एक ही ‘तथ्य’ (Fact)
के अनेक ‘सत्य’ (Truth) होते हैं| इसीलिए एक सामान्य जन गण यह समझ नहीं पाता है कि
वह किसको ‘सही’ (Correct) मानकर आगे बढे? भारत के भी अधिकतर युवा एक ही ‘तथ्य’ के
इतने ‘सत्य’ जानते हैं कि खुद भी भ्रमित हो गये हैं और समाज को भ्रमित करने में
लगे हुए हैं| दुखद यह है कि भारत की युवा शक्ति आज सबसे कम महत्व के मुद्दों में
डूब गए हैं, और उनको अपने जीवन को जीने और अपने व्यक्तित्व को निखारने के लिए उनके
पास समय ही नहीं बचा है|
युवा शक्ति ही
सृजनात्मक होता है| बाकी लोग तो या तो थके हुए है, या पके हुए हैं, और कुछ शेष बचे
भ्रमित हैं| ‘थके हुए’ वे होते हैं, जो यह मानते हैं कि बाकी सब लोग मूर्ख हैं और
अब कोई बदलाव संभव नहीं है, और ऐसे लोग यही सोचते हुए ‘विदा’ भी हो जा रहे हैं| ‘पके
हुए’ लोग यह सोचते हैं कि उनका ‘फंडामेंटल’ यानि उनका मौलिक विचार एवं आदर्श एकदम ‘परफेक्ट’
है, परन्तु उनके सफल परिणाम देने की शर्त यह है कि सभी लोग उनके झंडे के नीचे आ
जाए, यानि उनका नेतृत्व स्वीकार कर ले और अपना समस्त संसाधन इनके लिए झोंक दे| भ्रमित
लोग वे हैं, जो आज तक पहले की मान्यता और पहले से चले साहित्यों के निर्धारित
ढाँचा से बाहर निकलते नहीं है और पूर्व से स्थापित ‘ढांचागत मानसिक जेल’ में ही उछाल
कूद करते हैं, और सफल होने का सपना आम जनगण को दिखाते रहते हैं|
युवा शक्ति ही देश
एवं समाज को बदलने वाला उर्जावान क्षमता का उपकरण है| ये उत्साही भी होते हैं,
समर्पित भी होते हों, और संवेदनशील भी होते हैं| ये लोग तर्कों को समझते भी हैं और
उसका अनुपालन भी करते हैं| ये लोग ‘पके हुए’ की तरह ‘जिद्दी’ नहीं होते हैं| चूँकि
इन्हें अभी लम्बा समय तय करना, यानि लम्बा जीवन जीना है, और इसीलिए ये भविष्य को
बेहतर करना भी चाहते हैं| ये लोग नयी तकनीकों को समझते भी है, अपनाते भी हैं, और
उसका जबरदस्त उपयोग भी करते हैं| ये सूचनाओं के सृजन कर्ता भी है और उसके वैश्विक
प्रचारक भी है| ये युवा ‘जोश’ में होते हैं, लेकिन उस ‘जोश’ को ‘होश’ में रखना
समाज का काम है, और यह काम ‘तथ्य’ एवं ‘सत्य’ के एप्रकृति को ढंग से जानने के बाद
का होता है|
भारत में अपने
विचारों को लोकप्रिय बनाने के क्रम में लोग ढोंग, पाखण्ड, कर्मकाण्ड और अंधविश्वास
का इस तरह विरोध करते हैं, कि मानों मानव एक आदमी नहीं होकर एक मशीन है| दरअसल ऐसे
क्रान्तिकारी लोग भी इन ढोंग, पाखण्ड, कर्मकाण्ड और अंधविश्वास की प्रकृति को
समझते नहीं होते हैं| इससे युवा अपने जीवन का एक सूत्री कार्यक्रम इसी के विरोध को
बना लिया है| इन लोकप्रिय आन्दोलनों से ऐसे लोगो की किताबे और वीडियो से कमाई खूब
हो रही है, और युवा शक्ति अपने जीवन, समाज और राष्ट्र निर्माण के अन्य अनिवार्य
क्षेत्रों को पूरी तरह से भूल गये हैं| ये विद्वान् ढोंग, पाखण्ड, कर्मकाण्ड और
अंधविश्वास से सबंधित ‘नव ज्ञान’ और ‘अनुसंधान’ के नाम पर तरह तरह की झूठे एवं
सच्चे साहित्य बनाते हैं और बेच कर कमाई करते रहते हैं| यह उनकी अज्ञानता है या उनका
कोई और मंशा, वे सब वही जाने, लेकिन इतना तो स्पष्ट है कि वे यह नहीं जानते हैं कि
‘तथ्य’ और ‘सत्य’ क्या होता है?
कोई भी किसी भी ‘तथ्य’
का ‘सत्य’ या ‘ज्ञान’ को किसी एक ‘वस्तुनिष्ठ दृष्टिकोण’ से नहीं जान सकता है|
हर ‘सत्य’ या ‘ज्ञान’ किसी विशेष का ही ‘परिप्रेक्ष्य’
(Perspective) यानि ‘दृष्टिकोण’ मात्र होता है| इसलिए किसी ‘तथ्य’ का कोई भी ‘सत्य’
नहीं होता है, सिर्फ उसका दृष्टिकोण ही होता है| यह दृष्टिकोण यानि उसका यह ‘सत्य’
भी उसके भूगोल, इतिहास (और इसीलिए उसकी संस्कृति), वर्तमान समय या सन्दर्भ, उसका
अनुभव एवं उसका बौद्धिक स्तर, और उसके हित एवं उसकी मंशा से निर्धारित होता है|
इसलिए किसी भी ‘तथ्य’ के ‘सत्य’ को शाश्वत, सार्वभौम और वस्तुनिष्ट नहीं कहा जा
सकता| दरअसल यह ‘सत्य’ मानव द्वारा निर्मित एक ‘भ्रम’ ही है| हर मानव अपनी सुविधा
के अनुसार अपने विशेष दृष्टि से ‘सत्य’ की रचना करता है|
जिस ‘सत्य’ को ‘ज्ञान’
कहा जाता है, उस ‘सत्य’ का निर्माण मानव की जीवन- शक्ति ही गढती है| इसीलिए हर
व्यक्ति या समाज अपने अपने हितों की पूर्ति के लिए नयी नयी सच्चाइयों को बनाता
रहता है| इन सच्चाइयों को बनाकर वह सामाजिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों का निर्माण कर
सामाजिक ढाँचा की ऊँची दीवारों का निर्माण करता रहता है, ताकि सामान्य लोग इन
घेरों से बाहर नहीं सोचे| मैं इन्ही घेरों को उनका ‘मानसिक जेल’ कहता हूँ| भारत के
अनेक समस्यायों का समाधान इसीलिए नहीं हो पाया है, क्योंकि लोग व्यक्तियों के डिग्रियों
को गिन कर उन्हें आदर्श बनाते है, जबकि उनकी सभी डिग्रियां उन्ही घेरों के अन्दर
की सामग्री से ही सम्बन्धित रहती है| विचारों में ‘पैरेड़ाईम शिफ्ट’ के बिना कुछ भी
मौलिक बदलाव संभव नहीं है| इसीलिए ये विद्वान् अभी तक असफल हैं|
चूँकि एक ही ‘तथ्य’
का अनेक दृष्टिकोण अनेक ‘सत्य’ दे सकता है, इसलिए एक ही ‘तथ्य’ को सम्यक ढंग से
समझने के लिए उस व्यक्ति के दृष्टिकोण को समुचित ढंग से समझने के लिए उस व्यक्ति
की नीयत के साथ उनके भी सांस्कृतिक जड़ता, परिस्थिति और उनके समय को जानन पड़ता है|
इसीलिए कहा जाता है कि ‘सत्य’ स्थिर नहीं होता है, बल्कि ‘सत्य’ सदैव ही गतिशील
रहता है| हम किसी भी ‘सत्य’ को उसी रुप में जानते हैं, जैसा हम स्वयं हैं या जिस रुप
में हम जानना चाहते हैं| इसीलिए किसी भी ‘सत्य’ को लचीला बनाइए, उसके बहुआयामी
पक्ष को समझिये, और उनके लिए खुले एवं व्यापक दृष्टिकोण अपनाइए|
कोई भी ‘ज्ञान’ यानि
‘सत्य’ कभी भी ‘वस्तुनिष्ठ’ नहीं होता है, बल्कि वह ‘ज्ञान’ ‘व्यक्तिनिष्ठ’ ही
होता है| यह ‘वस्तुनिष्ठता’ सदैव ही ‘दृष्टिकोण – निष्ठता’ होता है और उसके बाहर
कभी जा ही नहीं सकता| यह ज्ञान ही समाज के सांस्कृतिक एवं नैतिक मूल्यों के
सम्बन्ध में ‘मूल्यदर्शन’ बन जाता है| इस तरह, ये सांस्कृतिक एवं नैतिक मूल्य भी ‘दृष्टिकोण
सापेक्ष’ है, अर्थात ये मूल्य भी समय एवं परिस्थिति के सापेक्ष गतिमान रहता है|
क्वांटम भौतिकी भी
कहता है कि अवलोकनकर्ता की उपस्थिति स्वयं परिणाम को प्रभावित करता है| इसी तरह, एक
‘सत्य’ को बताने वाला, लिखने वाला और समझने वाला उसी को भिन्न भिन्न अर्थ देते
हैं| इसीलिए ‘सत्य’ का निर्माण किया जाता है, किसी ‘सत्य’ को खोजा नहीं जाता है| ‘सत्य’
कोई निष्क्रिय और स्थिर नहीं होकर एक अनवरत सृजन की प्रक्रिया है| भारत के युवा
वर्ग पुराने स्थापित सत्य का विरोध कर उसको ही तथ्य और सही बना रहे और प्रगतिशील
होने का भ्रम पाले हुए हैं|
इसीलिए युवाओं से अनुरोध
है कि वे वर्तमान वैज्ञानिक एवं आर्थिक परिप्रेक्ष्य में सामाजिक, सांस्कृतिक एवं
नैतिक मूल्यों की व्याख्या करे और नए मूल्यों को गढ़े भी| आपको ही इनसे सम्बन्धित
सत्य को और उनके अर्थ को रचना होगा| समाज के पके हुए, थके हुए, बिके हुए और भ्रमित
हुए लोगों से अब कोई उम्मीद मत कीजिए| इसीलिए आप युवाओं से अनुरोध है कि आप भी सत्य का सृजन कीजिए, और नव भारत का
निर्माण कीजिए|
आचार्य
प्रवर निरंजन जी
दार्शनिक,
शिक्षक एवं लेखक
अध्यक्ष,
भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान, बिहटा, पटना, बिहार|