में कोई भी सीधे ही सर्वोच्च न्यायालय में जा सकता है| यह व्यवस्था भारतीय संविधान में किया गया है| अनुच्छेद 32 (2) उच्चतम न्यायालय को इस भाग द्वारा प्रदत्त किसी भी अधिकार के प्रवर्तन के लिए निदेश (Direction) या आदेश (Order) या रिट (Writ) जारी करने की शक्ति है| यहाँ भी ‘इस भाग’ का तात्पर्य भाग तीन से ही है, जिसमे संविधान का अनुच्छेद 12 से अनुच्छेद 35 तक शामिल है| इन रिटों में बंदी प्रत्यक्षीकरण (Habeas Corpus), परमादेश (Mandamus), प्रतिषेध (Prohibition), अधिकार-पृच्छा (Quo Warrant) और उत्प्रेषण (Certiorari) शामिल है|

चूंकि भारतीय संस्कृति हमारी विरासत हैहमलोगों की थाती हैहमलोगों का गौरव हैहमलोगों का सम्मान हैइसीलिए हम समस्त भारतवासियों की जबावदेही बनती है कि इस गौरवशालीप्राचीनऔर विस्तृत संस्कृति का संवर्द्धन करेंपुनर्स्थापित करेंपुनर्जीवित करें और पुनः गौरवान्वित करें। लेकिन इसके लिए हमलोगों को संयुक्त रूप में आगे आना होगासंयुक्त रूप में सक्रिय होना होगाऔर सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी। भारतीय उपमहाद्वीप एक विविध संस्कृतियोंविविध भाषाओंविविध पंथों एवं धर्मों और विभिन्न भौगोलिक अनिवार्यताओं के क्षेत्रों का संकलन यानि समुच्चय है। भारत एक ऐसा विशाल और बहुविध पंथों और धर्मों का देश हैजहां विश्व के सभी धर्मों की परम्परा अपने गौरव और सम्मान के साथ प्रचलित और सक्रिय हैऐसा कोई अन्य उदाहरण विश्व में और कहीं नहीं है। भारत में विविध संस्कृतियाँ है| संस्कृतियों की परिभाषा एवं अवधारणाओं के अनुसार संस्कृतियों की विविधता बढती जाती है|

कहने का तात्पर्य यह है कि हमलोगों के इस सांस्कृतिक विरासत के पुनरोत्थान अभियान में सभी संस्कृतियोंसभी क्षेत्रोंसभी धर्मोंसभी पंथोंऔर सभी भाषायी व्यक्तियों, समाजों, एवं वर्गों की सक्रिय, समर्पित सहयोग अवश्य ही चाहिएवरना यह गौरवमयी  सांस्कृतिक अभियान सफल नहीं मानी जा सकती है। स्पष्ट है कि यह अभियान किसी भी वर्गया समूहया जाति वर्ण के सापेक्ष नहीं हैयानि किसी के विरुद्ध या किसी के समर्थन में नहीं हैयानि कोई भी विशेष वर्ग इसके लक्ष्य में नहीं है। इसमें सभी परम्परागत और गैर परम्परागत वर्गसमूह और समाज की सक्रिय भागीदारी अपेक्षित है और किसी को इससे अलग नहीं होना चाहिए|

पुरोहिताई और संस्कारक एक कौशल है, एक योग्यता है, एक ज्ञान है, जिसे कोई भी प्रशिक्षित होकर सीख सकता है, पारंगत होता है, या हो सकता हैयदि आप किसी पेशे में, किसी सेवा में, किसी व्यवसाय या उद्यम में कुशल और सक्षम हो सकते हैं, तो आप इसमें भी कुशल, सक्षम, योग्य, पारंगत और व्यवहारिक हो सकते हैं| यह पुरोहिताई और संस्कारक भी एक पेशा है, एक सेवा है, एक उद्यम है, एक व्यवसाय है, जिसमे सम्मान, प्रतिष्ठा, समृद्धि,और आत्मसंतुष्टि जुड़ा हुआ हैयह आध्यात्मिक क्षेत्र का प्रवेशद्वार भी हैचूँकि यह महान संस्कृति आपकी भी विरासत है, इसीलिए इसके उत्तरदायित्व में आप भी शामिल हैं, और आपको भी शामिल होना चाहिए|

इस संस्कृति में संस्कारक एवं पुरोहिताई की एक विशाल एवं शानदार अर्थव्यवस्था है, जिसमे सभी सामाजिक वर्गों की सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित होनी चाहिएइससे अर्जित धन से सभी सामाजिक वर्गों के विकास में भूमिका होनी चाहिए, या मिलनी चाहिए| इसके लिए ही सभी सामाजिक वर्गों के समझदार, जागरूक एवं प्रबुद्ध सदस्यों को आगे आना चाहिएलगभग सभी सामाजिक वर्गों में सेवा निवृत सदस्य उपलब्ध होते हैं, जिनके पास ज्ञान आधारित योग्यता के साथ साथ विशाल कार्य अनुभव भी होता है, जिसका लाभ वह सामाजिक वर्ग उठा सकता हैइन सेवा निवृत सदस्यों की सक्रियता और समर्पण से बहुत कम लगत से या बिना लगत के सामाजिक पूंजी का निर्माण होता है, और इन सेवा निवृत सदस्यों की उम्र भी बढ़ जाती है| इस अभियान से समाज को और राष्ट्र को एक सुसंस्कृत, शालीन. शिष्ट, शिक्षित और संस्कारी पुरोहित एवं संस्कारक मिलता है|, और समाज एक कामी, लोभी, अशिक्षित, संस्कारविहीन और भ्रष्ट पुरोहित एवं संस्कारक के दुष्प्रभाव से बचता है|

चूँकि यह एक सेवा है, एक व्यवसाय है, एक उद्यम है, एक कौशल है, इसलिए यह हमारे युवाओं के लिए प्रशिक्षण का एक शानदार सम्मानित एवं प्रतिष्ठित अवसर भी हैये युवा हमरे व्यापक शोध मिशन को आगे बढ़ा सकते हैं, या बढ़ाएंगे ही| इससे हमारे राष्ट्र के सभी सामाजिक वर्गों का सांस्कृतिक, धार्मिक एवं शैक्षणिक मूल्यवर्धन होगा, और सभी सामाजिक वर्ग आध्यात्मिकरूप में समृद्ध, संपन्न और आत्मनिर्भर भी होगा| इससे हमारी संस्कृति कई अर्थों में संपन्न और व्यापक होगाहमारे प्रशिक्षित संस्कारक समाज को ढोंग, पाखंड, अंधविश्वास एवं अनावश्यक कर्मकांड से उबरने में सहायक भी होंगेहमरे संस्कारक समाज में शिक्षा एवं विविध सेवाओं के प्रसारक एवं प्रचारक भी बनेंगे| ये संस्कारक कई ऐसे कार्य भी करेंगे, या कई ऐसे क्षेत्रों के सूत्रधार भी बनेंगे, जिन्हें हमलोग आपके सहयोग एवं सलाह से सुनिश्चित और निर्धारित करेंगेचूँकि एक संस्कारक एवं पुरोहित अपने अपने कार्य क्षेत्रों में प्रभावशाली एवं नियंत्रणकारी होते हैं, इसीलिए ये संस्कारक एवं पुरोहित अपने अपने कार्य क्षेत्रों में सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, शैक्षणिक आदि कई क्षेत्रों के बदलाव के क्रान्तिकारी प्रकाश स्तम्भ साबित होंगेयह सब भविष्य के गर्त में है, जो आपके सहयोग, समर्थन, समर्पण से ही आगे निकल सकता है, आगे बढ़ सकता हैइस क्षेत्र में पहले भी कई महानुभावों ने शुरुआत भी किया था| लेकिन आज की अपेक्षित गतिशीलता आपके बिना संभव भी नहीं है|

इसलिए आप सभी भारतीय इसमें आगे आइए| एक फिर से भारतीय संस्कृति को वैश्विक पटल पर स्थापित करने में मदद कीजिए|

आचार्य प्रवर निरंजन जी 

अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान|

रविवार, 27 जुलाई 2025

समस्याएँ वहीं खड़ी क्यों हैं?

एक बड़ा सवाल यह है कि कुछ समस्याएँ सदियों से वहीं खड़ी क्यों है, वहीं यथावत बरकरार क्यों है? जबकि "बाजार की शक्तियों" (Market Forces) ने बहुत कुछ बदला भी है| ये समस्याएँ इसीलिए वहीं खड़ी है, क्योंकि इनका समाधान अभी तक नहीं हो पाया है, या नहीं किया गया है, या समुचित एवं उपयुक्त समाधान नहीं मिला है। फिर सवाल उठता है कि तब हमलोग क्या कर रहे हैं? जबाव है कि हमलोग उपयुक्त, समुचित एवं पर्याप्त समाधान के लिए अभी भी प्रयासरत है, और इसमें सभी बौद्धिकों और बहुसंख्यकों की भागीदारी और समर्थन भी है।

तब तो इसका स्पष्ट अर्थ यह हुआ कि अबतक जिन समस्यायों का समाधान नहीं हुआ है, विश्व के सभी स्थापित एवं मान्य विद्वान भी इसके समाधान की दिशा में अबतक असफल रहे हैं| और इसीलिए ये समस्याएँ वही खडी है। यह निष्कर्ष बहुतों के लिए बहुत विचलित कर देने वाला है, खासकर जिनकी श्रद्धा और विश्वास किसी महान व्यक्तित्व में बहुत ज्यादा समर्पित है। यह बहुत विचलित कर देने वाला निष्कर्ष हो सकता है| क्या ऐसा निष्कर्ष निकालना गलत है? तो फिर प्रश्न उठता है कि ऐसा निष्कर्ष गलत क्यों माना जाय?

अब हमलोग उन समस्याओं के समाधान खोजने के लिए नहीं बैठते, जिनका उपयुक्त समाधान पहले ही पा लिया गया है। अब कोई चेचक की बीमारी का वैक्सीन का आविष्कार नहीं करना चाहता, अब कोई वायुयान उडाने का सिद्धांत नहीं खोज रहा, क्योंकि इनका समाधान पा लिया गया है। इसी तरह, सती प्रथा का समाधान निकाल लिया गया और विधवा विवाह भी आपत्तिजनक नहीं रहा, मतलब इनमें सफलता मिल गयी। लेकिन जाति और वर्ण व्यवस्था की समस्याएँ अपने बदलते बाह्य स्वरूप के साथ अपने मूल तथा मौलिक गुणवत्ता में आज भी विद्यमान है। इसका मतलब यह है कि हमारे सामाजिक और सांस्कृतिक सुधारक समाज से जाति और वर्ण व्यवस्था संबंधित समस्याओं के समाधान में अपने प्रयासों और उद्देश्यों को पाने में असफल रहे हैं।

ध्यान दिया जाय कि जाति व्यवस्था और वर्ण व्यवस्था से जुड़ी हुई समस्याएँ सामाजिक होती है और इसीलिए इसका क्रांतिकारी समाधान राजनीतिक और वैधानिक व्यवस्था नहीं दे पाया है। इनकी जड़े सांस्कृतिक होती है  और संस्कृति का निर्माण और स्वरुप निर्धारण उनके "इतिहास बोध" (Perception of History) से होता है। संस्कृति "सामूहिक अचेतन" (Collective Unconscious) होता है, जो 'स्वत:स्फूर्त मोड' (Automated Mode) में व्यक्ति और समाज को सदैव संचालित और नियमित करता होता है। आधुनिक युग के लोग इस संस्कृति को "समाज का साफ्टवेयर" (Software of Society) कहते हैं। इस संस्कृति की गत्यात्मकता (Dynamism) को समझने के लिए, यानि इन समस्याओं की जड़ो तक पहुँचने के लिए हमें "संस्कृति का दर्शन" (Philosophy of Culture) और "इतिहास का दर्शन" (Philosophy of History) समझना चाहिए। चूंकि इन विद्वानों ने इनके दर्शन की विवेचना नहीं किया है, इसलिए इन सामाजिक और सांस्कृतिक समस्याओं की मूल जड़ों को खोजने समझने में हमारे सभी पूर्ववर्ती विद्वान असफल रहे। स्पष्ट शब्दों में कहा जाय तो हमारे सभी पूर्ववर्ती विद्वान इन समस्याओं के उन मूल जड़ों में ही समाधान पाने में भटक गए हैं, भ्रमित हो गए। ये सभी विद्वान परम्परागत स्थापित मान्यताओं एवं उपलब्ध पुस्तकों के 'ढांचे '(Framework) से बाहर ही नहीं निकल पाए। इसे ही "इन- बाक्स थिंकिंग" (In- Box Thinking) कहते हैं। ये सभी विद्वान इसके उलट "आउट- आफ- बाक्स थिंकिंग" (Out-of-Box Thinking) नहीं कर पाए। 

हार्वर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर थामस सैमुएल कुह्न ने 1962 में एक पुस्तक - The Structure of Scientific Revolution लिखी। हालांकि यह पुस्तक वैज्ञानिक क्रांति के नाम लिखी गयी है, लेकिन क्रांति तो क्रांति ही होती है, चाहे वह वैज्ञानिक हो, या सामाजिक हो, या सांस्कृतिक हो, या आर्थिक हो, या शैक्षणिक हो। क्रांति का स्पष्ट तात्पर्य होता है, एक संक्षिप्त अवधि में बहुत बड़ा बदलाव, जो अपने उद्देश्यों को कम संसाधन, कम समय में, कम ऊर्जा में प्राप्त कर ले। अर्थात सभी क्रांतियों की प्रकृति, प्रवृत्ति, संरचना, विन्यास (Matrix), ढांचागत स्वरूप, क्रियाएँ, क्रियाविधियाँ (Mechanics), मौलिक अवधारणाएँ अपने स्वभाव, प्रतिरुप और मौलिकता में समान ही होती है। प्रोफेसर कुह्न ने किसी भी क्रांति के लिए संरचना, विन्यास, ढांचागत स्वरूप, क्रियाविधियों और अवधारणाओं में "पैरेडाईम शिफ्ट" (Paradigm Shift) की अनिवार्यता बतायी है। इसे ही सामान्यत: "आउट- आफ- बाक्स थिंकिंग" (Out-of-Box Thinking) कहा गया है। ये विद्वान लोग "सांस्कृतिक वर्चस्ववाद" (Cultural Hegemony) की अवधारणा और क्रियात्मकता की ओर ध्यान ही नहीं दिया, और इसीलिए समस्याएँ यथावत खडी़ है।

इन सामाजिक सांस्कृतिक समस्याओं का समाधान हमारे पूर्ववर्ती और तत्कालीन विद्वानों को इसलिए नही मिल पाया, या रहा है, क्योंकि इनमें कोई भी पुराने स्थापित परम्परागत मान्यताओं और अवधारणाओं से बाहर ही नहीं निकल पाए हैं। ये सभी विद्वान पहले से रचित और उपलब्ध पुस्तकों की दुनिया में ही तैरते डूबते रह गए, लेकिन कोई अपनी नई नवाचारी और अलग अवधारणा या विचार नहीं दे सके। नतीजा यह हुआ कि अपनी मंजिल की तलाश के साथ ही ये लोग उसके ही नाव पर सवार हो गए। ये विद्वान उनके नाव में सवार हो कर अपनी मंजिल पाने के लिए अपनी तलवारबाजी का करतब दिखाते रहे, लेकिन अंतत: कुछ नहीं हुआ। इन मुहिमों में वे लोग भी शामिल हो गए, जिनके विरुद्ध यह मुहिम चलाया गया।

इसीलिए यदि अब तक आपको अपनी सामाजिक सांस्कृतिक समस्याओं का समाधान नहीं मिला, या किसी अन्य समस्याओं का समाधान नहीं मिला है, तो आपको अवश्य ही अपने विचारों, अवधारणाओं, व्याख्याओं में पूरा “पैरेडाईम शिफ्ट” कर लेना चाहिए, पूरा बदलाव कर लेना चाहिए। समाधान आपके पास होगा, वह भी सरल, साधारण, और सहज तरीकों से एवं कम साधन, समय, ऊर्जा एवं वैचारिकी के साथ। प्रतिक्रिया लेने और देने में विश्वास मत कीजिये। अधिकतर विरोधी आपसे प्रतिक्रिया लेकर आपकी दिशा दशा, सब कुछ निर्धारित और नियमित करता रहता है। अपनी कार्य योजना बनाइए और उसमें प्रतिक्रियाओं के लिए कोई स्थान नहीं हो। प्रकृति (ब्रह्माण्ड) की प्रकृति (स्वभाव/ लक्षण) आपके साथ है, प्रकृति का यही स्वभाव है। सभी एक है, यह भौतिकी का मूल, मौलिक और आधारभूत स्थापित और सत्यापित अवधारणा है।

विश्वास कीजिये। सफलता आपके इंतजार में है। बस, इसी पैटर्न पर शुरुआत कीजिए|

आचार्य प्रवर निरंजन जी

अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान

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