गुरुवार, 23 अक्टूबर 2025

सत्य भी गलत क्यों होता है

एक ही ‘तथ्य’ (Fact) के अनेक ‘सत्य’ (Truth) होते हैं| इसीलिए एक सामान्य जन गण यह समझ नहीं पाता है कि वह किसको ‘सही’ (Correct) मानकर आगे बढे? भारत के भी अधिकतर युवा एक ही ‘तथ्य’ के इतने ‘सत्य’ जानते हैं कि खुद भी भ्रमित हो गये हैं और समाज को भ्रमित करने में लगे हुए हैं| दुखद यह है कि भारत की युवा शक्ति आज सबसे कम महत्व के मुद्दों में डूब गए हैं, और उनको अपने जीवन को जीने और अपने व्यक्तित्व को निखारने के लिए उनके पास समय ही नहीं बचा है|

युवा शक्ति ही सृजनात्मक होता है| बाकी लोग तो या तो थके हुए है, या पके हुए हैं, और कुछ शेष बचे भ्रमित हैं| ‘थके हुए’ वे होते हैं, जो यह मानते हैं कि बाकी सब लोग मूर्ख हैं और अब कोई बदलाव संभव नहीं है, और ऐसे लोग यही सोचते हुए ‘विदा’ भी हो जा रहे हैं| ‘पके हुए’ लोग यह सोचते हैं कि उनका ‘फंडामेंटल’ यानि उनका मौलिक विचार एवं आदर्श एकदम ‘परफेक्ट’ है, परन्तु उनके सफल परिणाम देने की शर्त यह है कि सभी लोग उनके झंडे के नीचे आ जाए, यानि उनका नेतृत्व स्वीकार कर ले और अपना समस्त संसाधन इनके लिए झोंक दे| भ्रमित लोग वे हैं, जो आज तक पहले की मान्यता और पहले से चले साहित्यों के निर्धारित ढाँचा से बाहर निकलते नहीं है और पूर्व से स्थापित ‘ढांचागत मानसिक जेल’ में ही उछाल कूद करते हैं, और सफल होने का सपना आम जनगण को दिखाते रहते हैं|  

युवा शक्ति ही देश एवं समाज को बदलने वाला उर्जावान क्षमता का उपकरण है| ये उत्साही भी होते हैं, समर्पित भी होते हों, और संवेदनशील भी होते हैं| ये लोग तर्कों को समझते भी हैं और उसका अनुपालन भी करते हैं| ये लोग ‘पके हुए’ की तरह ‘जिद्दी’ नहीं होते हैं| चूँकि इन्हें अभी लम्बा समय तय करना, यानि लम्बा जीवन जीना है, और इसीलिए ये भविष्य को बेहतर करना भी चाहते हैं| ये लोग नयी तकनीकों को समझते भी है, अपनाते भी हैं, और उसका जबरदस्त उपयोग भी करते हैं| ये सूचनाओं के सृजन कर्ता भी है और उसके वैश्विक प्रचारक भी है| ये युवा ‘जोश’ में होते हैं, लेकिन उस ‘जोश’ को ‘होश’ में रखना समाज का काम है, और यह काम ‘तथ्य’ एवं ‘सत्य’ के एप्रकृति को ढंग से जानने के बाद का होता है|

भारत में अपने विचारों को लोकप्रिय बनाने के क्रम में लोग ढोंग, पाखण्ड, कर्मकाण्ड और अंधविश्वास का इस तरह विरोध करते हैं, कि मानों मानव एक आदमी नहीं होकर एक मशीन है| दरअसल ऐसे क्रान्तिकारी लोग भी इन ढोंग, पाखण्ड, कर्मकाण्ड और अंधविश्वास की प्रकृति को समझते नहीं होते हैं| इससे युवा अपने जीवन का एक सूत्री कार्यक्रम इसी के विरोध को बना लिया है| इन लोकप्रिय आन्दोलनों से ऐसे लोगो की किताबे और वीडियो से कमाई खूब हो रही है, और युवा शक्ति अपने जीवन, समाज और राष्ट्र निर्माण के अन्य अनिवार्य क्षेत्रों को पूरी तरह से भूल गये हैं| ये विद्वान् ढोंग, पाखण्ड, कर्मकाण्ड और अंधविश्वास से सबंधित ‘नव ज्ञान’ और ‘अनुसंधान’ के नाम पर तरह तरह की झूठे एवं सच्चे साहित्य बनाते हैं और बेच कर कमाई करते रहते हैं| यह उनकी अज्ञानता है या उनका कोई और मंशा, वे सब वही जाने, लेकिन इतना तो स्पष्ट है कि वे यह नहीं जानते हैं कि ‘तथ्य’ और ‘सत्य’ क्या होता है?

कोई भी किसी भी ‘तथ्य’ का ‘सत्य’ या ‘ज्ञान’ को किसी एक ‘वस्तुनिष्ठ दृष्टिकोण’ से नहीं जान सकता है| हर  ‘सत्य’ या ‘ज्ञान’ किसी विशेष का ही ‘परिप्रेक्ष्य’ (Perspective) यानि ‘दृष्टिकोण’ मात्र होता है| इसलिए किसी ‘तथ्य’ का कोई भी ‘सत्य’ नहीं होता है, सिर्फ उसका दृष्टिकोण ही होता है| यह दृष्टिकोण यानि उसका यह ‘सत्य’ भी उसके भूगोल, इतिहास (और इसीलिए उसकी संस्कृति), वर्तमान समय या सन्दर्भ, उसका अनुभव एवं उसका बौद्धिक स्तर, और उसके हित एवं उसकी मंशा से निर्धारित होता है| इसलिए किसी भी ‘तथ्य’ के ‘सत्य’ को शाश्वत, सार्वभौम और वस्तुनिष्ट नहीं कहा जा सकता| दरअसल यह ‘सत्य’ मानव द्वारा निर्मित एक ‘भ्रम’ ही है| हर मानव अपनी सुविधा के अनुसार अपने विशेष दृष्टि से ‘सत्य’ की रचना करता है|

जिस ‘सत्य’ को ‘ज्ञान’ कहा जाता है, उस ‘सत्य’ का निर्माण मानव की जीवन- शक्ति ही गढती है| इसीलिए हर व्यक्ति या समाज अपने अपने हितों की पूर्ति के लिए नयी नयी सच्चाइयों को बनाता रहता है| इन सच्चाइयों को बनाकर वह सामाजिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों का निर्माण कर सामाजिक ढाँचा की ऊँची दीवारों का निर्माण करता रहता है, ताकि सामान्य लोग इन घेरों से बाहर नहीं सोचे| मैं इन्ही घेरों को उनका ‘मानसिक जेल’ कहता हूँ| भारत के अनेक समस्यायों का समाधान इसीलिए नहीं हो पाया है, क्योंकि लोग व्यक्तियों के डिग्रियों को गिन कर उन्हें आदर्श बनाते है, जबकि उनकी सभी डिग्रियां उन्ही घेरों के अन्दर की सामग्री से ही सम्बन्धित रहती है| विचारों में ‘पैरेड़ाईम शिफ्ट’ के बिना कुछ भी मौलिक बदलाव संभव नहीं है| इसीलिए ये विद्वान् अभी तक असफल हैं|

चूँकि एक ही ‘तथ्य’ का अनेक दृष्टिकोण अनेक ‘सत्य’ दे सकता है, इसलिए एक ही ‘तथ्य’ को सम्यक ढंग से समझने के लिए उस व्यक्ति के दृष्टिकोण को समुचित ढंग से समझने के लिए उस व्यक्ति की नीयत के साथ उनके भी सांस्कृतिक जड़ता, परिस्थिति और उनके समय को जानन पड़ता है| इसीलिए कहा जाता है कि ‘सत्य’ स्थिर नहीं होता है, बल्कि ‘सत्य’ सदैव ही गतिशील रहता है| हम किसी भी ‘सत्य’ को उसी रुप में जानते हैं, जैसा हम स्वयं हैं या जिस रुप में हम जानना चाहते हैं| इसीलिए किसी भी ‘सत्य’ को लचीला बनाइए, उसके बहुआयामी पक्ष को समझिये, और उनके लिए खुले एवं व्यापक दृष्टिकोण अपनाइए|  

कोई भी ‘ज्ञान’ यानि ‘सत्य’ कभी भी ‘वस्तुनिष्ठ’ नहीं होता है, बल्कि वह ‘ज्ञान’ ‘व्यक्तिनिष्ठ’ ही होता है| यह ‘वस्तुनिष्ठता’ सदैव ही ‘दृष्टिकोण – निष्ठता’ होता है और उसके बाहर कभी जा ही नहीं सकता| यह ज्ञान ही समाज के सांस्कृतिक एवं नैतिक मूल्यों के सम्बन्ध में ‘मूल्यदर्शन’ बन जाता है| इस तरह, ये सांस्कृतिक एवं नैतिक मूल्य भी ‘दृष्टिकोण सापेक्ष’ है, अर्थात ये मूल्य भी समय एवं परिस्थिति के सापेक्ष गतिमान रहता है|

क्वांटम भौतिकी भी कहता है कि अवलोकनकर्ता की उपस्थिति स्वयं परिणाम को प्रभावित करता है| इसी तरह, एक ‘सत्य’ को बताने वाला, लिखने वाला और समझने वाला उसी को भिन्न भिन्न अर्थ देते हैं| इसीलिए ‘सत्य’ का निर्माण किया जाता है, किसी ‘सत्य’ को खोजा नहीं जाता है| ‘सत्य’ कोई निष्क्रिय और स्थिर नहीं होकर एक अनवरत सृजन की प्रक्रिया है| भारत के युवा वर्ग पुराने स्थापित सत्य का विरोध कर उसको ही तथ्य और सही बना रहे और प्रगतिशील होने का भ्रम पाले हुए हैं|

इसीलिए युवाओं से अनुरोध है कि वे वर्तमान वैज्ञानिक एवं आर्थिक परिप्रेक्ष्य में सामाजिक, सांस्कृतिक एवं नैतिक मूल्यों की व्याख्या करे और नए मूल्यों को गढ़े भी| आपको ही इनसे सम्बन्धित सत्य को और उनके अर्थ को रचना होगा| समाज के पके हुए, थके हुए, बिके हुए और भ्रमित हुए लोगों से अब कोई उम्मीद मत कीजिए| इसीलिए आप युवाओं से अनुरोध  है कि आप भी सत्य का सृजन कीजिए, और नव भारत का निर्माण कीजिए|

 आचार्य प्रवर निरंजन जी

दार्शनिक, शिक्षक एवं लेखक

अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान, बिहटा, पटना, बिहार|

रविवार, 19 अक्टूबर 2025

मैं आदमी बनूँगा – साहित्य को ज़िंदा कीजिए

मैं सुबह सुबह टहलने के समय एक विद्यालय चला जाता हूँ। नन्हें मुन्ने बच्चों का विद्यालय – ‘बुद्ध इनोवेटिव माइण्ड स्कूल’। कुछ बच्चे घेर लेते हैं, जिनके लिए मै 'दादा सर' होता हूँ। मैं अक्सर उन बच्चों में  बड़े सपने बनाने, जगाने, और गढ़ने के लिए उनसे सवाल करता रहता हूँ कि तुम बड़ा होकर क्या बनोगे? उन सपनों को आकार देने, उन सपनों में रंग भरने और उन सपनों को जीवन्त बनाने के लिए उनके सपनों को कल्पना लोक में विचरण भी कराता रहता हूँ।

अल्बर्ट आईन्स्टीन ने कहा है कि जीवन में कल्पना ही सबसे महत्वपूर्ण है। कल्पना ही पहले विचार बनते हैं और फिर वास्तविकता भी। एक कार्यालय का एक कलर्क आईन्स्टीन खिड़की से बाहर उस पेंटर को देख रहा था, जो सामने दूर चर्च की बाहरी दीवारों की रंगाई पुताई कर रहा था। उसने कल्पना की कि यदि पेंटर वहाँ से गिरेगा, तो क्या होगा? यदि वह अन्तरिक्ष में गिरा, तो क्या होगा, अदि आदि। गणित में रुचि रखने वाला वह कार्यालय कलर्क इसी कल्पना को आगे बढाते हुए ‘सापेक्षिता का विशेष सिद्धांत' दिया और एक दशक बाद ‘सापेक्षिता का सामान्य सिद्धांत’ दिया। वह ‘कलर्क’ अल्बर्ट आईन्स्टीन के नाम से विश्व विख्यात वैज्ञानिक हुआ| कल्पना की शक्ति का उपयोग कर स्टीफन हाकिन्स ने ब्रह्माण्ड का रहस्य खोल दिया। बच्चों में कल्पना की शक्ति और समझ बढाना बहुत जरूरी है। भारतीय राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने अपनी पुस्तक “इग्नाइटेड माइण्ड” में यही सन्देश दिया है|

तुम क्या बनोगी? एक बच्ची ने बताया कि वह डाक्टर बनेगी। वाह, डाक्टर! तब तो मैं जब बीमार पड़ जाऊँगा, तब तो तुम मुझे सुई नहीं देकर सिर्फ पीने वाले दवाई ही दोगीहाँ, दादा सर, और आपके घर भी आ जाऊँगी आपको देखने। एक बच्चे ने बताया कि वह बड़ा होकर ‘बड़ा (समृद्ध) आदमी’ बनेगा। यह ‘बड़ा आदमी’ क्या होता है? दादा सर, बड़ा आदमी के पास बड़ा घर होता है, बड़ी गाड़ी होती है, बहुत पैसा होता है। वाह, मैंने कहा। तब तो मैं भी तुम्हारी गाड़ी में घूमूँगा। हाँ, दादा सर, एक सीट आपके लिए रहेगा। उसकी दीदी बोली कि उस (बडे़) घर में मेरे लिए एक कमरा भी होगा। इसी तरह के अनेक सवाल होते हैं और जबाब भी आते हैं। मेरा काम सिर्फ यह रहता है कि मैं उन बच्चों को यह बताऊँ कि वे बच्चे अपने सपनों की वास्तविक उड़ान कैसे भरेंगे?

एक दिन एक छोटा बच्चा – अंकुश, (गाँव मुसेपुर, बिहटा) मेरे पास आया| मैंने उससे पूछा कि तुम बड़ा होकर क्या बनोगे?

उसने बड़ी सरलता से, और बड़ी सहजता से, लेकिन बड़ी दृढता से जबाब दिया - मैं बड़ा होकर “आदमी” बनूँगा

 इसका जबाब तो एकबारगी साधारण लगा, पर मैं इस ‘असमान्य जबाब’ से ठिठक गया। वैसे ही, जैसे भारत के राष्ट्रपति अब्दुल कलाम साहब एक बार गुजरात के आनन्द के एक विद्यालय की एक  छात्रा स्नेहल ठक्कर के जबाब से ठिठक गए थे। उसने बच्चों से पूछा था कि ‘तुम्हारा सबसे बड़ा दुश्मन कौन है’? विविध जबाबों में एक जबाब ने उन्हें चौका दिया था।

छात्रा स्नेहल ठक्कर ने बताया कि 'गरीबी' ही हमारा सबसे बड़ा दुश्मन है। उनकी यह पुस्तक 'इग्नेटेड माइन्ड' उसी बच्ची को समर्पित है। ‘गरीबी’ के कारण ही आदमी ‘अज्ञानी’ रह जाता है, और उसके व्यक्तित्व का महत्तम विकास नहीं हो पाता है| वह अपने समाज और मानवता को अपनी क्षमता के अनुरुप नहीं दे पाता है||

अब, मेरे सामने सबसे बड़ा प्रश्न यह था कि ‘आदमी’ बनने का तरीका क्या होगा? क्या साहित्य ही एक ‘वनमानुष’ को ‘मानुष’, यानि ‘आदमी’ बनाता है? निश्चिततया ‘संवाद’ ने ही एक ‘पशु मानव’ (Animal Man) को ‘सामाजिक मानव’ (Social Man/ Homo Socius) बनाया, और फिर उसे ‘निर्माता मानव’ (Homo Faber) भी बनाया| इसी संवाद ने इसे आज ‘वैज्ञानिक मानव’ (Homo Scientific) भी बनाया| इसी ‘संवाद’ ने ही “साहित्य” को जन्म दिया और विकसित भी किया| सबका हित करना या समाज का हित करने वाला सामग्री ही 'साहित्य’ है|

लेकिन एक पशु को मानव होना ही पर्याप्त नहीं था, और है| उसे ‘आदमी’ बनना है| उसे सिर्फ एक मानव नहीं होना है, उसे ‘मानवता युक्त मानव’ होना है|

फिर साहित्य क्या है? और यह साहित्य एक ‘वन मानुस’ (वन में रहने वाला मानुस/ मानव) को ‘सभ्य एवं सुसंस्कृत मानव’, अर्थात ‘आदमी’ कैसे बनाएगा?

साहित्य मानव में सहानुभूति एवं समानुभूति जगाकर उसे संवेदनशील बनाता है| साहित्य के द्वारा हम एक दूसरे के प्रति के दुख, सुख, संघर्ष, प्रेम और अन्य भावनाओं को महसूस करने लगते हैं| साहित्य के नायक हमें उसी तरह बनने को प्रेरित करते हैं, और अनेक साहित्य इसीलिए ही रचे जाते हैं – वास्तविक एवं काल्पनिक| साहित्य में अनेक ऐसे पात्र हमें सत्य, न्याय, स्वतन्त्रता, समता, बंधुता, प्रेम, साहस, त्याग और करुणा के आदर्श प्रस्तुत करते हैं| इन साहित्यों के द्वारा व्यक्ति, परिवार एवं समाज में नैतिक मूल्यों को स्थापित करते हैं| समुचित साहित्य ही हमें तर्कशील, विवेकशील, मानवतावादी और वैज्ञानिक बनाता है| ‘सवाल खड़ा करना’ साहित्य का एक प्रमुख कार्य होना चाहिए| साहित्य ही सभ्यता और संस्कृति को मानवीय बनाता है| साहित्य ही आम-चिंतन, आत्म-अन्वेषण एवं आत्म-मूल्याङ्कन करना सिखाता है| साहित्य आत्म-भूमिका और आत्म-संतुलन का समन्वयन समझाता है|

संक्षेप में, साहित्य हमें जीवन जीने का कला और विज्ञान समझाता है, जीवन दर्शन को स्पष्ट करता है, मानव में मनुष्यता जगाता है, और मानव को ‘आदमी’ बनाता है|

इसीलिए, मानव को “आदमी” बनाने के लिए ‘साहित्य’ को ज़िंदा कीजिए|

 आचार्य प्रवर निरंजन जी

दार्शनिक, शिक्षक एवं लेखक

अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान, बिहटा, पटना, बिहार|

सोमवार, 13 अक्टूबर 2025

लोग पर्व और त्यौहार क्यों मनाते हैं ?

सभी सामान्य लोग, यानि सभी सामान्य जन गण सभी कालों में और सभी क्षेत्रों में पर्व और त्यौहार मनाते रहे हैं| इसे आप सामान्य परम्परा कह सकते हैं, और अकादमिक शब्दावली में संस्कृति का महत्वपूर्ण भाग कह सकते हैं| कुछ लोग इसे ढोंग, पाखण्ड, अनावश्यक कर्मकांड और अंधविश्वास भी मानते हैं| शायद ऐसे लोगों को पर्व और त्यौहार की मूल एवं मौलिक अवधारणा स्पष्ट नहीं होती है और इसीलिए इनसे सम्बन्धित अवैज्ञानिकता एवं इसके गलत होने का प्रमाण पत्र बाँटते रहते हैं| चूँकि ऐसे लोगों की इस सम्बन्ध में अवधारणा स्पष्ट नहीं होती, इसीलिए इनके उन्मूलन के लिए ऐसे लोगों के पास कोई कार्य योजना भी नहीं होती और इसीलिए ये सब उन्मूलित भी नहीं होती| चूँकि ऐसे लोगों को मनोविज्ञान की समझ नहीं होती, कोई दार्शनिक दृष्टि नहीं होती, इतिहास और संस्कृति की क्रियाविधि को नहीं जानते होते हैं, और वैज्ञानिकता की व्यावहारिकता का ज्ञान नहीं होता, इसीलिए ऐसे लोग सिर्फ यह कहते रहते हैं कि ये गलत है, वह गलत है| ऐसे लोग इन सभी में अर्थशास्त्र (धन की सार्थकता) ही खोजते रहते हैं| ये अपने को बौद्धिक समझ कर सुधार की व्यवहारिक विधियों की शायद कल्पना भी नहीं देख पाते| ऐसे लोग सिर्फ दूसरों में त्रुटियाँ ही देख पाते हैं|

दरअसल पर्व और त्यौहार मानव जीवन से जुड़ा हुआ एक विशेष अवसर होता है, जो जीवन में आनन्द देता है, लोगों में उत्साह भरता है, जीवन की नीरसता तथा एकाकीपन को मिटाता है और सामूहिकता का प्रतीक बनता है| इसमें आवधिकता (Periodocity) होती है, यानि यह एक निश्चित आवृति पर पुनरावृति करती रहती है| ये पर्व और त्यौहार व्यक्ति, परिवार, समाज, प्रकृति और संस्कृति में संतुलन भी बनाते हैं| पर्व का शाब्दिक अर्थ विशेष समय या अवसर होता है और त्यौहार (फारसी मूल का शब्द) या उत्सव का शाब्दिक अर्थ हर्ष एवं उल्लास का अवसर है| यह दोनों ही मानव जीवन में एक ही तरह के कार्य करता है, इसीलिए ये दोनों ही एक दूसरे के अब पर्यार्य बन गये हैं| अपनी शब्द उत्पत्ति के विशेष कारणों के बावजूद भी ये दोनों अपने कार्य रूप एवं भावना में एक समान ही हैं| इसे कोई संस्कृति की निरंतरता भी कहते हैं| यह सांस्कृतिक जड़ता के रुप में निरंतरता रखती है|

तो महती प्रश्न यह है कि पर्व और त्यौहार पर विवाद क्यों है? कुछ लोग किसी विशेष काल और क्षेत्र की संस्कृति की व्याख्या और प्रस्तुतीकरण इस तरह करते हैं, मानो कि वह संस्कृति वहाँ अकस्मात कहीं और तैयार हुई है और वहां लाकर रख दिया गया है| ऐसे लोग ‘सांस्कृतिक उद्विकास’ (Cultural Evolution) को नहीं समझते, यानि ‘सांस्कृतिक गत्यात्मकता’ (Cultural Dynamism) को नहीं जानते| कोई भी संस्कृति उस काल एवं उस क्षेत्र के ‘भूगोल’ और ‘इतिहास’ से बनती है और सदैव ही समय के साथ नए नए स्वरुप में अवतरित होती रहती है| चूँकि ‘ऐतिहासिक शक्तियाँ’ इतिहास बदलती रहती है, और ‘इतिहास का बोध’ (Perception of History) ही संस्कृति को आकार देती है, इसीलिए इतिहास और भूगोल बदलने से संस्कृति बदलती रहती है| चूँकि पर्व और त्यौहार भी संस्कृति ही है, संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, इसलिए इन पर्वों और त्योहारों को भी ऐतिहासिक शक्तियों के प्रभाव में बदलता रहना पड़ता है| आधुनिक युग में ‘बाजार की शक्तियों’ को भी ‘ऐतिहासिक शक्तियां’ ही मानी जाती है|

बुद्ध के, यानी बुद्धि के कुछ अनुयायी होने का दावा करने वाले लोग भी इन पर्वों एवं त्योहारों में बदलाव को नहीं समझते और उन्हें फिर से बुद्ध कालीन स्वरुप में ही पुनर्स्थापित करना चाहते हैं| ऐसे लोग ‘इतिहास की क्रियाविधि’ (Mechanics of History) को नहीं समझते, ‘संस्कृति की गत्यात्मकता’ को नहीं जानते, और बुद्ध काल में ही जड़ बने रहना चाहते हैं| ऐसे लोग अपने को तथागत बुद्ध के उपासक मानते हैं, और फिर भी बुद्ध के ‘अनित्यवाद’’ को नहीं समझते| बुद्ध अपने ‘अनित्यवाद’ में यह कहते हैं कि इस ब्रह्माण्ड में कुछ भी स्थायी और निश्चित नहीं है, सब कुछ समय के साथ अवश्य ही बदलता रहेगा| आपका दुःख भी बदलेगा और आपका सुख भी स्थायी नहीं रह सकता| निर्देशांक ज्यामिति (Coordinate Geometry) में तीन आयाम (x, y, z अक्षों) द्वारा किसी चीज का स्थान सुनिश्चित किया जा सकता है, लेकिन अल्बर्ट आइन्स्टीन के ‘द्वारा चौथे आयाम’ (Fourth Dimension) के रुप में ‘समय’ (Time) को स्थापित करने के बाद कोई भी चीज नित्य नहीं रह गया| हर चीज बदलने वाला स्थापित हो गया है| अभी तक चार ही आयाम सभी चीजों अनित्य बना देता है, वैसे गणितीय संगणनाओं में कुल ‘12 आयाम’ संभावित हैं| इसीलिए इन पर्वों और त्योहारों की प्रकृति और स्वभाव को स्थिर मानने या समझने की कोशिश भी पूरी मूर्खता ही है|

यदि हम कार्य प्रणालियों एवं कार्य क्षेत्रों के उद्विकास को समझना चाहे, अर्थव्यवस्था में सबसे पहले प्राथमिक ‘प्रक्षेत्र’ (Sector) ही आया| इसके बाद उद्विकास होते हुए समाज में द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ, एवं पंचम प्रक्षेत्र आया| बुद्ध स्वयं अर्थव्यवस्था के चौथे प्रक्षेत्र एवं पंचम प्रक्षेत्र में कार्यरत रहे| ‘ज्ञान का सृजन’ और ‘नीतियों या सिद्धांतों का सृजन’ क्रमश: चौथे प्रक्षेत्र एवं पंचम प्रक्षेत्र में आता है| ‘उद्विकास’ सृष्टि का नियम है, तब इन पर्वों और त्योहारों सहित संस्कृतियों का भी उद्विकास होता रहता है| इन्हें बदलना अनिवार्य परिणाम है| कोई इसे यदि ‘जड़’ (Fix) बनाना चाहता है, या फिर पुरानी अवस्था को ही पाना चाहता है, ऐसे लोगों को आप ही समझा सकते हैं|

संस्कृति समाज का साफ्टवेयर है, जो अदृश्य रहकर समाज को स्वत: संचालित करता रहता है| कार्ल जुंग ने इसी संस्कृति को ‘सामूहिक अचेतन’ (Collective Un Consciousness) कहा है, जिसके अनुसार समाज का सामूहिक प्रतिरुप (Pattern) को समाज के सदस्य गण स्वत: अनुपालित करते रहते हैं| डेनियल कुहनमैन ने अपनी पुस्तक ‘थिंकिंग फ़ास्ट एंड स्लो’ में इसे ही ‘सिस्टम एक’ बताया है, जो स्वत:स्फूर्त काम  करने वाला ‘अल्गोरिदम’ होता है| इसीलिए भी पर्वों और त्योहारों की निरंतरता बनी रहती है|

स्त्री और पुरुष अपने अस्तित्व के प्रारंभ से ही एक इकाई के रूप में जीवित और कार्यरत रहे हैं| पुरुष प्रारंभ से संग्राहक, आखेटक और पशुपालक के रुप में घर से बाहर रहा, लेकिन एक स्त्री गर्भ ठहरने से लेकर उत्पन्न संतति के देखभाल में लगी रही| स्त्रियों की पालने पोसने की इसी सहज स्वभाव ने कृषि की शुरुआत की और आवश्यक परिणति भी दी| स्त्री के इसी स्वभाव ने अर्थव्यवस्था के सभी प्रक्षेत्रों को आधार दिया| इसी कारण सभ्यता और संस्कृति की स्थापक स्त्री ही हुई| इसी स्वाभाविक प्रकृति के कारण ही स्त्रियाँ आज भी संस्कृति के संरक्षक और संवर्द्धक बनी हुई है। पर्वों और त्योहारों की निरन्तरता इन्ही स्त्रियों के कारण है, चाहे इसका जो स्वरुप बदलता रहे। पुरुष तो आजतक अपने जंगली स्वभाव से उबरने में ही लगा हुआ है|

इसीलिए पर्वों और त्योहारों की निरन्तरता बनी रहेगी| यदि इसे रोक दिया गया तो शायद मानव जीवन की तारतम्यता ही टूट जाए|अनावश्यक बौद्धिक मत बनिए, ठहरिए और इसे समझिये|

आचार्य प्रवर निरंजन जी

दार्शनिक, शिक्षक एवं लेखक

अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान, बिहटा, पटना, बिहार|

रविवार, 5 अक्टूबर 2025

संघ के 100 वर्ष और डॉ हेडगेवार ......

इस वर्ष यानि वर्ष 2025 के विजयादशमी को ‘संघ’ यानि ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ की स्थापना का शताब्दी समारोह मनाया जा रहा है| इसके संस्थापक डॉ केशव बलिराम हेडगेवार थे| इस तरह डॉ हेडगेवार इस विशाल संगठन के अधिष्ठाता (वैचारिक एवं सैद्धान्तिक आधारशिला रखने वाले) हुए, अर्थात इन्होने ही इस ‘संघ’ संगठन को ‘वैचारिक एवं दार्शनिक’ आधार  दिया| मैं अब एक ‘आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक’ दार्शनिक एवं शिक्षक हूँ, और इस नाते इस शताब्दी वर्ष में उस विशाल एवं गंभीर शख्सियत के व्यक्तित्व में झांकने का एक प्रयास कर रहा हूँ|  

चूँकि एक ही ‘तथ्य’ (Fact) के अनेक ‘सत्य’ (Truth) होते हैं, और ये सभी ‘सत्य’ अपने अपने स्थान, सन्दर्भ, पृष्ठभूमि एवं काल में ‘सही’ (Correct) होते हैं, इसीलिए कोई भी मेरे इस आलेख पर त्वरित ‘स्वत: प्रतिवर्ती क्रिया’ (Reflex Action) करने से पहले ठहर कर शान्त मन से अवलोकन करना चाहेंगे| एक ही ‘तथ्य’ के अनेक ‘सत्य’ इसलिए होते हैं, क्योंकि अवलोकनकर्ता व्यक्ति के चेतन (समझ) का स्तर और गुणवत्ता अलग अलग होता है| इस तरह वह हर व्यक्ति अपनी समझ के अनुसार सदैव ‘सही’ होता है, और इसीलिए उसका समझ ‘सत्य’ भी होता है|

किसी भी ‘तथ्य’, या ‘घटना’, या ‘आदर्श’, या ‘विचार’ को सही एवं सम्यक परिप्रेक्ष्य में समझने के लिए उसके ‘इतिहासवाद’ (Historicism) को समझना आवश्यक होता है| ‘इतिहासवाद’ के अनुसार सभी घटनाएँ अपने ऐतिहासिक परिवेश में एवं ऐतिहासिक शक्तियों के परिणामस्वरुप प्रतिफलित होते हैं| वैसे उस व्यक्तित्व को समझने के लिए यही काफी नहीं होगा| चूँकि मैं यहाँ डॉ हेडगेवार का इतिहास लिखना चाह रहा हूँ, इसलिए मुझे उनको इतिहास में ‘सामाजिक उद्विकास’’ (Social Evolution) के सिद्धांत, ‘सामूहिक अचेतन’ (Collective Un Consciousness) के सिद्धांत, ऐतिहासिक शक्तियां की क्रियाविधि (Mechanism), गैलेलियो का ‘जड़त्व’ (Inertia) तथा ‘सापेक्षिता’ (Relativity) सिद्धांत, अभिव्यक्ति का संरचनावाद (Structuralism), एवं अभिव्यक्ति का विखंडनवाद (Deconstructionism) आदि के नजरिए से देखना समझना प्रमुख होगा|

ये अपनी शैक्षणिक योग्यता आयुर्विज्ञान एवं चिकित्सा में स्नातक (M.B.B.S.) कलकत्ता के नेशनल मेडिकल कालेज से प्राप्त किए| अपने कलकत्ता शैक्षणिक प्रवास में वे क्रान्तिकारी राष्ट्रवादी ‘अनुशीलन समिति’ में सक्रिय भागीदारी दे रहे थे| ये कांग्रेस के सदस्य भी रहे| उसी समय कांग्रेस का खिलाफत आन्दोलन भी चला और कांग्रेस की इस भूमिका के कारण कांग्रेस से अलग हो गए| ये हिन्दू महासभा के अध्यक्ष भी रहे| वे श्री अरबिन्दो का ‘आध्यात्मिक’ सानिध्य भी प्राप्त किया और स्वामी विवेकानन्द के विचारों के काफी प्रभावित रहे| ये पश्चिमी दार्शनिक में इटली के ज्युसप मेजिनी, फ़्रांस के वाल्टेयर और जर्मनी के फ्रेडरिक नीत्शे के भी प्रशंसक थे| कोई भी सजग एवं सतर्क बौद्धिक अपने समकालीन सभी विशिष्ट क्रान्तिकारी दार्शनिकों एवं घटनाओं से प्रभावित रहता है| लेनिन की रुसी क्रान्ति इनके युवास्था की सबसे बड़ी वैचारिक क्रान्ति थी और एक अति पिछड़े हुए यूरोपीय राष्ट्र का नव निर्माण प्रारंभ हो रहा था| इनके जीवन का सबसे प्रेरक व्यक्ति इटली का एंटोनियो ग्राम्शी था, जो इनके समकालीन था| इन दोनों का जन्म और मृत्यु समय लगभग एक ही है| यदि कोई ‘संघ’ के वैचारिक अधिष्ठान के मूल्याङ्कन में इन घटनाओं की उपेक्षा करता है, या इनका ध्यान नहीं रखता है, तो स्पष्ट है कि वह मूल्याङ्कन मात्र सतही होगा|

नीत्शे ने घोषणा कि ईश्वर मर चुका है, और अब मनुष्य अतिमानव बनने के ‘स्वयं’ को तैयार रखे| इन्होने अपनी स्वतंत्रता और मूल्यों के निर्माण एवं पुनर्मूल्यांकन पर काफी जोर दिया| वाल्टेयर ने न्याय, समता, स्वतंत्रता एवं बन्धुता का समर्थन किया| मेजिनी का राष्ट्रवाद और इटली का एकीकरण प्रमुख प्रभावी विचार रहे| विवेकानन्द भारतीय समाज से जातिवाद, पाखण्ड एवं अत्यधिक कर्मकाण्ड को मिटाना चाहते थे| इन सभी के प्रभाव का योगदान इनके व्यक्तित्व मूल्याङ्कन में दिखना चाहिए|

एंटोनियो ग्राम्शी के वैचारिक दर्शनों में सबसे प्रमुख ‘सांस्कृतिक वर्चस्ववाद’ (Cultural Hegemony), ‘राजनीतिक समाज (Political Society) एवं नागरिक समाज’ (Civil Society), ‘राष्ट्रवाद’ एवं ‘बौद्धिकता के विकास के लिए शिक्षा’ रहा| एंटोनियो ग्राम्शी अपने समय का सबसे सशक्त क्रान्तिकारी दार्शनिक था, जिसने कार्ल मार्क्स के दर्शन को ख़ारिज करते हुए एक नयी व्याख्या दिया| इनका जीवन डॉ हेडगेवार के जीवन के सामानांतर रहा| डॉ हेडगेवार के दर्शन एवं कार्यान्वयन में ये संकल्पनाएँ प्रस्फुटित होता दिखता है| इन संकल्पनाओं को समझे बिना डॉ हेडगेवार का सम्यक इतिहास लिखना अधुरा है|

डॉ हेडगेवार के गुजर जाने के बाद चीन में माओ त्से तुंग आए और अपनी ‘महान सांस्कृतिक क्रान्ति’ के द्वारा एक अत्यन्त पिछड़े हुए राष्ट्र को वह आधार दिया, जिस पर आज का शक्तिशाली चीन खड़ा है| यह ग्राम्शी के ‘सांस्कृतिक वर्चस्ववाद’ के सिद्धांतों की समझ और कार्यान्वयन का परिणाम है| यही समझ डा हेडगेवार में भी थी| संभवत: इसीलिए वे ‘राजनीतिक समाज’ के लिए स्वतन्त्रता आन्दोलन के पक्षधर नहीं थे, और वे ‘नागरिक समाज’ के समावेशी पुनर्निर्माण चाहते थे| वे भारतीय समाज के सामाजिक सांस्कृतिक रूपांतरण के समर्थक थे| समाज में बौद्धिकता के समस्त विकास की आवश्यकता को समझते थे| यह ध्यान देने की बात है कि वर्ष 1925 में जिस ‘संघ’ की स्थापना हुई, उसमे सभी प्राथमिक सदस्यों की कुल संख्या मात्र 15 के लगभग थी और ये सभी 10 से 12 वर्ष के आयु समूह थे| क्या उन्हें युवा या प्रौढ़ उम्र के लोग नहीं मिल रहे थे, या वे समस्त नागरिक मूल्यों एवं संस्कारों के साथ बौद्धिकों का नव निर्माण कर नए ‘नागरिक समाज’ की नींव देना चाहते थे? यह समझने की बात है|

यह भी ध्यान देने की बात है कि ‘संघ’ की स्थापना के अगले ही वर्ष इस संघ का नामकरण ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ हो गया| आज विदेशों में ‘हिन्दू स्वयंसेवक संघ’ स्थापित है| क्या डॉ हेडगेवार ‘हिन्दू स्वयंसेवक संघ’ स्थापित नहीं कर सकते थे? राष्ट्रीय शब्द के लिए ‘राष्ट्र’ को समझना आवश्यक है| ‘राष्ट्र’ एक संस्कृति है, जो एक निश्चित भूगोल का ऐतिहासिक परिणाम होता है| विदेशों के अधिकतर छोटे देशों में ‘राष्ट्र-राज्य’ (Nation- State) की संकल्पना है, जबकि भारत जैसे बहु सांस्कृतिक देश में ‘राज्य –राष्ट्र’ (State Nation) की संकल्पना है|  भारत का एक निश्चित एवं सुरक्षित भूगोल रहा है और भारत के इस भूगोल का एक लम्बा इतिहास भी रहा है| इसीलिए भारत का राष्ट्र एक विविधता में एकता वाली संस्कृति (सामूहिक अचेतन) है|

‘हिन्दू’ शब्द अपनी उत्पत्ति से ‘भौगोलिक अर्थ रखता रहा, जिसका अर्थ ‘हिन्द स्थान’ या ‘हिन्दू स्थान’ (हिंदुस्तान) रहा है| बाद के समय में ‘हिन्दू’ एक सामाजिक और सांस्कृतिक संकल्पना बन गयी| आज यह ‘हिन्दू’ एक सम्प्रदाय (पन्थ) यानि धार्मिक स्वरुप में प्रचलित होता जा रहा है| यही भावार्थ इसे विवादास्पद बनाता है|

‘संघ’ के शताब्दी वर्ष में डॉ हेडगेवार के व्यक्तित्व मूल्याङ्कन के लिए मैंने अपनी समझ से सामग्री उपलब्ध कराया है, लेकिन उनका मूल्यांकन आपको अपने विवेक से करना है|

आचार्य प्रवर निरंजन जी

दार्शनिक, शिक्षक एवं लेखक

अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान, बिहटा, पटना, बिहार| 

सोमवार, 29 सितंबर 2025

भारतीयों को ‘स्वतंत्रता’ मिलने के साथ उनका ‘स्व’ उनसे दूर होता गया

यदि कोई भी सामान्य प्रबुद्ध ‘भारतीय स्वतन्त्रता’ और उसके ‘स्व’ को देखना समझना और इन दोनों के परस्पर संबंधों का एक आलोचनात्मक विश्लेषण करना चाहे, तो उन्हें यह स्पष्ट होगा कि “भारतीयों को ‘स्वतंत्रता’ मिलने के साथ उनका ‘स्व’ उनसे दूर होता गया|” अर्थात उन्होंने अपने ‘स्व’ पर ध्यान ही नहीं दिया, उस पर कोई वैचारिकी विमर्श ही नहीं किया और उसे उपेक्षित छोड़ दिया| ऐसा क्यों हुआ, कैसे हुआ एवं इससे भारतीय परिवार, समाज, ‘राष्ट्र’, मानवता और ‘भविष्य’ को क्या क्या क्षति हो रहा है? 

इसके लिए हमें इसके मूल तत्वों एवं मौलिक अवधारणाओं (संकल्पनाओं) को समझना चाहिए| मैंने उपरोक्त शीर्षक में ‘स्वतंत्रता’ (Liberty/ Freedom) एवं ‘स्व’ (Self) - दो शब्दों का उपयोग किया है| संभवत: हम सामान्य जन गण इन्हीं तत्वों एवं संकल्पनाओं को सामान्य एवं आलोचनात्मक दृष्टिकोण से नहीं समझते हैं, और इसीलिए हमारी सभी समस्यायों की ‘जड़’ भी इसी से सम्बन्धित यथार्थ है|

‘स्वतंत्रता’ एवं ‘स्व’ शब्द अपने सन्दर्भ (Reference) बदलने से, अपनी पृष्ठभूमि (Background) बदलने से, और अपने ढाँचा (Framework) तथा संरचना (Structure) बदलने से अपने अर्थ को कभी ‘सतही’ (Superficial) बना देते हैं, तो कभी उसके निहितार्थ’ (Implied) को ही बदल देते हैं, जबकि उसका ‘आशय’ (Essence) कुछ और भिन्न भी हो सकता है| भारतीय संविधान की उद्देशिका (Preamble) में अंग्रेजी में ‘Liberty’ लिखा गया है, जिसका शाब्दिक अर्थ किसी पूर्व के बंधन से ‘मुक्ति’ ज्यादा होता है, लेकिन उद्देशिका में ‘स्वतंत्रता’ लिखा गया है| इसी तरह भारतीय संविधान के भाग तीन के मूल अधिकारों में अंग्रेजी के ‘Freedom’ के लिए हिंदी में ‘स्वतन्त्रता’ लिखा गया है| यहाँ मैं ‘Liberty’ और ‘Freedom’ के विवाद में नहीं जा कर अपने को सिर्फ ‘स्वतन्त्रता’ तक ही सीमित रहता हूँ|

‘स्वतंत्रता’ एक ऐसा ‘तंत्र’ (System) देता है, जो उसके ‘स्व’ से कल्पित, निर्देशित, नियमित, निर्धारित, संचालित एवं प्रभावित होता है, या होता रहता है| कोई भी ‘तंत्र’ व्यक्तिगत हो सकता है, परवारिक हो सकता है, सामाजिक हो सकता है, सांस्कृतिक हो सकता है, राष्ट्रीय हो सकता है, वैश्विक हो सकता है, प्रशासनिक हो सकता है, राजनीतिक हो सकता है, आर्थिक हो सकता है, या ‘स्व’ को विकसित करने वाला हो सकता है, आदि आदि कुछ भी हो सकता है|

कोई भी एक ‘तंत्र’ को तो बहुत साधारण ढंग से समझ सकता है, लेकिन ‘स्व’ एक व्यापक, गहरा और विस्तृत संरचना का एक ‘गूढ़’ संकल्पना है| एक ‘स्व’ में एक व्यक्ति शामिल होता है, एक व्यक्तित्व शामिल होता है| ‘स्व’ का अस्तित्व ‘पदार्थ’ (Matter/ Particle) स्वरुप में भी होता है, ‘उर्जा’ (Energy) स्वरुप में भी होता है और ‘बल’ (Force) स्वरुप में भी होता है| ‘पदार्थ’ स्वरुप में व्यक्ति का शरीर (Body) और मस्तिष्क (Brain) होता है, ‘उर्जा’ स्वरुप में व्यक्ति का ‘मन’ (Mind) और ‘भावात्म’ (Spirit) होता है, एवं ‘बल’ स्वरुप में व्यक्ति का ‘आध्यात्मिक शक्ति’ (Spritual) से सम्बन्ध होता है| व्यक्ति के शरीर एवं मस्तिष्क को एक सामान्य आदमी अपनी सामान्य ज्ञानेन्द्रियों से देख, समझ एवं महसूस करता है, और यही शरीर एवं मस्तिष्क किसी भी व्यक्ति के सभी अस्तित्व का मूल एवं मौलिक आधार होता है|एक व्यक्ति का शरीर ही उसकी भौतकीय उपलब्धियों का साधन होता है।एक व्यक्ति का मस्तिष्क उसके शरीर, मन, भावात्म एवं अनन्त प्रज्ञा के लिए ‘अधिमिश्रक’(Modulator) होता है| व्यक्ति का ‘मन’ उसके ‘वैचारिकी’ (Thought) का उत्पादन एवं नियमन का तंत्र होता है| व्यक्ति का ‘भावात्म’ उसकी भावनाओं (Emotion) का उत्पादन एवं नियमन का तंत्र होता है| व्यक्ति का ‘अध्यात्म’ उस व्यक्ति के ‘स्व’ को, उसके ‘आत्म’ (स्व/ Self) को ‘अनन्त प्रज्ञा’ (Infinite Intelligence) से जोड़ता है, और उसे इससे बहुत से ‘आभासीय ज्ञान’ (Intuitive Intelligence) आते रहता हैं| इस ‘आभासीय ज्ञान’ से मानवता सदैव लाभान्वित हुआ है, और आगे भी लाभान्वित होता रहेगा| इस ‘स्व’ में एक व्यक्ति का हार्डवेयर और साफ्टवेयर, दोनों ही समाहित हो जाता है| अब हम अपने ‘स्व’ की संरचना समझ गये हैं और हमें इसी ‘स्व’ को विकसित एवं संवर्धित करना है|

यदि हमें व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र, मानवता या प्रकृति सहित भविष्य का निर्माण करना है, तो इसकी शुरुआत मात्र ‘स्व’ से ही हो सकता है, चाहे वह ‘स्व’ मेरा हो, या किसी और का| ‘स्व’ से ही ‘स्व विवेक’ होता है, ‘स्व तंत्र’ होता है, ‘स्व देशी’ होता है, ‘स्व चेतना’ होता है, ‘स्व बल’ यानि ‘आत्म बल’ होता है| मानव में ‘स्व’ की संकल्पना समय के विकसित होती रही है, और आगे भी जारी रहेगा, लेकिन इसके लिए सजग, सतर्क, सतत एवं सौद्देश्य प्रयास अपेक्षित होता है| 

इसी ‘स्व’ में एक व्यक्ति के भूतकाल का अनुभव एवं संस्मरण समाहित होता है, जिसे ‘संस्कृति’ कहा जाता है| इसी ‘स्व’ में समाज का ‘सामूहिक अवचेतन’ होता है| इसी ‘स्व’ में वर्तमान की भूमिका और भविष्य के लक्ष्य शामिल होते हैं| इसे ही ‘चेतना’, ‘आत्म’ या ‘व्यक्ति’ कहते हैं| इसी ‘स्व’ का विकास करना, संवर्धन करना हमारे जीवन का लक्ष्य है, उद्देश्य है| एक सामान्य पशु या स्तनपायी और एक सामान्य मानव में अन्तर इसी ‘स्व’ की मात्रा एवं गुणवत्ता के अन्तर से होता है| इसी ‘स्व’ को कोई उसका ‘चेतना’ या ‘आत्म’ या ‘व्यक्तित्व’ कहता है| ‘स्व’ के इसी स्तर एवं गुणवत्ता के कारण मानव जीवन में संवेदना, भावना, हर्ष या कष्ट के स्तर का अन्तर होता है|

यदि हम ‘विकास’ (Development) की वर्तमान एवं आधुनिक संकल्पना का ध्यान करते हैं, जिसे ‘संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम’ (UNDP) के साथ वैश्विक स्वीकार्यता मिली हुई है, वह संकल्पना भारत के प्रसिद्ध अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन की है और इसके लिए उन्हें 1998 में अर्थशास्त्र का नोबल पुरस्कार मिला है| इसने ‘विकास’ के लिए व्यक्ति के ‘सक्षमता उपागम’ (Capability Approach) के उन्नयन एवं संवर्धन की बात किया हैं| यह व्यक्ति के ‘स्व’ का ऐसा निर्माण कार्य है कि वह व्यक्ति वृहद् समाज को योगदान करने के लिए सक्षम बन सके| यह सक्षमता किसी व्यक्ति के ‘स्व’ के स्तर एवं गुणवता के उन्नयन एवं संवर्धन से ही आ सकता है|

अभी तक वैश्विक जगत में लगभग सभी अविकसित एवं लोकतान्त्रिक व्यवस्थाएँ लोगों के कल्याण एवं सेवा सहायता के नाम पर ‘धन’ का दान एवं अनुदान देकर उनकी ‘आय’ बढ़ा कर उनके विकास करने का नाटक करती रही है| इससे सामान्य जन का ‘स्व’ विकसित एवं संवर्धित नहीं होता है| इस ‘धन वितरण’ कार्यक्रमों से सरकारें अपने पक्ष में तो वोट बढ़ा सकती हैं, विकास का आभास दिला सकती है, लेकिन वास्तविक विकास एवं वास्तविक जन कल्याण नहीं कर सकती है| वास्तविक विकास, वास्तविक जन कल्याण एवं वास्तविक राष्ट्र निर्माण के लिए हमें सामान्य जन गण के ‘स्व’ के उत्पादन क्षमता का उन्नयन, विकास, और संवर्धन करना ही एकमात्र विकल्प है|

पता नहीं क्यों, भारतीय व्यवस्थाएँ भारतीय स्वतन्त्रता के बाद इस महत्वपूर्ण ’स्व’ के समुचित विकास एवं संवर्धन पर ध्यान ही नहीं दिया? यह तो एक तथ्य और सत्य है कि भारतीय स्वतन्त्रता के बाद इस पर अपेक्षित ध्यान नहीं दिया गया, और यही उपेक्षा सामान्य भारतीय जन गण की वर्तमान दशा एवं दिशा के साथ परिणाम है|

यदि हमें फिर से ‘विश्व गुरु’ बनना है, विश्व के मानवता को आलोकित और प्रकाशित करना है, तो हमें इस पर  गंभीरता से, गहनता से और गहराई से वैचारिकी विमर्श कर भारतीय जन गण के ‘स्व’ को विकसित एवं संवर्धित करना होगा|

आचार्य प्रवर निरंजन जी

दार्शनिक, शिक्षक एवं लेखक

अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान, बिहटा, पटना, बिहार|

सोमवार, 22 सितंबर 2025

समता नहीं, समरसता प्राकृतिक स्वभाव है

कुछ लोग ‘समता’, ‘स्वतंत्रता’ एवं ‘बंधुता’ को ‘प्राकृतिक न्याय’ के अवयवी तत्व समझते हैं, मानते हैं| इसमें भी अधिकांश या बहुसंख्यक लोग ‘समता’ (Equality) एवं ‘समानता’ (Equity) पर ही बहुत अधिक जोर देते हैं| समाज में ‘समरसता’ (Harmony) की कहीं कोई चर्चा ही नहीं होती है| ‘समरसता’ को ही ‘समस्वरता’ भी कहते हैं, ‘सामंजस्यता’ भी कहते हैं, ‘शांतिपूर्ण एवं माधुर्यपूर्ण सहअस्तित्व’ भी कहते हैं, और ‘समुचित एवं पर्याप्त तालमेल’ भी कहते हैं| यही हमारे अस्तित्व को, हमारे विकास यात्रा को और हमारे भविष्य को आधार देता है, यही हमारे वर्तमान और भविष्य का ‘लांचिंग पैड’ है| ऐसी स्थिति में हमें ‘समता’ एवं ‘समरसता’ को समझना चाहिए| इसके साथ ही हमें संवैधानिक प्रावधानों को भी देखना चाहिए|

भारतीय संविधान का सभी मूल उद्देश्य इसकी ‘उद्देशिका’ (Preamble) में वर्णित है| यही भारतीय संविधान का ‘आधारभूत ढाँचा’ (Basic Structure) है, जिसके पूर्ति के लिए ही सभी तंत्र एवं व्यवस्था कार्यरत हैं| भारतीय संविधान में ‘’समता’ (Equality) शब्द तो है, परन्तु ‘समरसता’ (Harmony) शब्द उल्लेखित नहीं है| तब सहज एवं साधारण प्रश्न यह उभरता है कि संविधान के उद्देशिका में या संविधान के अनुच्छेदों में इतना महत्वपूर्ण अवधारणा क्यों और कैसे छूट गया, या जानबूझ कर नहीं लिखा गया? आपने भी ध्यान दिया होगा कि संविधान के किसी भी अनुच्छेदों, अनेक भारतीय अधिनियमों की धाराओं, नियमावली के नियमों या आदेशों में ‘प्राकृतिक न्याय’ (Natural Justice) के मूल एवं मौलिक तत्वों की चर्चा नहीं होती है| यह ‘प्राकृतिक न्याय’ की अवधारणा अपने विस्तृत एवं गहन रुप में ‘विधि एवं न्याय के सभी दर्शन’ में सर्व व्याप्त होता है| अर्थात यह कहीं भी लिखित नहीं होते हुए भी सर्व व्याप्त और अधि प्रभावी होता है| यह ‘न्याय का दर्शन’ (Philosophy of Justice) सभी विधानों का सार तत्व होता है| इसके बिना किसी भी न्याय को समुचित एवं पर्याप्त नहीं माना जा सकता है| शायद इसी कारण एवं मौलिक अन्तर्निहित स्पष्ट उद्देश्य से यह शब्द “समरसता” भी संविधान में कहीं भी अभिव्यक्त नहीं है|

भारतीय संविधान की ‘उद्देशिका’ में ‘समता’ शब्द उल्लखित है, लेकिन यह साधारण एवं सामान्य ‘समता’ नहीं है| यह ‘समता’ अपनी दो विशिष्ट अवस्था के साथ है, अर्थात अपनी कुछ विशिष्टताओं के साथ है| यहाँ स्पष्ट लिखा हुआ है कि ‘प्रतिष्टा’ एवं ‘अवसर’ की समता’| अर्थात सभी को ‘प्रतिष्टा’ और ‘अवसर’ की समता’ सुनिश्चित किया गया है| इस बात से यह स्पष्ट होना चाहिए है कि ‘प्रतिष्टा’ और ‘अवसर’ की समता’ का आधार क्या है? इसका स्पष्ट उद्देश्य एवं सन्देश यह है कि प्रत्येक लोग को उनकी ‘योग्यता’ एवं ‘कुशलता’ के आधार पर ‘प्रतिष्ठा’ सुनिश्चित किया गया है| इसी तरह, उनकी ‘योग्यता’ एवं ‘कुशलता’ के आधार पर ‘अवसर’ की समता भी सुनिश्चित किया गया है| मतलब यह हुआ कि सभी को अपनी ‘योग्यता’ और ‘कुशलता’ को अपनी रुचि, क्षमता, एवं लगन के आधार पर विकसित करना है| लेकिन इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि कोई ‘विधि’ ही नहीं पढ़े और ‘समता के अधिकार’ के साथ न्यायिक अधिकारी बन जाय, या कोई चिकित्सा ही नहीं पढ़े और ‘समता के अधिकार’ के साथ चिकित्सक या चिकित्सा अधिकारी बन जाय| उसे अपेक्षित योग्यता और कुशलता हासिल करना ही करना होगा|

‘समरसता’ का अर्थ होता है कि सभी के बीच सामंजस्य हो, सहयोग हो, माधुर्य हो, और सभी अपनी क्षमता, योग्यता, कुशलता के साथ उस ‘योजना’ को सफल बनाएँ, जिसके वे तत्व हैं, अवयव हैं, घटक हैं| यह ‘योजना’ कोई भी ‘परियोजना’ हो सकता है, समाज हित का कोई ‘कार्य’ हो सकता है, राष्ट्र निर्माण का कोई ‘भावनात्मक कार्य’ हो सकता है, व्यापक मानवता के लाभार्थ कोई ‘वैचारिकी या कार्यान्वयन’ हो सकता है या किसी प्राकृतिक संरक्षण या संतुलन के लिए कोई विशद ‘आयोजना’ हो सकता है| सभी का उद्देश्य व्यापक मानवता के वर्तमान एवं भविष्य निर्माण की संकल्पना को साकार करना होता है|

यदि कोई चाहे कि एक यन्त्र या संयंत्र में सभी तत्व एक समान ही हो, यानि सभी एक जैसे समान ही हो, तो वह यन्त्र या संयंत्र कार्यरत हो ही नहीं सकता| यदि उसमे सभी लीवर ही हो, या सभी पुल्ली ही हो, तो वह यन्त्र या संयंत्र हो ही नहीं सकता है| यदि किसी कार में सभी यदि टायर ही हो, या सभी इंजन ही हो, या सिर्फ सीट ही हो, तो वह कार हो ही नहीं सकता| उस कार के सभी अवयवों, यथा इंजन, पहिया, सीट, गीयर आदि आदि में अवश्य ही कोई संयोजन हो, सामंजस्य हो, सहयोग हो और सभी अपनी क्षमता, योग्यता, कुशलता, एवं निश्चित दायित्वों का निर्वहन बिना किसी घर्षण के, बिना किसी बाधा के करे, तभी वह कार अपने उद्देश्य पूर्ति में सफल हो सकता है| यही स्थिति परिवार, समुदाय, समाज, राष्ट्र एवं मानवता सहित भविष्य निर्माण के लिए भी सही, समुचित एवं अनिवार्य है| यही समरसता है|

 मानव समाज में विविधता प्राकृतिक होती है और उसी में एकता, समरसता, सामंजस्य, एवं सहयोग भी आवश्यक है| मानव समाज में लिंग, प्रजाति, कार्य या पेशा, पोशाक, भोजन, रीति रिवाज, परम्परा, संस्कृति, धर्म, सम्प्रदाय, भाषा, क्षेत्र, इतिहास एवं भूगोल सहित जैवकीय ढाँचा एवं संरचनात्मक गठन के साथ  विविधता होती है| यह सब प्राकृतिक होता है और यह इतिहास एवं भूगोल के साथ ‘अनुकूलन’ (Adaptation) का ‘उदविकासीय (Evolutionary) परिणाम’ का उत्पाद होता है| यह ‘जीवितता’ (Survival) एवं ‘निरन्तरता’ (Contunuity) के लिए अनिवार्य तत्व है| यही विकास का आधार भी होता है|

इसीलिए ‘समता’ नहीं, बल्कि “समरसता” ही प्राकृतिक स्वभाव है, प्राकृतिक न्याय है, मानवता के समुचित एवं पर्याप्त विकास का वैज्ञानिक आधार है| इसे समझना है और इसे बनाए रखना है| यही निर्माण, रचना और अभिनवता (Innovation) की पृष्ठभूमि है|

आचार्य प्रवर निरंजन जी

दार्शनिक, शिक्षक एवं लेखक

अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान, बिहटा, पटना, बिहार|

 

सोमवार, 15 सितंबर 2025

भारत में राष्ट्र कहाँ हैं ...... ?

कुछ देशों में ‘राष्ट्र’ (Nation) किसी धर्म/ पन्थ में खोज लिया जाता है, तो कुछ देशों में राष्ट्र का आधार भाषा हो जाता है, कहीं भौगोलिक क्षेत्र भी आधार बन जाता है, आदि आदि ..। इसीलिए कुछ विद्वान राष्ट्र की अवधारणा (Concept) में, उसकी परिभाषा में और उसके आधार में इन्हीं तत्वों की जांच पडताल करता  हैं। लेकिन इन आधारों पर बहुत से बडे़ एवं प्रमुख देशों की राष्ट्रों की अवधारणा में समस्या आ जाती है। संयुक्त राज्य अमेरिका, भारत, जनवादी गणराज्य चीन, रूसी संघ, कनाडा, स्विट्ज़रलैंड, आदि अनेक देश इन अवधारणाओं में राष्ट्र की शर्तों में नहीं आता, लेकिन ये सभी सशक्त एवं समृद्ध राष्ट्र हैं| परन्तु इन आधारों पर भारत में राष्ट्र कहाँ है, यह एक बड़ा और गंभीर सवाल है?

‘राष्ट्र’ की अवधारणा को समझने के लिए एक ही अवधारणा काफी है, जिसे भूतपूर्व सोवियत संघ (वर्तमान रुसी संघ) के जोसेफ स्टालिन ने 1913 में अपनी लेख/ पुस्तक "Marxism and the National Question' में दिया । उनके अनुसार  "राष्ट्र एक ऐतिहासिक रूप से गठित, स्थायी मानव समुदाय है’। स्पष्ट है कि राष्ट्र लम्बे काल तक एक साथ रहने से उत्पन्न ‘ऐतिहासिक एकापन’ (Historical Oneness) की भावना है। इस तरह एक राष्ट्र भौतिक स्वरुप की कोई ठोस वस्तु नहीं है, अपितु यह एक ‘काल्पनिक वास्तविकता’ (Imaginary Reality) है, जो काल्पनिक होते हुए भी एक वास्तविकता होती है। ‘राष्ट्र’ को एक ‘संस्था’ (Institution, not an Institute) समझा जा सकता है| एक संस्था के रुप सभी सम्बन्धित लोग इनसे भावनात्मक लगाव रखते हैं| इसीलिए एक राष्ट्र काल्पनिक होते हुए भी असंख्य लोगों को बहुत मजबूती से अपने साथ को जोड़ लेता है और वास्तविक की तरह अपने परिणामों में प्रभावशाली होता है|

यह सही है कि एक राष्ट्र के लिए एक ‘साझा भाषा’ (Common language), एक ‘साझा भौगोलिक क्षेत्र’ (Common territory, एक ‘साझा आर्थिक जीवन’ (Common economic life) एवं एक ‘साझा सांस्कृतिक मनोवृत्ति’ (Common psychological make-up) जैसे तत्व महत्वपूर्ण हैं| ये सब एक राष्ट्र को सहज और सरल ढंग से मजबूत बनाता है, लेकिन ये सभी तत्व एकसाथ इनके लिए अनिवार्य नहीं हैं। इजराइल 1948 से पहले एक देश (Country) और एक राज्य (State, not Province) नहीं था, लेकिन एक ‘राष्ट्र’ के रुप में अपनी भावनात्मकता की वास्तविकता में बहुत सशक्त रही| इजरायल 1948 में एक देश भी बना और एक राष्ट्रीय राज्य भी बना। यह भी सही है कि ‘बाजार की शक्तियाँ’ यानि ‘आर्थिक शक्तियाँ’ ही इतिहास बदलता रहता है और इसीलिए इन्हें ‘ऐतिहासिक शक्तियाँ’ भी कहा जाता है। आज यही ‘बाजार की शक्तियाँ’ ही पूरे विश्व को एक नए किस्म के ‘राष्ट्र’ में बदल रहा है| स्पष्ट है कि एक राष्ट्र ‘एकापन’ (Oneness) की एक मानसिकता है, एक संस्कृति है, एक भावना है, एक अध्यात्म है।

जोसेफ स्टालिन द्वारा अवधारित राष्ट्र की अवधारणा (Concept)  ही यदि वैज्ञानिक, सही, पर्याप्त और समुचित है, तो भारतीय लोगो के लिए राष्ट्र (राष्ट्रीयता) की भावना उनकी जाति, धर्म, पन्थ, भाषा, क्षेत्र, आदि से गुंथी हुई है। यह अनुचित और गलत है| सामान्य भारतीय लोग अपनी भावनात्मक, आध्यात्मिक एवं ऐतिहासिक जुडाव अपनी जाति, सम्प्रदाय, पंथ, धर्म, भाषा, क्षेत्रीयता, एवं स्थानीय परम्परा से ज्यादा रखते हैं। सामान्य भारतीय इन्हें ही राष्ट्र समझते हैं और मानते हैं| इन सामान्य भारतीयों में हमारे बड़े बड़े राजनेता गण, उच्चस्थ नौकरशाही, विश्विद्यालयों के प्रोफ़ेसर, परम्परागत मीडिया एवं अन्य बुद्धिजीवी गण भी शामिल हैं| सामान्य भारतीयों में राष्ट्र (राष्ट्रीयता) की भावना को उभारने एवं उसे सशक्त करने के लिए कागजी प्रावधानों के अतिरिक्त वास्तविक रुप में सजग, सतर्क, सशक्त एवं सहज प्रयास व्यवस्था द्वारा किया जाना समझ में नहीं आता है| इसीलिए भारतीय संविधान सभा ने भारतीय संविधान की ‘उद्देशिका’ (Preamble) में ‘राष्ट्र की एकता एवं अखंडता’ की बात की है। इसमें देश, राज्य एवं प्रान्त की एकता एवं अखंडता की बात नहीं की गयी है।

भारत 1947 के पहले भी एक देश था और इसके बाद भी एक देश है। भारत 1947 के पहले भी एक राज्य नहीं था और उसके बाद ही एक सम्प्रभुता सम्पन्न राज्य बन सका| ऐसा इसलिए हुआ कि क्योंकि भारत में एक निश्चित भौगोलिक क्षेत्र, एक स्थिर निवासित आबादी और व्यवस्था के लिए एक (ब्रिटिश) सरकार तो था, लेकिन सम्प्रभुता नहीं होने से राज्य नहीं था। भारत के ब्रिटिश काल में राष्ट्र की भावना उभरने लगी और तब भारत एक राष्ट्र बनने की ओर अग्रसर हुआ। इसीलिए भारतीय संविधान सभा को संविधान में अपने ‘उद्देश्य’ को ‘उद्देशिका’ में स्पष्ट करना पड़ा| लेकिन इसकी सफलता की मात्रा का मूल्यांकन आप कर सकते हैं।

भारत में ‘राष्ट्र की संस्कृति’ (Nation- Culture) ही नहीं है| प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक कार्ल जुंग की अवधारणा में, भारत का ‘सामूहिक अवचेतन’ (Collective Un Consciousness) में राष्ट्र है नहीं| यदि प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक और अर्थशास्त्र के नोबल पुरस्कार विजेता डेनियल कुहनमैंन (Thinking Fast and Slow के लेखक) के शब्दावली में भारतीय लोगों के ‘सिस्टम एक’ (System One) में राष्ट्र की अवधारणा नहीं है|

अब आप ही बताइए कि भारत में राष्ट्र को कहाँ खोजूं? 

आचार्य प्रवर निरंजन जी

दार्शनिक, शिक्षक एवं लेखक

अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान, बिहटा, पटना, बिहार|

सत्य भी गलत क्यों होता है

एक ही ‘तथ्य’ (Fact) के अनेक ‘सत्य’ (Truth) होते हैं| इसीलिए एक सामान्य जन गण यह समझ नहीं पाता है कि वह किसको ‘सही’ (Correct) मानकर आगे बढे? ...