आज यह बहुत बड़ा
और अहम् सवाल है कि "कट्टरता" क्यों आती है, या 'कट्टरता' को क्यों लानी पड़ती है? कट्टरता क्यों बरकरार रहती
है, या इसकी निरंतरता की किसी को आवश्यकता क्यों होती है? क्या हम अपनी और दूसरों की भी
कट्टरता समाप्त करना चाहते हैं या सिर्फ दूसरों की ही कट्टरता समाप्त करना चाहते हैं? क्या कट्टरता इसलिए टिका हुआ है कि हमारे कुछ शिखर
व्यक्तियों एवं कुछ वर्ग आधारित समाजों के सम्मान का अस्तित्व भी इसी पर वजूद में है?
हालाँकि यह विषय अतिसंवेदनशील है, लेकिन यह हमारे भविष्य के लिए बहुत गंभीर भी है|
हमने ‘वृहतर भारत’ (Greater India) को पहले
ही कई कई खण्डों में बाँट लिया हैं| और यदि हम बंटना
अपना स्वभाव/ आदत ही बना लें, तो भारत की इस पुरातन एवं विविध संस्कृति वाले समाज
में बंटने के लिए कई आधार पहले से ही उपलब्ध होते है| वैसे बंटने के
लिए आधार के रूप में पंथ एवं सम्प्रदाय के आलावा ‘जाति’ या जाति- समूह प्रमुख है, लेकिन
भाषा, क्षेत्र, तथाकथित आर्थिक विषमता, एवं शोषण का आधार भी आवश्यकतानुसार बना लिए जा सकते
हैं| वैसे यह भी महत्वपूर्ण है कि हमारे दुश्मन शक्तियां इसी के इन्तजार में भी
रहती हैं| तो अब हमलोग मुख्य मुद्दे पर चलते हैं|
वैज्ञानिक दार्शनिक जन समझाते हैं कि समाज के जिस वर्ग का बाजार के साधनों एवं शक्तियों पर
नियंत्रण होता है, यानि जिस सामाजिक वर्ग का आर्थिक उत्पादन, वितरण, विनिमय एवं
उपभोग के साधन एवं शक्तियों पर प्रभावी नियंत्रण होता है, उसी वर्ग का नियंत्रण एवं नियमन उस समाज की बौद्धिकता
(मानसिकता) के भी उत्पादन, वितरण, विनिमय एवं उपभोग पर भी होता है| ऐसे
प्रभावी नियंत्रण तंत्र में हमारी बौद्धिकता (मानसिकता) के उत्पादन, वितरण, एवं विनिमय
में आपकी हमारी भूमिका कहाँ है और यह कैसे कार्य करती है? इसे भी ठहर कर हमें
सोचना होगा|
हमारा मौलिक अस्तित्व ही भौतिक (Material) है, भले ही हम उर्जा (Energy), समय (Time) एवं आकाश (Space) से भी संचालित, नियमित एवं प्रभावित होते हों| हमारा शरीर (Body) ही भौतिक वस्तु है, हमारा मस्तिष्क यानि दिमाग (Brain) भी भौतिक वस्तु है| हमारा मन (Mind) कहाँ निवास करता है और कैसे काम करता है? यह अभी तक वैज्ञानिकों को अज्ञात तो हैं, लेकिन मन का अस्तित्व हमारे शरीर से ही है और हमारे शरीर के अस्तित्व तक ही यह मन सीमित भी है| कुछ विद्वान् ‘मन’ को ही ‘चेतना’ (Consciousness) या ‘आत्म’ (Self) (यह आत्मा – Soul से अलग अवधारणा है) भी कहते हैं| इसीलिए हमें स्वयं, समाज, मानवता, दर्शन और अन्य विज्ञान को भी “भौतिकवाद” से ही व्याख्यापित करना हमारी अनिवार्यता हो जाती है| लेकिन यह “भौतिकवाद” भी आधुनिक विज्ञान पर आधारित होना चाहिए| इसीलिए यह “वैज्ञानिक भौतिकवाद” हमें वैज्ञानिक विश्वदृष्टिकोण देता है|
लेकिन “वैज्ञानिक
भौतिकवाद” (Scientific Materialiasm) शोषक वर्ग का एवं शोषक शासक सत्ता की
व्यवस्था, तंत्र और उसकी क्रियाविधि का पोल खोल देता है, और इसीलिए ऐसे शोषक वर्ग इस “वैज्ञानिक भौतिकवाद” को पसंद नहीं
करते हैं| सांप्रदायिक आस्थाएँ, विश्वास, पौराणिक कथाएँ आदि इस
“वैज्ञानिक भौतिकवाद” के मामूली गर्मी से ही पिघलने लगता है, यानि समाप्त हो जाता
है| इसीलिए व्यक्तिगत धार्मिक एवं सांप्रदायिक
‘आस्थाओं’, ‘विश्वासों’, ‘मूल्यों’, एवं ‘परम्पराओं’ का ‘बाजारीकरण’ (Marketisation)
करना पड़ता है| इन व्यक्तिगत धार्मिक एवं सांप्रदायिक ‘आस्थाओं’,
‘विश्वासों’, ‘मूल्यों’, एवं ‘परम्पराओं’ को इस तरह प्रदर्शित करना पड़ता है, ताकि
इस पर आधारित आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक लाभ लिया जा सके| इस ‘प्रदर्शन’
को शायद ‘कट्टरता’ के दृष्टिकोण से भी देखने
समझने की आवश्यकता हो सकती है| इसीलिए शोषक शासक वर्ग “वैज्ञानिक भौतिकवाद” की
क्रियाविधि से, यानि इस पर आधारित व्याख्या से डरता है| इसी कारण शोषक वर्ग ‘नित्यवाद’ का समर्थन करता है – इस जन्म
में सब कुछ नित्य है, निश्चित है, अचल है, स्थिर है और कुछ भी नहीं बदला जा सकता
है| ‘नित्यवाद’ (नित्य = अचल/ स्थिर) के विरोध में ही ‘अनित्यवाद’
है, जिसके अनुसार सभी कुछ गतिशील है| अर्थात कुछ
भी नित्य यानि अचल /अस्थिर नहीं है, यानि सब कुछ गत्यात्मक अवस्था में है और
इसीलिए बदलता रहता है| अत: आपका भविष्य भी अभी बदल सकता है| अनित्यवाद
कट्टरता का खंडन करता है|
भारत के
लोकतांत्रिक सरकार के इतिहास में पहली बार सन 1937 में प्रांतीय सरकारे बनी थी| वैसे भारत की आजादी को
कुछ विद्वान् साम्राज्यवाद के बदलते हुए स्वरुप एवं साम्राज्यवादियों के आपसी संघर्ष
का अनिवार्य परिणाम बताते हैं| द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद विश्व पटल पर कई देश
स्वतंत्र हुए है, सिर्फ भारत ही स्वतंत्र नहीं हुआ| इस पृथ्वी पर साम्राज्यवाद एवं उपनिवेशवाद के
इस औद्योगिक स्वरुप के विस्तार के लिए भूमि का विस्तार नहीं किया जा सकता था, इसीलिए ‘औद्योगिक
साम्राज्यवाद’ (Industrial Imperialism) अपने नए स्वरुप ‘वित्तीय साम्राज्यवाद’ (Financial Imperialism)
में बदल गया और सभी उपनिवेश देशों को भौतिक (राजनीतिक) स्वतन्त्रता मिलने लगी|
लेकिन इस प्रांतीय लोकतांत्रिक चुनाव में पंजाब,
बंगाल, सिंध एवं असम प्रान्त में क्रांतिकारियों की सरकार बन गयी, जो शायद मुख्य
धारा के नेताओं के भविष्य के लिए खतरे की घंटी थी| किन्ही शक्तियों
ने इन ‘क्रन्तिकारी विचारों के उभार’ को ‘साम्प्रदायिक कट्टरता’ के विचारों’ में बदलने
को बाध्य कर दिया| यह 'उभार' यथास्थितिवादी शक्तियों के भविष्य के लिए खतरा
इसलिए था, क्योंकि यह माना जाता है कि ‘क्रान्तिकारी विचार एवं आदर्श कल पूरे
राष्ट्र के लिए कैंसर की बिमारी की तरह फैलने वाली थी, इसिलिए ही इन तथाकथित ‘रोगग्रस्त’
क्षेत्रों को मुख्य भारत से अलग ही करने की अनिवार्यता हो गयी| इन प्रान्तीय सरकार के बनने के अगले एक दशक में
“कट्टरता” इस कदर बढ़ गयी कि इस ‘साम्प्रदायिक
कट्टरता’ के आधार पर भारत ही खंडित हो गया| ठहर
कर विचार करें|
आजकल भारत में कट्टरता का मूख्य आधार साम्प्रदायिकता और जातीयता होता जा रहा है| इस ‘साम्प्रदायिक कट्टरता’ के लिए इतिहास भी बदले जा रहे हैं और ‘जातीय कट्टरता’ के लिए ‘गौरवशाली जातीय इतिहास’ भी लिखे जा रहे हैं| यह सब ऐसे रचित किए जा रहे हैं, मानो ये साम्प्रदायिक एवं जातीय समूह का आगमन या उद्भव समाज के उद्विकास (Evolution) से नहीं होकर, किसी दैवीय आधार से ही जनित हुआ है, ध्यान दें|
इसी साम्प्रदायिक
और जातीय आधार पर ‘सामाजिक पूंजी’ (Social Capital) भी तैयार किए जा रहे हैं|इसी ‘सामाजिक पूंजी’ के निर्माण एवं उपयोग के
मुहिम में बड़े बड़े पदधारी (जिनमे राजनीतिक एवं प्रशासनिक शीर्ष भी शामिल हैं),
पूंजीधारी (उद्यमी) और सांस्कृतिक मठाधीश भी शामिल हैं| इसी पर आधारित सभी प्रकार रहभ के लिए
साम्प्रदायिक फसलें भी बोयी जा रही है| डिजिटल मीडिया के प्लेटफार्म पर फर्जी
नामों से भड़काऊ समाचारों का उत्पादन एवं प्रसारण किया जा रहा है, और शासन भी इस पर
पूरी तरह से अंकुश लगाने में अभी तक सफल नहीं हो पा रहा है| इस खेल में ‘विरोधी लोग अपने विरोधी साम्प्रदायिक
समूहों की वेशभूषा एवं भाषा का भौतिक रूप अपना कर भी खूब दुरुपयोग किए जाने के समाचार आ
रहे हैं, जिनका खुलासा तत्पर सामाजिक एवं प्रशासनिक करवाई में सामने आ जा रहा है|
अब तो कट्टरता के उत्पादन एवं प्रसारण में ‘कृत्रिम बुद्धिमता’ (AI) का भी खूब
दुरूपयोग किया जाने लगा| इतना ही नहीं, इन साम्प्रदायिक कट्टरता के नेतृत्व को भी
व्यावहारिक रूप से सम्मानित किया जाता है| देश का प्रबुद्ध नेतृत्व देश और समाज को
कहाँ ले जाना चाहता है, वही जाने|
कट्टरता के
समापन के लिए शिक्षा
और विमर्श में ‘आलोचनात्मक चिंतन’ की अनिवार्यता होती है और यह ‘आलोचनात्मक
विश्लेषण एवं मूल्याङ्कन’ से आता है| लेकिन भारत में तो शिक्षा के स्तर और गुणवत्ता की कौन कहें,
यहाँ तो साक्षरता ही ढंग से नहीं आई है| व्यवस्था भी दूसरों की कट्टरता नहीं मिटाना
चाहता, क्योंकि हमारी भी कट्टरता भी उसी अशिक्षा एवं संकीर्णता पर आधारित है| कट्टरता के लिए
दोनों या सभी पक्षों की अशिक्षा एवं संकीर्णता
ही उर्वरक का काम करती है| शायद इसीलिए सभी पक्षों में कट्टरता को बरक़रार रखने की
अनिवार्यता होती है|
कुछ बौद्धिक विमर्श यदि
इस ‘आलोचनात्मक विश्लेषण एवं मूल्याङ्कन’ दिशा की ओर बढना चाहती है, तो वर्तमान में समाज की बौद्धिकता (मानसिकता) के भी उत्पादन,
वितरण, विनिमय एवं उपभोग की शक्तियां अपने प्रभाव में इस ‘आलोचनात्मक विश्लेषण एवं मूल्याङ्कन’ को ही "बेकार के
विमर्श" में बदलने का सफल पराक्रम करता है| तब हमारा बौद्धिक वर्ग तथाकथित सतही मुद्दों
तक अपने को समेट कर अपनी बौद्धिकता का शिखर प्रदर्शन करता रहता है|
यदि समाज की बौद्धिकता (मानसिकता) के भी उत्पादन, वितरण, विनिमय एवं उपभोग की शक्तियां अपने प्रभाव में ‘कट्टरता’ के विरुद्ध और “एक भारत, श्रेष्ट भारत’ के समर्थन में पूरे मनोयोग से खड़ा हो जाय, तो यह कट्टरता तुरंत समाप्त हो सकता है|
वैसे आप भी चिंतन करें, और इस विमर्श को दिशा दें|
आचार्य प्रवर निरंजन