(मैं आज से दो दशक पहले फारबिसगंज, बिहार में कोषागार
पदाधिकारी के रूप में पदस्थापित हुआ था। मेरे एक साहित्यिक मित्र ने मुझे वहाँ जाने
के क्रम में बताया कि श्रद्धेय महान साहित्यकार फणीश्वरनाथ रेणु का घर वहीं है।
मेरे प्रधान लिपिक ने पहले ही दिन रेणु जी के बडे सुपुत्र से मिलवाया, जो उस समय मुखिया (ग्राम
पंचायत प्रमुख) थे। अगले ही रविवार, मैं एक शिक्षक के साथ उनके गाँव औराही हिंगना
में मौजूद था। उनके यहाँ उस दिन एक आस्ट्रेलियाई हिन्दी साहित्यकार ‘रेणु के
साहित्य’ पर अध्ययन के लिए आया हुआ था। मैं भी वहाँ दिन भर रहा। शाम में वह शिक्षक
स्थानीय अंगीभूत महाविद्यालय के एक हिन्दी प्राध्यापक श्री कमल प्रसाद सिंह बेखबर जो के पास ले गए। उन्होंने मुझे
उनके ही द्वारा सम्पादित एक अनियतकालीन पत्रिका "शैली" दिया। उसमें कई
आलेख और कहानियाँ पढी। मुझे भी विचार आया कि मैं कुछ लिखूँ। यह रेणु भूमि का
प्रभाव था। सो उसी रात्रि में, मैंने अपनी प्रथम
लेखन का शुभारम्भ किया। पर द्वन्द था कि 'क्या लिखूँ?' इस आलेख का आज पुनः सम्पादित स्वरूप प्रस्तुत कर रहा हूँ|)
मैं क्या लिखूँ?
मैं सोच रहा हूँ कि मैं भी कुछ लिखूँ, पर यह सोच कर ठिठक जाता
हूँ कि मैं क्या लिखूँ? मैं इसलिए नही
ठिठक जाता हूँ कि मुझे लिखना नहीं आता, या मैं कुछ भी नहीं लिख सकता। मैं भी, कुछ भी लिख सकता हूँ,
किसी भी घटना का कोई ब्यौरा, विवरण, वृतांत, कविता, कहानी, या अन्य कोई आलेख| लेकिन
सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि मैं अपने लेखन के द्वारा क्या सन्देश, या समाधान देना
चाहता हूँ, और यही सोच कर मैं ही ठिठक जाता हूँ, कि मैं क्या लिखूँ? यानि मेरे लेखन
का विषय क्या हो, यानि मेरा लेखन
समाज के किस उद्देश्य की सार्थकता स्थापित या साबित करेगा? दरअसल भाषा तो संपर्क का साधन माना जाता है, तो
साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता है| तब मेरा लेखन समाज के किस पक्ष का दर्पण
बने? इसी दर्पण के पक्ष यानि उद्देश्य या सार्थकता की अस्पष्टता के कारण ही तो मैं
ठिठक जा रहा हूँ कि मैं क्या लिखूँ?
मैं चाहूँ, तो मैं भी एक ‘फुलवा’ की कहानी लिख सकता हूँ| ‘फुलवा’ नाम की एक युवा लड़की एक गाँव में रहती थी| उसे पड़ोस के ही एक गाँव के एक लड़के से प्यार हो गया| बात छुपने वाली नहीं थी, लेकिन हलके धुएँ की तरह पूरे इलाके में फ़ैल गयी थी| प्यार के परवान में दोनों ने भाग जाने का निर्णय लिया| लेकिन भागने से पहले ही दोनों पकड़ लिए गए| पंचों ने धर्म और संस्कृति की दुहाई देकर फाँसी पर ही लटका दिया| कहानी ख़त्म हो गई| और मैं इस कहानी के ढाँचे का मनमाफिक विस्तार भी दे सकता था, एक लम्बा साहित्य हो जाता| लेकिन समाज और सन्दर्भ में इस कहानी के द्वारा मैं क्या सकारात्मक या सृजनात्मक सन्देश देना चाहता था, यही द्वन्द मझे लिखने में आगे नहीं बढ़ने दे रहा था| वैसे भी ई० रूजवेल्ट कहतीं है कि छोटे स्तर के लोग व्यक्तियों (व्यक्तिवाचक संज्ञा जैसे किसी नाम, किसी जाति या धर्म के नाम आदि के व्यक्ति) का ब्यौरा खूब देते हैं, मध्यम स्तर के लोग घटनाओं (व्यक्तिवाचक संज्ञाओं के कार्यों या घटनाओं) का विवरण ज्यादा देते हैं, और बड़े चिन्तक विचारों एवं आदर्शों पर ही स्थिर रहते हैं, और विमर्श करते हैं| लेकिन इस कहानी से तो कोई अलग या स्तरीय विचार या आदर्श निकलता नहीं दिख रहा था, और यही सब सोच कर ही तो मैं ठिठक जा रहा था, कि मैं क्या लिखूँ?
आप कह सकते हैं कि समस्या का वर्णन या विवरण भी
तो साहित्य हैं, और किसी समस्या के बारे में सामाजिक जागरूकता पैदा करना भी तो एक
साहित्य है| मैं अपने आसपास देखता हूँ, कि इस विधा की कलाकारों की तो भारत में बाढ़
ही आई हुई हैं, अधिकतर लेखक या साहित्यकार “विधवा- विलाप वर्णन” में, यानि “नाकारा व्
नकारात्मक” लेखन में पारंगत हो चुके हैं| लेकिन समाधानपरक आलेखन में भारी कमी
दिखती है| दरअसल ‘साहित्यिक रोना’ एक ऐसी विधा है, जिससे ऐसा लगता है कि उन्हें समाज
की स्वीकृति आसानी से मिल जा सकती है, यानि ऐसे ‘साहित्यकार’ को सामाजिक सहानुभूति
बहुत आसानी से मिल जाती है| आप ‘रोने’ का वर्णन कर किसी साधारण समाज (भारत में इसी
की व्यापकता है) में ‘लोकप्रियता’ बहुत आसानी से पा सकते हैं, क्योंकि साधारण
समझदारी के लोग अपनी “संज्ञानात्मक बौद्धिकता” (Cognitive Intelligence) तक ही सीमित होते हैं, इसे ही ‘सामान्य बुद्धिमत्ता’
भी कहते हैं| साधारण लोगों में ‘भावनात्मक (Emotional) बुद्धिमता’ नहीं के बराबर
होती है, और ‘सामाजिक (Social) बुद्धिमत्ता’ एवं ‘बौद्धिक (Wisdom) बुद्धिमत्ता’
तक तो उनके विचार ही नहीं छू पाते हैं| ‘सामान्य बुद्धिमत्ता’ में तो ‘शारीरिक
ज्ञानेन्द्रियों’ से ही काम ‘दौड़’ जाता है, लेकिन इसके उपरी स्तर के सभी
बुद्धिमत्ता के लिए ‘मानसिक ज्ञानेन्द्रियों’ का भी गंभीर एवं गहरे स्तर पर उपयोग
करना पड़ता है| इन उपरी स्तरों के चिंतन एवं लेखन के लिए तो “आलोचनात्मक मूल्याङ्कन”
की क्षमता एवं ‘बक्से से बाहर’ (Out-of-Box) चिंतन की आवश्यकता हो ही जाती है| तो सवाल यह उठ रहा था कि क्या मैं भी उसी “रोने”
की ‘चूहा दौड़’ में शामिल हो जाऊं, या कोई ‘पैरेड़ाईम शिफ्ट’ (Paradigm Shift) करता
हुआ कोई नवाचारी (Innovative) पक्ष रखूँ? यही सब सोच कर ही तो ठिठक जाता हूँ कि
मैं क्या लिखूँ?
मुझे लगता है कि एक पशु की तरह ही कोई बच्चा
जनता (जन्म देना) है, उसे पालता -पोषता है, और फिर उसे ही देखते हुए मर भी जाता है, तो क्या मैं
भी अपने को उसी ‘पाशविक’ स्तर तक ही सीमित कर लूँ? मानव तो एक ‘सामाजिक प्राणी’ (Homo
Socius) है, एक ‘निर्माता प्राणी’ (Homo Faber) भी है, और ‘वैज्ञानिक प्राणी’ (Homo
Scientific) भी है, तो क्या मेरे जीवन का उद्देश्य भी ‘पशुवत’ (Animilistic) ही होना
चाहिए, जो मेरे लेखन में पूरी स्पष्टता से दिखता रहे? यदि मेरे लेखन में व्यक्ति
एवं परिवार के अलावे समाज, मानवता, या प्रकृति, या समेकित रुप में भविष्य
ही शामिल नहीं हो सका, तो फिर मेरे लिखने का, या मेरा उद्देश्य ही निम्नतर हो
जायगा| मानव समाज पशुओं की तरह कोई झुण्ड या भीड़ नहीं होता है, बल्कि मानव समाज “सामाजिक
एवं सांस्कृतिक संस्थाओं (Institutions) का एक नेटवर्क” होता है, जो पशुओं में नहीं होता है| यही सब सोच
कर ही तो मैं ठिठक जा रहा हूँ, कि मैं क्या लिखूँ?
वैसे किसी भी लेखन का दायरा समाज, सरकार एवं
संविधान को ध्यान में ही रखकर किया जाता है| सरकार तो संविधान के द्वारा ही नियमित
एवं नियंत्रित होता है| लेकिन संविधान को भी एक जीवित जीव की तरह ही समाज की बदलती
आवश्यकताओं के अनुरूप या अनुकूल बदलना पड़ता है, अन्यथा समुचित अनुकूलन के अभाव में
‘वह समाज’ ही प्रासंगिकता से बाहर हो जा सकता है, या हो जाता है| मतलब कि समाज,
सरकार एवं संविधान में सबसे प्रमुख समाज ही होता है, लेकिन उस समाज को समझने और सम्हालने
का तरीका भी सरकार एवं संविधान होकर ही जाता है| हालाँकि अधिकतर लेखक इतना सोचते
हैं, या नहीं, मैं नहीं जानता, लेकिन मुझे तो इतना अवश्य ही सोचना चाहिए| यह भी ध्यान
में रखने की जरुरत है कि ‘संस्कृति’ एवं ‘धर्म’ भी अपने प्रसंग एवं पृष्ठभूमि में
सामाजिक बेहतरी के लिए ही अपना अस्तित्व और अपने ‘आकार’ लेता है| यानि ‘संस्कृति’
एवं ‘धर्म’ को बदलते परिवेश के अनुकूलन में ‘लोचकता’ यानि ‘गतिशीलता’ रखनी पड़ती
है, अन्यथा इसकी ‘जड़ता’ सामाजिक संवर्धन के लिए घातक होता है| हालाँकि मेरे ‘फुलवा’
की कहानी में इस 'सामाजिक जड़ता’ की तो बात करती हो सकती थी, लेकिन ऐसे तथाकथित
बौद्धिक साहित्यकारों की भीड़ में मुझें भी शामिल होने में ‘कोफ़्त’ महसूस हो रही
थी, और इसीलिए मैं यहाँ पर भी ठहर ही गया|
यदि मैं अपने आप को सकारात्मक और सृजनात्मक लेखकों की श्रेणी में रखना चाहता हूँ, तो मुझे अपने में जीवन की हर स्थिति एवं परिस्थिति
में सदैव ही ‘आधे गिलास पानी’ में भरा हुआ ही पक्ष देखने का प्रयास रखना चाहिए|
हमें मानवता के भविष्य को सम्हालने की समझदारी एवं जबावदेही से तो नहीं ही हटना चाहिए,
इसीलिए हमें समाज, मानवता के साथ साथ प्रकृति को भी अपने ‘वैचारिकी’ में शामिल करना
ही चाहिए| वैसे तथ्य, साक्ष्य एवं तर्क (कारण- कार्य सम्बन्ध) पर आधारित यानि 'वैज्ञानिक' लेखन की तो समझदारी अधिकतर लेखकों में आ ही गयी है, लेकिन ऐसे लोगों की संख्या अभी भी भारत में कमतर ही है|इसी तरह समता (Equality), समानता (Equity), स्वतंत्रता, बन्धुत्व और प्राकृतिक न्याय का उद्देश्य लेखकों के जेहन में स्पष्ट रूप में होनी चाहिए। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP) के “सत्रह धारणीय विकासात्मक लक्ष्य”
(17 Sustainable Developmental Goals) भी इसी भविष्य को रेखांकित करता है| अर्थात ‘गरीबी
का खात्मा’ (No Poverty), ‘भुखमरी का समापन’ (Zero Hunger), ‘अच्छा स्वास्थ्य’ (Good
Health), ‘गुणवत्तापूर्ण शिक्षा’ (Quality Education), ‘लैंगिक समानता’ (Gender
Equality), ‘गरिमामयी जीवन’ और स्वच्छ जल एवं उर्जा आदि आदि की सुनिश्चितता की 'अन्तर दृष्टि' मुझे अवश्य ही अपने लेखन
में शामिल रखना चाहिए| अन्यथा मेरे अनुसार मेरे लेखन का औचित्यपूर्ण मकसद स्थापित
ही नहीं होता| हमें अपने लेखन में सन्दर्भों के अनुरूप इनकी गतिशीलता पर भी ध्यान
देना चाहिए|
यही सब सोच कर ही तो मैं ठिठक जाता हूँ, कि “मैं
क्या लिखूँ?”
आचार्य प्रवर निरंजन जी
अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन
संस्थान|