शुक्रवार, 31 अक्टूबर 2025

विजनरी लीडर : सरदार पटेल

सरदार पटेल अर्थात भारत के एक महान व्यक्तित्व सरदार बल्लवभाई पटेल| इन्हें ‘विजनरी लीडर’ (Visionary Leader) भी कहा गया| ‘विजन’ वाला ‘लीडर’, यानि एक ऐसा व्यक्ति जो सब चीजों में लोगों को ‘Lead’ (लीड) करे, यानी सबसे ‘आगे’ रखे| ‘विजन’ (Vision) भी एक ऐसा ही शब्द है, जो अपनी शाब्दिक ‘ढाँचागत संरचना’ में सामान्य ‘दृष्टि’ से अलग और उच्चतर अर्थ देता है| ‘दृष्टि’ (देखना) तो पांच ज्ञानेन्द्रियों में एक का अनुभव होता है, जो सभी सामान्य लोगों के पास होता है| लेकिन ‘विजनरी’ (Visionary) तो वह होता है, जो अपनी पाँचों सामान्य ज्ञानेंद्रियों के अतिरिक्त ‘मानसिक दृष्टि’ और ‘आध्यात्मिक दृष्टि’ रखता हो| ‘मानसिक’ प्रक्रिया ‘मन’ के स्तर पर विचारों के उत्पादन के लिए होता है, जबकि ‘आध्यात्मिक’ प्रक्रिया अपने ‘आत्म’ (मन एवं चित्त) को ‘अधि’ यानि ‘ऊपर अनन्त प्रज्ञा’ से जोड़ कर ‘अंतर्ज्ञान’ (Intuition) पाता है| स्विटजरलैंड के प्रसिद्ध दार्शनिक फर्डीनांड डी सौसुरे अपने ‘संरचनावाद’ में यही समझते हैं कि प्रत्येक शब्दों की अपनी एक विशिष्ट ढाँचा एवं संरचना होती है| इसीलिए सरदार पटेल को ‘दृष्टिवान  नेता’ नहीं कह कर एक ‘विजनरी लीडर’ कहा गया है| इन्हें हिंदी भाषा के ‘दृष्टिवान  नेता’ कहने से वह अर्थ संप्रेषित नहीं होता है, जो अंग्रेजी भाषा के ‘विजनरी लीडर’ से संचारित होता है|

तो सबसे अहम सवाल यह है कि सरदार पटेल ‘विजनरी लीडर’ कैसे हुए? ‘विजनरी’ वह व्यक्ति होता है, जो ‘मानसिक सक्षमताओं’ से उपलब्ध सूचनाओं,  विचारों. अनुभवों, भावनाओं और व्यवहारों का ‘सन्दर्भ’ एवं ‘पृष्ठभूमि’ के परिप्रेक्ष्य में आलोचनात्मक मूल्यांकन कर भविष्य को स्पष्ट देखता हो और उसके अनुसार पूर्व से तैयारी रखता हो| इससे ऐसे निष्कषों, निर्णयों, आयोजनों, एवं नियंत्रणों में वह ‘नवाचारी’ (Innovative) दृष्टिकोण अपनाता है| आध्यात्मिक शक्ति ‘आभास’ यानि ‘अंतर्ज्ञान’ (Intuitive) के रूप में अभी तक अनुपलब्ध रहे जानकारी यानि सूचनाओं को उपलब्ध कराता है| सरदार पटेल को मानसिक दृष्टि एवं आध्यात्मिक दृष्टि में उच्चतर स्तर के होने के कारण ही ‘विजनरी लीडर’ कहा गया है|

सरदार पटेल को इस बात का ज्ञान था और आभास भी था कि अन्य साम्राज्यवादियों की ही तरह ब्रिटिश साम्राज्यवादी भी अपना स्वरुप बदलने वाला है| ‘ऐतिहासिक शक्तियाँ’ ही इतिहास की धारा बदलती है, इन्हें इस बात का ध्यान था| ‘साम्राज्यवाद’ पहले ‘वणिकवाद’ के रूप में आया और उसने अपने साथ ‘उपनिवेशवाद’ भी लाया| फिर साम्राज्यवाद ने ‘वणिकवाद’ का चोला छोड़ कर ‘औद्योगिकवाद’ का स्वरुप धारित कर लिया| ‘उपनिवेशवाद’ के लिए ‘नव साम्राज्यवादियों’ को अतिरिक्त भौगोलिक भूभाग चाहिए था, और उसी के लिए विश्व ने दो दो विश्व युद्ध झेले| साम्राज्यवादियों के लिए यह अवश्यम्भावी हो गया था कि उन्हें अब अपने ‘उपनिवेशवादी’ स्वरुप को छोड़ देना पड़ेगा| लेकिन वे अपनी ‘साम्राज्यवादी हित’ को छोड़ने वाले नहीं थे| द्वितीय विश्व युद्ध का यह अनिवार्य परिणाम था कि सभी ‘उपनिवेशों’ को ‘राजनीतिक स्वतन्त्रता’ मिलनी थी| लेकिन ‘साम्राज्यवादी हित’ का स्वरुप अब ‘वित्तीय साम्राज्यवाद’ का होने वाला था| ऐसी स्थिति में ‘साम्राज्यवादी ब्रिटेन‘ एकीकृत भारत’ को स्वीकारना नहीं चाहता था, इसीलिए ब्रिटेन ने भारत की स्वतन्त्रता घोषित करने के साथ ही अपने सभी संरक्षित 565 भारतीय देशी रियासतों को भी स्वतंत्र घोषित कर दिया| ‘खंडित राष्ट्र’ पर ‘साम्राज्यवादी हित’ साधना साम्राज्यवादी शक्तियों के लिए एक लाभकारी स्थिति देता है| यह सब सरदार पटेल जैसा ही कोई ‘विजनरी नेतृत्व’ ही समझ सकता था|

वैश्विक राष्ट्रवादी आंदोलनों ने यूरोप को अनेकों ‘राष्ट्रीय राज्यों’ (National States) में विभाजित कर दिया, लेकिन ये सभी ‘राष्ट्र- राज्य’ (Nation - state) अब एक ‘यूरोपीय संघ’ बना कर एकल व्यवस्था की ओर अग्रसर हैं| भारत अनेक बड़े देशों जैसे संयुक्त राज्य अमेरिका, तत्कालीन सोवियत संघ और चीन जैसा ‘बहु राष्ट्रीय – राज्य’ बनने जा रहा था| भारत को इन देशों की तरह ‘राज्य –राष्ट्र’ (State – Nation) बनना था, जो उस समय भी और आज भी निर्माणाधीन अवस्था में है| यहाँ यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण होगा कि राष्ट्रीय -राज्य’ (Nation –State) और ‘राज्य –राष्ट्र’ (State –Nation) अलग अलग अवधारणा है, तथा भारत एक ‘राज्य –राष्ट्र’ है| इसीलिए भारतीय संविधान सभा ने भारतीय संविधान की उद्देशिका (Preamble) में ‘राष्ट्र की एकता (और अखंडता)’ सुनिश्चित करने की बात की है| यहाँ ‘देश’ या ‘राज्य’ या ‘प्रान्त’ की एकता सुनिश्चित करने की बात नहीं की गयी| यह ध्यान रखने की बात है| यह सब सरदार पटेल जैसा गृह मंत्री ही समझ सकता था| इसीलिए 565 रियासतों में से 564 रियासतों को भारत में मिलाकर एक अखंड भौगोलिक क्षेत्र के रुप में भारत का निर्माण करने में अपनी बड़ी अहम सूझ बुझ अपनायी| एक रियासत प्रधान मंत्री नेहरु के हस्तक्षेप से बाद भारत में बाद में शामिल हुआ, लेकिन उसमे विवाद अभी भी बना हुआ है| इस अखंड भारत के लिए भारत उस ‘विजनरी लीडर’ का सदैव आभारी रहेगा|

इस भौगोलिक एकीकरण के कई निहितार्थ हैं| इससे भारत अपने सैकड़ों पड़ोसियों से उलझने से बच गया| इतने देशों से राजनयिक सम्बन्ध एवं सैनिक व्यवस्था बनाना एक उबाऊ, तनावग्रस्त और अनावश्यक आर्थिक परेशानी होता| इस भौगोलिक एकीकरण ने आर्थिक समृद्धि के उद्भव एवं विकास के लिए आवश्यक ढाँचा और संरचना को मजबूत आधार दिया| आज का विस्तृत रेल, सड़क, बाँध व जलाशय, संचार एवं बिजली आदि का नेटवर्क के लिए आधारभूत अवसर संभव हुए| आज एक भारत और एक बाजार उसी ढाँचे पर अग्रसर है| यह एक महान ‘विजनरी लीडर’ के प्रयास का परिणाम रहा|

मैंने ऊपर के पैराग्राफ में भारत की ‘राजनीतिक स्वतन्त्रता’ की बात की है| ‘राजनीतिक स्वतन्त्रता’ से ‘राजनीतिक समाज’ (Political Society) को फायदा होता है, लेकिन इस ‘राजनीतिक स्वतन्त्रता’ से ‘नागरिक समाज’ (Civil Society) को कोई विशेष फायदा नहीं होता है| ‘राजनीतिक समाज’ वह समाज होता है, जिसका प्रशासन, पुलिस, सेना, शिक्षा, संस्कृति, मीडिया एवं न्यायपालिका पर नियंत्रण या प्रभाव रहता है| ‘राजनीतिक समाज’ के अलावे अन्य सामान्य जन गण ‘नागरिक समाज’ होता है| ‘नागरिक समाज’ को लाभ ‘राजनीतिक समाज’ को मिलने वाली समृद्धि के रिस जाने (Leakage/ Seepage) से मिलता है| इसे “समृद्धि का रिसना सिद्धांत” (The Seepage Theory of Prosperity) कहते हैं| यह सब बातें बीसवीं शताब्दी के तीसरे एवं चौथे दशक में वैश्विक थी, और सरदार पटेल इसे जानते थे| लेकिन गांधी जी की ह्त्या से सरदार पटेल अपने को सम्हाल नहीं सके और इस क्षेत्र में योजना अधूरी रह गयी|

 भारत जैसे विशाल भौगिलिक क्षेत्र एवं विविध संस्कृतियों को ‘अखंड राष्ट्र’ बनाए रखने के लिए प्रशासनिक ढाँचा पर विशेष ध्यान दिया| प्रशासन एवं पुलिस जैसे स्थानीय मामलों को संविधान की ‘राज्य सूची’ में शामिल करते हुए भी इनके पदाधिकारियों को केन्द्रीय सरकार के अधीन रखा| इसके लिए केन्द्रीय सरकार के अन्य पदाधिकारियों से भिन्न ‘अखिल भारतीय सेवाओं’ का गठन किया, जिसमे ‘भारतीय प्रशासनिक सेवा’ एवं ‘भारतीय पुलिस सेवा’ का संवर्ग शामिल है| शासन एवं व्यवस्था का यह ‘स्टील ढाँचा’ (Steel Frame) आज भी उस महान विजनरी को सादर नमन करता है और सारा राष्ट्र उनका आभारी है|

स्वतंत्रता के समय भारत के तीन सतम्भ थे- गाँधी, पटेल एवं नेहरु| गाँधी की हत्या के बाद पटेल काफी आहत हो गये और वे हृदयाघात के पहले आक्रमण के शिकार हो गये| इस हत्या में ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ का नाम आया| इस ‘संघ’ के संस्थापक और वैचारिक अधिष्ठाता डॉ केशव बलिराम हेडगेवार की मृत्यु आजादी से पहले ही वर्ष 1940 में हो गयी थी और उनके मृत्यु के उपरान्त ही ‘संघ’ विवादित हो गया| परिणाम स्वरुप सरदार पटेल को इस पर कठोर प्रतिबन्ध भी लगाना पडा| शायद यह डॉ  हेडगेवार के विचारों से विचलन का परिणाम था| इस रुप में भी सरदार पटेल ‘विजनरी’ थे|

स्वतंत्र भारत को समय देने के लिए गाँधी और सरदार पटेल नहीं रहे| ये स्वतंत्रता संग्राम के दीवाने अपने ‘विजन’ को अंजाम देने के लिए उपलब्ध नहीं रहे| शायद यदि गाँधी जीवित रहते तो, तो सरदार पटेल भी जीवित रहते और उनके ‘भविष्य के दर्शन’ अपने कार्य रुप में दिखते| जर्मन दार्शनिक फ्रेडरिक नीत्शे के ‘परिप्रेक्ष्यवाद’ के अनुसार उनके व्यक्तित्व का मूल्याकन करना संभव है|

वर्ष 1970 में एक फिल्म बनी, नाम था – “सफ़र”| इस फिल्म में एक गाना है – ‘नदिया चले, चले रे धारा’| आप भी सुनिएगा| इस गाने में अंतिम पंक्ति का सार यह है – ‘समय की धारा इतनी तेज होती है कि, नाव तो नाव, नदी का किनारा भी बह जाता है’| सरदार पटेल जैसे विजनरी उस ‘समय की तेज धारा’ को पहचान लिया था और राष्ट्र हित और तत्कालीन परिप्रेक्ष्य में सरदार पटेल को कुछ मामलों में चुप रहना पडा| वह ‘विजनरी लीडर’ वर्ष 1950 में ही चले गये|  

मैं ऐसे ‘विजनरी लीडर’ को सादर प्रणाम करता हूँ|

आचार्य प्रवर निरंजन जी

दार्शनिक, शिक्षक एवं लेखक

अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान, बिहटा, पटना, बिहार|

रविवार, 26 अक्टूबर 2025

भारत में ‘निर्जीव बौद्धिक’ कौन?

 (The Inanimate Intellectuals of India)

विश्व का सबसे महान एवं सैद्धांतिक क्रान्तिकारी दार्शनिक एन्टोनियो ग्राम्शी (Antonio Francesco Gramsci) इटली का निवासी था। इसने अपने गहन अध्ययन एवं चिन्तन के द्वारा स्थापित मार्क्सवाद के सिद्धांतों में कुछ प्रमुख कमियों को रेखांकित किया और इन कमियों के समाधान के लिए कई प्रमुख नयी अवधारणाओं को दिया| कार्ल मार्क्स के अनुसार हर शोषण का एक अनिवार्य अन्त होता है, जो क्रान्ति के द्वारा होता है। लेकिन विश्व के कई क्षेत्रों में अत्यधिक शोषण के बावजूद भी क्रान्तियाँ नहीं हुई है और नहीं हो रही है, जबकि उन शोषणों की निरन्तरता अभी तक बनी हुई है| क्रान्तिकारी दार्शनिक एन्टोनियो ग्राम्शी यहाँ स्पष्ट करते हैं कि ‘सांस्कृतिक वर्चस्ववाद ही ऐसे किसी शोषण के विरुद्ध क्रान्ति को उत्पन्न और विकसित नहीं होने देता। 

यही और इसी सन्दर्भ में एन्टोनियो ग्राम्शी कुछ महत्वपूर्ण अवधारणाओं के साथ और पूरी क्रियात्मक व्याख्या के साथ उन शोषणों के समापन के लिए उपाय भी देते हैं| इन्हीं समझ के साथ ही लोकतंत्र (और प्रजातंत्र भी), संविधान एवं सम्पूर्ण व्यवस्था भी कारगर होता है| बाकी अन्य सभी समाधान मात्र एक भ्रम है, एक राजनीति है और इसीलिए धोखा मात्र है| इनकी सबसे महत्वपूर्ण अवधारणा सांस्कृतिक वर्चस्ववाद (Cultural Hegemony) की है| इसकी क्रियात्मक व्याख्या इनकी दो अवधारणाओं – राजनीतिक समाज (Political Society) एवं नागरिक समाज  (Civil Society) के साथ ही समझ में आती है| इस शोषण के समापन के लिए इन्होने सजीव बौद्धिक (Organic Intellectual) की अवधारणा दिया है| इसी ‘सजीव बौद्धिक’ का ही एक व्युत्पन्न ‘निर्जीव बौद्धिक’ (Inanimate Intellectual) है|

सबसे पहले सांस्कृतिक वर्चस्ववादको समझा जाय| इस सांस्कृतिक वर्चस्ववाद’ की अवधारणा में यह स्पष्ट किया कि किसी समाज का शासक वर्ग सिर्फ राजनीतिक, या प्रशासनिक, या आर्थिक या बल शक्ति के सहारे ही शासन नहीं करता है, बल्कि यह संस्कृति, शिक्षा, धर्म और मीडिया के द्वारा उनके विचारों, आदर्शों, मूल्यों एवं नैतिकताओं पर नियंत्रण कर करता है| इसमें शासक वर्ग अपने हितों के लिए समाज में मूल्यों, आदर्शों एवं नैतिकताओं को इस रुप में प्रस्तुत करती है, कि यह सब सामान्य जन गण को एक “सामान्य समझ” (Common Sense) एवं ”स्वभाविक” लगता है| समाज के इन्ही मूल्यों, आदर्शों एवं नैतिकताओं को सामान्य जन गण अपना समझता है और उसी के साथ “मस्त” रहता है| यही समाज का ‘सांस्कृतिक वर्चस्ववाद’ का सार है|

‘निर्जीव बौद्धिक’ को ऐसे समझते हैं| यदि प्रकाश है, तो उजाला है। और यदि प्रकाश नहीं है, तो वहाँ अन्धेरा है। इसी तरह, यदि कोई भी बौद्धिक सांस्कृतिक वर्चस्ववाद की समझ रखता है और उसकी सूक्ष्म क्रियाविधि को समझते हुए उसमे ‘भेद्यता’ (Penetrability) रखता है, तो वह व्यक्ति “सजीव बौद्धिक है। अर्थात जब कोई व्यक्ति ‘सांस्कृतिक वर्चस्ववाद की ‘सूक्ष्म क्रियाविधियों’ (Micro Mechanism) की पूरी समझ रखता है और उन समस्त क्रियाविधियों को ‘ध्वस्त” करने की समझ भी रखता है और इसकी इच्छा शक्ति भी रखता है, तो ऐसी प्रेरणा वाले व्यक्ति को ही सजीव बौद्धिक कहते हैं|

लेकिन यदि कोई व्यक्ति इन ‘सांस्कृतिक वर्चस्ववाद को समझता ही नहीं है, और उसी सांस्कृतिक वर्चस्ववाद के प्रेषित अर्थों को सही एवं सत्य मानते हुए उसी के ढाँचे की सीमाओं में ही रहता है, तो वह “निर्जीव बौद्धिक” ही है, भले उसके पास अनेकों उपाधियाँ हो या वह उच्चस्थ पदों को धारित किए हुए हो| ऐसा ‘निर्जीव बौद्धिक’ सिर्फ उपाधियों को बटोरने में और विद्वान् दिखाने में लगा रहा होता है और उसकी समस्त उपाधियाँ भी उसी सांस्कृतिक घेरे की सामग्रियाँ होती है, जिसे ग्राम्सी ‘सांस्कृतिक वर्चस्ववाद’ कहता है| सामान्य जन गण इनकी उपाधियों एवं पदवियों को गिन गिन कर उन्हें ‘अद्भुत नायक समझता रहा होता है। ऐसा ‘निर्जीव बौद्धिक’ किसी भी ‘सांस्कृतिक वर्चस्ववाद को समझ नहीं पाया होता है, और ऐसी स्थितियों में तो उसकी सूक्ष्म क्रियाविधियाँ सर्वथा अज्ञात ही होती है| इसीलिए ‘ऐसे विद्वानों’ से उस ‘सांस्कृतिक वर्चस्ववाद’ की ‘भेद्यता को भेदने का कहीं से कोई संभावना ही नहीं दिखती होती है| इसीलिए ऐसा उपाधि धारी व्यक्ति निर्जीव बौद्धिक हुआ, क्योंकि वह सांस्कृतिक वर्चस्ववाद की कठोर सीमाओं के बाहर सोच भी नहीं रख सकता। ऐसी स्थिति में ऐसे व्यक्तियों की सभी उपाधियाँ और सभी पदवियाँ भी ‘उसी सांस्कृतिक वर्चस्ववाद की चासनी में लिपटी हुई होती है। ऐसे व्यक्तियों के सभी अवधारणाओं में, सिद्धांतो में और क्रियाओं में कोई पैरेडाईम शिफ्ट नहीं होता। ऐसा व्यक्ति किसी भी समाज में कोई मौलिक बदलाव नहीं कर सकता है| ऐसा ‘निर्जीव बौद्धिक’ तत्कालीन विश्व में ज्ञात एवं उपलब्ध कुछ सुधारात्मक समाधान देता दिखता है, लेकिन कोई क्रान्तिकारी बदलाव  नहीं होता है| भारत की दुर्दशा के साथ यही सब है|

यदि कोई समस्या इतिहास और भूगोल में विशिष्ट है और अकेला भी हो, तो उस ‘सांस्कृतिक वर्चस्ववाद’ को ही तथ्यात्मक रुप में सत्य और सही मानने और उसी के आधार पर समाज में कोई भी मौलिक और गहरे समाधान की संभावना नही होती। इसी कारण भारत में भी जाति व्यवस्था’ की समस्या का समाधान अभी तक नहीं निकल पाया। ये राष्ट्रीय नायक राजनीतिक समाज और ‘नागरिक समाज’ की अवधारणा, उसकी सूक्ष्म क्रियाविधि और उसके आवश्यक परिणाम को नहीं देख पाए हैं, इसीलिए उन्हें समझ भी नहीं पाए हैं| ऐसे में समस्त जन गण सहित राष्ट्रीय नायक भी तरह तरह के विलाप करते हुए दिखते हैं| राजनीतिक समाजवह समाज होता है, जिनका प्रशासन, व्यवस्था, पुलिस, सेना, मीडिया, शिक्षा एवं आर्थिक तंत्र पर नियंत्रण होता है| इस ‘राजनीतिक समाज’ के अतिरिक्त अन्य सामान्य जन गण ही ‘नागरिक समाज’ कहलाते हैं| किसी भी देश को ‘राजनीतिक स्वतन्त्रता’ मिलने पर यही ‘राजनीतिक समाज’ ही लाभान्वित होता है और सामान्य ‘नागरिक समाज’ इस ‘राजनीतिक स्वतंत्रता’ से लाभान्वित नहीं होती है| इसमें ‘नागरिक समाज’ उसी देश के ‘राजनीतिक समाज’ के लाभों के ‘रिस जाने’ (Seepage) से लाभान्वित होती रहती है, और इसी को “विकास का रिसना सिद्धांत’ (Seepage Theory of Development) कहते है| ऐसे लाभों को ‘नागरिक समाज’ में “विकास” होता दिखाया जाता रहता है|

कुछ ‘निर्जीव बौद्धिक’ ऐसे भी होते हैं, जिन्हें समाज एवं व्यवस्था के वृद्धि (Growth), ‘विकास’ (Development), और संवर्धन (Improvement) में अन्तर समझ मे नहीं आताऐसे ‘निर्जीव बौद्धिकों’ में ‘तथाकथित बौद्धिकों’ के अतिरिक्त राजनेताओं के साथ साथ ‘उच्चस्थ नौकरशाह भी शामिल हैं| सामान्य जन गण सीमेंट की खपत में वृद्धि को ही विकास समझता है, क्योंकि यह सब देखने के लिए मानसिक दृष्टि की आवश्यकता नहीं होती है| सीमेंट की खपत में ऐसी ही ‘वृद्धि को संपादित कर कई राजनेता अपने को ‘युग पुरुष बनने का स्वप्न देखते रहते हैं। ऋण मुक्त वित्तीय कर्ज, अनुदान, एवं दान आदि देकर किसी की आय में वृद्धि बताना विकास नहीं होता। इससे लोगों की उत्पादन क्षमता में संवर्धन नहीं होता, अर्थात यह सक्षमता उपागम (Capability Approach) नहीं है। सक्षमता उपागम ही संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP) के ‘विकास की स्वीकृत अवधारणा है, जिसे अमर्त्य सेन ने दिया था। इसके लिए 1998 में उन्हें नोबेल पुरस्कार से सम्मानित भी किया गया। चूंकि यह आय में वृद्धि मात्र विकास नहीं है, इसिलिए ऐसा क्षेत्र या राज्य या देश विगत पच्चीस वर्ष पहले जिस वैश्विक या प्रांतीय रैंकिंग में थे, आज भी वही है। 

यदि समाज को बदलना है, राष्ट्र का नवनिर्माण करना है और नया भारत बनाना है, तो इसके लिए सजीव बौद्धिक बनिए और तैयार कीजिये। अन्य कोई विकल्प भ्रम मात्र है|

आचार्य प्रवर निरंजन जी

अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान,

बिहटा, पटना, बिहार, भारत|

गुरुवार, 23 अक्टूबर 2025

सत्य भी गलत क्यों होता है

एक ही ‘तथ्य’ (Fact) के अनेक ‘सत्य’ (Truth) होते हैं| इसीलिए एक सामान्य जन गण यह समझ नहीं पाता है कि वह किसको ‘सही’ (Correct) मानकर आगे बढे? भारत के भी अधिकतर युवा एक ही ‘तथ्य’ के इतने ‘सत्य’ जानते हैं कि खुद भी भ्रमित हो गये हैं और समाज को भ्रमित करने में लगे हुए हैं| दुखद यह है कि भारत की युवा शक्ति आज सबसे कम महत्व के मुद्दों में डूब गए हैं, और उनको अपने जीवन को जीने और अपने व्यक्तित्व को निखारने के लिए उनके पास समय ही नहीं बचा है|

युवा शक्ति ही सृजनात्मक होता है| बाकी लोग तो या तो थके हुए है, या पके हुए हैं, और कुछ शेष बचे भ्रमित हैं| ‘थके हुए’ वे होते हैं, जो यह मानते हैं कि बाकी सब लोग मूर्ख हैं और अब कोई बदलाव संभव नहीं है, और ऐसे लोग यही सोचते हुए ‘विदा’ भी हो जा रहे हैं| ‘पके हुए’ लोग यह सोचते हैं कि उनका ‘फंडामेंटल’ यानि उनका मौलिक विचार एवं आदर्श एकदम ‘परफेक्ट’ है, परन्तु उनके सफल परिणाम देने की शर्त यह है कि सभी लोग उनके झंडे के नीचे आ जाए, यानि उनका नेतृत्व स्वीकार कर ले और अपना समस्त संसाधन इनके लिए झोंक दे| भ्रमित लोग वे हैं, जो आज तक पहले की मान्यता और पहले से चले साहित्यों के निर्धारित ढाँचा से बाहर निकलते नहीं है और पूर्व से स्थापित ‘ढांचागत मानसिक जेल’ में ही उछाल कूद करते हैं, और सफल होने का सपना आम जनगण को दिखाते रहते हैं|  

युवा शक्ति ही देश एवं समाज को बदलने वाला उर्जावान क्षमता का उपकरण है| ये उत्साही भी होते हैं, समर्पित भी होते हों, और संवेदनशील भी होते हैं| ये लोग तर्कों को समझते भी हैं और उसका अनुपालन भी करते हैं| ये लोग ‘पके हुए’ की तरह ‘जिद्दी’ नहीं होते हैं| चूँकि इन्हें अभी लम्बा समय तय करना, यानि लम्बा जीवन जीना है, और इसीलिए ये भविष्य को बेहतर करना भी चाहते हैं| ये लोग नयी तकनीकों को समझते भी है, अपनाते भी हैं, और उसका जबरदस्त उपयोग भी करते हैं| ये सूचनाओं के सृजन कर्ता भी है और उसके वैश्विक प्रचारक भी है| ये युवा ‘जोश’ में होते हैं, लेकिन उस ‘जोश’ को ‘होश’ में रखना समाज का काम है, और यह काम ‘तथ्य’ एवं ‘सत्य’ के एप्रकृति को ढंग से जानने के बाद का होता है|

भारत में अपने विचारों को लोकप्रिय बनाने के क्रम में लोग ढोंग, पाखण्ड, कर्मकाण्ड और अंधविश्वास का इस तरह विरोध करते हैं, कि मानों मानव एक आदमी नहीं होकर एक मशीन है| दरअसल ऐसे क्रान्तिकारी लोग भी इन ढोंग, पाखण्ड, कर्मकाण्ड और अंधविश्वास की प्रकृति को समझते नहीं होते हैं| इससे युवा अपने जीवन का एक सूत्री कार्यक्रम इसी के विरोध को बना लिया है| इन लोकप्रिय आन्दोलनों से ऐसे लोगो की किताबे और वीडियो से कमाई खूब हो रही है, और युवा शक्ति अपने जीवन, समाज और राष्ट्र निर्माण के अन्य अनिवार्य क्षेत्रों को पूरी तरह से भूल गये हैं| ये विद्वान् ढोंग, पाखण्ड, कर्मकाण्ड और अंधविश्वास से सबंधित ‘नव ज्ञान’ और ‘अनुसंधान’ के नाम पर तरह तरह की झूठे एवं सच्चे साहित्य बनाते हैं और बेच कर कमाई करते रहते हैं| यह उनकी अज्ञानता है या उनका कोई और मंशा, वे सब वही जाने, लेकिन इतना तो स्पष्ट है कि वे यह नहीं जानते हैं कि ‘तथ्य’ और ‘सत्य’ क्या होता है?

कोई भी किसी भी ‘तथ्य’ का ‘सत्य’ या ‘ज्ञान’ को किसी एक ‘वस्तुनिष्ठ दृष्टिकोण’ से नहीं जान सकता है| हर  ‘सत्य’ या ‘ज्ञान’ किसी विशेष का ही ‘परिप्रेक्ष्य’ (Perspective) यानि ‘दृष्टिकोण’ मात्र होता है| इसलिए किसी ‘तथ्य’ का कोई भी ‘सत्य’ नहीं होता है, सिर्फ उसका दृष्टिकोण ही होता है| यह दृष्टिकोण यानि उसका यह ‘सत्य’ भी उसके भूगोल, इतिहास (और इसीलिए उसकी संस्कृति), वर्तमान समय या सन्दर्भ, उसका अनुभव एवं उसका बौद्धिक स्तर, और उसके हित एवं उसकी मंशा से निर्धारित होता है| इसलिए किसी भी ‘तथ्य’ के ‘सत्य’ को शाश्वत, सार्वभौम और वस्तुनिष्ट नहीं कहा जा सकता| दरअसल यह ‘सत्य’ मानव द्वारा निर्मित एक ‘भ्रम’ ही है| हर मानव अपनी सुविधा के अनुसार अपने विशेष दृष्टि से ‘सत्य’ की रचना करता है|

जिस ‘सत्य’ को ‘ज्ञान’ कहा जाता है, उस ‘सत्य’ का निर्माण मानव की जीवन- शक्ति ही गढती है| इसीलिए हर व्यक्ति या समाज अपने अपने हितों की पूर्ति के लिए नयी नयी सच्चाइयों को बनाता रहता है| इन सच्चाइयों को बनाकर वह सामाजिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों का निर्माण कर सामाजिक ढाँचा की ऊँची दीवारों का निर्माण करता रहता है, ताकि सामान्य लोग इन घेरों से बाहर नहीं सोचे| मैं इन्ही घेरों को उनका ‘मानसिक जेल’ कहता हूँ| भारत के अनेक समस्यायों का समाधान इसीलिए नहीं हो पाया है, क्योंकि लोग व्यक्तियों के डिग्रियों को गिन कर उन्हें आदर्श बनाते है, जबकि उनकी सभी डिग्रियां उन्ही घेरों के अन्दर की सामग्री से ही सम्बन्धित रहती है| विचारों में ‘पैरेड़ाईम शिफ्ट’ के बिना कुछ भी मौलिक बदलाव संभव नहीं है| इसीलिए ये विद्वान् अभी तक असफल हैं|

चूँकि एक ही ‘तथ्य’ का अनेक दृष्टिकोण अनेक ‘सत्य’ दे सकता है, इसलिए एक ही ‘तथ्य’ को सम्यक ढंग से समझने के लिए उस व्यक्ति के दृष्टिकोण को समुचित ढंग से समझने के लिए उस व्यक्ति की नीयत के साथ उनके भी सांस्कृतिक जड़ता, परिस्थिति और उनके समय को जानन पड़ता है| इसीलिए कहा जाता है कि ‘सत्य’ स्थिर नहीं होता है, बल्कि ‘सत्य’ सदैव ही गतिशील रहता है| हम किसी भी ‘सत्य’ को उसी रुप में जानते हैं, जैसा हम स्वयं हैं या जिस रुप में हम जानना चाहते हैं| इसीलिए किसी भी ‘सत्य’ को लचीला बनाइए, उसके बहुआयामी पक्ष को समझिये, और उनके लिए खुले एवं व्यापक दृष्टिकोण अपनाइए|  

कोई भी ‘ज्ञान’ यानि ‘सत्य’ कभी भी ‘वस्तुनिष्ठ’ नहीं होता है, बल्कि वह ‘ज्ञान’ ‘व्यक्तिनिष्ठ’ ही होता है| यह ‘वस्तुनिष्ठता’ सदैव ही ‘दृष्टिकोण – निष्ठता’ होता है और उसके बाहर कभी जा ही नहीं सकता| यह ज्ञान ही समाज के सांस्कृतिक एवं नैतिक मूल्यों के सम्बन्ध में ‘मूल्यदर्शन’ बन जाता है| इस तरह, ये सांस्कृतिक एवं नैतिक मूल्य भी ‘दृष्टिकोण सापेक्ष’ है, अर्थात ये मूल्य भी समय एवं परिस्थिति के सापेक्ष गतिमान रहता है|

क्वांटम भौतिकी भी कहता है कि अवलोकनकर्ता की उपस्थिति स्वयं परिणाम को प्रभावित करता है| इसी तरह, एक ‘सत्य’ को बताने वाला, लिखने वाला और समझने वाला उसी को भिन्न भिन्न अर्थ देते हैं| इसीलिए ‘सत्य’ का निर्माण किया जाता है, किसी ‘सत्य’ को खोजा नहीं जाता है| ‘सत्य’ कोई निष्क्रिय और स्थिर नहीं होकर एक अनवरत सृजन की प्रक्रिया है| भारत के युवा वर्ग पुराने स्थापित सत्य का विरोध कर उसको ही तथ्य और सही बना रहे और प्रगतिशील होने का भ्रम पाले हुए हैं|

इसीलिए युवाओं से अनुरोध है कि वे वर्तमान वैज्ञानिक एवं आर्थिक परिप्रेक्ष्य में सामाजिक, सांस्कृतिक एवं नैतिक मूल्यों की व्याख्या करे और नए मूल्यों को गढ़े भी| आपको ही इनसे सम्बन्धित सत्य को और उनके अर्थ को रचना होगा| समाज के पके हुए, थके हुए, बिके हुए और भ्रमित हुए लोगों से अब कोई उम्मीद मत कीजिए| इसीलिए आप युवाओं से अनुरोध  है कि आप भी सत्य का सृजन कीजिए, और नव भारत का निर्माण कीजिए|

 आचार्य प्रवर निरंजन जी

दार्शनिक, शिक्षक एवं लेखक

अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान, बिहटा, पटना, बिहार|

रविवार, 19 अक्टूबर 2025

मैं आदमी बनूँगा – साहित्य को ज़िंदा कीजिए

मैं सुबह सुबह टहलने के समय एक विद्यालय चला जाता हूँ। नन्हें मुन्ने बच्चों का विद्यालय – ‘बुद्ध इनोवेटिव माइण्ड स्कूल’। कुछ बच्चे घेर लेते हैं, जिनके लिए मै 'दादा सर' होता हूँ। मैं अक्सर उन बच्चों में  बड़े सपने बनाने, जगाने, और गढ़ने के लिए उनसे सवाल करता रहता हूँ कि तुम बड़ा होकर क्या बनोगे? उन सपनों को आकार देने, उन सपनों में रंग भरने और उन सपनों को जीवन्त बनाने के लिए उनके सपनों को कल्पना लोक में विचरण भी कराता रहता हूँ।

अल्बर्ट आईन्स्टीन ने कहा है कि जीवन में कल्पना ही सबसे महत्वपूर्ण है। कल्पना ही पहले विचार बनते हैं और फिर वास्तविकता भी। एक कार्यालय का एक कलर्क आईन्स्टीन खिड़की से बाहर उस पेंटर को देख रहा था, जो सामने दूर चर्च की बाहरी दीवारों की रंगाई पुताई कर रहा था। उसने कल्पना की कि यदि पेंटर वहाँ से गिरेगा, तो क्या होगा? यदि वह अन्तरिक्ष में गिरा, तो क्या होगा, अदि आदि। गणित में रुचि रखने वाला वह कार्यालय कलर्क इसी कल्पना को आगे बढाते हुए ‘सापेक्षिता का विशेष सिद्धांत' दिया और एक दशक बाद ‘सापेक्षिता का सामान्य सिद्धांत’ दिया। वह ‘कलर्क’ अल्बर्ट आईन्स्टीन के नाम से विश्व विख्यात वैज्ञानिक हुआ| कल्पना की शक्ति का उपयोग कर स्टीफन हाकिन्स ने ब्रह्माण्ड का रहस्य खोल दिया। बच्चों में कल्पना की शक्ति और समझ बढाना बहुत जरूरी है। भारतीय राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने अपनी पुस्तक “इग्नाइटेड माइण्ड” में यही सन्देश दिया है|

तुम क्या बनोगी? एक बच्ची ने बताया कि वह डाक्टर बनेगी। वाह, डाक्टर! तब तो मैं जब बीमार पड़ जाऊँगा, तब तो तुम मुझे सुई नहीं देकर सिर्फ पीने वाले दवाई ही दोगीहाँ, दादा सर, और आपके घर भी आ जाऊँगी आपको देखने। एक बच्चे ने बताया कि वह बड़ा होकर ‘बड़ा (समृद्ध) आदमी’ बनेगा। यह ‘बड़ा आदमी’ क्या होता है? दादा सर, बड़ा आदमी के पास बड़ा घर होता है, बड़ी गाड़ी होती है, बहुत पैसा होता है। वाह, मैंने कहा। तब तो मैं भी तुम्हारी गाड़ी में घूमूँगा। हाँ, दादा सर, एक सीट आपके लिए रहेगा। उसकी दीदी बोली कि उस (बडे़) घर में मेरे लिए एक कमरा भी होगा। इसी तरह के अनेक सवाल होते हैं और जबाब भी आते हैं। मेरा काम सिर्फ यह रहता है कि मैं उन बच्चों को यह बताऊँ कि वे बच्चे अपने सपनों की वास्तविक उड़ान कैसे भरेंगे?

एक दिन एक छोटा बच्चा – अंकुश, (गाँव मुसेपुर, बिहटा) मेरे पास आया| मैंने उससे पूछा कि तुम बड़ा होकर क्या बनोगे?

उसने बड़ी सरलता से, और बड़ी सहजता से, लेकिन बड़ी दृढता से जबाब दिया - मैं बड़ा होकर “आदमी” बनूँगा

 इसका जबाब तो एकबारगी साधारण लगा, पर मैं इस ‘असमान्य जबाब’ से ठिठक गया। वैसे ही, जैसे भारत के राष्ट्रपति अब्दुल कलाम साहब एक बार गुजरात के आनन्द के एक विद्यालय की एक  छात्रा स्नेहल ठक्कर के जबाब से ठिठक गए थे। उसने बच्चों से पूछा था कि ‘तुम्हारा सबसे बड़ा दुश्मन कौन है’? विविध जबाबों में एक जबाब ने उन्हें चौका दिया था।

छात्रा स्नेहल ठक्कर ने बताया कि 'गरीबी' ही हमारा सबसे बड़ा दुश्मन है। उनकी यह पुस्तक 'इग्नेटेड माइन्ड' उसी बच्ची को समर्पित है। ‘गरीबी’ के कारण ही आदमी ‘अज्ञानी’ रह जाता है, और उसके व्यक्तित्व का महत्तम विकास नहीं हो पाता है| वह अपने समाज और मानवता को अपनी क्षमता के अनुरुप नहीं दे पाता है||

अब, मेरे सामने सबसे बड़ा प्रश्न यह था कि ‘आदमी’ बनने का तरीका क्या होगा? क्या साहित्य ही एक ‘वनमानुष’ को ‘मानुष’, यानि ‘आदमी’ बनाता है? निश्चिततया ‘संवाद’ ने ही एक ‘पशु मानव’ (Animal Man) को ‘सामाजिक मानव’ (Social Man/ Homo Socius) बनाया, और फिर उसे ‘निर्माता मानव’ (Homo Faber) भी बनाया| इसी संवाद ने इसे आज ‘वैज्ञानिक मानव’ (Homo Scientific) भी बनाया| इसी ‘संवाद’ ने ही “साहित्य” को जन्म दिया और विकसित भी किया| सबका हित करना या समाज का हित करने वाला सामग्री ही 'साहित्य’ है|

लेकिन एक पशु को मानव होना ही पर्याप्त नहीं था, और है| उसे ‘आदमी’ बनना है| उसे सिर्फ एक मानव नहीं होना है, उसे ‘मानवता युक्त मानव’ होना है|

फिर साहित्य क्या है? और यह साहित्य एक ‘वन मानुस’ (वन में रहने वाला मानुस/ मानव) को ‘सभ्य एवं सुसंस्कृत मानव’, अर्थात ‘आदमी’ कैसे बनाएगा?

साहित्य मानव में सहानुभूति एवं समानुभूति जगाकर उसे संवेदनशील बनाता है| साहित्य के द्वारा हम एक दूसरे के प्रति के दुख, सुख, संघर्ष, प्रेम और अन्य भावनाओं को महसूस करने लगते हैं| साहित्य के नायक हमें उसी तरह बनने को प्रेरित करते हैं, और अनेक साहित्य इसीलिए ही रचे जाते हैं – वास्तविक एवं काल्पनिक| साहित्य में अनेक ऐसे पात्र हमें सत्य, न्याय, स्वतन्त्रता, समता, बंधुता, प्रेम, साहस, त्याग और करुणा के आदर्श प्रस्तुत करते हैं| इन साहित्यों के द्वारा व्यक्ति, परिवार एवं समाज में नैतिक मूल्यों को स्थापित करते हैं| समुचित साहित्य ही हमें तर्कशील, विवेकशील, मानवतावादी और वैज्ञानिक बनाता है| ‘सवाल खड़ा करना’ साहित्य का एक प्रमुख कार्य होना चाहिए| साहित्य ही सभ्यता और संस्कृति को मानवीय बनाता है| साहित्य ही आम-चिंतन, आत्म-अन्वेषण एवं आत्म-मूल्याङ्कन करना सिखाता है| साहित्य आत्म-भूमिका और आत्म-संतुलन का समन्वयन समझाता है|

संक्षेप में, साहित्य हमें जीवन जीने का कला और विज्ञान समझाता है, जीवन दर्शन को स्पष्ट करता है, मानव में मनुष्यता जगाता है, और मानव को ‘आदमी’ बनाता है|

इसीलिए, मानव को “आदमी” बनाने के लिए ‘साहित्य’ को ज़िंदा कीजिए|

 आचार्य प्रवर निरंजन जी

दार्शनिक, शिक्षक एवं लेखक

अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान, बिहटा, पटना, बिहार|

सोमवार, 13 अक्टूबर 2025

लोग पर्व और त्यौहार क्यों मनाते हैं ?

सभी सामान्य लोग, यानि सभी सामान्य जन गण सभी कालों में और सभी क्षेत्रों में पर्व और त्यौहार मनाते रहे हैं| इसे आप सामान्य परम्परा कह सकते हैं, और अकादमिक शब्दावली में संस्कृति का महत्वपूर्ण भाग कह सकते हैं| कुछ लोग इसे ढोंग, पाखण्ड, अनावश्यक कर्मकांड और अंधविश्वास भी मानते हैं| शायद ऐसे लोगों को पर्व और त्यौहार की मूल एवं मौलिक अवधारणा स्पष्ट नहीं होती है और इसीलिए इनसे सम्बन्धित अवैज्ञानिकता एवं इसके गलत होने का प्रमाण पत्र बाँटते रहते हैं| चूँकि ऐसे लोगों की इस सम्बन्ध में अवधारणा स्पष्ट नहीं होती, इसीलिए इनके उन्मूलन के लिए ऐसे लोगों के पास कोई कार्य योजना भी नहीं होती और इसीलिए ये सब उन्मूलित भी नहीं होती| चूँकि ऐसे लोगों को मनोविज्ञान की समझ नहीं होती, कोई दार्शनिक दृष्टि नहीं होती, इतिहास और संस्कृति की क्रियाविधि को नहीं जानते होते हैं, और वैज्ञानिकता की व्यावहारिकता का ज्ञान नहीं होता, इसीलिए ऐसे लोग सिर्फ यह कहते रहते हैं कि ये गलत है, वह गलत है| ऐसे लोग इन सभी में अर्थशास्त्र (धन की सार्थकता) ही खोजते रहते हैं| ये अपने को बौद्धिक समझ कर सुधार की व्यवहारिक विधियों की शायद कल्पना भी नहीं देख पाते| ऐसे लोग सिर्फ दूसरों में त्रुटियाँ ही देख पाते हैं|

दरअसल पर्व और त्यौहार मानव जीवन से जुड़ा हुआ एक विशेष अवसर होता है, जो जीवन में आनन्द देता है, लोगों में उत्साह भरता है, जीवन की नीरसता तथा एकाकीपन को मिटाता है और सामूहिकता का प्रतीक बनता है| इसमें आवधिकता (Periodocity) होती है, यानि यह एक निश्चित आवृति पर पुनरावृति करती रहती है| ये पर्व और त्यौहार व्यक्ति, परिवार, समाज, प्रकृति और संस्कृति में संतुलन भी बनाते हैं| पर्व का शाब्दिक अर्थ विशेष समय या अवसर होता है और त्यौहार (फारसी मूल का शब्द) या उत्सव का शाब्दिक अर्थ हर्ष एवं उल्लास का अवसर है| यह दोनों ही मानव जीवन में एक ही तरह के कार्य करता है, इसीलिए ये दोनों ही एक दूसरे के अब पर्यार्य बन गये हैं| अपनी शब्द उत्पत्ति के विशेष कारणों के बावजूद भी ये दोनों अपने कार्य रूप एवं भावना में एक समान ही हैं| इसे कोई संस्कृति की निरंतरता भी कहते हैं| यह सांस्कृतिक जड़ता के रुप में निरंतरता रखती है|

तो महती प्रश्न यह है कि पर्व और त्यौहार पर विवाद क्यों है? कुछ लोग किसी विशेष काल और क्षेत्र की संस्कृति की व्याख्या और प्रस्तुतीकरण इस तरह करते हैं, मानो कि वह संस्कृति वहाँ अकस्मात कहीं और तैयार हुई है और वहां लाकर रख दिया गया है| ऐसे लोग ‘सांस्कृतिक उद्विकास’ (Cultural Evolution) को नहीं समझते, यानि ‘सांस्कृतिक गत्यात्मकता’ (Cultural Dynamism) को नहीं जानते| कोई भी संस्कृति उस काल एवं उस क्षेत्र के ‘भूगोल’ और ‘इतिहास’ से बनती है और सदैव ही समय के साथ नए नए स्वरुप में अवतरित होती रहती है| चूँकि ‘ऐतिहासिक शक्तियाँ’ इतिहास बदलती रहती है, और ‘इतिहास का बोध’ (Perception of History) ही संस्कृति को आकार देती है, इसीलिए इतिहास और भूगोल बदलने से संस्कृति बदलती रहती है| चूँकि पर्व और त्यौहार भी संस्कृति ही है, संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, इसलिए इन पर्वों और त्योहारों को भी ऐतिहासिक शक्तियों के प्रभाव में बदलता रहना पड़ता है| आधुनिक युग में ‘बाजार की शक्तियों’ को भी ‘ऐतिहासिक शक्तियां’ ही मानी जाती है|

बुद्ध के, यानी बुद्धि के कुछ अनुयायी होने का दावा करने वाले लोग भी इन पर्वों एवं त्योहारों में बदलाव को नहीं समझते और उन्हें फिर से बुद्ध कालीन स्वरुप में ही पुनर्स्थापित करना चाहते हैं| ऐसे लोग ‘इतिहास की क्रियाविधि’ (Mechanics of History) को नहीं समझते, ‘संस्कृति की गत्यात्मकता’ को नहीं जानते, और बुद्ध काल में ही जड़ बने रहना चाहते हैं| ऐसे लोग अपने को तथागत बुद्ध के उपासक मानते हैं, और फिर भी बुद्ध के ‘अनित्यवाद’’ को नहीं समझते| बुद्ध अपने ‘अनित्यवाद’ में यह कहते हैं कि इस ब्रह्माण्ड में कुछ भी स्थायी और निश्चित नहीं है, सब कुछ समय के साथ अवश्य ही बदलता रहेगा| आपका दुःख भी बदलेगा और आपका सुख भी स्थायी नहीं रह सकता| निर्देशांक ज्यामिति (Coordinate Geometry) में तीन आयाम (x, y, z अक्षों) द्वारा किसी चीज का स्थान सुनिश्चित किया जा सकता है, लेकिन अल्बर्ट आइन्स्टीन के ‘द्वारा चौथे आयाम’ (Fourth Dimension) के रुप में ‘समय’ (Time) को स्थापित करने के बाद कोई भी चीज नित्य नहीं रह गया| हर चीज बदलने वाला स्थापित हो गया है| अभी तक चार ही आयाम सभी चीजों अनित्य बना देता है, वैसे गणितीय संगणनाओं में कुल ‘12 आयाम’ संभावित हैं| इसीलिए इन पर्वों और त्योहारों की प्रकृति और स्वभाव को स्थिर मानने या समझने की कोशिश भी पूरी मूर्खता ही है|

यदि हम कार्य प्रणालियों एवं कार्य क्षेत्रों के उद्विकास को समझना चाहे, अर्थव्यवस्था में सबसे पहले प्राथमिक ‘प्रक्षेत्र’ (Sector) ही आया| इसके बाद उद्विकास होते हुए समाज में द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ, एवं पंचम प्रक्षेत्र आया| बुद्ध स्वयं अर्थव्यवस्था के चौथे प्रक्षेत्र एवं पंचम प्रक्षेत्र में कार्यरत रहे| ‘ज्ञान का सृजन’ और ‘नीतियों या सिद्धांतों का सृजन’ क्रमश: चौथे प्रक्षेत्र एवं पंचम प्रक्षेत्र में आता है| ‘उद्विकास’ सृष्टि का नियम है, तब इन पर्वों और त्योहारों सहित संस्कृतियों का भी उद्विकास होता रहता है| इन्हें बदलना अनिवार्य परिणाम है| कोई इसे यदि ‘जड़’ (Fix) बनाना चाहता है, या फिर पुरानी अवस्था को ही पाना चाहता है, ऐसे लोगों को आप ही समझा सकते हैं|

संस्कृति समाज का साफ्टवेयर है, जो अदृश्य रहकर समाज को स्वत: संचालित करता रहता है| कार्ल जुंग ने इसी संस्कृति को ‘सामूहिक अचेतन’ (Collective Un Consciousness) कहा है, जिसके अनुसार समाज का सामूहिक प्रतिरुप (Pattern) को समाज के सदस्य गण स्वत: अनुपालित करते रहते हैं| डेनियल कुहनमैन ने अपनी पुस्तक ‘थिंकिंग फ़ास्ट एंड स्लो’ में इसे ही ‘सिस्टम एक’ बताया है, जो स्वत:स्फूर्त काम  करने वाला ‘अल्गोरिदम’ होता है| इसीलिए भी पर्वों और त्योहारों की निरंतरता बनी रहती है|

स्त्री और पुरुष अपने अस्तित्व के प्रारंभ से ही एक इकाई के रूप में जीवित और कार्यरत रहे हैं| पुरुष प्रारंभ से संग्राहक, आखेटक और पशुपालक के रुप में घर से बाहर रहा, लेकिन एक स्त्री गर्भ ठहरने से लेकर उत्पन्न संतति के देखभाल में लगी रही| स्त्रियों की पालने पोसने की इसी सहज स्वभाव ने कृषि की शुरुआत की और आवश्यक परिणति भी दी| स्त्री के इसी स्वभाव ने अर्थव्यवस्था के सभी प्रक्षेत्रों को आधार दिया| इसी कारण सभ्यता और संस्कृति की स्थापक स्त्री ही हुई| इसी स्वाभाविक प्रकृति के कारण ही स्त्रियाँ आज भी संस्कृति के संरक्षक और संवर्द्धक बनी हुई है। पर्वों और त्योहारों की निरन्तरता इन्ही स्त्रियों के कारण है, चाहे इसका जो स्वरुप बदलता रहे। पुरुष तो आजतक अपने जंगली स्वभाव से उबरने में ही लगा हुआ है|

इसीलिए पर्वों और त्योहारों की निरन्तरता बनी रहेगी| यदि इसे रोक दिया गया तो शायद मानव जीवन की तारतम्यता ही टूट जाए|अनावश्यक बौद्धिक मत बनिए, ठहरिए और इसे समझिये|

आचार्य प्रवर निरंजन जी

दार्शनिक, शिक्षक एवं लेखक

अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान, बिहटा, पटना, बिहार|

रविवार, 5 अक्टूबर 2025

संघ के 100 वर्ष और डॉ हेडगेवार ......

इस वर्ष यानि वर्ष 2025 के विजयादशमी को ‘संघ’ यानि ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ की स्थापना का शताब्दी समारोह मनाया जा रहा है| इसके संस्थापक डॉ केशव बलिराम हेडगेवार थे| इस तरह डॉ हेडगेवार इस विशाल संगठन के अधिष्ठाता (वैचारिक एवं सैद्धान्तिक आधारशिला रखने वाले) हुए, अर्थात इन्होने ही इस ‘संघ’ संगठन को ‘वैचारिक एवं दार्शनिक’ आधार  दिया| मैं अब एक ‘आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक’ दार्शनिक एवं शिक्षक हूँ, और इस नाते इस शताब्दी वर्ष में उस विशाल एवं गंभीर शख्सियत के व्यक्तित्व में झांकने का एक प्रयास कर रहा हूँ|  

चूँकि एक ही ‘तथ्य’ (Fact) के अनेक ‘सत्य’ (Truth) होते हैं, और ये सभी ‘सत्य’ अपने अपने स्थान, सन्दर्भ, पृष्ठभूमि एवं काल में ‘सही’ (Correct) होते हैं, इसीलिए कोई भी मेरे इस आलेख पर त्वरित ‘स्वत: प्रतिवर्ती क्रिया’ (Reflex Action) करने से पहले ठहर कर शान्त मन से अवलोकन करना चाहेंगे| एक ही ‘तथ्य’ के अनेक ‘सत्य’ इसलिए होते हैं, क्योंकि अवलोकनकर्ता व्यक्ति के चेतन (समझ) का स्तर और गुणवत्ता अलग अलग होता है| इस तरह वह हर व्यक्ति अपनी समझ के अनुसार सदैव ‘सही’ होता है, और इसीलिए उसका समझ ‘सत्य’ भी होता है|

किसी भी ‘तथ्य’, या ‘घटना’, या ‘आदर्श’, या ‘विचार’ को सही एवं सम्यक परिप्रेक्ष्य में समझने के लिए उसके ‘इतिहासवाद’ (Historicism) को समझना आवश्यक होता है| ‘इतिहासवाद’ के अनुसार सभी घटनाएँ अपने ऐतिहासिक परिवेश में एवं ऐतिहासिक शक्तियों के परिणामस्वरुप प्रतिफलित होते हैं| वैसे उस व्यक्तित्व को समझने के लिए यही काफी नहीं होगा| चूँकि मैं यहाँ डॉ हेडगेवार का इतिहास लिखना चाह रहा हूँ, इसलिए मुझे उनको इतिहास में ‘सामाजिक उद्विकास’’ (Social Evolution) के सिद्धांत, ‘सामूहिक अचेतन’ (Collective Un Consciousness) के सिद्धांत, ऐतिहासिक शक्तियां की क्रियाविधि (Mechanism), गैलेलियो का ‘जड़त्व’ (Inertia) तथा ‘सापेक्षिता’ (Relativity) सिद्धांत, अभिव्यक्ति का संरचनावाद (Structuralism), एवं अभिव्यक्ति का विखंडनवाद (Deconstructionism) आदि के नजरिए से देखना समझना प्रमुख होगा|

ये अपनी शैक्षणिक योग्यता आयुर्विज्ञान एवं चिकित्सा में स्नातक (M.B.B.S.) कलकत्ता के नेशनल मेडिकल कालेज से प्राप्त किए| अपने कलकत्ता शैक्षणिक प्रवास में वे क्रान्तिकारी राष्ट्रवादी ‘अनुशीलन समिति’ में सक्रिय भागीदारी दे रहे थे| ये कांग्रेस के सदस्य भी रहे| उसी समय कांग्रेस का खिलाफत आन्दोलन भी चला और कांग्रेस की इस भूमिका के कारण कांग्रेस से अलग हो गए| ये हिन्दू महासभा के अध्यक्ष भी रहे| वे श्री अरबिन्दो का ‘आध्यात्मिक’ सानिध्य भी प्राप्त किया और स्वामी विवेकानन्द के विचारों के काफी प्रभावित रहे| ये पश्चिमी दार्शनिक में इटली के ज्युसप मेजिनी, फ़्रांस के वाल्टेयर और जर्मनी के फ्रेडरिक नीत्शे के भी प्रशंसक थे| कोई भी सजग एवं सतर्क बौद्धिक अपने समकालीन सभी विशिष्ट क्रान्तिकारी दार्शनिकों एवं घटनाओं से प्रभावित रहता है| लेनिन की रुसी क्रान्ति इनके युवास्था की सबसे बड़ी वैचारिक क्रान्ति थी और एक अति पिछड़े हुए यूरोपीय राष्ट्र का नव निर्माण प्रारंभ हो रहा था| इनके जीवन का सबसे प्रेरक व्यक्ति इटली का एंटोनियो ग्राम्शी था, जो इनके समकालीन था| इन दोनों का जन्म और मृत्यु समय लगभग एक ही है| यदि कोई ‘संघ’ के वैचारिक अधिष्ठान के मूल्याङ्कन में इन घटनाओं की उपेक्षा करता है, या इनका ध्यान नहीं रखता है, तो स्पष्ट है कि वह मूल्याङ्कन मात्र सतही होगा|

नीत्शे ने घोषणा कि ईश्वर मर चुका है, और अब मनुष्य अतिमानव बनने के ‘स्वयं’ को तैयार रखे| इन्होने अपनी स्वतंत्रता और मूल्यों के निर्माण एवं पुनर्मूल्यांकन पर काफी जोर दिया| वाल्टेयर ने न्याय, समता, स्वतंत्रता एवं बन्धुता का समर्थन किया| मेजिनी का राष्ट्रवाद और इटली का एकीकरण प्रमुख प्रभावी विचार रहे| विवेकानन्द भारतीय समाज से जातिवाद, पाखण्ड एवं अत्यधिक कर्मकाण्ड को मिटाना चाहते थे| इन सभी के प्रभाव का योगदान इनके व्यक्तित्व मूल्याङ्कन में दिखना चाहिए|

एंटोनियो ग्राम्शी के वैचारिक दर्शनों में सबसे प्रमुख ‘सांस्कृतिक वर्चस्ववाद’ (Cultural Hegemony), ‘राजनीतिक समाज (Political Society) एवं नागरिक समाज’ (Civil Society), ‘राष्ट्रवाद’ एवं ‘बौद्धिकता के विकास के लिए शिक्षा’ रहा| एंटोनियो ग्राम्शी अपने समय का सबसे सशक्त क्रान्तिकारी दार्शनिक था, जिसने कार्ल मार्क्स के दर्शन को ख़ारिज करते हुए एक नयी व्याख्या दिया| इनका जीवन डॉ हेडगेवार के जीवन के सामानांतर रहा| डॉ हेडगेवार के दर्शन एवं कार्यान्वयन में ये संकल्पनाएँ प्रस्फुटित होता दिखता है| इन संकल्पनाओं को समझे बिना डॉ हेडगेवार का सम्यक इतिहास लिखना अधुरा है|

डॉ हेडगेवार के गुजर जाने के बाद चीन में माओ त्से तुंग आए और अपनी ‘महान सांस्कृतिक क्रान्ति’ के द्वारा एक अत्यन्त पिछड़े हुए राष्ट्र को वह आधार दिया, जिस पर आज का शक्तिशाली चीन खड़ा है| यह ग्राम्शी के ‘सांस्कृतिक वर्चस्ववाद’ के सिद्धांतों की समझ और कार्यान्वयन का परिणाम है| यही समझ डा हेडगेवार में भी थी| संभवत: इसीलिए वे ‘राजनीतिक समाज’ के लिए स्वतन्त्रता आन्दोलन के पक्षधर नहीं थे, और वे ‘नागरिक समाज’ के समावेशी पुनर्निर्माण चाहते थे| वे भारतीय समाज के सामाजिक सांस्कृतिक रूपांतरण के समर्थक थे| समाज में बौद्धिकता के समस्त विकास की आवश्यकता को समझते थे| यह ध्यान देने की बात है कि वर्ष 1925 में जिस ‘संघ’ की स्थापना हुई, उसमे सभी प्राथमिक सदस्यों की कुल संख्या मात्र 15 के लगभग थी और ये सभी 10 से 12 वर्ष के आयु समूह थे| क्या उन्हें युवा या प्रौढ़ उम्र के लोग नहीं मिल रहे थे, या वे समस्त नागरिक मूल्यों एवं संस्कारों के साथ बौद्धिकों का नव निर्माण कर नए ‘नागरिक समाज’ की नींव देना चाहते थे? यह समझने की बात है|

यह भी ध्यान देने की बात है कि ‘संघ’ की स्थापना के अगले ही वर्ष इस संघ का नामकरण ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ हो गया| आज विदेशों में ‘हिन्दू स्वयंसेवक संघ’ स्थापित है| क्या डॉ हेडगेवार ‘हिन्दू स्वयंसेवक संघ’ स्थापित नहीं कर सकते थे? राष्ट्रीय शब्द के लिए ‘राष्ट्र’ को समझना आवश्यक है| ‘राष्ट्र’ एक संस्कृति है, जो एक निश्चित भूगोल का ऐतिहासिक परिणाम होता है| विदेशों के अधिकतर छोटे देशों में ‘राष्ट्र-राज्य’ (Nation- State) की संकल्पना है, जबकि भारत जैसे बहु सांस्कृतिक देश में ‘राज्य –राष्ट्र’ (State Nation) की संकल्पना है|  भारत का एक निश्चित एवं सुरक्षित भूगोल रहा है और भारत के इस भूगोल का एक लम्बा इतिहास भी रहा है| इसीलिए भारत का राष्ट्र एक विविधता में एकता वाली संस्कृति (सामूहिक अचेतन) है|

‘हिन्दू’ शब्द अपनी उत्पत्ति से ‘भौगोलिक अर्थ रखता रहा, जिसका अर्थ ‘हिन्द स्थान’ या ‘हिन्दू स्थान’ (हिंदुस्तान) रहा है| बाद के समय में ‘हिन्दू’ एक सामाजिक और सांस्कृतिक संकल्पना बन गयी| आज यह ‘हिन्दू’ एक सम्प्रदाय (पन्थ) यानि धार्मिक स्वरुप में प्रचलित होता जा रहा है| यही भावार्थ इसे विवादास्पद बनाता है|

‘संघ’ के शताब्दी वर्ष में डॉ हेडगेवार के व्यक्तित्व मूल्याङ्कन के लिए मैंने अपनी समझ से सामग्री उपलब्ध कराया है, लेकिन उनका मूल्यांकन आपको अपने विवेक से करना है|

आचार्य प्रवर निरंजन जी

दार्शनिक, शिक्षक एवं लेखक

अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान, बिहटा, पटना, बिहार| 

विजनरी लीडर : सरदार पटेल

सरदार पटेल अर्थात भारत के एक महान व्यक्तित्व सरदार बल्लवभाई पटेल| इन्हें ‘विजनरी लीडर’ (Visionary Leader) भी कहा गया| ‘विजन’ वाला ‘लीडर’, य...